तमाशा / स्वदेश दीपक
वह अधेड़ उम्र का आदमी बड़ी देर से किसी साएदार पेड़ की तलाश कर रहा है। उसका आठ साल का लड़का बड़े थके-थके कदमों से बाप के पीछे चल रहा है। उसके गले में एक छोटा-सा ढोल पड़ा हुआ है जिसे वह थोड़ी-थोड़ी देर के बाद हाथों से पीट देता है। जब भी कोई पेड़ नजदीक आता है वह बड़ी तरसती निगाहों से उसे देखता है - शायद बापू इसके नीचे ठहर जाए। लेकिन नहीं, पेड़ बड़ा है तो साएदार नहीं। अगर साएदार है तो छोटा है। मजमा लगाने के लायक नहीं। बाप ने सिर पर बड़ी-सी पगड़ी बाँध रखी है। इसके लटक रहे सिरे से वह बार-बार मुँह और गर्दन को पोंछ लेता है। इनके पीछे-पीछे लड़कों का एक झुंड चला आ रहा है। बाप बार-बार पीछे मुड़ कर पीछा करते लड़कों को देखता है और खुश होता है। खेल तमाशा देखनेवाले यह छोटे-छोटे दर्शक ही भीड़ को बढ़ाने में मदद देते हैं।
अभी सुबह के दस ही बजे हैं। लेकिन सूरज, गरमियों का सूरज सेना की हरावल पंक्ति के आगे चलते हुए किसी क्रुद्ध सेनापति की तरह लंबी-लंबी छलाँगें लगा कर ऊपर चढ़ आया है। सूरज चारों तरफ बड़ी देर से तीखी और गर्म किरणों की बरछियाँ और किरचें बरसा रहा है। छोटे लड़के के गले में पड़ी ढोल की रस्सी पसीने से भीग गई है और उसके गले में, गर्दन में खारिस कर रही है। उसके गाल पिचके हुए हैं और बारीक मशीन से कटे सिर के छोटे-छोटे बाल काँटों की तरह सीधे खड़े हैं। सूरज की निर्दय गरमी ने उसे पीट डाला है। पिछले कई मिनटों से उसने ढोल पर थाप नहीं दी। बाप किसी जंगली सूअर की तरह गर्दन को थोड़ा-सा टेढ़ा करता है और तीखी आवाज में कहता है -
'ढोल तेरा बाप बजाएगा क्या!'
बड़ी मशीनी हरकत से लड़का दोनों हाथों से ढोल को पीटना शुरू कर देता है। सेनापति सूरज इस छोटे-से नगाड़े की आवाज को सुन कर थोड़ा और ऊपर उठ जाता है। आक्रमण की मुद्रा में लड़के के बिलकुल चेहरे के सामने तेज, चमकदार और गरम-गरम तलवार लपलपाने लग पड़ता है।
सामने नीम का एक बड़ा-सा पेड़। इसके आसपास कुछ रेढ़ियोंवाले, कुछ खोखे हैं और चंद पक्की दुकानें। बाप के कदम इस ओर बढ़ते देख कर लड़के की पतली लकड़ियों जैसी टाँगें आखिरी हल्ला मारती हैं, और वह छोटी-सी दौड़ लगा कर बाप के आगे निकल जाता है। पेड़ के नीचे पहुँचते ही वह गले में पड़ा ढोल उतार देता है और पेड़ के तने के साथ पीठ लगा कर तेजी के साथ फेफड़ों में हवा भरने लग पड़ता है। लेकिन वह किसी की ओर भी आँख उठा कर नहीं देखता। यह तो उनकी जिंदगी में रोज ही होता है। आनेवाले तमाशे के सारे के सारे दृश्य और इनके कटे हुए टुकड़े लड़के के दिलो-दिमाग में पहले से ही मौजूद हैं। इसलिए दूसरे लड़कों की तरह न ही उसे इस तमाशे के प्रति कोई उत्सुकता, और न ही इसमें कोई रस मिलता है। अब वह अपने होंठों पर बार-बार जबान फेर रहा है। इधर-उधर किसी डरे हुए चूहे की तरह गर्दन मोड़ कर देखता है, कहीं कोई नल अथवा पंप दिखाई नहीं देता। बाप की तरफ देखता है। वह बड़ी-सी गठरी को खोल रहा है, तमाशे का साजो-सामान जो बाहर निकालना है। बाप से पानी के लिए कहे कि न कहे। फिर वह बाप से कुछ न कहने का फैसला कर लेता है। चूल्हे में जलती लकड़ी, बाप का इसे खींच कर बाहर निकालना और हवा में अपने बचाव में उठे माँ के दोनों हाथ - ये सारी-की-सारी ताजा घटनाएँ उसे आतंकित कर देती हैं।
