तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा / भाग 12 / सपना सिंह
समय तो अपनी गति से चलता ही है ... बीतता भी है। अप्पी अपने रिसर्च वर्क में व्यस्त थी। विभाग में उसे एडहाॅक पर नियुक्ति भी मिल गई थी। अभिनव ... कभी इलाहाबाद कभी दिल्ली चला जाता महीने दो महीने के लिए। वह सिविल सर्विसेज की तैयारी में लगा हुआ था। अप्पी के पापा उसके लिए लड़का तलाश रहे थे ... पर बात कहीं भी नहीं बन रही थी। अप्पी के परिवार में रिश्तेदारी में लड़कियाँ एक-एक कर ब्याही जा रही थीं ... पर, अप्पी का रिश्ता कहीं पक्का नहीं होता। मम्मी का तो चिंता से बुरा हाल । कहीं अप्पी का हद से ज़्यादा दुबलापन रिजेक्शन का कारण बनता ... कहीं दूध जैसी गोरी लड़की की ... ख्वाहिश होती! अप्पी ने कभी सोचा न था ... कभी उसे भी इन सब कवायदों से गुजरना होगा ... पर ये सब चल ही रहा था ... अप्पी इसे रोक भी नहीं सकती थी। विवाह उसे करना था ... बच्चे भी पैदा करने थे और बड़ी ही सुखी गृहस्थी भी बनानी थी ... उसने बचपन में खूब गुड़डे गुडिय़ों का खेल खेला था, उनके ब्याह रचाये थे, छोटे-छोटे फर्नीचरों से उनका घर सजाया था। उसका गुड़हा समय से आॅफिस जाता था। शाम को घर आता था ... गुड़िया सारे दिन घर में रहकर खाना पकाती थी, कपड़े धोती थी... फर्नीचरों की झाड़ पोंछ करती थी और पड़ोसियों से गप्पे मारती थी। उसकी गुड़िया कि पड़ोसिने उसकी बहन और सखियों की गुड़ियायें होती थीं। अप्पी ने ऐसा ही देखा था अपने आस-पास के सभी घरों में ... उसके अपने घर में भी जीवन ऐसा ही था। कभी-कभी पापा को मम्मी पर बेवजह गुस्सा होते भी देखा था। अप्पी को उस समय पापा पर बड़ा गुस्सा आता ... और मम्मी की चुप्पी पर तो और ज्यादा। वह अक्सर सोचती वह कभी मम्मी की तरह नहीं बनेगी ... कभी बेवजह का गुस्सा नहीं सहेगी।
इन दिनों अप्पी छिटपुट लिखने लगी ... थी, कुछ पत्रिकायें उसकी रचनायें छापने लगी थीं ... ओर इन पत्रिकाओं के माध्यम से ही उसे थोड़ी पहचान भी मिलने लगी थी। सुविज्ञ से कभी कभार फोन पर बात होती।
रिसर्च के लिए मैटर लेने उसे लखनऊ विश्वविद्यालय में जाना था। तीन चार दिन का काम था। नीरू लखनऊ ही थी ... उसी के यहाॅँ रूकना तय था। अप्पी ने सुविज्ञ को भी खबर कर दी थी अपने आने की ... ये भी कहा था कि वह लाइब्रेरी में फंला से फंला बजे तक रहेगी ... अगर चाहे तो अपनी शक्ल दिखा सकते हैं । सुविज्ञ ने उसकी आवाज की तल्खी महसूस की थी
अप्पी ने सोचा था सुविज्ञ को समय नहीं मिलेगा तो वह ही किसी समय हाॅस्पिटल चली जायेगी।
सुविज्ञ पहले ही दिन यूनिवर्सिटी आ गये थे ... उससे पहले ही। अप्पी ने आॅटो से उतरते ही उन्हें देखा लिया था ... अपनी सफेद मारूति से टिके वे खड़े थे।
वह हुलस कर दौड़ पड़ी थी उनकी ओर ... उन्होंने उसका हाथ पकड़ गहरी नजरों से उसे देखा था ...
"कैसी हो जान ...?"
