तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा / भाग 23 / सपना सिंह
रिफ्रेशर के लिए अप्पी इलाहाबाद थी। संयोग ही था सुविज्ञ परिवार सहित इलाहाबाद आ रहे थे भांजे की शादी में ... अप्पी के रिफ्रेशर कोर्स के अन्तिम चार दिन बचे थे ... जब सुविज्ञ ने फोन पर उसे बताया था..."हम मिल सकते हैं।"
"नहीं।" अप्पी ने कहा था...
"क्यो जान।? फिर पता नहीं कब मौका मिले।"
हम मिलेंगे ... फिर आप चले जाओंगे अपनी दुनियाँ में ... और मैं एक दम से बेघर बार महसूस करने लगूॅँगी। "और फिर ऐसा हुआ कि बहुत कोशिश के बाद बहुत हड़बड़ी में वह सिविल लाइन्स में मिले। उस होटल में जहाँ विवाह समारोह होने वाला था... वहाँ के इंतजामात सुविज्ञ को देखना था... सड़क के दूसरी ओर एक रेस्तरा में वे मिले ... फिर सुविज्ञ उसे होटल में ले गये लाॅन में जहाॅँ काॅकटेल पार्टी होने वाली थी वह भी दिखाया ... सीढ़िया चढ़ते ऊपर ले गये... ये एक बहुत ही शानदार होटल था... पैर काॅलीन में धंस रहे थे... वह उसे एक कमरे में ले गये ... अप्पी हैरानी से शराब के कैरेट देख रही थी..." शाम की पार्टी के लिए... । "सुविज्ञ ने बताया और एकदम से उसे बाहों में भर लिया। अप्पी हड़बड़ा गई... " प्लीज... शान्त बैठो ..."
"लो बैठ गया ... क्या करोगी...?"
"देखूँगी ... अच्छी तरह ..." अप्पी ने सुविज्ञ के सिर को अपनी बाहों से घेर लिया और उनके माथे पर अपने होठ रख दिये थे ... आँखें छलछला आई ..."क्या हुआ ...?" सुविज्ञ ने उसकी आंखों में आँसू देख विचलित होकर पूछा था... "ये थोड़ा-सा जीना... मुझे आगे बहुत से दिनों के लिए मार देता है... लौटते हुए मैं अपना बहुत कुछ इस पल में छोड़ जाती हॅूँ ... और ये भी जानती हूँ आपके साथ कुछ नहीं जाता ... मेरा छूटा हुआ भी कुछ नहीं ।"
"वह ऐसे ही लावारिस इस लम्हें मंे छूटा रह जाता है ।"
सुविज्ञ के पास कोई शब्द नहीं थे । इस लम्हें को वह कितना भी बड़ा कर ले वह बीत तो जाता ही है। इससे पहले अप्पी दो बार लखनऊ आई थी... घर भी आई थी, सुरेखा और बच्चों से मिली थी... उसके भव्य ट्रामा सेंटर को भी देखा था उसने ... वह कितना व्यस्त रहते हैं उसे पता था ... पर वह तब भी उदास थी ... जो अप्पी उनके डाॅक्टर होने को ईश्वर द्वारा दिया स्पेशल गिफ्ट समझती थी... ज़रूर आपने पिछले जन्म में पुण्य कर्म किये होंगे जो इस जनम में ईश्वर ने आपको दूसरों दर्द दूर करने का काम दिया ... नेक काॅज ... वर्ना इसांन तो सारी ज़िन्दगी अपने दर्द का रोना रोता... इस संसार से ... रूखसत हो जाता है। "
उदास होकर उसने कहा था, " यहाँ मामूली आदमी तो घुस भी नहीं पाता होगा ... अप्पी के भीतर लगातार मथंन चल रहा था... सुविज्ञ के चारों ओर उसे एक दीवार-सी नजर आती ... एक अदृश्य दीवार, जिसे फांद इस पार आना उनके लिए असंभव है। अप्पी हर दिन अपने आस-पास से जैसे छूटती-सी जा रही थी।