बाप ने पेड़ के नीचे सफेद चादर बिछा दी। लड़के की तरफ उसकी पीठ है। लेकिन उसे साफ महसूस होता है कि दो छोटी-छोटी आँखें उसकी पीठ में सूराख किए डाल रही है। किसी जानवर की तरह आस-पास के वातावरण को ग्रहण करने, किसी के शरीर की उपस्थिति को महसूस करने की शक्ति उसकी गर्दन को लड़के की ओर मोड़ देती है।
'कैसे मुरदों की तरह बैठा है। बाप मर गया है क्या? हैं! उठ! सामान चादर पर रख।'
उसकी तेज आवाज सुन कर आसपास खड़े लड़के धमक गए, पीछे हट जाते हैं।
'पाणी पीणा है।'
'तो उठ। जा कर पी ले। किसी रेढ़ीवाले से माँग ले। तेरा बाप कुआँ खुदवा दे क्या। हराम दा बीज! माँ की तरह नखरे क्या दिखाता है।'
लड़का किसी मरियल कुत्ते की तरह कमर का सारा जोर टाँगों पर डालता है, किसी धीरे चल रही फिल्म की तरह उसका जिस्म टुकड़ों-टुकड़ों में हिलता है और वह पास की कुल्चों-छोलों की रेढ़ी की ओर बढ़ जाता है। बाप अब थैले से चीते का सूखा, मरा हुआ सिर निकालता है। उसे याद आया कई साल पहले पाँच रुपए में चीते का यह सिर एक बूढ़े मदारी से उसने खरीदा था। बार-बार हाथ लगने से इस मुर्दा सिर के बाल झड़ गए हैं। सूखे हुए जबड़ों में तेज नोकीले दाँत बाहर निकल गए हैं। आँखों की जगह नीले बिल्लोर हैं जो एक मरी हुई निर्दयता से उसकी ओर घूर रहे हैं। चीते का मरा हुआ मुँह खुला हुआ है। उसकी निगाह इस अँधेरी गुफा में पड़ती है और बीवी का बीमार लेकिन गुस्से में भरा हुआ चेहरा जोर से गुर्राता है, दहाड़ता है और उसकी और झपट पड़ने के लिए छलाँग लगाने की मुद्रा में अपने शरीर को सिकोड़ने लग पड़ता है। वह डर गया। झटके के साथ मरे हुए सिर को सफेद चादर के नीचे रख दिया। चूल्हे से खींची हुई जल रही लंबी लकड़ी और बचाव के लिए हवा में उठे घरवाली के दोनों हाथ चीते के मुँह से निकल कर उस पर आक्रमण कर देते हैं।
इस शहर में आए उन्हें तीन दिन हो गए। शहर से बाहर बड़ी सड़क के किनारे उसने अपना फटा हुआ तंबू गाड़ा था। छोटा लड़का आसपास घूम कर कुछ सूखी टहनियाँ चुन लाया था। घरवाली चार ईंटों का चुल्ला तंबू के बाहर बना देती है। वह बैठा चिलम पी कर थकावट उतारता है। घर की सारी जायदाद, लोहे का बड़ा-सा ट्रंक, तमाशा दिखाने का सामान और जानवरों के कटे हुए सिर, यह सब कुछ उसे उठा कर पैदल चलना होता है। इसलिए तंबू गाड़ने के बाद वह दूसरा और कोई काम नहीं करता। घर के तीनों सदस्यों का काम बँटा हुआ है।
उसका तथा लड़के और घरवाली का सारा जीवन शहर-दर-शहर घूमते और फेरी लगाते हुए बीतता जा रहा है। शहरों में तीन-चार बार तमाशे दिखाने के बाद उसे अगली यात्रा के लिए निकल पड़ना होता है। क्योंकि दर्शक बहुत जल्द खत्म हो जाते हैं। पिछले कई सालों से घंटों गला फाड़ने के बाद, छोटे-छोटे करतब दिखाने के बाद भी तीन आदमियों का पेट भरना दुश्वार हो रहा है। और फिर भीड़ को भी कड़े वक्त ने चालाक और जमानासाज बना दिया है। साँप-नेवले की लड़ाई के अंतिम दृश्य के साथ तमाशा खत्म होना होता है। इस मौके के आते ही लोग धीरे-धीरे खिसकना शुरू कर देते हैं। बचे हुए चंद लोग बड़ी बेदिली से चंद सिक्के फेंक कर राह लग जाते हैं। और अगले दिन की भूख-भूख और खाली पेट की यात्राएँ। भूख का यह दानव किसी भी शहर में दम नहीं लेने देता। किसी घुड़सवार की तरह लोहे के नोकदार जूते से लगातार एड़ मारता रहता है।
