तर्कहीन / राजा सिंह

Gadya Kosh से
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वह जीता हुआ भी करीब-करीब हारा-सा था। उसे अपना जीतना पसंद था किन्तु उसकी हार की कीमत पर नहीं। वह प्रथम आना चाहता था परंतु उसके साथ। वह जानता है कि वह दुखी होगी इसलिए वह अपनी सफलता पर खुश भी नहीं हो पा रहा है।

वह उसे पकड़ती है और वह जड़वत शून्य-सा रहता है। उसने कहा, "मुझे खुशी हुई कि तुम सफल रहे हो। यह कुछ कम नहीं है। आखिर, तुम्हारी सफलता मेरी भी सफलता है... मैं फिर आऊँगी, अगले हफ्ते या महीने या वर्ष बाद। लेकिन अभी कुछ निश्चित भी नहीं है।"

"निश्चय ही अगले वर्ष तुम मुझे अवश्य पकड़ लोगी। आखिर में कुछ ही नंबर की बात है, जो तुम्हारे जैसी जहीन लड़की के लिए बेहद मामूली बात है। मैं प्रतीक्षारत हूँ।"

उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसे यह सोचकर अजीब तसल्ली थी कि अगले वर्ष वह उसके साथ होगी। वह अगली गर्मियों तक प्रतीक्षा करेगा और उसके बाद वह उसे ज्वाइन कर लेगी।

वह कुछ नंबरों से सामान्य वर्ग की अंतिम मेरिट सूची में आने से रह गई थी, जबकि वह चयनित हो गया था।


-सुबह के चार बजे थे। अभी अँधेरा पसरा पड़ा था। वह काफी देर से जग रहा था और चार बजने का इंतजार कर रहा था। ऊपर उसके कमरे में बिना आहट किए वह चला गया।

"तुम सो रहीं थीं?" उसने हँसते हुए उसे झिंझोड़ा।

उसकी आवाज के साथ वह उठ बैठी। चारों तरफ नाइट-बल्ब की ठंडी रोशनी फैली थी। रात सिमटने लगी। नींद मिटने लगी। वह सतर्क हो उठी। यह पहला मौका था जब वह उसे जगाने आया था। अकसर वही जाती थी...

दोनों ने एक् दूसरे को देखा। यह पहला मौका नहीं था जब उसने उसे छुवा था। परंतु इस समय उनमें कुछ अलग-सा अहसास करा गया। बिना किसी प्रत्याशा के वह लाल हो उठी थी। उसने विरोध करने की सोची। लेकिन वह बीच में ही रुक गई. वह जान गई कि यह पढ़ने की घड़ी है। किसी तरह समय व्यर्थ करना नितांत बेवकूफी ही होगी। क्योंकि आज से ही पेपर प्रारंभ हैं।

"हमें पढ़ना चाहिए, मामा जी!" उसने अलसाये स्वर में जवाब दिया।वह असमंजस में उसकी तरफ देखती है।

"तुम वही बैठोगी, जहाँ सोई हुई थी?" वह धीरे से पूछता है।

ज्यादातर वह दोनों पढ़ने के वक्त एक् बड़ी टेबुल पर आमने-सामने चेयर में बैठते थे। वह इतने धीमे से कहता है कि वह कुछ नहीं सुन पाती सिर्फ अजीब से संदेह से उसको देखती है और उस क्षण उसे अजनबी पाती है। किन्तु आसपास फैली दुनिया में देखता हुआ वह स्थिर होता है-

"यही ठीक है।" उसने टेबुल लैम्प जला लिया है और मेज-कुर्सी पर बैठ जाता है। वह उठकर ट्यूब लाइट जलाती है और बेड में बैठकर किताब खोलकर पढ़ने लगती है।

