तरकीब / उपमा शर्मा
"बहू, देख ले बेटा। सब्जी और दूध ले आया हूँ। ला रजत का होमवर्क मैं करा दूँ। तू और कोई काम देख ले।"
दादाजी की चहकती आवाज सुन मुस्कुरा दी अनु। अब दादाजी के चेहरे पर छायी उदासी उड़न-छू हो गयी थी। पिछली बार जब हॉस्टल से वापस आयी थी अनु तो उसने दादाजी में एक अजीब-सा परिवर्तन देखा था। दादाजी एक कमरे में चुपचाप लेटे या बैठे रहते थे। अनु अपने प्यारे दादाजी को यूँ चुपचाप पड़े देखकर दुःखी हो गयी थी। मम्मी-पापा भी परेशान थे।
"माँ, दादाजी को क्या हुआ? ऐसे चुपचाप तो कभी नहीं रहते थे।" उसने पूछा था।
"पता नहीं बेटा। हम लोग भी परेशान हैं। बाबूजी चल फिर भी कम ही पाते हैं। घर में उदासी-सी छाई रहती है...बेटा, हम तो बाबूजी की पूरी सेवा करते हैं। किसी काम के लिए भी नहीं कहते।" मम्मी भी दादाजी की बीमारी को लेकर उदास थी।
अनु दादाजी के कमरे में जाकर बोली थी, "दादाजी, मेरे साथ मार्निंग वाक पर चलिए न।"
"नहीं बेटा। क्या करोगी मुझे साथ लेजाकर। मैं तो अब बेकार हूँ बेटा। ज्यादा चल-फिर भी नहीं पाता। अब मेरी कोई उपयोगिता नहीं।"
अनु को दादाजी की उदासी का कारण मिल गया था। मम्मी-पापा दादाजी को कोई काम नहीं करने देते थे। इससे दादाजी अपने को बेकार मान अवसाद का शिकार हो गये थे। फिर अनु दादाजी को अपने छोटे-छोटे कामों के लिए भी बुलाने लगी थी। बाबूजी की उदासी का कारण उसकी माँ की भी समझ आ गया। बाज़ार के काम माँ ने बाबूजी को सौंप दिये थे।