तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा / भाग 21 / सपना सिंह

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ये यही समय है... पूरे विश्व में आंतकवाद नामक फैले जहर का समय... दुनियंाँ का कोई कोना न तो इससे बचा है न कोई कौम। हर एक अपनी कौम का वर्चस्व चाहता है... उसे पीड़ित बताता है और प्रतिशोध से भरा हथियार लेकर खड़ा है। कब किस ओर धमाके हो जायें... पता नहीं। पहले एक निश्चित... वार-जोन होता था... बैटिल ग्राउंट। आम आदमी उधर का रूख नहीं करता था। उसे उधर नहीं जाना ... उधर युद्ध लड़ा जा रहा है। पर अब है क्या ऐसा ...? सारी दुनियाँ हो गयी है बैटिल ग्राउंट । कोई कहीं भी सुरक्षित नहीं ...खेल का मैदान हो... पिक्चर हाॅल हो... बच्चों का स्कूल हो या बाजार! माॅल हो या रेलवे स्टेशन ... हवाई जहाज हो या रेलगाड़ी। ... होटल हो या संसद भवन कुछ भी नहीं छूटा ... सब इस युद्ध की जद में है।

अप्पी को अपना समय याद है ... जब कभी टिफिन घर भूल जाती तो लंच टाइम में टिफिन आॅफिस के पास एक नियत जगह पर रक्खा मिल जाता था। अब तो बच्चों का टिफिन अगर छूट गया बच्चा भूखा ही रह जाये। अब आप पीछे से जाकर वाचमैन, चपरासी या बाई को टिफिन थमा कर उससे रिक्वेस्ट नहीं कर सकते कि क्लास रूम तक टिफिन पहुँचा दे। स्कूल में अब ऐसी कोई जगह नहीं होती जहाॅँ घर भूल आये टिफिन रख दिये जायें... वजह ये डर कि कहीं कोई टिफिन में बम न रख दे। स्कूल प्रबंधन इस मामले में बेहद सख्त होते हैं भूले हुए टिफिन को छात्रों तक पहुँचाने के लिए अविभावकों को कई कवायदों से गुजरना... पड़ता है... फिर छात्रों को टिफिन भूल आने के लिए क्लास में डांट भी पड़ती है। अपूर्व ने एक बार टिफिन छोड़ दिया था... अप्पी का मन क्लथने लगा... बेचारा बच्चा, कैसे इतनी देर भूखा रहेगा ... अभिनव की चिरौरी की ... वह गया स्कूल ... आकर अप्पी पर झल्लाया ... अपूर्व ... आकर अप्पी पर गुस्सा हुआ ममा, क्या ज़रूरत थी टिफिन पापा से भिजवाने की ।

ये समय था ... यही समय था... चाक चैबन्द डरे रहने का ... शायद ही किसी दिन ... आंतकवाद से जुड़ी कोई खबर एक नये आंतक का सर्जन न करती हो कभी-कभी अप्पी सोचती है ... बहुत सोचती है ... क्या कभी ये पृथ्वी आंतक से खाली रही है... इतिहास जिन्हें महान योद्धा कहता है ... सिकंदर, अशोक, नेपालियन, अकबर ... जिसका सूरज कभी अस्त नहीं होता था... वह ग्रेट ब्रिटेन ... क्या थे ये लोग ...? क्या किया इन्होंने ... अपना हित ... अपने आदर्श अपनी सत्ता कि चाह में युद्ध दर युद्ध ... विजय दर विजय। इतिहास में हम यही पढ़ते हैं... आंतक की महान गाथायें। कल को सद्दाम हुसैन और ओसामा बिन' लादेन भी शायद महान कहलायें। क्या इतिहास में दर्ज महान युद्धों में वृद्ध, महिलायें, बच्चे अप्रभावित रहे होंगे। नाममुकिन है ऐसा होना। हर युद्ध का खामियाजा बच्चों और महिलाओं को भुगतना ही... पड़ता है ... वह चाहे कोई आंतकवादी संगठन द्वारा लड़ा जाय या फिर शासन तंत्र द्वारा। पूर्वोत्तर राज्यों में लड़ रहे बोडो आंतकवादी हों या फिर दक्षिण भारतीय नक्सली हों... या फिर मुस्लिम आंतकवाद ... ये सभी अपने तई एक महान काॅज के लिए लड़ रहे हैं... अपनी नजर में वह सब हीरों हैं... और उनकी नजर में भी जो उन्हें समर्थन देते हैं। इस हिंसा कि शुरूआत होती ही तभी है जब हम दूसरों के व्यक्तित्व उनकी सोच को नकारना शुरू करते हैं। दुनियाँ ऐसी ही थी ... ऐसी ही रहनी है... हर दिन कुछ और बदत्तर हाल में पहुँचती हुई... ।