कल सारे पेपर समाप्त हो गए थे और वह आज जा रही है। उसे लगा कि उसकी आंखें गीली है या सिर्फ वह ऐसा सोचता है। उसे एक् दो दिन और रुकना चाहिए. किन्तु नहीं...वह जा रही है। वह सचमुच जा रही है। जैसे उसका जाना एक् आवश्यक क्रिया है। परंतु न जाने क्यों उसके भीतर एक् अजीब-सी घबराहट फैल गई, लगा कोई मूल्यवान वस्तु खो दे रहा है। इतने दिनों में वह उसे देखने का आदी हो गया था। जैसे मुद्दत से कोई साथ रह रहा हो। उसका यहाँ वजूद सिर्फ अध्ययन से जुड़ा है और वह वापस आना मेडिकल की पढ़ाई से सम्बंधित है जो कि हो के रहेगी।

जाते समय वह उससे छत वाले कमरे में मिली थी। उसके भीतर एक् अजब-सी बेचैनी जो अव्यक्त थी... इसे मेरे अस्तित्व का जरा-सा भी अहसास नहीं है हालांकि वह इतने पास बैठा है। यह अत्यंत अस्वाभाविक है। पराए शहर में आत्मीयता की कितनी भूख होती है यह इसकी समझ से परे है शायद। उसकी आँखों में गुजरे दिनों की परछाई एक्-एक् करके गुजर रही थी परंतु वह शायद किसी खास चीज पर निगाह टिकाए था।

एक अपरिचित डर उसे धीरे-धीरे घेरने लगा था। उसके मन में उपजती पल्लवित गांठ अब बाहर दिखने लगी थी। उसका मन रुक गया है उसी पर आकर ठहर गया है। उसके परे सोचने पर उसका सिर चकराने लगता है और लगता है कि उसका दिल उछल कर बाहर गिर पड़ेगा और फिर सबको पता चल जाएगा। यह एक् ऐसा रहस्य है जो सिर्फ उसे ही पता है या शायद उसे भी...नहीं ...वह नहीं जानता होगा ... आँसुओं से आँखें भीग जाती है और सब कुछ धुंधला-सा हो जाता है-उसका चेहरा और यादें! क्या वह उसकी दुनिया कभी प्रवेश कर पाएगी? यह प्रश्न उसे सदैव टीसता रहता।

उन दोनों के बीच वह वाक्य सदैव लटका रहता जो दोनों में किसी ने नहीं कहे थे। वह प्रश्न के तरह सदैव उपस्थिति रहता जिसका उत्तर न होता था। इसलिए वह भूलकर भी कभी दोनों की जुबाँ पर नहीं आया।

काफी दिन बीत गए थे। उसकी कोई खबर नहीं थी। वह काल कर सकता था किन्तु वह संकोच में घिर गया। धीरे-धीरे उसका भ्रम पक्का होता गया था कि वह अतिरिक्त सोचने लगा है। उसे लगा कि वह उसको ठीक से जान नहीं पाया है। वह अवश्य ही किसी अज्ञात संदेह के तहत उसे समझ रहा है। वह उसे एकांत में देख कर अकारण मुस्कराती या हँसती, किन्तु आश्चर्य यह था कि वह कभी उससे पूँछ नहीं पाया था। उसके सामने उसका खुद का अस्तित्व नकारात्मक अभिव्यक्ति बन कर रह गया था।

नहीं वह नहीं आ रही थी। उसने अपना रास्ता बदल लिया था। यह अंत सुखद नहीं था। उसने अपनी तरफ देखा और सोचा उसमें प्रतिस्पर्धा की भावना भरने वाली अब नहीं होगी। भविष्य में क्या वह इस स्तर से सफल रहेगा? ... और तब यकायक ख्याल आया कि वह बेहतर सोचती और करती है। वह उसे नहीं रोकेगा। उसका जहाँ मन चाहे जाएँ, जो रास्ता चुनना चाहे चुने, मगर वह दिल से यही चाहता था कि वह उसके साथ आ जाएँ।

