तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा / भाग 17 / सपना सिंह
अप्पी इंतजार करती रही अभिनव अब उसे कहेगा... बहुत हुआ अब कुछ लिखो पढ़ो... अपनी पी.एच.डी. कम्पलीट करो। अभिनव सुबह उठता... और ... जब तक आॅफिस न चला जाता, अप्पी एक पैर पर खड़ी होती... उसके जाने के बाद बाकी का सारा काम समेटना, लंच की व्यवस्था... सास, ससुर का नाश्ता खाना... दोपहर दो बजे तक का वह थक कर चूर हो जाती। डेढ़ घंटे ही उसके अपने होते जिसमें वह सुबह का आया अखबार जिसे सबने पढ़कर लावरवाही से इधर उधर डाला होता उन्हें इकठ्ठा कर कमरे में लाकर पलटती और कभी-कभी तो उसे भी पूरा न पढ़ पाती और नीद में गर्क हो जाती! नीद भी में पूरी नहीं हो रही थी...! अभिनव की अपनी डिमांड थी... वह आक्रामक तो नहीं था... पर कभी-कभी अप्पी के थकान से निहाल शरीर का ठंडापन उसे खिजा देता था... वह करवट बदलकर लेट जाता! अप्पी रूआंसी होकर अपने को कोसने लग पड़ती... लो अब शादी के मजे... बडा़... शौक था शादी का...! अभिनव को संतुष्ट न कर पाने का गिल्ट भी उसे सारा दिन जकडे़ रहता! सास का मूड़ कब उखड़ जायेे कुछ पता नहीं! उनका सास दिन वे बैठे केवल ये देखने में बीतता कि अप्पी चिढ़कर सोचती भी... भगवान जाने पहले इस घर का काम कैसे होता था।
अप्पी को आश्चर्य तो तब होता जब अभिनव भी उससे इन्हीं ' बातों की अपेक्षा करता। पर उसे लगता ऐसा शायद इसलिए हो क्योकिं वह अपने माता पिता के साथ रहता था! अप्पी को लगने लगा था कि जैसे विवाह के बाद लड़की अपना घर छोड़ती है वैसे ही लड़के को भी अपना घर छोड़ना चाहिए... भले उसकी नौकरी उसी शहर में हो! जो लड़के विवाह के बाद अपने माता पिता के साथ रहते हैं उनका अपनी पत्नी के साथ एक आत्मीय दोस्ताना व्यवहार पनप नहीं पाता! पत्नी उनके लिए एक सेक्स आब्जेक्ट और सुविधाजनक एससरीज से ज़्यादा महत्त्व नहीं रखती।
अप्पी देख रही थी... अभिनव अक्सर बिना बात मुंह फुला लेता... कभी दोनों में बहस होती... अभिनव को तेज बोलने की आदत थी...कमरे के बाहर भी सबको पता चल जाता... सास अभिनव के प्रति ज़्यादा ममतालू हो जातीं! अप्पी अपने को आउटसाइडर महसूस करने लगती एक अजीब-सा तनाव पूरे घर में पसर जाता अप्पी कुछ दिन अपने अहं को लेकर अलग-अलग बनी रहती पर जल्द ही उसे समझौतावादी रवैया अपनाना पड़ता...बावजूद इन सबके अप्पी अपनी जीवंतता अपनी खुशमिजाजी बरकरार रखने की कोशिश मंे रहती... धीरे-धीरे अभिनव की उसे आदत होती जा रही थी! दिन भर कैसी भी घसर-फसर हो रात में अभिनव की बाहों में सिर रखकर उसे गाढ़ी नीद आती... एक सुरक्षा का एहसास होता...
गलती अभिनव की भी नहीं थी... उसने अपराजिता के प्रति आकर्षित होकर उससे विवाह किया था। ... अप्पी की पारदर्शिता उसका पढ़ना-लिखना ... उसकी स्वतंत्र सोच ... यही चीजें तो उसे अपील करती थीं ... पर, ठीक है ...उसे अपराजिता से प्रेम है ... पर, वह बदलती क्यों नहीं ... सभी लड़कियों की प्राॅयरिटी शादी के बाद बदल जाती है ... उसे अम्मा के अनुसार रहने में क्या दिक्कत है ... सर पर पल्ला लेने से ... भर-भर हाथ चूड़ी पहनने से या सिंदूर बिंदी लगाने से!
अप्पी अपनी सब दोस्तों को नियम से पत्र लिखती थी ... सुविज्ञ को भी ... लिखा था उसने! सुविज्ञ कभी-कभार उत्तर भी दे देते ... इनलैण्ड पर कुछेक घसीटी हुई लाइने-कैसी हो ... घर में सब कैसे हैं ...? अपना ख्याल रखना... बस ये थोड़े से शब्द और अप्पी अपार ऊर्जा से भर जाती ... चार्ज हो जाती ...! मनोयोग से उनका जवाब लिखती ... अपनी पूरी दिनचर्या ... कैसे वह दिनों दिन टिपिकल बहू और पत्नी के खांचे में फिट्ट होने की जद्दोजहद में लगी है ... और अच्छी खासी सफल भी हो रही है! कभी अभिनव पूछ लेता 'क्या लिख रही हो ...?'