अपूर्व को मम्मा में तब्दीली नजर आती, जैसे हर चीज, हर व्यक्ति से उनका कंसर्न खत्म होता जा रहा हो। वह छुट्टियों में आता तो मम्मा को अपने में ही गुम पाता। सबकुछ करती हैं... उसके पसंद की चीजे बनाकर खिलाने से लेकर ... उसके साथ शाॅपिग करना मूवी देखना ... पर कुछ था जो अलग था... उनमें पहले नहीं दिखा। पापा के साथ भी कोई आगर््यू नहीं ... वह जो कहते चुपचाप उठकर कर देतीं । उन दोनों के बीच ऐसी न्यूट्रल खामोशी का वह आदी नहीं था... उन दोनों की एक चिड़चिड़ी-सी तस्वीर ही थी उसके जेहन में। उसे लगता है उसका बचपन एक सामान्य बच्चों-सा नहीं था... ममा-पापा के अपने मसले इतने थे कि उनके बीच एक बच्चा भी है ... अक्सर वह भूल जाते। छोटा बच्चा उनके इस आये दिन के झगड़ों के बीच स्वयं को कितना... इनसिक्योर महसूस करता है शायद उन्हें इसकी परवा ही नहीं होती। जब भी मम्मा पापा का झगड़ा होता ... वह दहशत में भर जाता ... मम्मा चली जायेगी ... इस बार तो ज़रूर चली जायेगी। फिर, वह क्या करेगा, ... ममा को तो अच्छे से पता है। वह ममा पापा के बीच में ही सोता है। पापा कितना तो कहते, अब तू बड़ा हो गया है अपने कमरे में सोया कर, पर, उसे तो उनके बीच में ही सोना होता है, कितना मजा आता था... जब मन हो पापा कि ओर करवट कर लो ... जब मन हो मम्मी की ओर। कभी-कभी ममा कहती थी उसे मनाते हुए... आज पापा को बीच में सोने दो न ... इधर मैं उधर तुम। वह अड़ जाता था... नहीं मैं तो बीच में ही सोउंगा... ममा चिरौरी-सी करती... मेरा भी तो मन करता है-पापा के पास सोने का ... वह खूब ना नुकर करके ममा को छकाता फिर एहसान-सा करता हुआ किनारे हो जाता... ठीक है... पर, रात में मैं ही सोउंगा बीच में। ममा खिल उठतीं और पापा के एक बांह पर सिर रखकर लेट जातीं-दूसरी बांह पर वह अपना सिर रख देता। उस क्षण उतनी बड़ी-सी ममा, पापा से लिपटी हुई बिल्कुल उसकी ... तरह बच्चा-सी लगने लगतीं।
उसे पापा का चिल्लाना भी याद है... कैसे तो चिल्लाते थे ... एक बार वह हड़बड़ा कर रात में उठ गया था... पापा चिल्लता रहे थे। आजकल वह ज़्यादा चिल्लाने लगे हैं... पता नहीं क्या अनाप शनाप बोलते थे... जा चली जा ... अपने उस सूपरमैन के पास ..."
"कौन सुपरमैन ... वह टीवी वाला ... पर ममा उसके पास क्यों जायेगी ... वह तो उसकी ममा है... हमेशा उसके पास रहेगी । एक बार उसने बहुत दुलार में आकर ममा से पूछा था ' ममा क्या तुम सचमुच मुझे और पापा को छोड़कर सुपरमैन के पास चली जाओगी..."
ममा हंसने लगी थी... हंसते-हंसते उनकी आँखों में आंसू आ गये थे ... "जब जाउंगी तो तुम्हें भी साथ ले जाउंगी पापा को छोड़ देंगे ..."
