तबादला /गिरिराजशरण अग्रवाल

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सुबोध अवस्थी का तबादला हुआ तो दोनों बच्चे मचल गए, 'हम नहीं जाएँगे मम्मी फैजाबाद, हम नहीं जाएँगे।'

मम्मी ने समझाया, 'देखो भई, अच्छे बच्चे जिद नहीं किया करते। अधिकारियों के तबादले तो होते ही रहते हैं। वे स्थाई रूप से किसी एक जगह नहीं रह पाते हैं। साल, दो साल, चार साल में उन्हें इधर से उधर जाना ही होता है। इस तरह नहीं मचलते हैं अधिकारियों के बच्चे।'

शीला मम्मी की बात नहीं समझी। वह फूट-फूटकर रोने लगी, 'मैं नहीं जाऊँगी मम्मी, मैं नहीं जाऊँगी।'

उधर सुमित ने अपना पै़फ़सला सुना दिया, 'आप लोग चले जाएँ मम्मी फैजाबाद, हम यही रहेंगे, शीला और मैं।'

'तुम किसके पास रहोगे, बेटे! इतने छोटे हो कि अकेले रह नहीं पाओगे। फिर फैजाबाद जाकर कुछ दिन वहाँ रहोगे तो वहाँ भी तुम लोगों का दिल लग जाएगा। वहाँ भी दोस्त बन जाएँगे। ऐसे ही जैसे यहाँ बन गए हैं।' माँ ने कहा।

'और जब दोस्त बन जाएँगे। ऐसे ही जैसे यहाँ बन गए हैं तो फिर वहाँ से भी पापा का तबादला हो जाएगा। फिर हम लोगों को अपने दोस्तों को छोड़ना पड़ेगा, मम्मी।'

अमित की इस आशंका का उसकी मम्मी राधिका के पास कोई उत्तर नहीं था। वह चुप हो गई. लेकिन सोच में डूब गई कि सचमुच ही बच्चों की यह समस्या जटिल है। अपने संगी-साथियों को छोड़ते हुए उन पर क्या असर पड़ता होगा? उनकी मानसिकता कितनी गहराई से प्रभावित होती होगी। तबादलों की क्रिया से उनकी भावनाओं को कितना आघात पहुँचता होगा?

सुबोधकुमार अवस्थी तीन वर्ष पहले स्थानांतरित होकर बाँदा आए थे। वे मनोरंजन कर अधिकारी थे। तब उनका बेटा सुमित और बेटी शीला भी छोटे थे। लेकिन उन्हें याद है कि तबादले के आदेश आने पर मम्मी ने गेंदासिह की सहायता से घर का सारा सामान समेटा था। सब चीजें बक्सों और पेटियों में पैक की थीं, होलडाल में बिस्तार बाँधे गए थे। फिर सुबह अँधेरे ही एक ट्रक उनके घर के सामने आकर खड़ा हो गया था। उसमें घर का सारा सामान एक-एक करके लादा गया था और कुछ ही देर बाद हम उस शहर से विदा हो गए थे। उन्हें याद था कि तब भी वह अपने दोस्तों से मिलकर बहुत रोए थे, बहुत मचले थे। वहाँ भी उन्होंने न जाने की जिद की थी_ पर कोई भी उनकी बात सुनने वाला नहीं था, न मम्मी, न पापा। उन्हें वहाँ से जाना ही पड़ा था।

तीन साल के बाद शीला और अमित को अब फिर वही दुःख झेलना पड़ रहा है। वे समझ ही नहीं पा रहे हैं, उनके पापा का तबादला इतनी जल्दी-जल्दी क्यों होता है? उन्हें अपने मित्रें को बार-बार क्यों छोड़ना पड़ता है?

कई हफ्ऱते बाद जब नए स्कूल में उनका दाखि़ला हुआ और धीरे-धीरे कुछ सहपाठियों से उनकी दोस्ती हो गई, तब जाकर उन्हें लगा कि वे इस नगर में अकेले नहीं हैं। यह नगर उन्हीं का है। वे यहाँ की सड़कों-बाजारों से परिचित हैं। कई लोगों को वे जानते हैं, कई लोग उन्हें जानते हैं। लेकिन अब फिर उनके पापा का ट्रांसप़फ़र हो रहा है। अब फिर वे ऐसी जगह चले जाएँगे, जहाँ कोई उन्हें नहीं जानता। सुमित यह सोचकर घबरा-सा गया।

सुबोध चार्ज छोड़कर वापस आए तो सुमित मचल गया, 'ट्रांसप़फ़र क्यों होता है पापा? हमें बार-बार अपना घर क्यों छोड़ना पड़ता है?'