पहली शाम घरवाली ने लोहे का ट्रंक खोला। छोटी-सी पोटली बाहर निकाली। उसे खोला तो केवल पाव भर आटा निकला। दो-दो रोटी उनके हिस्से में आई और एक लड़के के। उसने चार गिराहियों में रोटी खत्म कर दी। माँ को घूर कर देखा और बोला,
'रोटी और दे।'
'बस खत्म। अपने हिस्से की तूने खा ली।'
'नहीं, अभी भुक्खा हूँ। और खाऊँगा।'
'बड़-बड़ मत कर। सुणदा नहीं। रोटी खत्म है।'
लड़ कर एक झटके से उठ ठहरा। वह कोई चीज उठा कर माँ को मारना चाहता है। लेकिन बाप की घूरती हुई आँखें देख कर उसने इरादा बदल दिया। वह तंबू से बाहर आ गया। अन्न की बास पा कर, एक मरियल-सा कुत्ता तंबू के बाहर प्रतीक्षारत आँखों के साथ आ बैठा है। लड़का दबे पाँव कुत्ते के पास से गुजरा। थोड़ी दूर जा कर उसने ईंट का एक चौकोर टुकड़ा तलाश कर लिया। उसने हाथ हवा में लहरा कर दो बार निशाना साधा। फिर पूरी ताकत से ईंट का टुकड़ा कुत्ते की गर्दन पर दे मारा। एक लंबी टें के साथ कुत्ते ने उछाल भरी और वहाँ से भाग खड़ा हुआ। दूर जा कर, तंबू की ओर मुँह करके वह लगातार वातावरण को घायल करता रहा। लड़के का गुस्सा और भूख दोनों खत्म हो गए। उसकी कल्पना में इस वक्त कुत्ता नहीं - माँ है, जिसकी गर्दन पर रोटी न देने के जुर्म में उसने ईंट का टुकड़ा दे मारा।
सुबह होने पर बीवी ने ट्रंक के कोने से एक मैला-कुचैला रुपए का नोट निकाल कर उसे दिया। आटा लाने के लिए कहा। वह शहर की ओर चल पड़ा। कैसे दिन आ गए हैं। वह छोटा था तो अपने मदारी बाप के साथ जमूरा बन कर तमाशा के लिए जाया करता था। लोग तमाशा देखते थे और बड़ी फराखदिली के साथ सिक्के फेंकते थे। उसे आज भी याद है, सफेद चादर बिखरे हुए सिक्कों से अट जाया करती थी। वापसी पर बाप उसे गुड़ की बनी हुई रेवड़ियाँ खरीद कर दिया करता था और और अपने लिए शराब का अद्धा लिया करता थ। माँ चूल्हे पर फुल्का उतारा करती थी, वह कड़-कड़ करती रेवड़ियाँ खाया करता था। और बाप शराब पी कर मस्ती के आलम में एक हाथ कान पर रख कर हीर गाया करता था। और अब? आटे के लिए पैसे पूरे नहीं पड़ते, लड़का और रोटी माँगता है, घरवाली ताने देती है, गालियाँ देती है, वह उसे पीटता है।
बाजार में पहुँच कर उसने देखा कि सारी की सारी दुकानें खाली पड़ी हैं। कहीं पर कोई ग्राहक दिखई नहीं देता। खरीदने के लिए लोगों के पास कुछ भी बच नहीं रहा है। अपने मैले कपड़ों और तेल चू रहे बालों और फटीचर हाल के कारण उसे दुकान के अंदर घुसने में हमेशा डर लगा है। वह अब तक बाजार के तीन चक्कर काट चुका है। किसी से आटे की दुकान का पता पूछते हुए डर रहा है। आखिर साहस करके रिक्शावाले के पास ठहरता है।
'आटा कहाँ मिलेगा?'
