तय करें यह अपराध है या मनोरंजन / अनुराधा सिंह
जूलिएट ‘भी’ रोमियो से प्रेम करती थी. इस एक ‘भी’ से यह कहानी शुरू होते ही एक मुकाम पा जाती है. रोमियो यदि एक दीवानावार प्रेमी था तो जूलिएट भी आकंठ प्रेम में डूबी हुई नायिका. कहते हैं न कि एक हाथ से ताली नहीं तमाचा बजता है. सो रोड रोमियो विशेषण का आविर्भाव मात्र रोमियो के जूलिएट के घर के आस पास मंडराते रहने की प्रवृत्ति से साम्य के कारण हुआ होगा. रोमियो और ऐसे शोहदों में शेष कोई समानता नहीं. फिर रोमियो और जूलिएट कथानक के लेखक शेक्सपीयर ने ही कहा था कि नाम में क्या रखा है भला? सो लड़कियों को तो उन्हें आपके रोमियो पुकारे जाने पर भी गुरेज़ नहीं, बशर्ते उनका अंजाम हवालात हो न कि ७० एमएम का रुपहला पर्दा और आनंद बख्शी के सुरीले गीत.
आनंद बख्शी ने तो लिख दिया : “प्यार के इस खेल में....तेरा पीछा ना मैं छोडूंगा सोनिये, भेज दे चाहे जेल में” लेकिन जहाँ जेल भेजने तक की नौबत आ जाये वहां दो दिलों का मेल तो कतई नहीं हो सकता. यकीनन यह लिखते समय उन्होंने लड़कियों के दैनन्दिन जीवन में घटने वाली इस निकृष्टतम त्रासदी को मनोरंजन का साधन तो नहीं माना होगा. अपने साथ छेड़खानी करने वाले लड़कों को लडकियाँ मानसिक रूप से विक्षिप्त इंसान तो मान सकती हैं, अपना प्रेमी नहीं।
यह वही भारतीय समाज है जहाँ स्त्री एक जिंदा इंसान नहीं, घर की इज्ज़त मानी जाती है (और बेइज्ज़ती भी). पितृसत्ता ने उसके अस्तित्व को ही अपनी शान पर बट्टा माना है, भ्रूण हत्याएं इसी सोच का परिणाम हैं. लेकिन लड़कियों पर छींटाकशी करते फ़िल्मी गानों को लिखने वाले, उन्हें स्क्रिप्ट में संयोजित करने वाले, उन्हें गाने वाले और उन पर अभिनय करने वाले लोगों का कभी कोई हंगामाखेज़ विरोध हुआ हो, याद नहीं. लड़कियों को छेड़ने, उन पर बुरी नज़र डालने और सार्वजनिक तौर पर उनका तमाशा बनाने को जितना हिंदी फिल्म इंडस्ट्री ने ग्लैमराइज़ किया है, सोचने बैठें तो बस गज़ब है।
वह बीसवीं सदी के पूर्वार्ध का अंतिम चरण था, जब ये मसाला फ़िल्में, और ये पिक्चरेस्क गाने, लड़कों को यह हक और ब्राइट विचार बाँट रहे थे कि लड़की चाहे न चाहे उसे जबरन इस कुंठाजनित खेल में घसीटा जा सकता है. मैं यहाँ सस्ती, द्विअर्थी संवाद वाली ‘बी’ और ‘सी’ ग्रेड फिल्मों की बात नहीं कर रही, मैं तो बेहतरीन लेखकों और स्क्रिप्ट राइटर्स द्वारा लिखी गयीं और हिंदी सिनेमा के सुपर स्टार्स द्वारा निबाही गयीं पत्थर के सनम, जानवर और जुगनू जैसी ‘ए’ ग्रेड फिल्मों का ज़िक्र कर रही हूँ. बीसवीं सदी का संकीर्ण, रूढ़िवादी भारतीय समाज खुले आम सिनेमाघरों में राजकपूर, शम्मी कपूर, धर्मेन्द्र और राजेश खन्ना को जबरन नायिका को घूरते, बेहूदा गाने गाते और लिपटते चिपटते देख रहा था. और तो और बाद में यही नायिका लगभग हमेशा उस छेड़छाड करने वाले युवक के ‘सच्चे’ प्यार में पड़ जा रही थी. तो यह जो ज़हर हमने रुपहले परदे की चमक बनाकर उन अपरिपक्व युवकों की आँखों में उतारा, बस यही बाद में सल्फ्यूरिक एसिड बनकर कितने ही कोमल किशोर चेहरों को मांस का भयावह लोथड़ा बना गया. इन फिल्मों ने ऐसी जहालत भर दी उनके दिमाग में कि वे चलते फिरते जानवर बन गए. फिल्मों में हलके फुल्के ढंग से परोसे जाने वाली यह छेड़छाड़ असल ज़िन्दगी में किस खौफनाक तस्वीर में ढल कर सामने आती है, देखिये. अपने से हर तरह से बेहतर और सलीकेदार लड़की को सड़क पर मुँह बाए घूरना, रोज़ चार-पांच दोस्तों के साथ एक ही अड्डे पर खड़े होकर उसका इंतजार करना, और उसके गुज़रते समय अश्लील फब्तियां कसना, भद्दे इशारे करना या फिल्मों के वही वाहियात इश्किया गाने गुनगुनाना, सब उनके रूटीन का मामूली हिस्सा हो गया. वह लड़की जो स्कूल जा रही है, कॉलेज जा रही है, बाज़ार से सामान लेने जा रही है, खेलने जा रही है या सहेलियों के साथ घूमने-फिरने जा रही है. तय है कि