इसी दुनियाँ में ... ऐसे ही हालातों वाली दुनियाँ में ... अप्पी जब सुविज्ञ से मिली थी... तो मानों वक्त दर किनार हो एक कोने में बैठा उन्हें तक रहा था ... अप्पी चमकृत-सी अपनी प्रार्थना के कबूल होने को देख रही थी। सच, ईश्वर कभी ग़लत नहीं होता ... प्रार्थनाए तभी कबूल होती हैं जब उनका सही वक्त आता है... उसे अपनी आंखों पर गुस्सा आ रहा था ... कमबख्त भरी आ रही हैं... आँसुओं की झिलमिल में वह सुविज्ञ को ठीक से देख नहीं पा रही । ताज्जुब है... मुद्दतों से उसे रोना नहीं आया ... बहुत बार चाहा ... खूब-खूब रोकर हल्की हो ले ...आँसू मानों रूठे हुए थे ... आते ही न थे। ... और आज आये भी तो ऐसे में जब वह सुविज्ञ को अपनी आँखों में भर लेना चाहती है ... पर वह तो साफ देख भी नहीं पा रही ... सुविज्ञ कभी उसके हाथ को सहला रहे थे कभी सिर को। वह दोनों ऐसे मिल रहे थे ... जैसे बीच के वक्त में कभी कुछ बीता ही नहीं। दोनों अपनी उस दुनियाँ को भूल बैठे थे... जो उनका वर्तमान थी। अपने-अपने निजी नर्क जिन्हें उन्होंने खूब यत्न से चमकाकर दुनिया के सामने स्वर्ग की तरह प्रदर्शित किया था।

दोनों के शरीर से कपड़े यूँ अलग हुए थे... मानों झूठ का कोई आवरण उतर रहा हो ... जो उन्होंने पहन रखा था ... जो उनकी आत्मा में अंदर तक धंसा था ... जो उनकी सामाजिक स्थिति के लिए महत्त्वपूर्ण बताया गया था और जो उन्हें साइलेंट किलर बन कर मार रहा था। वह सब करते हुए भी वह जानते थे कि आदतन वह एक झूठ को जीये जाने की अवधि को लम्बा किये जा रहे हैं। अप्पी का बस चलता तो अपनी आत्मा को निरावरण करने के लिए वह सिर्फ़ देह के कपड़े ही नहीं देह भी उतार देती... देह की चमड़ी जो भीतर के रक्त मांस को ढके है ... इस सबके भीतर कहीं कोई आत्मा नाम की चीज़ है ज़रूर ... वह ... इस क्षण दीख नहीं रही पर महसूस तो हो रही है... उसके ढीले पड़ चुके स्तनों पर कोमलता से फिरते सुविज्ञ के हाथ ... उसकी सुनहली धारियों से भरे पेट पर अपने चेहरे को सटाये सुविज्ञ ... और उसके मैनोपाॅज की प्रक्रिया से सूख रहे अंग में उनका प्रवेश ... ये सब क्या देह के स्तर पर घट रहा था...? बस्स अभी चंद दिनों में अपना तैंतालिसवां वर्ष पूरे करने जा रही औरत और अड़तालिसवें वर्ष में कदम रख चुका मर्द जिन्होंने उतना लम्बा वक्त एक दूसरे से गाफिल रह कर गुजा़रा था... जितने वक्त में तो आदमी मर कर दूसरा जनम ले लेता है । तो क्या ... इस पल को वह दूसरे जनम की तरह जी रहे हैं... एक ही जन्म में पुर्नजन्म की ये अनोखी मिसाल। इस क्षण वह मात्र स्त्री और पुरूष हैं। एक दूसरे के प्रेम में आंकठ डूबे स्त्री और पुरूष। क्या शिव और शक्ति ऐसे ही मिले थे। अप्पी को नहीं पता पुराण सचमुच घटे हैं या नहीं ... पर उसे इतना मालूम है ... इस पृथ्वी पर शिव और शक्ति बार-बार मिलते हैं... ये काॅस्मिक मिलन घटता है ... बार-बार। न अप्पी और सुविज्ञ इस काॅस्मिक मिलन को जीने वाले पहले हैं न आखिर। ये पृथ्वी... पहले भी साक्षी बनी होगी ... आगे भी बनेगी।