'क्या कहा? आटा? जा भाई, अपना रास्ता पकड़! क्यों सवेरे-सवेरे मखौल करता है।'
उसे बड़ी हैरानी हो रही है। आटा खरीदने के लिए पूछने पर यह आदमी मखौल क्यों समझ रहा है। लोगों को क्या होता जा रहा है। रिक्शावाला बुझी बीड़ी को फिर से जलाता है। उसके चेहरे पर छाई परेशानी और बदहवासी को देखता है और दाँतों से बीड़ी का एक सिरा काट कर कहता है -
'इस शहर में आटा नहीं मिलता।'
अब वह मुँह खोल कर बेवकूफों की तरह रिक्शावाले की ओर देख रहा है, सोच रहा है - क्या जमाना आ गया है। गरीब भी गरीब का मजाक उड़ाने लगा। वह हार मान गया। सिर झुकाए खड़ा है। रिक्शावाला झटके से बीड़ी सड़क के बीच फेंक कर कहता है -
'भाई, मैं सच कह रहा हूँ। अब तुम्हें किसी भी दुकान पर आटा नहीं मिल सकता। आटा बेचने और गेहूँ खरीदने का काम अब सरकार के हाथों में है। हाँ, अगली गली के अंदर मुड़ जाओ। सरकारी राशन की दुकान है। किस्मत होगी तो मिल जाएगा।'
वह उसे कोई जवाब दिए बिना गली के अंदर मुड़ गया। दुकान सामने ही है। लेकिन बहुत लंबी लाइन। वह भी उसमें शामिल हो गया। लोगों के चेहरों पर इतनी गरमी में भी प्रतीक्षा करने पर कहीं गुस्सा या बैचेनी नहीं। सब्र और संतोष तो गरीब लोगों का गुण है ही। लगभग दो घंटे के बाद वह दुकान की दहलीज के अंदर पाँव रख पाया। दुकानदार उसकी ओर हाथ बढ़ा कर कहता है -
'कार्ड।'
वह चौंक गया। भयभीत हो कर इधर-उधर देखा। फिर रुपए का नोट निकाल कर आगे बढ़ाता है।
'ओए, पहले कार्ड दे।'
'कार्ड? क्या कार्ड? मेरे पास नहीं।'
दुकानदार पहले से ही खीझा बैठा है। तीखी आवाज में कहा -
'चल हट। निकल बाहर। सरकारी दुकान है, सरकारी। आ जाते हैं मुँह उठाए। परे हट। औरों को आने दे। यहाँ आटा-वाटा नहीं।'
उसके पीछे लाइन में खड़े लोग बेचैन हो रहे हैं। वह निगाह घुमा कर सहायता के लिए चारों ओर देखता है। लेकिन उसकी नजर पड़ते ही लोग चेहरा दूसरी ओर कर लेते हैं, जैसे उन्हें पता हो कि वे सब कोई पाप कर रहे हैं। और तब उसे अपनी घरवाली और लड़के के खाली पेट का ध्यान आया। आशा टूट जाए तो भय भी गायब हो जाता है। वह वैसे भी गुस्सेवाली तबीयत का आदमी है। अब वह सूरज की तेज गरमी, दो घंटे की प्रतीक्षा, सरकारी राशन की दुकान, इन सब से बदला लेने पर उतर आया। मजमे में लगातार बोलते रहने के कारण उसकी आवाज वैसे भी ऊँची है। वह हाथ झटक कर कहता है -
'नहीं देगा? कैसे नहीं देगा। तेरे बाप की दुकान है क्या? साले, सरकारी दुकान है। सरकार किसकी है? तेरे पिओ दी! एक रुपए का आटा तोल दे, नहीं तो तू हस्पताल पहुँचेगा और मैं जेल।'
दुकानदार सिकुड़ कर पीछे हो गया। लोग अब उसकी मदद पर उतर आए हैं। किसी सहानुभूति के कारण नहीं। इस डर से कि कहीं झगड़ा बढ़ गया, दुकान बंद हो गई तो उन्हें आज राशन नहीं मिलेगा। मिली-जुली आवाजें आईं -
'ओ भाई, थोड़ा-सा आटा दे दो। अनपढ़ गँवार है। इसे कार्ड का क्या पता। लगता है कई दिनों का भूखा है। गरीब को खाने को नहीं मिले तो तंग आ कर दंगा करेगा। जी हाँ, खून-खराबा करेगा...'
