तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा / भाग 2 / सपना सिंह
तब वह वक्त था जब दंगे फसाद आज की तरह आम बात नहीं थे। इंदिरा गांधी की हत्या और उसके बाद भड़के दंगे ... उस पीढ़ी का पहला त्रासद अनुभव था। पर वह सब सिर्फ़ खबरों के द्वारा सुना जाता ...पढ़ा जाता था। हमारी कहानी के नायक नायिका दिल्ली से मीलों दूर थे ... और खासतौर पर अप्पी के लिए तो दिल्ली और उसके आस-पास की घटनाओं का उतना ही महत्त्व था जैसे आज की पीढ़ी के लिए गाजा पट्टी पर चल रहा युद्ध।
अपराजिता पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिस कस्बे नुमा जिले में रहती थी, जिस राजकीय कन्या इण्टर कालेज मंे ग्यारहवीं या बारहवीं कक्षा में पढ़ती थी ... वहाॅँ हिन्दू, मुस्लिम, सिख, मारवाड़ी सभी लड़कियाँ पढ़ती थी और तब आतंकवाद और आंतकवादी जैसा शब्द समान्य जन के लिए अनजाना ही था। अपराजिता का भी बहुत-सी मुस्लिम लड़कियों से दोस्ताना था। पर घर के संस्कार से मजबूर उसे उनके घर कुछ भी खाने में जाने कैसी हिक-सी आती ... क्यों पता नहीं। भीतर बजता ... ये सोच ग़लत है ... पर ये 'गलत' संस्कारों में शामिल था। अजीब-सी बात थी ... ऐसी घिन या हिक पापा और भाई को नहींे आती ... वह तो अक्सर रमजान के महीने में पापा के मुस्लिम कुलीग के यहाँ जाते और रोजा खोलते मम्मी ने आपत्ति दर्ज की-काहे चले जाते हैं आप सरे सांझ रोजा खोलने ...? "
" तो क्या हुआ ... इतने प्यार से वह इन्वाइट करते हैं
" गदबेर के समय हमनी के यहाॅँ खाइल पीयल दोष मानल जायेगा ... वह लोगनह के यहाॅँ न सब उल्टे होयेला ... मम्मी सीधेे भोजपूरी पकड़ लेतीं।
"तुम औरतों का न ..." पापा भन्ना जाते
बाद में ... बहुत बाद में जब अप्पी गोरखपुर विश्वविद्यालय में एम.ए. फिलाॅसफी की स्टूडेंट थी ... उसी समय 'सलमान रूश्दी' के उपन्यास 'सैटेनिक बर्सेज' का प्रकाशन हुआ था। उस उपन्यास पर कठमुल्लों द्वारा प्रतिबन्ध लगाने के साथ रूश्दी के लिए मौत का फतवा भी जारी हुआ था। उसे याद है वह सब ग्रुप में बैठे थे ... बातचीत का विषय यह पुस्तक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ हो रहे खिलवाड़ से सम्बंन्धित ही था। अप्पी ने सलमान रूश्दी के विषय में कुछ कहा था ... उनका पक्ष लिया था कि ग्रुप का एक मुस्लिम लड़का कैसे तो भड़क गया था। अप्पी ने पूछ लिया था ... तुमने किताब पढ़ी है...?
...कौन-सी बात किस संदर्भ में कही गई हैं ... बिना पढ़े बिना जाने तुम कैसे मान सकते हो कि किताब पर बैन लगाना जायज ही है... और वाकई, सलमान रूश्दी को मौत के घाट उतारने वाले बंदे को जन्नत नसीब होगी ...?
माहौल गर्म हो गयाा था। उस मुस्लिम सहपाठी, के चेहरे पर नागवारी के भाव थे कुछ इस तरह कि उनके धर्म पर अप्पी या किसी का कुछ बोलना वह बरदाश्त नहीं करेगा। बाद में अभिनव ने अप्पी की अच्छी क्लास ली थी "क्या ज़रूरत थी तुम्हें इस बेवजह की बहस में पड़ने की ... असलम का चेहरा देखा था ... रूश्दी का तो कुछ बिगाड़ न पाता ... हाॅँ तुम्हेें ज़रूर जन्नत पहॅँचा देता ..."