कोई समाज विरोधी काम या उस लड़के की मुखालफत करने नहीं जा रही है. फिर भी उसके साथ यह हिंसा होती है. उस लड़के की तमाम जहालत और कमजोरियों के बावजूद वह लड़की उससे डर जाती है. बेहद डर जाती है. और इस डर की जड़ें हमारे इतिहास में हैं. तमाम जद्दो जहद, तमाम पुष्पा, रीता, शीला के शिक्षित आत्मनिर्भर भविष्य की कुर्बानियों और ढेरों सावित्री बाई फुले जैसी महिलाओं के अथक प्रयासों के बाद मूंछें उमेंठती, बेंत फटकारती बैठकों से गुजर कर स्कूल कॉलेज जाने की जो स्वतंत्रता लड़कियों ने हासिल की है, वह यह पता चलते ही कि रास्ते में उनसे कोई छेड़छाड कर रहा है, एक झटके में उम्र कैद में तब्दील हो जाती है. सो वे डर कर चुप हो जाती हैं. उनके चुप रहने से बदमाशों की हिम्मत और बढ़ जाती है. अब उनकी कॉलेज तक पीछा करने, छूने पकड़ने की कोशिशें उन्हें अंजाम दे देने की हिमाकत में तब्दील हो जाती है. लड़कों, मौन स्वीकृति नहीं है. मौन विवशता है, लोकापवाद भय है, तुम्हारे प्रति जुगुप्सा है, गुस्सा है. आगरा में पुराने शहर की तरफ से आने वाली हमारी घनिष्ठ सहेली ने परास्नातक में बिना किसी को बताये अपना कॉलेज बदल लिया. क्योंकि एक आवारा लड़का रोज़ साझा टेम्पो में बैठकर साथ आता और पूरा दिन कॉलेज के बाहर इंतजार करने के बाद लौटते समय उसके ही टेम्पो में लटक कर साथ जाता. रास्ते भर उसे घूर घूर कर वाहियात गाने गाता था. सीमा ने यह बात हमें खुद कभी नहीं बताई. क्योंकि वह अपनी यह दहशत, यह संत्रास, यह अपमान किसी पर उजागर नहीं करना चाहती थी, हमें बाद में कहीं और से पता चली. मीना धनबाद के सबसे प्रतिष्ठित सीबीएसई स्कूल में पढ़ती थी, बारहवीं में बढ़िया अंक आए। घर का माहौल खूब संभ्रांत और प्रगतिशील, फिर भी बारहवीं के बाद दो साल घर में बैठी रही. कारण वही कि मोहल्ले के कुछ शोहदे उसके घर के बाहर नुक्कड़ पर दिन रात मंडली ज़मा कर जोर ज़ोर से फ़िल्मी गाने गाते थे. घर वालों का गुंडों पर जोर नहीं चला तो उसे ही नज़रबंद कर दिया. दो साल बाद अपनी नवविवाहिता भाभी के अथक प्रयासों से आगे की पढाई शुरू कर पाई मीना आज एक सॉफ्टवेयर प्रोफेशनल है, लेकिन अब भी किशोरावस्था की वे अपमानजनक यादें प्रेत की तरह पीछा करतीं हैं उसका।
ग्रेस कैली कहतीं हैं, “मैं अकेले टहलना पसन्द करती हूँ। यह एक उपचार है, हर व्यक्ति को अपनी बैटरी रिचार्ज करने के लिए कभी-कभी अकेले होने की ज़रूरत होती है।” भारत में लड़कियों का सड़कों पर इज़्ज़्त से अकेले टहल सकना दीगर बात है। इन फिल्मों ने तो अनैतिक को स्वीकार्य का प्रमाणपत्र देकर उनसे एक सामान्य मनुष्य की तरह जीने का बेसिक अधिकार तक छीन लिया। “खम्बे जैसी खड़ी है...... पट्टाखे की लड़ी है....आँखों में गुस्सा है होंठों पे गाली है” यानि कि उनकी नफ़रत, गुस्सा, बेचारगी सब आपके मनोरंजन का साधन हो गए।
शम्मी कपूर और गोविन्दा पर फिल्माए गए अधिकतर गाने नायिका को एक नाज़ नखरे वाली गुडिया की तरह प्रस्तुत करते हैं। ज़रा, कल्पना कीजिए, यदि सड़क पर कोई लड़का आपको देखकर अचानक कमर लहरा कर नाचने लगे और छिछोरे द्विअर्थी गाने गाने लगे, तो क्या आप शर्मीला टैगोर, रवीना टण्डन और करिश्मा कपूर की तरह पहले बनावटी गुस्सा दिखा कर बाद में लजाते हुए मुस्कुरा कर अपनी रजामन्दी दे देंगे या सोचेंगे कि किस तरह इस बदमाश की हड्डी पसली एक कर दी जाए।
इन्हें आप गुण्डा बुलाइए, आवारा, सड़कछाप, बदमाश, शोहदा या रोमियो, बस, इनकी हरकतों पर कड़ाई से लगाम लगाना ज़रूरी है। सबसे पहले तो हमारे साहित्य, संगीत और फिल्मों को इनका सौन्दर्यीकरण करने से परहेज़ करना चाहिए। ज़रूरी है कि फिल्मों में इसका चित्रण एक समस्या की तरह, कुरूपता की तरह, गन्दगी की तरह, दण्डनीय अपराध की तरह किया जाए, न कि लोकप्रिय चौकलेटी नायकों (यूथ आइकॉन) के ऊपर ऐसे स्त्री विरोधी गाने फिल्मा कर इन्हें सामाजिक मान्यता दी जाए।