वह सिर्फ प्री मेडिकल टेस्ट देने रोजा (शाहजहांपुर) से कानपुर उसके घर आई थी। वह यानी निम्मी, निवेदिता, उसकी फुफेरी बहन की बेटी. जब वह आई थी उसके पूर्व उसके घर और आसपास के लोगों में यह अवधारणा थी कि अवी, आवेश काफी पढ़ाकू और जहीन है। इन्टर का रिजल्ट निकल चुका था और वह भी प्री मेडिकल टेस्ट देने की तैयारी कर रहा था। परीक्षा एक माह बाद होनी थी। दोनों एक साथ अध्ययन करेंगे तो ज्यादा संभावना बनेगी चयनित होने की। ऐसा कनक जीजी का विचार था और फिर आवेश पढ़ने लिखने वाला बच्चा है। कनक जीजी के लिए अवी के पिता मामा थे तो वह निम्मी के लिए मामा जी था, ऐसा ही परिचय उन दोनों का करवाया गया था।

"निम्मी, यह है अवि-आवेश तुम्हारे मामा।" कनक जीजी ने बताया।

"इतने छुटके मेरे मामा?" मामा लोग कही इतने छोटे होते हैं? मेरे मामा तो उमेश और रमेश है।"उसने अपने सगे मामा लोगों के विषय में बताया।" मैं नहीं मानती, मैं तो अवी ही कहूँगी।"

"ज्यादा पढ़ाई-लिखाई से दिमाग खराब हो गया है क्या?" जीजी ने उसे झिड़का... "खबरदार जो मामाजी के अलावा अंट-शंट बोला।"

"अरे, रहने दे कनक, अभी नासमझ है। कहने बोलने से रिश्ते तो नहीं बदल जाते?" फिर कुछ ही क्षण बीते थे कि माँ ने कहा, "निम्मी पढ़ने में बहुत होशियार है, हाई-स्कूल और इन्टर दोनों में फर्स्ट डिवीजन पास हुई है।" माँ ने उसकी बड़ाई की... मेरा अवी भी पढ़ने होशियार है, उसकी भी हाई-स्कूल में फर्स्ट डिवीजन थी।

"और इन्टर में?" निम्मी ने पूछा।

"गुड सेकंड डिवीजन।" उसने माँ के बोलने से पूर्व ही बोल दिया।

"यह गुड सेकंड डिवीजन क्या होता है?" वह तपाक से बोली।

"सात नंबर कम रह गए थे फर्स्ट डिवीजन आने में!"

"ओह, क्या मार्कशीट या सर्टिफिकेट में लिखा है, गुड सेकंड डिवीजन?"

"नहीं न? मामाजी एक नंबर भी कम होगा तो कहलाओगे सेकंड डिवीजन।" उसने मामाजी, जिस व्यंग्योक्ति में कहा कि वह खिसिया गया... "मेरे तो फर्स्ट डिवीजन से भी काफी ज्यादा नंबर है, तो क्या मैं गुड फर्स्ट डिवीजन हो गई? ... नहीं न? क्योंकि ऐसी कोई पासिंग डिवीजन नहीं होती।" यह कहकर वह हंसी तो वह भी हँसने लगा।

उसकी दुबली-पतली, मजबूत गोरी काया में गजब की समझदारी भरी थी... वह सुंदर चंचल और चपल थी। वह भुलाई नहीं जा सकती थी। सच कभी किसी अजनबी व्यक्ति को देखते, यह अजीब-सा भरम हो जाता है कि वह काफी पहचाना है, अंतरंग है। उसे देखकर ऐसा ही लगा था। लेकिन उसकी बाते और व्यवहार उसके लिए कोई खास मायने रखते थे, ऐसा उस समय नहीं लगता था।

उसका छत वाला कमरा उन्हें दे दिया गया था। परंतु वह कमरा उनका स्टडी रूम भी था। दिन भर वे दोनों उस अकेले कमरे में सामूहिक अध्ययन करते रहते। रात में जीजी निम्मी के साथ सोने के लिए उस कमरे में आती तो वह नीचे बैठक में। दो चार दिन बाद जीजी वापस रोजा चली गई थी, किन्तु उसका कमरा अब निम्मी का हो गया था। उनके पढ़ने और सोने की व्यवस्था पूर्ववत चलती रही।