"ऐसे कैसे ...?" अप्पी को समझ नहीं आया था ... भला साथ में पढ़ने वाला दोस्त जैसा कोई इतनी-सी बात पर किसी की जान भी ले सकता है ...
"ये लोग बहुत कट्टर होते हैं ... जहाॅँ धर्म की बात आई मारने-मरने पर उतारू हो जायेंगे ... इतिहास उठाकर देख लो ..."
अप्पी उस समय तो चुप लगा गई थी पर, भीतर एक सोच तो चल ही रही थी ... धर्म को लेकर कट्टर होने का दोष सिर्फ़ उन पर क्यों ...? सालों बाद बाबरी मस्जिद विध्वंस और उन्मादी कार सेवकों की करतूते वह सब भी तो इतिहास में दर्ज है ...कैसी अजीब-सी बात है औरतों का सारा धर्म छुआछूत भेदभाव, घर के बर्तन अलग... रखना इनमें समाया होता और मर्द? वह तो खाने पीने में कोई भेद भाव नहीं करते ... पर दंगों के समय तो ये मर्द ही होते हैं जो तलवार और बंदूकों से खूनी खेल खेलते हैं! क्या इतिहास में दर्ज किसी दंगों का दोष औरतों पर मढ़ा जा सकता है? लोग भले रामायण और महाभारत की लड़ाइयों का कारण सीता और द्रौपदी को माने पर सच तो ये है कि ये लड़ाईयाँ पुरूषों के झूठे दंभ और शक्ति प्रदर्शन की चाह के कारण लड़ी गई।
इन सब बातों से भी और पहले अपराजिता और छोटी थी ... शायद छठवीं कक्षा में ... उन्हीं दिनों में किसी दिन उसने पाकिस्तान में किसी भुट्टों के फांसी पर झुलाये जाने की खबर सुनी थी। अप्पी के पापा कि पोस्टिंग तब जिस कस्बे में थी वहाॅँ उसके सारे पड़ोसी मुस्लिम ही थे पूरे मोहल्ले में मातम-सा छाया था ... और मम्मी ने मुंह बनाकर कहा था ... सब गद्दार होते हैं... रहेंगे यहाॅँ और न्यूज सुनेंगे पाकिस्तान की। अप्पी समझ नहीं पायी थी मम्मी की इस नाराजगी को ... उसे ये भी नहीं समझ आया था कि पाकिस्तान में होने वाली किसी घटना पर खुश या उदास होने के क्या अच्छा या बुरा है ... फिर, उसके अपने घर में भी तो पड़ोसियों के घरों जैसा ही माहौल था ... सभी मुंह लटकाये रेडियो से चिपके थे।
... उन्ही किसी दिनों में एक स्काई लैब नाम का भूत भी दिनों तक दहशत का कारण बना था। अप्पी ठहरी नंबरी डरपोक। रातों को नींद न आती लगता स्काई लैब तो बस्स उसके शहर में ही गिरने वाला है ... सब खत्म। अप्पी को तो मरने से बहुत डर लगता है ... ओर सबके मरने से तो और भी ज्यादा।
ये अप्पी भी न बड़ी सड़ियल-सी लड़की थी। भाई बहनों आस-पड़ोस में वह महालड़ाकिन के नाम से जानी जाती। मम्मी से तो एक क्षण नहीं पटती उसकी। उसके रंग ढ़ग देखकर मम्मी को चिंता हो जाती। जहाॅँ उसकी उम्र की लड़कियाँ ... चादर, तकिये के कवर पर कसीदे काढ़ रही होती है ... या फिर पत्रिकाओं में पढ़कर नई-नई रेसिपी ट्राई कर रही होती । ... ये महारानी जी इंद्रजाल कांॅमिक्स के लिए अपने भाई बहनों से लड़ रही होती।