सुबोध अपने बेटे के सवाल का कोई जवाब नहीं दे पाए. बस इतना ही बता सके कि अधिकारियों के तबादले तो होते ही रहते हैं। सरकार का नियम ही कुछ ऐसा है। अधिकारियों को तो हर दो-चार साल बाद एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना ही पड़ता है।

'क्यों जाना पड़ता है?' सुमित ने फिर एक चुभता हुआ सवाल सुबोध से किया, 'और सब लोगों को तो नहीं जाना पड़ता पापा।'

बेटे की भावनाओं को शांत करने का कोई और उपाय नहीं सूझा, सुबोध को। वह बोले, 'अधिकारियों के बच्चे ऐसा नहीं सोचते बेटे। वे तो एक नगर से दूसरे नगर जाने के अभ्यस्त हो जाते हैं।'

'मैं नहीं जाऊँगी।' शीला पाँव पटक-पटककर मचलने लगी, 'मैं अर्चना और ऋचा को छोड़कर नहीं जाऊँगी, फैजाबाद।'

शीला की मम्मी जानती थीं कि अर्चना और ऋचा शीला की बहुत गहरी मित्र हैं। तीनों साथ-साथ रहती हैं, खेलती हैं, घूमती हैं। एक ही स्कूल में, एक ही क्लास में पढ़ती हैं। तीनों के बीच गहरा प्रेम है। वे यह भी जानती हैं कि सुमित यहाँ से जाएगा तो अनवर और सौरभ के बिना बहुत तड़पेगा, उदास-उदास-सा रहेगा। पर वह कर ही क्या सकती थीं? तबादला हुआ है तो उन्हें जाना ही होगा।

चपरासी सामान पैक करने के लिए आया तो सुमित तड़प गया, 'पापा! हम नहीं जाएँगे, आप लिखकर भेज दें सरकार को। यह तो पूछें सरकार से कि वह हमें बार-बार क्यों बेघर करती है?'

सुमित पापा से उलझ ही रहा था कि उसके मित्र अनवर और सौरभ उससे मिलने आ गए. शीला की सहेलियाँ पहले ही आ गई थीं। दोनों बच्चे अपने-अपने मित्रें के साथ लॉन में बिछी कुर्सियों पर बैठ गए. प्रतिदिन की तरह आज वे खेल नहीं रहे थे। सबके सब उदास थे, दुःखी थे। सबके चेहरे कुम्हलाए हुए थे। सबको एक-दूसरे से बिछड़ जाने का दुःख था। कल तक वे लॉन में उछलते-कूदते और चौकडि़याँ भरा करते थे, आज चुपचाप और खोए-खोए थे। जैसे उन्हें यहाँ से जबरन निकाला जा रहा हो।

राधिका ने शांत और उदास बैठे बच्चों की ओर देखा तो वह सुबोध से बोली, 'हम लोगों की तो कोई विशेष बात नहीं है, सुबोध। पर बच्चों के लिए यह बहुत बड़ी समस्या है। हर दूसरे-तीसरे साल तबादला होता है। बच्चे घर और अपने परिचितों को छोड़ने पर विवश होते हैं। कोई नहीं जानता कि उनकी कोमल भावनाओं को कैसा आघात पहुँचता होगा?'

'हाँ, तुम ठीक कहती हो, राधिका।' सुबोध ने सहमति व्यक्त की। तबादले का नियम बनाने वालों की दृष्टि बच्चों के इस भावनात्मक पक्ष की तरप़फ़ तो थी नहीं। बस ट्रांसप़फ़र अनिवार्य कर दिया गया। '

राधिका ने उत्तर दिया, 'बच्चे अपने परिचितों से गहराई से जुड़ जाते हैं। उनके प्रेम में बड़ी गहराई होती है। पर जब उन्हें एक शहर छोड़कर दूसरे शहर में जाना पड़ता है तो कोई नहीं जानता कि उनके मन पर क्या गुजरती होगी?'

'बच्चों की मानसिकता इससे किस प्रकार प्रभावित होती है, आज तक इस विषय पर किसी ने विचार ही नहीं किया? सम्बंधों में कैसी अविश्वसनीयता, कैसा अस्थायीपन आ जाता होगा? इस स्थिति को कौन समझ सकता है?'

'आपको याद होगा, सुबोध! जब हम ट्रांसप़फ़र पर बाँदा छोड़ रहे थे तो शीला कितना बिलख-बिलख कर रोई थी? चलते वक़्त तो वह बाथरूम में जा छिपी थी। बड़ी मुश्किल से खींचकर निकाला था उसे।' राधिका ने सुबोध को याद दिलाया।

'और तुम्हें यह भी याद होगा राधिका कि जब हम लोगों का सामान लद गया था तो सुमित भी चुपके से कहीं जा छिपा था। किरनलाल उसे बड़ी मुश्किल से ढूँढ़कर लाया था।' सुबोध ने पत्नी को तीन साल पहले की घटना याद दिलाई. बड़े अच्छे स्वभाव का चपरासी था किरनलाल। दोनों बच्चे उससे बहुत घुल-मिल गए थे। वह भी बच्चों से विदा होते हुए बहुत रोया था। '