पहले उसे बड़ा ताज्जुब हुआ था कि वह अकेले इस सूनसान कमरे में सोता है। अब उसे खुद यह सुविधाजनक और अच्छा लगने लगा।

यद्यपि वह उससे एक सप्ताह छोटी थी परंतु उसने इसे कभी मान न दिया था। उसका व्यवहार सदैव बराबर का या कुछ हद तक बड़ों का-सा रहता था। वह औरों के सामने तो मामा जी अवश्य कहती थी परंतु अकेले में अवी ही उसका सम्बोधन हुआ करता था। अकसर वह मामाजी चिढ़ाने के लिए प्रयोग करती ऐसा लगता था।

उसने निम्मी का आधिपत्य स्वीकार कर लिया था। वह उसके सामने नरवस रहता। यद्यपि वह उसे कभी रोकती, टोकती या मजाक नहीं उड़ाती थी, परंतु उसके प्रश्न सदैव उसे परेशान और तर्कहीन कर देते थे। तब वह उसकी आँखों में अजीब-सा कौतूहल होता था और वह देर तक उसे देखती रहती, अपने प्रश्न के उत्तर की तलाश में। वह उसे देखती हुई शरारत भरी दृष्टि से मुस्कराने लगती उसको घबराहट, विकलता और जद्दोजहद से उबारती, "चलिए अब पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करते है।" हालांकि उसने कभी भी कोई उच्चता का प्रदर्शन नहीं किया था, किन्तु वह उसकी प्रतिभा से आतंकित था।

सामूहिक पढ़ाई करते हुए काफी फायदा हो रहा था क्योंकि पढ़ने और याद करने के उपरांत वे हर सब्जेक्ट की आपस में प्रश्नोंतर करते। वे आश्वस्त होते जा रहे थे कि उन दोनों का चयन प्री मेडिकल के लिए हो जाएगा।

आज भी जब कभी शाम के धुंधलके में वह अपने कमरे में अकेला, ऊबा-सा देखता है तो अनायास ऐसा भ्रम होता है कि वह यही कहीं आसपास है। बेपनाह ऊर्जा से भरी हँसती, खिलखिलाती या एकाग्र पढ़ती हुई या उसकी अनुपस्थिति में एकटक शून्य को ताकती हुई.

जब भी बारिश होती वह भीगने छत पर निकल आती। पास बिल्कुल पास खड़ी है, बारिश में भीगी लेकिन गरम। उसकी गरमाई उस तक पहुँच रही है। वह तप्त और दग्ध होने लगा है कि सहसा ... वह उसकी भांजी है-निम्मी। उसकी आँखों में गहरा विस्मय झलक आया है और एक् दबा-सा डर भी जो केवल उन लोगों में होता है जो सामाजिक बंधनों से बुरी तरह जकड़े हुए होते है। उस किस्म का डर जैसे किसी नाजुक कीमती चीज के टूट कर बिखर जाने का डर। उसे छूने का उतना डर नहीं होता जितना सदैव के लिए छूट जाने का डर।

वह घर से जाते समय उससे मिली तो उसे देखती रही। तब उसकी निगाहें किसी मोहपाश में बंधी थी। उसकी थकी, क्लांत आँखों में भीना-भीना मोह छलक आया था। मोह से ज्यादा चाहना थी। वे कुछ समय के लिए अपलक देखते रह गए थे। फिर एक स्वप्निल मुस्कान उनके चेहरे पर फैल गई.

"रोजा आओगे?" उसने फुसफुसाते हुए पूछा।

वह डर गया। वह कुछ देर सोचता रहा फिर बोला, "अगर जीजी बुलाएंगी तो?"