"नहीं पापा को भी ले जायेंगे।"
ममा हंसते-हंसते उसके चेहरे पर चुबनों की बौछार कर देतीं-हाँ पापा को भी ले जायेंगे ... उन्हें भला किसके पास छोड़ेगे। "
बचपन की इन भोली बातों के अलावा अपूर्व को मम्मा-पापा कि फै्रकचर्ड मैरिड लाइफ की समझ भी आने लगी थी बहुत से कड़वे फ्लैशबैक की पूरी सीडी दर्ज... है उसके दिमाग में। बावजूद इसके वह भावानात्मक रूप से पूरी तरह मेच्योर है... ममा-पापा दोनों के लिए उसके मन में कोई कड़वाहट नहीं है। ममा तो उसकी सबसे करीबी दोस्त जैसी हैं। अपनी सारी बाते वह ममा से शेयर करता रहा है... बचपन से ही। पापा को एक बार उसने ममा से कहते सुना भी था, ये तुमसे सारी बातें कहता है... अच्छी आदत है"
पिछले बहुत सारे समय से ... ममा-पापा के बीच के एक अलिखित समझौता-सा नजर आता। यूँ भी पापा जब से अपनी पोस्टिंग पर बाहर रहने लगे हैं दोनों की मुठभेड कम हो गई है। मम्मा ही जाती रही हैं छुट्टियों में। पर इधर ममा ने अपनी छुट्टियाँ भी व्यस्त कर ली है... अक्सर एन.जी. ओ. के किसी न किसी कैम्प में शामिल होकर वह आस-पास के गांवों में निकल जाती हैं।
वह हाॅस्टल में था जब पापा का फोन आया था।
"अपूर्व ... ममा को मना करो ..."
"किसी बात से ...?"
अरे... साउथ जाना चाहती है। "
जाने दीजिए ... क्या दिक्कत है।
"अकेले जाना चाहती है ... पता तो है तुम्हें ... उसकी तबियत।" पापा कि ... अवाज़ में चिन्ता झलक, रही थी ... अपूर्व ने ममा से बात की... कहाँ जा रही हैं?
"पापा ऐसे ही चिंता करते हैं... कई लोग हैं... मैं अकेले नहीं हॅूँ..." अप्पी आजकल लम्बी-लम्बी यात्रायें कर रही थी... मानों ये यात्रायें उसे मन की कशमकश से बाहर लायेंगी ... उसकी बेचैनियों को सहला देंगी।
सुविज्ञ ने फोन किया
"कहाँ हो...?"
"विवेकानन्द प्वाइंट..."
"अरे ... वहाँ क्या कर रही हो... कब गई ...?"
"कब गई... ये मत पूछों ... क्या कर रही हॅूँ ये बताती हॅँू।"
"क्या कर रही हो।"
"डूबने की सोच रही हॅूँ ..."
" बाप रे, ये गजब न करन... हमारा क्या होगा ...?
"कुछ नहीं होगा ... चैन पा जाओगे।"
"लौट आओ अप्पी ..."
"काश। तुम्हारे पास आ सकने की कोई सूरत होती... कसम से ... कहीं भी जाने के लिए एक कदम न चलती।"
"आखिर किस बात की सजा दे रही हो तुम अपने आपको ... मुझको..." सुविज्ञ चिंतित थे... जानते थे, अप्पी का स्वास्थ्य उसे इतनी लम्बी रेल यात्राओं की कठिनाईयाँ नहीं झेल सकता... मौसम और खान पान का जरा-सा बदलाव उसकी तबीयत खराब कर देता है... यही चिंता अपूर्व को भी थी ... और अभिनव को भी।
"लौट आओ... अप्पी, फिर हम प्लान करते हैं मिलने का।"
"क्या होगा मिलकर।"
कम से कम साल में एक बार तो हम मिल सकते हैं...