"सुविज्ञ को लेटर ...!" प्लीज आॅफिस जाते हुए पोस्ट कर देना ... या किसी चपरासी से करवा देना ...'
अप्पी की जिन सहेलियों की शादी हो गई थी ... शुरू-शुरू में वह कैसे तो पत्रों के जवाब देती थीं ... फिर पत्र बंद होते गये ... कोई कमन्यूकेशन नहीं ... कभी कोई भूले-भटके मिल गया कहीं तो सिर्फ़ हाय हलो ... इतनी जल्दी में होंगी कि जाने उनके बिना क्या भागा जाता ... अप्पी को ऐसी सहेलियों से कितनी चिढ़ थी! उसे नहीं बनना उन जैसा! शादी के बाद माना ज़िन्दगी में बदलाव लाज़िमी है पर, शादी के पहले दिल के करीब हों ऐसे रिश्ते, ऐसी दोस्तियाँ क्यों भुला दी जाएँ! अच्छी बीवी ... अच्छी बहू, अच्छी माँ और अच्छी औरत बनने के लिए पुराने रिश्तों को भुलाना ज़रूरी शर्त होती है क्या?
अभिनव के मन में अपनी गाठें थीं! उसके लिए पत्नी, अच्छी पत्नी का मतलब था ... उसकी माँ की तरह की पत्नी ... जो कभी पापा से सवाल नहीं करतीं... सारे दिन घर के कामों में खटती रही हैं ... और बाकी बचे समय में सिलाई-कढ़ाई करती हैं! सुधड़ स्त्रियाँ ऐसी ही होती हैं, उनके जीवन की धुरी पति और बच्चे होते हैं ... इसके अलावा और कुछ नहीं ...
... और वह डा. सुविज्ञ! अब उससे कोई भी सम्बंध रखने की ज़रूरत क्या है? वैसे, अप्पी भी तो महान टाइप की बूड़बक ठहरी ... पहले की तरह वह अब भी सुविज्ञ को पत्र लिखती ... उनके बारे में कुछ पेपर में निकलता तो कैंची लेकर काटने बैठ जाती। कभी टी.वी. पर किसी प्रोग्राम में सुविज्ञ से सम्बंधित कुछ आता तो अक्सर अभिनव ही उसे पुकार लेता और वह हाथ का काम छोड़ भागी आती ... मुंह बा कर टी.वी. देखती ... बिल्कुल बच्चों जैसी! जीवन की पेंचीदिगियाँ उसे पता नहीं थीं! उसने कभी सपने में भी ये ख्याल नहीं किया कि सुविज्ञ को लेकर कोई नकारात्मक सोच अभिनव के मन में पल सकती है! सुविज्ञ के प्रति उसकी भावनाओं को सभी तो जानते थे ... उसका परिवार, उसके दोस्त, रिश्तेदार, अरीचित-परीचित, अड़ोस-पड़ोस! सुविज्ञ के कभी-कभार आने वाले पत्र वह सबके सामने पढ़ती थी ... दुराव छिपाव उसने रखा नहीं और फिर, अभिनव तो उसका सबसे ज़्यादा अपना था! अप्पी तो अभिनव से अपना रिश्ता इतना पक्का चाहती थी ... कि कभी वह उसके सामने भी अगर सुविज्ञ के गले लगे तो उसके दिल में कोई बेजां बात न पैदा हो ... अब तक अप्पी का साबका शक जैसी चीज से नहीं पड़ा था ... वह इतनी पारदर्शी थी कि गैर भी उसपर सहज विश्वास करते थे। पर अभिनव के यहाँ माहौल ऐसा नहीं था ... उसके नाम से आये पत्र... और उसके लिए आये फोन पर सबके चेहरे अजीब से खींच जाते! खुला हुआ पत्र देखकर उसका मन भन्ना जाता ...! ऐसी किसी निजता कि उसे दरकार नहीं थी ... न ही पत्र में ऐसा कुछ होता जिसे छुपाया जाये! पर शिष्टाचार भी एक चीज होती है!
मौसाजी के यहाँ या उसके अपने घर में कोई उसके कागज नहीं छूता! उसके पत्र कभी उसे खुले हुए नहीं मिले ... बल्कि वह पढ़ने के बाद ध्यान भी नहीं देती कौन पढ़ रहा है! सुविज्ञ का पत्र हो या किसी और का! कभी पत्रिकाओं में कुछ छपने पर जाने कहाँ-कहाँ से लोगों के पत्र आते ... कभी-कभी तो शादी के प्रस्ताव भी! ऐसे ही पत्रों के माध्यम से कुछ लोगों से तो उसकी अच्छी दोस्ती हो गई थी ... इतनी अच्छी कि मीलों दूर रहने के बाद भी लगता एक दूसरे को बड़ी अच्छी तरह जानते हैं ... ये सब, ये सारी बातें तो अभिनव को पता थीं ... कितनी ही बार उसके सामने ही डाकिया पत्र लेकर आता था।