दुकानदार ने रुपया ले कर उसे थोड़ा-सा आटा दे दिया। वह दोपहर बाद घर पहुँचा। बीवी ने रोटियाँ बनाईं, तीनों ने चुपचाप खा लीं। भूख का दानव पीछे की ओर से छलाँग लगा कर फिर उसकी गर्दन पर सवार हो गया। सुबह उठ कर उसने मजमा लगाने का सारा सामान इकट्ठा करना शुरू कर दिया। लड़का चुपचाप जमीन पर लेटा बाप को काम करते देख रहा है। कभी-कभी वह ठंडे चूल्हे की ओर भी देख लेता है। माँ उसकी निगाहों का मतलब समझ गई। ट्रंक के कोने से दो कागज की पुड़ियाँ निकालती है। एक में चीनी और एक में थोड़ी-सी चाय की पत्ती। वह चूल्हा जला कर बिना दूध की चाय बनाती है और बाप-बेटे के सामने पीतल के गिलासों में डाल कर रख देती है। बाप गिलास उठा कर घूँट भरना आरंभ कर देता है। बेटा गिलास की ओर हाथ तक नहीं बढ़ाता।
'अब क्या मंतर पढ़ रहा है! चाय पी! काम पर चलना है।'
'नहीं जाता। मैंने रोटी खाणी है।'
'तू सिद्धी तरह उठता है या करूँ छितरील।'
'नहीं जाता! नहीं जाता!' और लड़के ने हाथ मार कर चाय नीचे गिरा दी। उसने हाथ बढ़ा कर लड़के के गले में पंजा फँसा दिया और दूसरे हाथ से उसे बेतहाशा पीटना शुरू कर दिया। घरवाली ने झपट कर उसे धक्का दिया और लड़के को अपनी पीठ-पीछे कर लिया।
'खाने को रोटी नहीं ला सकता और ऊपर से कसाइयों की तरह लड़के को पीट रहा है। इतना ही शेर है तो डाल कहीं डाका। काट ले किसी की गर्दन। दे-दे हम दोनों को जहर।'
'मैं कहता हूँ परे हट जा। मैं इस हराम के बीज की सारी अकड़ निकाल दूँगा। देखूँ कैसे नहीं जाता काम पर।'
'नहीं हटती, नहीं हटती। कर ले जो करना है।'
और फिर मरे हुए चीते के गुफा जैसे गले में सुबह का दृश्य अभी-अभी फिर दुहरा गया। जलता चूल्हा। जलती हुई लकड़ी को खींचता उसका हाथ हवा में लहराया, बीवी ने दोनों हाथ बचाव के लिए ऊपर उठाए। हाथों के घेरे को तोड़ कर बीवी के बाएँ गाल पर जलती लकड़ी का वार। एक लंबी चीख। लड़के का चुपचाप काम के लिए साथ निकल पड़ना। नीम का पेड़। आसपास जमा हो गई भीड़ और गुर्राता हुआ मरे चीते का सिर।
...अब तक पचास-साठ आदमी घेरा डाल कर खड़े हो चुके हैं। उसने जमीन में एक लंबी-सी कील गाड़ कर टोकरी में से नेवला निकाल कर रस्सी के साथ कील से बाँध दिया। नेवला छोटे-से दायरे में घूमता है, ठहर कर, बिटर-बिटर सब तरफ देखता है। आगे बैठे लड़कों में से कोई शीं की आवाज करता है, और नेवला फिर से छोटे-से दायरे में बेतहाशा भागना शुरू कर देता है। लोग अंदाजा लगा लेते हैं कि दूसरी ओर छोटी टोकरी में साँप बंद है। उनके चेहरे पर खूँखार खुशी की झलक फैल जाती है - तो साँप नेवलों की लड़ाई देखने को मिलेगी।
लेकिन तमाशा शुरू होने से पहले ही एक सिपाही भीड़ को चीर कर उसके सामने आ ठहरा।
'चल। उठा यहाँ से अपना टीम-डब्बा। साले बाप की सड़क समझ रखी है क्या। सारा ट्रैफिक रोक रखा है।'
भीड़ से तरह-तरह की आवाजें आती हैं।
'अजी, गरीब आदमी है। छोड़ दो। बेचारे को रोटी के लिए पैसा कमा लेने दो।'