वो सारे काम जो उसे दादी, नानी, मौसी, आंटी की नज़र में लायक बनाते उसमें वह निल थी। यहाॅँ तक तो ठीक था ...कौन-सी उमर बीत गई है ...समय पर सब सीख जायेगी ... लेकिन उसके रंग ढ़ग तो निराले ही थे सहन शक्ति ज़रा भी नहीं थी। मध्यवर्गीय लड़कियों जैसा न स्वभाव न शौक। पढ़ाई लिखाई में भी बस्स ऐवे ही। ऐसे ही अस्त व्यस्त तरीके से उसने इंटर पास कर ... लिया।
सुविज्ञ के चर्चे अप्पी अक्सर सुना करती थी। जब भी बड़ी मौसी के यहाॅँ जाती ... दीदी लोग ... मौसी जी सभी सुविज्ञ, स्वरूप और सुनिधि का बखान यूॅँ करते मानों दुनियाँ में इतने लायक बच्चे न कभी किसी के हुए हैं न होंगे। सुविज्ञ का बखान ज़्यादा ही होता। मन ही मन अप्पी जल भुन कर कोयला हुई जाती ... हुंह बड़े आये तीस मारखाॅँ बेचारी अप्पी किससे कम है?
सही बात है, वह किस मामले में किसी से कम थी? बचपन की दुबली पतली मरबिल्ली-सी लड़की ... यौवन की दहलीज पर पाॅँव रखते ही वैसे हो गई थी जैसे जादू की छड़ी फिराते ही सिन्ड्रेला्। लम्बा कद, सलोने लम्बोतरे चेहरे पर ... बड़ी-बड़ी भौंरे जैसी आंखे। ठुड्डी पर हल्का-सा गड़ढ़ा ... जो चेहरे को एक दुधिया टोन देता था। दुबली कलाइयाॅँ और हाथ। बहुत कम ऐसे हाथ दिखते हैं... लगता था किसी कलाकार ने बड़े यत्न से उसके हाथों को आकार प्रदान किया है। लम्बी पतली ऊपर की ओर मुड़ी उगलियाँ। गुलाबी हथेली और तराशे नखून! उँगलियों को अजीब अंदाज में हिलाती डुलाती जब वह बतियाती तो देखने वालों का मन हो आता ... कसकर उन्हें हाथों में पकड़ कर मसल दें। दिनांे दिन बड़ी होती जा रही अप्पी के विवाह की चिंता ने अप्पी की मम्मी की नींद हराम कर दी थी। अपने पति से उन्हें यही शिकायत थी, इतने आराम से बैठे हैं ... जाने कब लड़का देखना शुरू करेंगे। एक तो वैसे भी ठाकुरों में अच्छे लड़के मिलते नहीं। ... और जो अच्छे निकल जायें तो उनका मुंह इतना बड़ा कि पूछो मत ... बस चले तो लड़की के माँ-बाप के घर ओढ़ने बिछाने को भी न छोड़े। अप्पी को भला मम्मी की चितांओं दुश्चिताओं से क्या मतलब वह तो अपनी ही दुनियाँ में गुम रहती। उसे नीरू दी की बातें याद आती, कैसे तो मौसी से कहा था उन्होंने, अम्मा अपने सुविज्ञ भैया कि शादी अप्पी से करा दे तो फरफेक्ट मैच रहेगा न...? मौसी ने एकदम झिड़क दिया था नीरू दी को ... कुछ भी बकती है ...आरे, उनकर शादी कउनों डाक्टरनी से ही होई । उन्हें अपनी साधारण बहन बहनोई की बेवतं पता थी ... और अपने देवर के मिजाज से भी परिचित थीं वो। सुविज्ञ विवाह के बाज़ार में कोहिनूर-सी हैसियत रखता है। अपनी आँख से बड़ा सपना आॅँख में अंटाने की कोशिश भी करोंगे तो ... सपना टूटना तय है... और अपना नुकसान भी।
