तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा / भाग 5 / सपना सिंह
अपराजिता जी
नमस्कार।
आपका पत्र मिला, विलम्ब के लिए माफी चाहता हूॅँ। पत्र पढ़ के काफी हर्ष हुआ यह जान के खुशी भी हुई कि जिसे हम अच्छी तरह जानते न हो... उसपे मेरा इतना प्रभाव पड़ सकता है।
आपका पत्र पढ़ के तो कोई भी प्रभावित हो जायेगा। मैं तो ज़रूर आपकी खुशी चाहूॅँगा... इसलिए आपको पत्र लिख रहा हूॅँ। हिन्दी में मैं बहुत कम पत्र लिखता हूॅँं इसलिए पत्र में गलती होगी तो माफ कीजिएगा।
शुभकामनाओं के लिए
धन्यवाद
आपका सुविज्ञ
सुविज्ञ का यह संक्षिप्त और औपचारिक-सा पत्र पाकर ही अप्पी अपने आप को सातवें आसमान पर समझने लगी थी। पर उसकी खुशी बहुत दिन तक नहीं टिक पाई। जल्द ही उसे सुविज्ञ के विवाह की खबर मिल गई थी। मौसी के यहाॅँ गई तो नीरू दी चहक रही थीं... सुविज्ञ के विवाह के सम्बन्ध में ही बातें होती रही सारे समय। बेचारी अप्पी के हौसले पस्त हो गये। हद है भाई, अखिर अप्पी ने सोच क्या रखा था? ये सब तो होना ही था न... चलो अच्छा है... अब उसे जमीन पर आने में मदद मिलेगी। फिजूल का जो फितूर पाला था... कम अज कम वह तो उतरेगा।
हाॅँ ठीक है... थोड़ी खराब-सी फीलिंग है... शायद कुछ दिन रहे...फिर सब ठीक हो जाना है... शायद कुछ वर्षो बाद वह ये सब याद कर हंसे... एम्बरेसिंग लगे सब कुछ। पर अभी? ये वक्त इतना भारी क्यों हो रहा है... दिमाग कही टिकता नही... दिल की हालत यूॅँ मानो कोई मुठठी में ले उसे भंींच रहा हो... हर वक्त पडे़ रहने को जी करे। वह भी न हो पाये... घबराहट, घुटन... वह घर चली गई लगा वहाॅँ पापा-मम्मी भाई बहन और पुरानी सहेलियों के बीच शायद मन को राहत मिले... रिजल्ट निकलते ही वह फिर वापस गोरखपुर आ गई। नीरू आई थी उससे मिलने हाॅस्टल ... उसे देखकर चैक गई थी... अरे अप्पी कितनी दुबली हो गई हो...,
"हाँॅ... जैसे हम बहुत मोटे थे...जो दुबले हो गये ..." अप्पी हसी थी,
" घर आ जाना...अम्मा बुलायी हैं... और कुछ खरीददारी भी करनी है अभी... चलो मेरे साथ...
"कहाॅँ जाना है..." अप्पी का ज़रा भी मन नहीं था कही जाने आने का...
"उर्दू चलना है फिर गीता प्रेस...चलो जल्दी तैयार हो जाओ।"
फिर बेमन से ही अप्पी गई थी नीरू के साथ। युनिवर्सिटी में अभी क्लासेज नहीं शुरू हुई थीं... अप्पी को वक्त काटना मुश्किल लग रहा था। उसने लाईब्रेरी ज्वाइन कर ली... चलो कुछ क्लासिक निपटा लिया जाय लिया जाये। मोटे-मोटे नावेल जिनके पात्रों के दुखः दर्द के साथ उठते-बैठते सोते उसे अपना दुख भुलाना आसान लगने लगा था।
उस दिन दोपहर को अचानक ही सुविज्ञ को आया देख घर में सभी तो चैक गये थे। यूॅँ भी सुविज्ञ पिछले दो वर्षो से अम्मा बाबूजी से मिलने नहीं आ पाया था और ऐसे वक्त जब विवाह को चार दिन रह गये हो... कौन भला ऐसे आता है। पता चला वह उन लोगों को अपने साथ... ही लिवा ले जाने आया है। स्वयं के कोई पुत्र न होने से अम्मा बाबूजी का सुविज्ञ पर पुत्रवत स्नेह था... पिछले लम्बे समय में सुविज्ञ के इधर न आने से वह मन ही मन आहत हैं... सुविज्ञ ये बात समझ रहा था! अतः अपने विवाह पर उन्हें स्वयं लेने आकर वह एक तरह से उनकी नाराजगी दूर करने का प्रयत्न कर रहा था।
पिछले कुछ दिनों से अप्पी मौसी के यहँा ही थी... युनिवषर््िटी में छात्र संघ चुनावों के वजह से पढ़ाई एक दम ठप्प थी! हाँस्टल भी लगभग खाली था। नीरु को भी रोज शाॅपिंग के लिये अप्पी का साथ चाहिए था... अतः अपनी किताबों कपडों़ के साथ अप्पी फिलहाल अपनी मौसी के यहाँ थी... जिस समय सुविज्ञ आया... अप्पी अपनी दोस्तों के साथ बख्शीपुर में लगे सोवियत प्रदर्शनी में गई थी। ...