निम्मी को उसकी बात बिल्कुल ही असंगत लगी... फिर याद आया कि अरे, मामा जी है! ...? फिर वह नहीं रुकी और तुरंत कमरे से बाहर हो गई. -लेकिन वह कही नहीं गई. वह वही थी। कमरे के हर कोने में दृश्य अदृश्य रूप में। उन दोनों के बीच कोई स्पर्श नहीं था किन्तु अहसास तारी था। उस क्षण उसे लगा कि उसमें जादू था जो उसे अपनी ओर खींचे रहता था। उसे लगा कि वह रास्ते से भटक रहा है। अब वह नहीं है तो वह अपनी पूर्ववत लाइन पर आ जाएगा। क्योंकि वह इस संशय से छुटकारा पाना चाहता था कि वह उसे चाहने लगा है। वह ठीक अपनी यातना का अनुमान नहीं लगा पा रहा था। किन्तु उसमें असीम धैर्य था वह उस क्षण की प्रतीक्षा करने लगा जब रिजल्ट आएगा और वह फिर उसके साथ होगी।

कनक जीजी ने उसे बुलाया है, निम्मी को समझाने-अब वह मेडिकल कि कोई प्रवेश परीक्षा नहीं देगी। उसे डॉक्टर नहीं बनना, जो उसका बचपन का सपना हुआ करता था।

सुबह के नौ बजे थे जब वह उनके घर पहुँचा था। सभी उसे विचित्र निगाहों से देख रहे थे। यह उनकी यकीन से परे था कि वह उसे समझा पाएगा। निम्मी से बड़े दो शादी शुदा भाई और बच्चे वाले थे और जीजी जीजा जी सभी प्रयास करके हार गए थे। वह अपने फैसले से नहीं डिगी थी।

जीजाजी और दोनों बड़े भाई दुकान जा चुके थे जब उसने उससे बात करने की सोची। उसने नाश्ते में उसका साथ दिया था। किन्तु उसके तुरंत बाद वह अपने कमरे चली गई. वह घर वालों से बेहद नाराज थी कि उसकी बात मानी नहीं जा रही है और कानपुर से आवेश को बुला लिया गया है। वह बेहद कशमकश में थी कि अवी को कैसे मना कर पाएगी? जो खुद कारण था, वह क्या निवारण करेगा?

वह अपने कमरे में थी जो इस समय उसका कोपभवन है। अवी पर यह गुरुत्तर जिम्मेदारी है कि वह उसे मेडिकल की प्रवेश परीक्षा का फ़ॉर्म भरने के लिए राजी कर ले, ऐसा ही जीजी ने उसे राजी करने के लिए कहा। वह भी यही चाहता था।

जीजी उसे उसके कमरे पर ले जाकर छोड़ कर वापस चली आई.

वह लेटी है। संज्ञाहीन नहीं परंतु विचारों के अंधड़ में विचरती हुई. किन्तु उसे यह चेतना है कि वह अपनी बात मनवाकर रहेगी। वह अपने से सम्बंधित निर्णय खुद लेती है और उस पर कायम रहती है। वह सदैव जीतती ही रही है। क्योंकि वह सही होती है इस कारण से पिता की लाड़ली भी है।

वह दरवाजे पर खड़ा उसे देख रहा था। उसे उसके आ जाने का आभास था। किन्तु वह पहल नहीं करना चाहती थी। जब उसने अवी को कमरे में झाँकते देखा तो बोली, "समझाइए न मामा जी?" वह सकपका गया। उसे यह सबसे दुरूह कार्य लगता था। उसने अभी तक यह कार्य नहीं किया था और फिर उसे समझना, समझना जैसे जटिल पहेली को हल करना था।

"आखिर डॉक्टर बनना तुम्हारा सपना था तो अब क्यों उस सपने को पूर्ण करने की राह में खुद रोड़ा बनकर खड़ी हो गई हो?" उसने एक झटके में सब कुछ उगल दिया जो शुरू से दोहरा रहा था।

"मैंने अपना सपना बदल दिया है। जो अप्रायः है उसे प्राप्त करने का प्रयास निरर्थक है।"

"नहीं इस वर्ष तुम्हें अवश्य हो जाना है। पिछली बार तुम्हारे 90 पर्सेन्टाइल नंबर थे जबकि सामान्य वर्ग की रेटिंग 93 थी। सिर्फ कुछ नंबरों के अंतर से तुम रह गईं। निश्चय ही अब की बार तुम अवश्य चुन ली जाओगी।" उसे समझ में नहीं अ रहा था कि उसे किस तरह प्रेरित किया जाए?