पर अप्पी तो अप्पी ही थी ...जिस सुविज्ञ की बातें बखान सुनकर उसे बड़ी कोफ्त होती भीतर ही भीतर ईष्र्या, प्रतिस्पर्धा महसूस होती ... उसी सुविज्ञ के विषय में सुनना उसे अच्छा लगने लगा था। जाने क्यों और कैसे सुविज्ञ उस 17 वर्षीय किशोरी के हृदय पर एकछत्र राज्य करने लगा था। उसके मन की कटुतायें आप से आप दूर होने लगी थीं। अपने आपको व्यवस्थित करने रखने का प्रयत्न उसके व्यवहार में दीखने लगा था।
छोटी-सी लड़की जो रातों को वक्त बेवक्त आंखें खुल जाने का मतलब नहीं जानती थी। शामे बेवजह क्यों उदास हो जाया करती हैं उसे नहीं मालूम। जब लड़कियाँ बैठकर अला फलां लड़कों की बाते करती हैं तो क्यों एक नाम उसके सीने में हलचल मचा देता है? क्यों वह सुविज्ञ के विषय में होती बातों को अपने रोम-रोम से सुनना चाहती है, उसे देखने को उसे सुनने की इच्छा क्यों उसके दिल में पैदा होने लगी है ... और ये दिल में हरदम रहने वाला दर्द... क्यों नहीं उसे इस दर्द से उलझन होती ... कैसी उमंग, कैसी प्रेरणा मिल रही है उसे मन होता है कुछ अच्छा करने का भलाई करने का । कैसी शक्ति कैसा प्यार का सैलाब-सा उमड़ा पड़ रहा है भीतर लगता है सब उसमें समा जायेंगे। एक ऐसे व्यक्ति को जिसे वह जानती नहीं ... जो उसे ... नहीं जानता, जिससे वह मिली थी... उसके बारें में सोचते रहना उसे अजीब क्यों नहीं लगता? क्या मतलब है इन बातों का... क्या हो रहा हैं उसे... क्यों अब पहले-सी बेचैनी नहीं हैं... ये सुकून ये शान्ति। क्यो चिडियोें-सा चहचहाने का मन करता है...?
इतने सारे सवाल और एक दिन किसी ऐसी ही सवालों भरी जागती रात को अप्पी को अपने सवालों का जबाब मिल गया। प्यार! हाॅँ वह प्रेम करने लगी है अपने अन्तर से उठी आवाज से घबड़ाकर अप्पी ने अपने मुॅँह को तकिये में छुपा लिया... ओह ईश्वर दया करना।
आगे के दो वर्षो में बहुत बदल गयी वो। पढ़ाई के साथ-साथ पेंटिग में उसे खासी दिलचस्पी थी... बागवानी और पेटिंग के अपने शौक को निखारने में वह व्यस्त रहने लगी... पढ़ने का जूनून तो इस कदर कि छपा हुआ जो मिल जाये पढ़ना है। अप्पी को अपने सारे शौक विरासत में मिले थे... पापा, मम्मी, भाई, बहन सभी किताबों के शैकीन। फ़िल्मों के शैकीन... फ़िल्मी गानों के शौकीन। अप्पी को किताबे खरीदने की खब्त, तो भाई को कैसेट खरीदने की
सुविज्ञ के बारे में अक्सर-न्यूज पेपर भी कुछ-कुछ निकलता रहता था। दरअसल वह राज्य स्तर पर शूटिंग के चैम्पियन थे, अप्पी पेपर से उसकी तस्वीर काटती, काॅपी में चिपकाती... और सोचती...वो कैसा होगा जिसकी तस्वीर ऐसी है...उसकी इन हरकतों को सभी ऐसे ही सहज रूप में स्वीकार चुके थे। जैसे किशोर वय के लड़के लड़कियों के फ़िल्म स्टार या क्रिकेट स्टार के प्रति जुनून को परिवार में स्वीकृत मिल जाती है। भाई ने स्टेफीग्राफ और सबातीनी का पोस्टर लगा रखा था, छोटी बहन नें अजहरूद्वीन का...वह स्वयं जैकीश्राफ की दीवानी थी... अब इसमें सुविज्ञ को भी शामिल कर लिया गया।