अप्पी एक असंभव पल को जी रही थी और कहीं गहरे इस राज को खुलते भी महसूस कर रही थी... भले, ईश्वर ऐसा कैसे करेगा, ऐसा संदेह रखते हुए भी क्या उसे विश्वास नहीं था कि ऐसा होगा ... ऐसा होने देने से ईश्वर भी अपने आपको नहीं रोक पायेगा ... कभी-कभी आपकी शिद्यत नियति को अपना फैसला बदल देने पर मजबूर कर देती है ... अप्पी के लिए तो सुविज्ञ के प्रति अपने प्रेम का एहसास हमेशा से ऐसे बेड़े के समान रहा है जो उसे भयंकर तूफान, झाझावतों के बीच से साबुत निकाल लाया है ... वह बची ही इस करके रही आयी कि ये पल उसे जीना था। वरना तो उसे खत्म कर देने वाले हजारों कारण बने रहे। वे दोनांे तो दो छोर थे... आज आशीर्वाद की तरह मिले हैं... शायद फिर कभी न मिले...तो क्या? एक पल की ये मुलाकात वह ऐसे जायेगी मानों उम्र भर वह मुलाकात चल रही हो... कास्मिक आग्र्रेज्म। बिना किसी रिग्रेट के। ना ... ये कोई प्रतिबद्ध रिलेशनशिप नहीं है... न ही सेवसुअलिटी। रिलेशनशिप और सेक्सुअलिटी का नाता तो उसने अभिनव के साथ निभाया ही है। सेक्स कभी अजाब बनकर गुजरा तो कभी उसे एंजाॅय भी किया। ये सब वैसे ही रहे जैसे जीवन की अन्य ज़रूरी चीजें-जैसे जीवन है... तो संास लेना ही है ... खाना पीना, सोना उठना दैनिक क्रियायंे निबटाना होता ही है... विवाहित हैं तो सेक्स करना ही है... अगर आप बाॅयोलाॅलिकली फिट हैं तो माँ-बाप भी बनेंगे... बच्चों का पलान पोषण भी करेंगे... पर ये जो बीत रहा है ... अप्पी इस पल को कैसे कन्फाइन करें ... किसी फेनोमिना कि तरह घटा हुआ पल ... जो अपने स्वाद में अनोखा है ... और मुक्कमल भी। व्यक्तित्व की शुद्धतम् अवस्था। बेहिसाब बेचैनियों के बावजूद गहरे चैन की अवस्था ... विष के बाद ही अमृत की प्राप्ति होती है ... यही नियम है।

अप्पी ने लौटने के बाद सुविज्ञ को लम्बा खत लिखा...