"अम्मा... ये अप्पी कहाँ रह गई... बाज़ार भी जाना था..." नीरु झल्ला रहीं थी।
सुविज्ञ खाना खाकर आराम करने के लिये नीरु के कमरे में आ गया था! एक तरफ काॅपी किताबों की गड्ड लगी थी... 'किसकी है ये सब' सुविज्ञ को हैरानी हुई थी... नीरु तो पढ़ाई बन्द कर चुकी थी।
"अप्पी महारानी का है... चार दिन को भी आयेगी तो बोरा भर कर काॅपी किताब साथ लायेगी..." नीरु को अप्पी पर इस समय खासा क्रोध आ रहा था... एन वक्त पर गायब है महारानी जी।
"कौन अप्पी... ?" सुविज्ञ पूछ रहा था।
"मालती मौसी की लडकी...!" नीरु ने बताया।
"अपराजिता...!" सुविज्ञ के मुह से निकल गया था।
"हाँ...!" लेकिन आप कैसे जानते हैं" नीरु चैंकी थी।
"अरे, तुम्ही लोगों से तो सुना है।" सुविज्ञ हड़बड़ा कर बोला था! नीरु व्यस्त भाव से बाहर चली गई थी... सुविज्ञ टेबल पर रखी किताबों को देखने लग... कुछ फिलाॅसफी की थी... कुछ नाॅवेल की थी... एक नोट बुक भी खुली हुई रखी थी! लगता था लिखते-लिखते यूँ ही छोड़कर उठ जाया गया हो उसने नोट बुक उठा ली और पलटने लगा कहीं-कहीं किताबों से नोट किये हुए वाक्य लिखे... किताब का नाम और लेखक का नाम भी था... कहीं-कहीं दो चार लाइन की बचकानी-सी कविताऐं भी थी... पता नहीं स्वयं से लिखी हुई या कहीं से उतारी हुई।
" सोचो में गुम देख मुझको,
किसी ने शरारत से पूछा,
क्या याद आ गई उसकी,
मुस्कुराते हुये सोचा- 'काश'
कभी भूल भी पाती तुझको,
सूनी आँखों से,
अपनी छत पर खड़े होकर ,
देखती हूँ इन मसरुफ सड़कों को,
चुपके से एक बेतुका ख्याल,
दिल को कंपा जाता है, बरबस
इन चलते भागते लोगों के साथ,
कभी तो गुजरोगे तुम,
भीड़ का एक हिस्सा बन कर! "
सुविज्ञ ने कुछ और पृष्ठ पलट दिये...
" अजीब-सी कश्मकश में घिरी हूँ... इतने-इतने सारे दिन जिस व्यक्ति को पूजा कि तरह चाहती रही... उनकी शादी की खबर सुनकर खिन्नता का एहसास... तो क्या मैने कुछ ग़लत अपेक्षा करी हुई थी... अपनी आँखों से बड़ा सपना देख लिया... देखा जाय तो सबकुछ एक दिमागी फितूर तो है। मन की खिन्नता कि बजह से ही शायद यह एहसास हो... हाँलाकी उदासी बिल्कुल नहीं है... पर वही एक तीखा-सा एहसास कि क्या सब कुछ एक झटके में ही खत्म हो जाने के लिये था... या फिर क्या सचमुच ऐसा कुछ था भी...जो खत्म होने जा रहा हैं...क्या इन बातों में सचमुच कोई दम नहीं होता... किसी के लिए अपने नजर में देवत्व की उँॅचाई तक पहॅुँचा देना... महज कचरा दिमाग की हवाबाजी ...एक बड़ा सा...नानसेंस अपने आपको कहने का जी चाह रहा है।
सुविज्ञ ने एक गहरी सांस ली थी...
' दिन कितनी तेजी से बीत रहें है...या मुझे ही ऐसा लग रहा हैं। मेरे साथ कभी भी तो आश्चर्य चकित कर देने वाली सुखद घटना नहीं घटी सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है फिर भी हर वक्त खुद से उछलती रहती हूॅँ...क्या प्रेम करना ग़लत है? शायद नहीं...मुझे तो खुश होना चाहिए... मैं उन चन्द लोगों में सें हँूॅ जिन्हे ईश्वर ने ये नियामत बख्शी है...प्यार कर पाने की... पाना खोना ये बातें बेमायनें हो जाती हंै... असल बात है प्रेम को महसूस करना... हाॅँ मैं प्रेम में हँूॅ ... हाॅँ मेै इस दर्द को पूरी विनम्रता से स्वीकारती हँूॅं।
सुविज्ञ का हृदय मानो इस लिखे को कठंस्थ-सा कर रहा था... कुछ था जो बदल रहा था उसके भीतर अन्दर बाहर चारों ओर शून्य-सा न कोई तड़प न जलन न चिढ़ न नाराजगी वैसे नाराज किस पर हुआ जाय? हमें तो ये भी नहीं पता। ईश्वर से नाराज होना बेमतलब है... उसे जो करना होगा वह करेगा ही। ... बहरहाल वक्त भाग... रहा है...बीत रहा है...एक दिन यही भागता वक्त 18 जनवरी को बिता देगा। अजब है ये आदम जात भी... हम कुछ लम्हों से डरते हैं... कुछ चीजें भारी लगती हैं...कुछ दर्द लगता है सह नहीं सकेंगे... पर सब बीत जाता है...गुजरते पल की तकलीफ बीते दिन की बात बन याद मात्र रह जाती है... और हम एक बार फिर से नये होकर आते हैं... सहने के लिए, जीते रहने के लिए।