'अब फिर यही होगा, सुबोध।' राधिका ने विदाई की बेला को निकट आती हुई देखकर कहा, 'यह तो बिलकुल स्वाभाविक है सुबोध, बच्चे तो फिर बच्चे हैं। बड़ों को भी दो-तीन साल एक जगह रहते-रहते उस वातावरण से, वहाँ के लोगों से, परिचितों से लगाव हो जाता है। पर बच्चे तो बड़ों से कुछ अधिक ही महसूस करते होंगे ना।'

'निश्चित रूप से।' सुबोध ने उत्तर दिया। हम लोगों को तो पहले से पता होता है कि इस नगर से भी एक-न-एक दिन जाना है, पर बच्चे तो इसके लिए तैयार नहीं होते। उन्हें तो अपने मित्रें-दोस्तों को छोड़ते हुए कष्ट होता है। '

'मुझे तो लगता है, सुबोध, बार-बार ऐसे आघात बच्चों को भावनात्मक रूप से कठोर बना देते होंगे। उन्हें किसी एक स्थान से लगाव ही नहीं रहता होगा। यह कैसी भयंकर स्थिति है। आदमी बंजर हो जाए तो कैसा लगता है?'

सुबोध और राधिका बच्चों पर तबादले के प्रभाव को लेकर वार्तालाप कर ही रहे थे कि सुमित अपने साथियों को छोड़कर भागा-भागा आया और सुबोध से बोला, 'क्यों पापा! अपना तबादला आपने रुकवा क्यों नहीं लिया? सौरभ कह रहा था, आपके अधिकारी ने रुकवा लिया है अपना ट्रांसप़फ़र।'

सौरभ तू ठीक कह रहा है, बेटे। पर तुझे नहीं पता कि तबादला रुकवाने के लिए क्या-क्या करना पड़ता है! तबादला अगर रुकवा भी लें तो कितने दिन के लिए! अब नहीं तो अगले साल जाना पड़ेगा। सर्विस में यह तो होता ही रहता है, बेटे। '

'मैं नहीं जाऊँगा पापा, मैं नहीं जाऊँगा। अनवर को छोड़कर, सौरभ को छोड़कर।' सुबोध की बात सुनकर सुमित मचल उठा। शीला भी आ गई. उसकी आँखों में आँसू थे और चेहरा उदास था। साथ में उसकी सहेली ऋता और अर्चना भी खड़ी थीं। बच्चे समझ नहीं पा रहे थे कि आखि़र उन्हें एक शहर से दूसरे शहर में क्या भटकना पड़ता है?

चपरासी सामान पैक करने में व्यस्त था। राधिका उसकी सहायता कर रही थी। ट्रक तैयार था।

दोनों बच्चों ने जिद की, 'हम नहीं जाएँगे पापा, हम नहीं जाएँगे फैजाबाद।'

मम्मी ने समझाया, 'वहाँ भी बहुत सुंदर स्कूल है, बहुत सुंदर बच्चे हैं। वहाँ भी ऐसे ही दोस्त बन जाएँगे तुम्हारे, जैसे यहाँ बन गए हैं। फिर तुम्हें यह शहर याद नहीं आएगा। अब चलो, जल्दी से तैयार हो जाओ.'

'पुराने दोस्तों को भूल जाना क्या अच्छी बात होती है मम्मी!' सुमित ने एक तीखा सवाल माँ से किया।

राधिका के पास इसका कोई जवाब नहीं था। वह चुप रही, सुबोध बोले, 'तुम अपने बिछुड़ रहे दोस्तों को पत्र लिख सकते हो बेटे। आखि़र यह पोस्ट आपि़फ़स किसलिए है?'

पिता का सुझाव सुमित की समझ में नहीं आया।

सामान ट्रक में लादा जा चुका था। राधिका ने रोते हुए दोनों बच्चों को जल्दी-जल्दी तैयार किया और विदा होने के लिए बाहर आ गई।

जब यह छोटा-सा कापि़फ़ला शहर छोड़कर जा रहा था तो दोनों बच्चे मम्मी से पूछ रहे थे-'क्यों मम्मी! क्या हम भी खानाबदोशों की तरह होते हैं, जो आज यहाँ तो कल वहाँ?' तभी सुमित ने सड़क से गुजरती वह बैलगाड़ी देखी, जिसमें खानाबदोशों का एक परिवार लदा हुआ था। वह इस शहर में कुछ दिन रहकर किसी दूसरी जगह जा रहा था। उसे आश्चर्य हुआ कि उनमें कोई उदास नहीं है, उसकी तरह, शीला की तरह। उसने गाड़ी को बराबर से निकलता देखा और चुप हो गया।