आप आ गये ... हमें तो लगा था व्यस्त होंगे।
"तुम्हारें लिए ... कभी भी ।" सुविज्ञ ने ... कहा था। अप्पी को अजीब लग रहा था... उसे इस सब की आदत नहीं थी ... या ये कहो सुविज्ञ से उसे अपने लिए ऐसे कंसर्न की अपेक्षा नहीं थी ... आओ बैठो। " सुविज्ञ ने कार में बैठते हुए कहा था।
अरे, हमें लाइब्रेरी जाना है।
"भाड़ में झोंको ये पढ़ना वढ़ना ... बैठो ।"
"कहाँ जा रहे हैं..." अप्पी ने बैठते हुए पूछा था।
" अप्पी कुछ देर तुम्हारे साथ रहना चाहता हूँ...
... सिर्फ़ मैं और तुम ... होटल ...? " सुविज्ञ ने उसका दाया हाथ अपने हाथ में लिए-लिए कहा था ... अप्पी सिहर गई थी...
होटल के नाम पर-पर उसके बदन में झुरझुरी दौड़ गयी ... सारी बोल्डनेस हवा हो गई... ।
"क्यों... मुझपर भरोसा नहीं है ..." सुविज्ञ ने उसकी दुविधा भाप ली थी और उनकी आवाज़ शरारती हो उठी थी।
"खुद पर नहीं है ।" अप्पी ने सपाट स्वर में कहा था।
"अच्छा मौका है ... तुम आजमा सकती हो ... मुझे भी और अपने आपको भी ..."
"मैं ऐसी किसी आजमाईश में नहीं पड़ना चाहती ।"
अच्छा भाई ... चलो तो। "
"... अब कहाॅँ चलेंगे..."
"ज़रूरी है क्या कि चला गया है तो कहीं पहुँचा ही जाए ... सफ़र का मजा भी बड़ी चीज़ है ... जान।"
"बाप रे, आप तो शायर हुए जा रहे हैं ...ये गज़ब कब हुआ ।"
सब आप की इनायत है। "
फिर सुविज्ञ ने अप्पी को हजरतगंज में काॅफी पिलाई ... उसे दौरान दोनों चुप ही रहे एक दूसरे को देखते हुए ...
सुविज्ञ ने पूछ ही लिया ऐसे क्या देख रही हो ...? "
आपको । जी ही नहीं भरता मेरा ... आपको देखकर ... जी चाहता है आॅँखें खूब चैड़ी कर-कर आपको देखूं ..."
"तुम पागल हो।"
"वो तो हॅूँ"
उस दिन शाम को अप्पी जब लाइब्रेरी से लौटी तो काफी थकी थी ... नीरू ने चहक कर बताया था... "सुरेखा भाभी का फोन आया था... कल तुलिका का जन्मदिन है ... इन्वाइट किया है।"
"ठीक है, आप लोग चले जायेगा मैं कल अपनी किसी फे्रंड के घर हो जाउगीं।"
" अरे भाई ... तुम भी इन्वाइट हो ...
...मैनें जब उन्हें बताया कि तुम आई हो ... तो उन्होंने तुम्हें भी साथ लाने को कहा । "
"अच्छा। उन्होंने कहा और मैं चल दूंगी... आप भी।" अप्पी ने कहा... मन में ये बात भी आई कि सुविज्ञ ने तो उससे इस बारे में कुछ भी नहीं कहा ... वह भी तो उसे बता सकते थे... इन्वाइट भले न करते पर, बता तो देते ।
अप्पी को किताबे वापस करनी थी तो वह अपने नोट्स लेने में जुट गयी।
"अप्पी... ।" नीरू दीदी की आवाज़ पर उसने किताब से सर उठाये बिना ही "हॅूँ...कहा था" आओ... भाभी का फोन है ... तुमसे बात करना चाहती है। "
"मुझसे ...?" अप्पी का दिल जाने क्यों धड़क उठा... उसने आकर फोन कान से लगाया। उधर सुरेखा थी।
"आपको भी आना है... कल ज़रूर आइयेगा।" सुरेखा कहा रही थी, "मैने नीरू जी से कहा था ... सोचाा आपको स्पेशली कह दूॅँ..."