अप्पी चुप रह जाती । कितना कुछ तो कहना चाहती रही है... पर कहाँ कह पायी है... ये डाउट तो हमेशा रहा है न। ... न समझ पाने का ... एक रिश्ता इसी से तो नहीं बचा पाई... कोई डाउट क्लीयर किया जाना ही उसे हमेशा ही एक तरह की आन्सीनेनस (अश्लीलता) लगी है। फिर ये डाउट कि वह जो कह रही है उसे वैसा ही समझा जायेगा या नहीं ... फिर कहने का फायदा क्या ...? क्या वह समझ पायेंगे ... उनसे मिलने का जो आहलाद, जो अलौकिक अनुभूति उसे छूती है... वह क्षण... बीता हुआ बनकर फिर कितना हांट करता है... पकड़ में नहीं आता गुजर जाता है... बाद का खालीपन... असह्य है... ये सारी भटकन ... ये यहाँ वहाँ की यात्रायें ... ये स्प्रीच्यूयेल टूअर, ये सत्संग... सुनना देखना ... स्प्रीच्युयेल किताबे पढ़ना... ये सब उस असह्य को सह्य बनाने की कवायद है... ई-मेल, एस.एम.एस. वाट्सेप का जमाना है... फिर भी अप्पी सुविज्ञ को रोज लिखती है... डायरी की तरह... बकायदा डेट डालकर और जब खत खासा लम्बा हो जाता है तो उसे पोस्ट कर देती है... उसे पता है कि सुविज्ञ उसे जवाब नहीं देंगे... एक मैसेज कर देंगे... गाॅट योर लेटर ... इट वांज लवली एज यूजवल... यू मेड माई डे।
अप्पी ने लिखा... जब भी सिर उठाकर आसमान में चमकते सूरज को देखती हॅूँ... राहत की सांस लेती हॅँू। इस ग्रह का यहीं तो एक सूरज है... जो हम दोनों पर एक अपनी रोशनी फेक रहा है। ये चाँद और तारों भरा आकाश ... एक चादर की तरह ही तो हम दोनों पर-पर तना हुआ है। ये धरती ज़रूर बहुत बड़ी है... मेरी आँखों की परिधि के भीतर उस धरती का टुकड़ा नहीं आता जिस पर तुम खड़े हो।
सिर्फ दो बातों से डरती हॅूँ... कहीं तुम उस देश में न जा बसो जहाँ सूरज चाँद तारों के निकलने और छिपने का समय इस धरती से अलग हो जिस पर मैं खड़ी हॅूँ... या कभी हम दोनों में से किसी को कुछ हो जाये तो दूसरे तक उसकी खबर ही न पहुँचे..."अगले पत्र में लिखा उसने," मुझे पता है अपने इन खतों की नियति... फिर भी लिखती हॅूँ। जानती हॅूँ आप इन्हें डेसट्राय कर देते होंगे... किस तरह ... नहीं जानना चाहती...
कितनी अजीब-सी बात है न... आपके पास तो कई सारे घर हैं... बगंला है... गाँव की हवेली है ... पर, ऐसी कोई जगह, कोई कोना शायद आपके पास नहीं हैं... जहाँ आप इन पत्रों को सहेज सकें। चलो, इस मामले में तो हम दोनों की किस्मत एक जैसी ठहरी, घर के होते हुए भी बेघर।
"मैं आपको आजमाना नहीं चाहती... किसी भी क्वेश्चन मार्क से परे सिर्फ़ एक सहज उपस्थिति की तरह महसूसना चाहती हॅूँ। यकीं की आखरी हद तक का यकीं करना चाहती हॅूँ। जैसे हम ईश्वर के अस्तित्व पर यकीं करते हैं... बिना किसी प्रमाण के सिर्फ़ सुनकर कि वह है... हम बिना सवाल उठाये कन्विस होकर उसके अस्तित्व को मान लेते हैं... वैसा ही एक्सेप्टेंस... वैसा ही स्वीकार। तुम्हारे और मेरे इस होने पर नाज करना चाहती हॅूँ। आज भाईश के लिए तो रिश्तों की भीड़ है... तुम तो सहेजने के लिए मिले हो..."