" पता नहीं जो कह रही हॅूँ ... उसे आप वैसा ही समझ पायेंगे या नहीं ... फिर लगता है ... और कौन है जिससे मैं कुछ कहना चाही हॅूँ कभी या समझाना चाहॅूँगी।

सबसे पहले तो वहाँ उसी तरह बने रहने का शुक्रिया । हमारे बीच से बहुत सारा वक्त गुजरा हुआ कल बनकर ... समय के लेेखे में जज्ब़ था। शुक्रिया कि तुम ...'वह सब हटाकर इस तरह मिले कि कुछ भी... हटाकर आये हुए से नहीं लगे ... अपने शुद्धतम् रूप में... जैसे माँ की कोख से अभी-अभी जन्में हों। अनावृत। निष्कलुष ... तुम्हारें उस होने ने मानों मुझे सांस दे दी हो... मैं फिर से उग रही हॅूँ... और अपने इस उगने को पूरी दिलचस्पी से देख रही हॅूँ।'

अप्पी जानती थी सुविज्ञ उसके खत का जवाब नहीं देंगे, फिर भी लिखती थी... सुविज्ञ सिर्फ़ मैसेज कर देते थे 'गाॅट योर लेटर ... यू मेड माई डे' ।

व्हेन आई मेक लव टू यू, इट इज प्योर एंड ब्लीसफुल ...लव फाॅर एवरीथिंग ... एंड द ब्यूटीफुल मूवमेंट वी स्पेंड टूगेदर।

ये छोटे-छोटे मैसेज ... अप्पी की लाइफ लाइन बन गये थे। अप्पी मानों ज़िन्दगी में वापस लौट आई थी। कुछ नहीं हुआ था। पर, बहुत कुछ बदल गया था... उसने मुद्दतों से हिन्दी फ़िल्मी गीत नहीं सुने थे, अहमद फराज़ को नहीं पढ़ा था और मुद्दतों से बेगम अख्तर और गुलाम अली को नहीं गुनगुनाया था। अभिनव को ये सबकुछ बिल्कुल नहीं पसंद था। शुरूआत में अप्पी आदतवश हरदम गुनगुनाती रहती थी। अक्सर रेडियो लगा देती और साथ-साथ गुनगुनाती रहती। पहले तो अभिनव ने त्यौरी चढ़ाकर नाखुशी जाहिर की, फिर भुनभुन करने लगा था। अप्पी इतनी बड़ी बेवकूफ कि उस पर कोई फर्क ही न पड़े। एक दिन अभिनव ने खुद ही उठकर रेडियो आॅफ कर दिया ...

अरे, इतना अच्छा गाना चला रहा था ... बंद क्यों कर दिया...? "

" घर है, पान की दुकान नहीं ... हर वक्त की चे ... पर ... अच्छी नहीं लगती...'

अब अप्पी को कौन समझाये... कि अगर गाना सुनना ही है ... तो तब सुन लो ... जब अभिनव घर में न हो । तब हुआ ये कि अप्पी ने रेडियो उठाकर अलमारी में बंदर कर दिया। ऐसा जाने क्यों होता था जिन चीजों ... जिन बातों पर अभिनव ने मुंह बनाया त्यौरी चढ़ाई उन चीजों से अप्पी का मन ही हट गया। फ़िल्मों के प्रति कितना दीवानापन था पर अभिनव के साथ मुश्किल से गिनी-चुनी फ़िल्में ही देखीं, वह भी कितनी चिरौरी करके ... सब कुछ इतना भद्दा ... फ़िल्म देखने का मजा ही जाता रहे उसने अपनी जायज इच्छाओं को मारना जाने कब सीख लिया ... था। जीवन मानों एक ढलान पर लुढ़कता हुआ सिलेंडर हो। पर कुछ समय पहले से ही चीजें बदलनी शुरू हो गयी थीं। बिना बहस किये अपने लिए रास्ते निकालने अप्पी को आने लगा था। नौकरी करना, पढ़ना लिखना ... अपना एक सर्कल बनाना... ये सब उसी के ... नतीजे थे। अप्पी में उत्साह, ऊर्जा, सौन्दर्य सब वापस आ गया था। उम्र का वह दौर जब व्यक्ति नयी शुरूआत को डरता है... उसने कुछ नयी शुरूआत की। सबसे पहले फेसबुक पर अकांउट बनाया... बेटे अपूर्व ने उसे कम्प्यूटर आपरेट करना सिखाया। अप्पी को तो मोबाइल में मैसेज तक पढ़ने-लिखने नहीं आता था। टाइप करते नहीं बनता था। अपूर्व ने उसका ब्लाॅग बनाया ... अब आप जो चाहें लिखो ... कोई एडिट करने वाला नहीं ...