"तो भी एक वर्ष डॉक्टरी में पिछड़ जाऊँगी न?"

"क्या फर्क पड़ता है? हमारा साथ रहेगा।" उसने उसे मनाया।

" मुझे पीछे रहना पसंद नहीं है। यह कुछ नंबरों का खेल बड़ा विचित्र है। अब मैं समझ सकती हूँ तुम्हारे कुछ नंबरों से इन्टर फर्स्ट न आने का दुख। उसका स्वर इतना सहज और शांत था कि वह समझ ही नहीं पाया कि वह रो रही थी बिना आवाज के.

"तुम्हारी जिद बेहद बेतुकी और असंगत है!"

"अगर यह प्रकरण न होता तो तुम कभी आते और तुम साथ की बात करते हो? कैसी अजीब बात है?"

मैं उसके चेहरे की तरफ देखता हूँ। वह एक छाया-सी दिखी जो स्तब्ध और ठिठकी थी।

उसे याद आता है कानपुर से आते वक्त, उसने कहा था, "अवी, तुम मुझे भूल जाओगे?"

"नहीं..." उस समय और कुछ नहीं कहा था। तब उसे चुप देखकर वह हंसने लगी थी और उठकर चल दी थी।

आज कानपुर वापस लौटते वक्त वह सोच रहा है कि उसे भूल जाना चाहिए. वह जिस सहज भाव से घुस आई थी उसे उसी तरह सहज रूप से दिलों दिमाग से वापस कर देना चाहिए. परंतु समय के अंतराल पर कुछ ऐसा शेष रह जाता है जो काल डोर से बंधा नहीं होता है वह समय पर प्रगट हो जाता है।

उस दिन के बीते कई वर्ष बीत गए थे। उससे भौतिक संपर्क नाममात्र का रह गया था परंतु वह कोई दिन भी ऐसा नहीं बीतता था कि वह दिलों जहाँ में छाई न रहती हो। उसके व्यस्ततम क्षणों में भी वह उपस्थिति रहती थी। वह कुछ समयान्तर पर उसे अपने विषय में बताती और उसकी प्रगति के विषय में पूछती रहती। उनमें आपस में कशमकश थी किन्तु कशिश बरकरार थी।

...वह पढ़ नहीं रहा है। वह उस लड़की को देख रहा है जो मेज के बाई ओर सीमित जगह को घेरे तन्मयता से पढ़ रही है। उसके माथे पर तीन लकीरे उभर रही है और उन्हें बालों की एक लट छुह रही है। यह जब होता है जब वह कुछ दुरूह चीज के अध्ययन में व्यस्त होती है या किसी गंभीर सोच में...

"हैलो, ...निम्मी!"

"क्या है?" उसने उसकी ओर ऐसे देखा जैसे वह कोई अजनबी हो और वह उसे पहली बार देख रही हो? पल भर में वह अपने में लौट आई.

"यह कितना अच्छा होता यदि हम इतने क्लोज़ रिश्तेदारी में न होते?"

"तो कौन हम लोग ब्लड-रीलैशन में आते हैं?" उसने तुरंत प्रतिक्रिया दी। यह कहते हुए वह अनिश्चित ढंग से शून्य में ताकने लगी। उसका चेहरा पीला पड़ गया था जैसे वह डर गई हो। फिर वह फिस से हंस दी। जैसे वह उसका डर न देख ले।

कुछ देर तक उसके मन में अजीब-सा भ्रम मँडराता रहा। फिर उसने उसके हाथ को अपनी हथेलियों से छाप लिया। कोमल, मुलायम और नाजुक हथेलियाँ। उसके भीतर साँसों का एक बवंडर उठता है फिर दब जाता है। कुछ सहमे शब्द निकलते है दूर से इतने दूर से जैसे कोई फुसफुसा रहा हो...? ... " छोड़ो... मेरा हाथ छोड़ो। उन शब्दों की आहट उस तक पहुँचती है। दूसरे ही क्षण वह अपना हाथ खींच लेता है। हालांकि वह उसका हाथ पकड़े नहीं था।

काफी देर बाद वे प्रकीतस्थ हो पायें।

वह हाउस जॉब में लाजपतरॉय अस्पताल में था। नर्स ने आकर बताया कि आपका फोन है। कनक जीजी थीं।

"आवेश, क्या एक दिन के लिए यहाँ आ सकते हो?"