सुविज्ञ खत पढ़ते ...बेचैन होते ... कभी-कभी जोर से जी चाहता ... सब छोड़-छाड़ अप्पी को लें और... चल दें कहीं भी! पर, सब कुछ छोड़ छाड़ देना इतना आसान होता है क्या...? और और, की दौड़... हमेशा ही तो बनी रही... ट्रामा सेंटर, के साथ बहू ने शहर का सबसे सुविधा सम्पन्न फर्टिलिटी सेंटर 'किलकारी' का सपना देख डाला... जहाँ विश्वस्तरीय तकनीकी की सुविधा हो...! गाँव में स्कूल खोलना सुरेखा का सपना हैं... उसका भी शिलान्यास हो चुका है...! भविष्य में लगता है कोई पार्टी उन्हे टिकट भी न दे दे! गाँव में आज भी उनके परिवार की काफी पकड़ है इसका फायदा कोई पार्टी उठाना चाहेगी ...! यही तो जीवन हैं... आदमी इसी के लिए तो जीता हैं... एक क्रियाशील और समृद्ध जीवन।
अप्पी के पास नहीं है ऐसी व्यस्तता... हर दिन वह थोडी़ और खाली होती जा रही है... मोह के जितने धागे जो इधर उधर उलझे पड़े है... सब को सुलझा कर खोल देना... छोड़ देना! अभिनव... अपूर्व... उसकी सोच के सारे सिरे वही जानकर खत्म होते थे एक डिटैचमेन्ट जैसी स्थिती आती जा रही है! पढ़ने लिखने से भी जी उकता गया है। उन कामों में मन रमता है जो उसे शारीरिक रूप से थका कर चूर कर दें! एन.जी.ओ के साथियों के साथ वह निचले तबके मुहल्लों में जाती... गंधाते हुए गली कूचे... सीलन भरें ...धुआतें घर... नाक बहाते बालों की जट बाधे घूमते बच्चे...! इन सबके बीच अप्पी निर्विकार आती जाती। जिस अप्पी को थोडी़-सी अप्रिय गंध से भी सिर दर्द हो जाता था! उसे इन लोंगो के बीच काम करते देखना कल्पना से परे था! पर अप्पी जानती थी... वह यह सबका दर्द दूर करने के लिए नहीं कर रही... अपना दर्द कम करने के लिए उसे यही एक रास्ता नजर आया अपने आपको कठोरता के हवाले कर देना! जीने की जददोहद में लगे ये लोग... जिनके लिए हर दिन नया दिन एक जीवन होता है... शुरू से शुरू करने के मूलभूत ज़रूरियात से भी महरूम इन लोगों के सामने... अपने दुख कितने भौडे़... कितने अश्लील लगते हैं । अप्पी कुछ भी तो नहीं कर पा रही... क्या एक जीवन उसकी वजह से सुधरा है... वह सिर्फ़ भटक रही है... अपने आपसे भाग रही है! अपनी सुख सुविधाओं से भरी दुनियाॅँ... अलमारियों में भरे कपडे़ ज़रूरत से बहुत ज़्यादा सबकुछ... उसे बिराते हैं।
सुबह जब वह गेट को खोलती है...अपने घर के सामने वाले मैदान में प्लास्टिक बोरा कंधे पर टांगे मैले कुचैले कपडे़ पहने बच्चोें को कूडे़ के ढेर में सें बोतल, पानी बोतले... बीनते देखती है... पाउच फाड़कर... जाने कितने अभ्यस्त तरीके से वह मुंह में तम्बाकू डालतें हैं ... जाने कितने होगें... ऐसे बच्चे... कोई नेता कोई समाजसेवी... कोई सरकार इनके लिए अपनें एजेंडे में कुछ क्यों नहीं रखती! कितने कम पैसों में और दो रोटी की लालच में ये घर के सामने उगे झाड़ झंखाड़ गाजर घाँस जैसी चीजों को तात्परता से साफ कर देते हैं... अप्पी ने और उसकी पडो़सियांे ने कई बार इन्हें पाॅँच दस रूपये देकर काम करवाया है! ऐसे बच्चों की स्थिति से विचलित होंकर कुछ लिखना... उस लिखे हुए का छप जाना... इससे इनकी ज़िन्दगी पर क्या फर्क पड़ता है...? उसने भी तो एक तरह से इन्हे यूज ही किया होता है...!