अप्पी संकोच में पड़ गई इस एलीट शिष्टाचार की वह आदी नहीं थी।
"देखिए फुरसत हो जाउंगी तो ज़रूर आंउगी।"
अप्पी जब दीदी जीजाजी के साथ सुविज्ञ के यहाॅँ पहॅुँची... तो भीतर...ही... भीतर उसे अजीब-सा लग रहा था ... लोग अभी नहीं आये थे ... सुविज्ञ भी नज़र नहीं
... आ रहे थे। नीरू भाभी के साथ लग गई ... जीजाजी टी.वी. देखने में व्यस्त हो गये। सेटेलाइट्स के जरिये कुछ विदेशी चैनल भी खूब देखे जा रहे थे ... लोगों में इधर ये एक नया क्रेज बनकर उभरा था।
सुरेखा ने अप्पी को प्रशंसात्मक नज़र से देखा था। अप्पी ने आॅफ वाइट साड़ी पहनी थी जिसका बार्डर और पल्लू रायल ब्लू थे। स्टैड काॅलर का थ्री-स्लीव का ब्लाउज उस पर खूब फब रहा था। बालों को बायीं ओर मांग काढ़ कर दायें कान को हल्का-सा ढ़ककर बनाया गया जूड़ा, कानों में मोती के बुंदे ... और हाथ में मोती की चूड़ियाँ... उसे एक एलीगेन्ट लुक दे रहे थे।
अप्पी कुछ देर तुलिका के साथ खेलती रही पर बच्ची अप्पी की गोद में आते ही सो गई। सुरेखा खुश हो गई ... अरे, मैं कबसे इसे सुलाने की कोशिश कर रही थी ... अच्छा हुआ सो गई ... एक दो घंटे बाद उठांगी ... पार्टी में फे्रश रहेगी। "
अप्पी बाहर लाॅन में आ गई... अच्छा खासा बड़ा लाॅन था ... ढेरों गमले... तरह-तरह के पौधे, लतायें, फूल ... और इस दिसम्बर के महीने में भी खूबसूरत स्वस्थ गुलाब। वह तो इतनी मेहनत करती है... फिर भी उसके गुलाब इतने सुन्दर नहीं आते। माली काम कर रहा था, जाकर वहीं खड़ी हो गई ... और खाद... कटिंग ... के बारे में पूछने लगी... कौन-सी दवा डालते हैं ... कीड़े न लगें इसके लिए ... वह इतनी तन्मय थी कि कब सुविज्ञ की कार आयी ... कब वह अंदर गये ... उसे पता ही न चला । सुविज्ञ थके थे ... उनकी नज़र अप्पी पर गई थी ... पर वह सीधे ऊपर अपने कमरे में चले गये... सुरेखा से कहकर कि चाय ऊपर कमरे में भिजवा दो ... कुछ देर आराम करूॅँगा ... अभी तो मेहमानों के आने में समय है।
फ्रेश होकर चाय की प्याली लेकर वह बाॅलकनी में आकर बैठ गये थे ... यहाॅँ से अप्पी नज़र आ रही थी ... अपनी सिल्क साड़ी को समेट वह क्यारी के पास ही उकडू बैठी थी ... माली से यूँ बतियाती हुई मानों जमाने से उसे जानती हो। चाय खत्म हो गयी थी... वह भीतर आ गये ... मन था कमरे में अँधेरा कर चुपचाप लेटे रहे...
अप्पी को देखो तो ... कितनी सहज भाव से चली आयी यहाॅँ... वह सुबह ही तो मिले थे उससे ... उन्होंने जिक्र भी नहीं किया था ... पर उन्हें ध्यान भी तो नहीं था कि आज उनके यहाॅँ कोई पार्टी भी है... जन्मदिन पार्टी ... कहीं आना जाना किसे बुलाना ... नहीं बुलाना ... ये सब सुरेखा का डिपार्टमेण्ट है ... कल रात में सुरेखा ने बड़ी ही यूजवली उसे बताया था ..." वह नीरू जी को मौसी की बेटी अपराजिता आई हुई है आजकल ... कल की पार्टी में उन्हें भी इन्वाइट कर लिया है ...
वह चुपचाप सुनता रहा ।
"मैंने पर्सनली भी कह दिया था ... ठीक किया न!"