"क्यों, क्या बात है? क्या आना बहुत आवश्यक है?" उसने कई प्रश्न एकसाथ कर दिए.

"हाँ, ...बहुत जरूरी! तुम्हारी चेली निम्मी ने फिर हंगामा कर दिया है।" वह हतप्रभ रह गया था चेली शब्द के सम्बोधन से... और क्या...? कैसा हंगामा...? -वह निम्मी से पुनः परिचित होने की कोशिश करता है। वह प्रांतीय प्रशासनिक सेवा उत्तीर्ण कर चुकी है। गाजियाबाद में असिस्टन्ट ट्रैड कमिश्नर की ट्रेनिंग करने के उपरांत घर रोजा में है। उसकी पोस्टिंग कानपुर में प्रस्तावित है। यह सब उसे समय-समय पर सूचित करती रहती थी वो। फिर अब क्या...?

घर में माँ ने बताया-"उसके लिए एस.डी.एम लड़के के शादी का प्रस्ताव आया है। वह खुद आया था। उसकी अभी पहली पोस्टिंग रोजा में हुई है। लड़का हर तरह से उसके योग्य है। वह इनकार कर रही है। कह रही है कि उसे शादी नहीं करनी है। बेटा, चला जा शायद तेरे कहने से मान जाएँ, उसका घर बस जाएँ।" ।

उसके अभाव की रिक्तता अभी तक चुभती है। वह अब भी है, किन्तु जैसे वह अपनी न रही हो पराई बन गई है। जिसे वह बाहर तटस्थ भाव से देख सकता है। जिंदगी कितनी हल्की है। वह अब भी दिखाई पड़ती है। कभी सपनों में... उसकी आँखें है उस पर टिकी हुई. उसकी आँखों में एक स्वप्निल दीप्ति जगाती है। वह वही ठिठकी खड़ी है जहाँ वह इन्टर में थी। उस क्षण उसे लगा कि बीते हुए दिन बीत गए है, किन्तु वह देर तक दिखती रही ... वह उसके भावहीन और निष्प्रभ चेहरे में कुछ नहीं पढ़ पाया, मानों वह निर्जीव छाया हो।

देर रात वह बिस्तर में उठ बैठा। बैठा, सोचकर काँपता रहा। मुश्किल से नींद आई तो वही थी और उसकी सफेद बाहें थी। वह उठतीं और उसे गले से लपेट लेती और बार-बार अपनी ओर खींचती। एक अजीब-सी तृष्णा की लहर उठती और उसके तन-बदन को भिगोती चली जाती। वह कातर होकर बुलाती, उसकी स्वीकृति की प्रतीक्षा करती...फिर कहीं कोई राह न मिलने पर खो जाती...उसकी कशिश थी। किन्तु...कशमकश में थी। लेकिन...बस कसक ही रही थी।

अब की बार जब वह आया तो जीजी का पूरा परिवार उसे हिकारत की नजर से देख रहा था, जैसे कि वह कोई घृणा का पात्र हो। उसे कोई संदेह न रहा कि अवश्य कोई ऐसी बात है जिसमें उसकी संलिप्तता प्रगट होती है। उसके मस्तिष्क में कई प्रश्न उठे और फिर तुरंत विलीन हो गए.