अप्पी को मदर टेरेसा याद आती हैं...! इतनी माराकाट, इतनी गिजबिजी... ढेरों विसंगतियों से भरी इस दुनियाँ में ... पशुता कि हद तक जा चुके इंसानो वाली इस दुनिया में..., स्वार्थ कठोरता, दरिदंगी व्याभिचारियों से भरी से भरी इस दुनिया में ईश्वर क्यों मदरटेरेसा या महात्मा गाॅँधी को पैदा करता है! बाबा आम्टे का मन कैसा होगा किसी कोढी का घाव...साफ करते उनके चेहरे उनकी आत्मा पर कोई शिकान क्योें नहीं उगती? कौन हैं ये लोग या इनके जैसे और लोग... ईश्वर इन्हे शायद पृथ्वी की आत्मा पर लगे हजारों लाखों घावों पर मरहम लगाने भेजता है इन जैसे लोगों को भेज वह अपने होने का प्रमाण देता है हम जैसे तुच्छ मानवों को ...
अप्पी अपने मन में चल रही इन सारी बातों को सुविज्ञ के साथ बांटती कभी पत्रों द्वारा... कभी फोन पर... दोनों एक दूसरे के साथ दोस्त जैसे सहज थे ... एक दूसरे के भीतर उनकी पहुँच उस तल तक थी... जहाँ वह बिना किसी बाधा एक दूसरे से कुछ भी कह सकते थे ... सुन सकते थे।
हर रिश्ते का चरम फैलाव शायद दोस्ती ही होता है। पिता, भाई, पति, प्रेमी बेटा... एक औरत मर्द के साथ इन्हीं रिश्तों को जीती है। पिता एक पिता से कुछ ज़्यादा होता है तो दोस्त हो जाता है, भाई एक भाई से थोड़ा़ ज़्यादा होकर दोस्त बन जाता है... और पति अपने पति को थोडा़-सा फैलाव दे-दे तो पत्नी का दोस्त बन जाता है! यही स्थिति प्रेमी पुरूष की भी हैं...! सिर्फ़ प्रेमी होगा तो उसकी पहुँच चेतना के बाहरी... धरातल तक ही होगी... थोडा़-सा दोस्त बनकर वह स्त्री का सबसे मनभावन साथी बन जायेगा... दुनियाँ में किस औरत को कृष्ण नहीं चाहिए... ? सिर्फ़ राधा, सिर्फ़ मीरा... सिर्फ़ द्रौपती को ही क्यों। अप्पी सुविज्ञ के साथ उसी अनहद मयार पर... दोनों अपने बीच के बेसाख्ता चाह को अपनी सम्पूर्ण चेतना के साथ जी रहे थे। अप्पी को सुविज्ञ से कोई दुनियादी काम नहीं निकलवाना...न सुविज्ञ को अप्पी के रात दिन में अपनी हिस्सेदारी चाहिए। उनका ये रिश्ता सामाजिक कटलाॅग के बाहर था...कोइ गिव एंड टेक नहीं, कोई प्राॅफिट और लाॅस नहीं! बावजूद उसके कुछ खोने का एहसास नही...अप्पी को लगता जीवन से उसने जो चाहा...वो सब पा लिया...खुशी संतुलन और बेहिसाब दर्द भी! वह एक दूसरे के भीतर जीते थे और चमक एक शक्ति की तरह उनके चेहरो पर दिपदिप करती थी ... दोनों जानते थे...वो एक दूसरे की किस्मत में ऐसे ही लिखे थे... सारी उम्र अपने बीच का डिस्टेंस मेंटेन रखते हुए सारी उम्र एक दूसरे की हसरत में जीना...! दोनों ने इसके लिए सहमति दी थी और ये स्थिति मान ली गई थी।