" पढ़ेगा कौन ...?

" आप शुरू तो करो ... पढ़ने वाले मिलेंगे ... पर अप्पी को तो टाइप करते नहीं बनता। प्रारंभ में वह बाहर टाइप कराती फिर अपने ब्लाॅग पर पोस्ट करती। अपूर्व छुट्टियों मंे आता तो अप्पी को आड़े हाथों लेता ... क्या ममा आपने एफ0बी0 पर कुछ नहीं डाला... कोई फोटो ... कुछ कमेंट... अप्पी तो अपूर्व के रहते ... यही रट लगाती ... अंब कैसे कॅँरू ... अब क्या करूँ... फोटो कैसे डालते हैं... स्टेट्स क्या होता है...? अपूर्व सिर पकड़ लेता ... मैं कुछ न बताउंगा, तुम खुद से करो।

कभी अपूूर्व मूड में होता तों कहता चलों ममा तुम्हारे काॅलेज के जमाने के फ्रेन्ड को ढूढते हैं ... अप्पी उत्साह से ... याद करके नाम बताती और अपूर्व उन्हें एफ बी पर ढूढ़ता। अप्पी चमकृत थी ... कितने स्कूल काॅलेज के सहपाठी एफ.बी. पर सक्रिय थे... वाह रे, टेक्नोलाॅजी । अद्दभुत।

अपुर्व ने ही सुविज्ञ को भी फेसबुक पर ढूढा ... उनकी प्रोफाइल देखकर बड़ा इंप्रेस हुआ ... "ममा ये अंकल आपके फें्रड हैं?" हाँ... बेटा रिश्तेदार भी। " शायद सुविज्ञ के जिक्र पर अप्पी के चेहरे पर जो तरल-सा कुछ कांपा था ... अपूर्व उससे अछूता रहा ऐसा लगता नहीं था ...

सुविज्ञ का फोन महीने डेढ़ महीने में कभी आ जाता।

' कैसी हो ...? "से बात शुरू होती ... क्या कर रही हो ... नया क्या लिखा ... अपना ध्यान रखना ..." बस यही बाते ... घर परिवार की बातें ... बच्चों की बातें ... अप्पी कभी खुद से फोन नहीं करती थी ... वैसे भी फोन पर बाते करने में वह शुरू की लद्दधड़ रही है। कभी-कभी सोचती अभिनव को बता दे... कि सुविज्ञ से उसकी अचानक मुलाकात हो गयी थी ... और अब कभी कभार फोन पर बात हो जाती है। पर सुविज्ञ को लेकर अभिनव का सारा तमाशा उसे भूला नहीं... था। हाँलांकि उस वाकये को एक लम्बा वक्त गुज़र चुका था ... पर, अप्पी के मन से उस पल की याद अब भी नहीं मिटी थी। अभिनव की जहनियत पर उसे ज़रा भी भरोसाा नहीं था। उसके अनपेक्षित और भौड़े रिएक्शन ने उसे डरा कर रक्खा था... अब इस उम्र में अप्पी किसी भी तरह की फजीहत से परहेज करने लगी थी ।

अभिनव पर उसे दया भी आती ... आखिर उसने उसे दिल से चाहा था ... उसके लिए फिक्रमंद रही थी ... अभिनव अगर कभी बिना खाये घर से चला जाता तो उसकी अपनी भूख गायब हो जाती। अभिनव कभी सिरदर्द की शिकायत भी करता तो वह परेशान होकर दवाइयों का डिब्बा लेकर बैठ जाती ... दौरे पर रहता तो चिंता से उसका दिल बैठा जाता। अभिनव खुश है तो वह भी खुश ... अभिनव का मूड उखड़ा हुआ है तो वह भी सहमी हुई। अभिनव के लिए फिक्रमंद होना ... उसके मूड के अनुसार उसका अपना अन्दर-बाहर का मौसम बदलना... अनायास होता गया फिर आदत बनता गया और अभिनव हमेशा एक छाया से लड़ता रहा एक बेवजह की लड़ाई जो उसने अपने ख्यालों में उगा ली थी।