अन्तिम बात कहते सुरेखा शरारत से मुस्कुरा दी थी वह भी हंस दिये थे।
"अरे ... आप अभी लेटे ही हैं ... थक गये ...?" सुरेखा कि आवाज से वह चैतन्य हुए
"अरे नहीं ... यॅूँ ही।"
"फिर आइये नीचे ... सब लोग आने लगे हैं ।"
"हाॅँ... डियर तुम चलो ... मैं सिर्फ़ पांँच मिनट में आता हॅूँ।"
सुरेखा कि सखियाँ आ गई थी... जो सुविज्ञ के साथी डाक्टर्स की या ऊँचे अफसरों की पलियाँ थीं। सुरेखा ने सबसे अप्पी को भी मिलवाया।
"ये है। ... अपराजिता ... हमारी रिलेटिव ... डाॅ। साहब की खास दोस्त ... यूनिवर्सिटी में पढ़ा रही है... साथ ही पी.एच.डी. भी कर रही हैं ... पत्र पत्रिकाओं में लिखती भी हैं ..." अरे, कुछ खास नहीं यूॅँ ही । " अप्पी को संकोच हो आया ... अपने यहाँ आने पर उसे अफसोस हो रहा था। सिर्फ़ सुविज्ञ को देख लेने का मोह ही था जो वह चली आई थी ... जाने फिर कब मिलना हो ... कब ... देख पाये। अपना यह मोह उसे कहीं का नहीं रखेगा। यहाँ इस सबमें उसके होने का मतलब? आखिर सुविज्ञ भी तो उसे इन्वाइट कर सकते थे... उन्होंने तो जिक्र भी नहीं किया था... और ये सुरेखा कहती है... डाॅ। साहब की दोस्त।
सुविज्ञ फ्रेश होकर आ गये थे। काले सूट में खासे जंच रहे थे ... पति पत्नी ने साथ खडे़ होकर बेटी से केक कटवाया ... फोटो खिंचवाई... । पर्टी धीरे-धीरे रौनक पर आ रही थी। अप्पी भी बच्चों के साथ लगी थी। कुछ देर में सुविज्ञ को अप्पी का ध्यान आया ... उसने उसे इधर-उधर खोजा ... नहीं दिखी... शायद लाॅन में ंहो ...
"यार ... ये अपराजिता तेरी कुछ लगती है क्या ...?" डाॅ। प्रकाश ने पूछा था "रिश्तेदार है-क्यों क्या बात है...?"
"भाई ... जा बचा उसे ... उधर प्रोफेसर शर्मा के साथ फंस गयी है ... पर मानना पड़ेगा भाई लड़की दमदार है प्रोफेसर साहब को अच्छी टक्टर दे रही है। ... लगता है काफी कुछ पढ़ा है उसने ।"
सुविज्ञ को जिज्ञासा हुई... अप्पी प्रोफेसर शर्मा के साथ बात कर रही है। उनके तो पास भी कोई खड़ा नहीं होना चाहता। बहुत ही विद्वान व्यक्ति थे ... विश्व के जाने माने ... विश्वविद्यालयों में उन्हें व्याख्यान क लिए आमंत्रित किया जाता था। सुविज्ञ के परिवार के पुराने परीचित थे। दादा दादी के जमाने के। सुविज्ञ पर उनका विशेष स्नेह था।
सुविज्ञ ने देख लिया था ... अप्पी और शर्मा अंकल लाॅन में एक तरफ बैठे थे ... जैसे दो पुराने दोस्त बैठे बातें कर रहे हों। अप्पी कितनी छोटी-सी है ... शर्मा अंकल क्या बतिया रहे होंगे उससे...
प्रोफेसर शर्मा ने उसे देख लिया और इशारे से उसे बुला लिया ... सुविज्ञ जाकर पास रखी कुर्सी पर बैठ गया ।
"क्या बाते हो रही हैं ...?"
"कुछ नहीं ... अप्पी मुस्कुरा दी। सर की बाते सुन रही थी ... इनसे मिलना मेरी खुशनसीबी है।"
"नो... नो ... तुमसे मिलना तो मेरे लिए अचीवमेन्ट जैसा है ... खूब दुनियाँ देखी है मैंने ... कह सकता हॅूँ... तुम जैसी सरलता ओर निश्च्छलता अक्सर दुःख पाती है ... फिर भी... बेटा, अपनी इन खूबियों को सुखी होने के लिए मत खोना ... बड़ी कीमत होगी ये
सुविज्ञ को कुछ समझ नहीं आया ... प्रोफेसर क्या और क्यों कह रहे हैं... पर वह जो कह रहे हैं ... सच ही तो है ... अप्पी जैसी है ... वैसी क्यों है ...
...ये सिर्फ़ उसे देखकर ही समझा जा सकता है... उसके साथ सिर्फ़ क्षण भर रहकर ही किसी को भी उसके अन्तर्मन की सादगी प्रभावित कर लेती है... दीख जाता है आइने जैसा साफ दिल।