उसके लिए पुलिसवालों का मजमा लगाने से रोकना कोई नई बात नहीं है। वह भीड़ के शोर-शराबे के बीच एक रुपए में सिपाही से सौदा पटा लेता है। सिपाही सब से आगे, वी.आई.पी का स्थान ग्रहण करके खड़ा हो गया।
वह अपनी जेब से एक मैली-सी ताश निकाल कर पत्ता छिपाने और बताने के खेल शुरू करता है। लेकिन लोग इसके प्रति कोई उत्साह अथवा उत्सुकता नहीं दिखाते। एक मोटी आवाज उछलती है, 'उस्ताद, छोड़ यह चालाकियाँ। तेरे से अच्छे ताश के खेल मैं दिखा सकता हूँ। कोई नया जोश पैदा कर, नया।'
उसका लड़का ढोल पीट कर, कभी सिर के बल जमीन पर खड़ा हो कर, कभी हाथों पर सारा वजन डाल कर लंबी-लंबी छलाँगें लगाते हुए भीड़ का उसके खेलों से ज्यादा मनोरंजन कर रहा है। उसे गुस्सा आ रहा है। वह जानता है भीड़ इन पुराने खेलों के प्रति अब आकर्षित नहीं की जा सकती। सब लोग थोड़ा-सा खून बहता हुआ देखना चाहते हैं। एक कीं-कीं करती-सी बाँसुरीनुमा आवाज गूँजती है -
'उस्ताद, लड़ाई दिखा दे। देखता नहीं आग बरस रही है। यह छोटे-छोटे चोंचले छोड़।'
वह साँपवाली टोकरी पर से ढक्कन उठाता है। साँप फिर भी हिलता नहीं। वह लंबी-सी छडी का टहोका मार कर साँप को हिलाता है। साँप धीरे-धीरे रेंग कर टोकरी के बाहर आ गया है। वह आवाज लगाता है -
'माई-बाप, अब मैं आप लोगों को साँप-नेवले की लड़ाई दिखाता हूँ। माई-बाप, भूख सब कुछ करना सिखा देती है। माई-बाप, देखना दोनों कैसे एक-दूसरे को निगलेंगे। माई-बाप, बोलो एक बार सब मिल कर - 'जय शंकर की।'
भीड़ ने एक आवाज में जवाब दिया - 'जय शंकर की।' साँप नेवले के पास जाने से घबरा रहा है। नेवला उछल-उछल कर रस्सी तुड़ाने की कोशिश कर रहा है। आवाज उभरती है -
'साला डरता है।'
'अजी, जान किसको प्यारी नहीं होती।'
'अरे भाई, साँप को जरा आगे खिसकाओ न।'
वह छड़ी से साँप को और आगे करता है। इस वक्त बड़ी फुर्ती से काम लेना है। नेवले का साँप पर मुँह पड़ते ही उसे इन दोनों को अलग कर देना है, वरना नेवला साँप को मार डालेगा। और नया साँप खरीदने के पैसे उसके पास नहीं हैं। वह नेवले की पीठ पर छड़ी मार कर दोनों को अलग कर देता है।
भीड़ विरोध में शोर मचा रही है।
'यह चालाकी है। अभी इनकी लड़ाई शुरू नहीं हुई। साँप को फिर से नेवले के पास छोड़ो।'
'हमारा पैसा कोई हराम का नहीं।'
'उस्ताद, पूरी लड़ाई होने दे। मैं एक रुपया दूँगा।'
उसने हवा में ऊँचा उठा हाथ और हाथ में पकड़ा नोट देख लिया। वह भीड़ के मूड को समझ रहा है। यह लोग पैसा इतनी आसानी से देनेवाले नहीं। उसने साँप को नेवले के पास पटक दिया। इस बार नेवले ने पहले ही झटके में साँप का मुँह पकड़ लिया। खून की छोटी बूँदें साँप के शरीर पर चमक आईं। साँप छटपटा रहा है।
नेवला लगातार एक दायरे में दौड रहा है। वह नेवले के पीछे भाग रहा है - साँप को छुड़ाने के लिए। भीड़ जोश में आ गई है।
'मजा आ गया।'
'नेवला साला गजब का है।'
'देखो कैसे साँप की गर्दन पकड़ रखी है।'
'उस्ताद छुड़ा दो। नहीं तो साँप गया तुम्हारा।'