बी.ए. के बाद एम.ए. के लिये अप्पी ने गोरखपुर युनिवर्सिटी में प्रवेश लिया। पापा के साथ जब वह अपना सारा सामान लेकर हाॅस्टल पहुची थी... तो उस बच्ची-सी दिखने वाली लड़की के सरल सौम्य बचकानी मुस्कान और प्यारी आँॅखो से झांकती उसके हद्य की निर्मलता ने सारी लड़कियों और साथ ही वार्डन प्रतिमा मैम के हद्य में अपनी स्थाई जगह बना ली थी। उसकी रूममेट सीमा बनर्जी तो कुछ ही दिनों में उसपर जान छिड़कनें लगी थी। उधर मौसी जी, मौसाजी पापा से खासे नाराज थे। आखिर जब वह लोग यहाँॅ हैं तो फिर अप्पी को हाॅस्टल में रहने की क्या तुक। पर गोरखपुर में बहुत से लोग रहते हैं... अप्पी के ताउजी हैं, छोटी मौसी भी हैं और भी कई रिश्तेदार। कहाँॅ-कहाँॅ रहती वो?
अप्पी का जीवन किसी अर्थ में उन लड़कियों से भिन्न नहीं था... जो उम्र में उसके बराबर थीं... स्कूल काॅलेज युनिवर्सिटी जाती थीं। ऊपरी तौर पर सबकुछ वैसा ही... था। हाॅस्टल का अस्त व्यस्त जीवन, दोस्तों के साथ मस्ती... कभी पूरा का पूरा ग्रुप क्लास गोल करकेे... युनिवर्सिटी के पीछे बने पार्क में जा बैठता... तब ये सामने वाला पार्क कहाँॅ बना था... सब थे... सबके साथ वह थी पर भीतर हर वक्त एक बेचैनी। तर्क के बिना कोई बात मान लेना उसकी फितरत नहीं थी... पर, मन का क्या करें... उसने बार-बार यह सोचकर अपना दिमाग खराब किया कि कही सुविज्ञ के प्रति उसका ये पागलपन महज आकर्षण से ही संचालित न हो... अथवा सुविज्ञ के विषय में निरन्तर ऐसी बातें सुनकर जो उसे अद्वितीय बनाता हो ने उसे प्रभावित कर दिया हो। फिर किसी ऐसी लड़की का कौतूहल प्यार में बदलते देर नहीं लगता जो अद्वितीय से नीचे प्रभावित ही नहीं होती। लेकिन उसके इस प्यार का मूल्य ही क्या है...कहीं वह अपने को ही तो नहीं छल रही... स्वयं को असाधारण मनवाने के लिए किया गया उसका अपना ही छद्वम प्रयास।
जब इन सब का कोई अर्थ मूल्य नहीं तो फिर उसके भीतर सुविज्ञ के लिए जो एहसास है...वो उसे कैसी रोशनी देता है... क्यों वह और आस पास सब कुछ बदल गया है। उसका ये सोचना ही कि वह सुविज्ञ को प्यार करती हैं... उसके भीतर की सारी बेचैनियों को खत्म कर देता है। बची रहती हैं सिर्फ़ एक अटूट आस्था... अपने से ढेरों प्रश्न करने... अपने को खूब-खूब समझाने पर भी जब कोई नतीजा न निकला तो अप्पी ढीठ हो गई। हाॅँ ज़रूर कोई बात है जो उसे सुविज्ञ से कटने नहीं देता... और ये कोई बात प्यार के अलावा और क्या हो सकता है...?