उसने हाथ ऊपर उठाया। नेवले की दुम पर छड़ी मारी, लेकिन इस क्षणांश में नेवला थोड़ा आगे सरक चुका है। छड़ी जोर के साथ नेवले की कमर पर पड़ी है। चटाक की आवाज के साथ नेवले की कमर टूट गई। नेवला तीन-चार बार छटपटाया और फिर हिलना बंद हो गया। मरने के बाद उसके दाँत और जोर से साँप की गर्दन पर कस गए। अब साँप ने भी तड़पना बंद कर दिया। जो हाथ एक रुपए के नोट को हिला रहा था वह भीड़ से गायब हो चुका है। वह माथे पर हाथ रख कर नीचे बैठ गया। भीड़ ने थोड़े-से सिक्के चादर पर फेंक दिए। उसकी निगाह सिपाही पर पड़ती है। सिपाही की आँखें चादर पर रेजगारी को गिन कर एक रुपए के नोट में बदल रही हैं। वह अंदाजा लगा लेता है। उसके हिस्से में सिपाही को पैसा देने के बाद रात का आटा शायद ही पड़े। लोग अपनी जगह से हिलना शुरू कर देते हैं। वह गरज कर बोलता है -
'खबरदार! कोई माँ का लाल अपनी जगह से न हिले। माँ काली की कसम है। अभी असली खेल बाकी है।'
वह अपनी कमर में खोंसा हुआ चाकू बाहर निकाल लेता है। सूरज की रोशनी में चार इंच लंबा लोहा चमक उठता है। वह अपनी कमीज उतार देता है। दोनों हाथों से पेट को पीटना शुरू कर देता है। उसका पेट किसी खाली घड़े की तरह गड़-गड़ की आवाज के साथ बज रहा है।
'माई-बाप! पेट का सवाल है। पापी पेट का सवाल। अब मैं अपने लड़के, अपने जिगर के टुकड़े के पेट में चाकू घोंप दूँगा। माई-बाप, कोई अपनी जगह से मत हिलना। माई-बाप, मेरे लड़के की जिंदगी का सवाल है। आप हिले तो वह मर जाएगा। मैं मंतर से काली माँ को सिद्ध करूँगा। आप देखेंगे लड़के के पेट से खून के फव्वारे निकलेंगे। लेकिन काली की किरपा से वह मरेगा नहीं। कोई न हिले। नहीं तो मेरे लड़के का खून उसके सिर पर होगा।'
अब भीड़ डर गई। वह 'जय माता की, जय माता की' चीखता हुआ दायरे में दौड़ रहा है।
लड़का कहाँ गया? लड़का कहाँ गया?
अब भीड़ ध्यान देती है कि उसका लड़का वहाँ से खिसक गया है। लेकिन वह जानता है लड़का इस वक्त रबड़ की छोटी-सी नली में लाल पानी भर रहा है। फिर वह इस लाल पानी से भरे रबड़ के गुब्बारे को पेट के साथ बाँध लेगा। वह चाकू का तिरछा वार करेगा। चाकू लाल पानी से भरे गुब्बारे में चुभ जाएगा। लोग लाल पानी को खून समझ लेंगे। लड़का हमेशा इस मौके पर गायब हो जाता है, भीड़ के तनाव और आतंक को टूटने की सीमा तक बढ़ा देता है।
लड़का भीड़ में से रास्ता बना कर दायरे के अंदर आ गया है। वह लाल रंग की आइसक्रीम चूस रहा है। चादर से कुछ पैसे चुपके से उठा कर वह कुल्फी खरीद लाया है।
लड़का बाप के हाथ में चमकता चाकू देख कर भाग खड़ा होता है। बापू उसकी ओर झपटता है। लड़का चीखता है। बाप खुश हो रहा है। आज लड़का पूरे दिल के साथ खेल मे भाग ले रहा है। खूब पैसे आएँगे। उसकी आँखों में खून उत्तर आया। लड़का अब भी चीख रहा है, भाग रहा है।
'जय काली माँ की! माई-बाप, जान किसको प्यारी नहीं होती। माई-बाप, पेट का सवाल है। पापी पेट का। वरना कौन बाप अपने बेटे को चाकू से फाड़ेगा।'
अब वह दोनों हाथों से पेट को पीटता हुआ लड़के के पीछे भाग रहा है, चादर पर पैसे गिरने शुरू हो जाते हैं - डरे हुए और आतंकित।
'अरे, छोड़ दो। मत मारो। जाने दो। देखो, बेचारा कैसे चीख रहा है।'
लेकिन पैसे गिरते देख कर उसका उत्साह बढ़ गया। खेल शुरू होने से पहले लोग डर कर पैसे फेंक रहे हैं। खत्म होने पर कम से कम दस रुपए तो मिलेंगे ही।
अब उसने एक लंबी छलाँग लगा कर लड़के को गर्दन से पकड़ लिया। उसने धक्का दे कर जमीन पर गिरा दिया। वह लड़के की छाती को घुटनों से दबा कर उसके ऊपर सवार हो गया। लड़का किसी जिबह होते बकरे की तरह बें-बें कर रहा है, छटपटा रहा है। उसके हाथों से आइसक्रीम छिटक कर दूर जा गिरी। वह चीख मारता है -
'बापू, मत मार। बापू, छोड़ दे।'
'जय काली माता की।'
उसका हाथ हवा में ऊपर उठा, चाकू सूरज की रोशनी में लपलपाता है और तिरछा हो कर लड़के के पेट की ओर, बिलकुल पसलियों के नीचे जिगरवाली जगह में घुस जाता है।
पहले लाल रंग की कुछ बूँदें चाकू लगने से फट गई कमीज पर उभरती हैं। फिर यह बूँदें एक पतली धार में बदल गईं। लड़का छटपटा रहा है। सफेद चादर पर सिक्के गिर रहे हैं।
अब पतली धार एक छोटे-से फव्वारे की तरह उछलती है। वह चाकू बाहर खींचता है। जोर क्यों लग रहा है? रबड़ के गुब्बारे से तो चाकू बिना जोर लगाए बाहर निकल आता है। लड़के के जिस्म में से जोर लगा कर चीखें उभरती हैं।
'बापू, मर गया।'
वह लड़के की कमीज उठा कर देखता है। लेकिन वहाँ रबड़ का गुब्बारा बँधा ही नहीं है। लड़का आइसक्रीम खाने भीड़ से बाहर गया था। वह लाल पानी से भरा गुब्बारा पेट पर बाँधना भूल गया। वह उछल कर लड़के की छाती से नीचे उतर आया। लड़के का जिस्म किसी गर्दन कटे जानवर की तरह जमीन पर उछल रहा है। वह चीख-चीख कर कह रहा है -
'माई-बाप, पेट का सवाल है पापी पेट का। मैंने लड़के का खून कर दिया है।'
भीड़ ने लड़के के पेट के घाव से निकलते असली खून को देख लिया। लोग तेजी से वहाँ से भाग रहे हैं। पुलिस का सिपाही सब से पहले वहाँ से गायब हो गया।
लड़के का जिस्म तड़प कर उछल रहा है। अब वह चीते की मरी हुई खोपड़ी से टकरा गया है। खोपड़ी ईंट पर से नीचे जमीन पर गिर गई। लंबे-लंबे, चीते के नोकीले दाँत खून से सन गए। सूरज खून देख कर धमक गया। झट से नीम के पीछे छिप गया।
चीते का मरा हुआ मुँह खोले, मुँह बाए, जमीन पर पड़ा है। अब लड़के का जिस्म रह-रह कर तड़प रहा है। फिर एक लंबी चीख के साथ वह हिलना बंद कर देता है। खून का छोटा-सा, सुस्त-सा दरिया धरती पर धीरे-धीरे फैल रहा है।
वह मरे हुए चीते की खोपड़ी के मुँह में झाँकता है। उसकी घरवाली अपने बचाव के लिए दोनों हाथ ऊपर किए खड़ी है और उसके हाथों में चूल्हे से बाहर खींची हुई जलती हुई लकड़ी। और इसी के साथ दूसरा दृश्य जुड़ जाता है। चमक मारता चाकू, हवा में उठा उसका हाथ, लड़के के जिगर में घुसता चाकू, एक लंबी चीख और आसपास सुस्ती के साथ फैलता जा रहा खून का दरिया...!