अवी को उस कमरे में जाना था जहाँ जीती जागती जिद थी। उसे यह आत्म विडंबना ही लगती है कि वह उसे समझा पाएगा।

"माफ कीजिएगा मुझे फिर तुम्हें समझाने का दायित्व..." अधूरा वाक्य पूरा होने से पहले ही रुक गया था क्योंकि उसकी भाव भंगिमा क्रोधित हो रही थी जैसे इस सबका मैं ही जिम्मेदार हूँ।

"कहिए... ?" उसके स्वर में हल्की-सी झुंझलाहट थी।

"आखिर...क्या कारण है कि तुमने एक बेहतरीन सुइटेबल परफेक्ट मैच को ठुकरा दिया है।" उसके स्वर में हल्की-सी हकलाहट थी।

"देखिए जब मुझे विवाह ही नहीं करना तो मैच को क्या देखना?" यह कहते हुए उसमें पत्थर-सी जड़ता उभर आई थी।

उसके सामने उसमें एक असहाय-सी कमजोरी लगने लगी। वह जानता है उसे किसी ऐसी चीज के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता जो उसकी पसंद की न हो। उसके तर्कों के आगे वह अपने को बेबस पाता है।

"क्या तुम मुझे बता सकती हो... अन्य कोई तुम्हारी पसंद?" उसके स्वर में हल्का-सा भीगा कंपन था। मानो वह जबरदस्ती उससे आग्रह कर रहा हो।

"तुम्हें क्या मैं तो घर के सभी लोगों से कह सकती हूँ।"

"कौन है वह?"

"आप!"

वह सन्न रह गया। उसे लगा कि उसकी साँस रुक गई है। जिस बात से उसे सदैव भय लगा रहता था और जिससे वह सदैव कतराता रहा था वही आज प्रत्यक्ष रूप से सामने मुंह बाएँ खड़ा था।

"यह कैसे हो सकता है?" वह अजीब दुविधा में था।

"क्यों, तुम मुझे नहीं चाहते? तुम मुझसे शादी करना नहीं चाहते?" उसके स्वर में भय से लिपटी विस्मित-सी आतुरता थी।

उन दोनों में शायद ऐसा कुछ था जो हमेशा अनकहा रह जाता था, जो मौन उन दोनों के बीच एकांत में पलता था आज कोई अज्ञात शक्ति उन दोनों के सीमित दायरे को तोड़ने पर अमादा थी।

"किन्तु मामा-भांजी की शादी...! ...? हिन्दू धर्म में पाप है।" उसे उसका कथन बड़ा विचित्र जान पड़ा।

"क्यों दक्षिण वाले हिन्दू नहीं है? ... उनके यहाँ तो यह बड़ा पवित्र रिश्ता माना जाता है...और वह तो सगे मामा से विवाह करते है और तुम तो कजिन मामा हो।"

"यह अजीब तो है परंतु यदि दोनों परिवार सहमत हो तो गलत नहीं होगा।"

"फिर तो असंभव है। मैंने अपने घर में कहकर देख लिया है और मानसिक, शारीरिक प्रताड़ना की शिकार हूँ।" वह कुछ देर रुकी फिर बोली, "और ऐसा भी तुम्हारे साथ होगा इस घर में, या अपने घर में। कह कर देख लो!"

उसने चौककर उसकी तरफ देखा। उसका कहना बेहद तीखा, स्पष्ट और मारक था जिसकी काट निःसंदेह नहीं थी।

"फिर...?"

' एक तरीका है। हम दोनों सबको दरकिनार करते हुए विवाह कर सकते है।" उसने भीतर भरी सम्पूर्ण आकुलता उड़ेल दी।

"नहीं...!" वह अपनी सम्पूर्ण तीव्रता से चीखा था किन्तु उसकी आवाज गले से बमुश्किल बाहर आ पाई थी।

वह आश्चर्यचकित रह गई. वह कुछ देर तक अपलक उसे देखती रही। उसकी त्रस्त काली आँखें फटी-फटी-सी उसी पर टिकी थीं। एक् क्षण के लिए वह उसे पहचान न पाई. फिर उसने उसका हाथ पकड़ लिया-एक् मुरझाई-सी मुस्कान उसके होंठों पर सिमट आई... "मै अकेली रह गई हूँ।"

"यह पागलपन है...?" उसे विचित्र-सी उलझन और घबराहट होने लगी।

"मैं सब कुछ छोड़ दूँगी...जब अपने मन का कुछ होना ही नहीं तो फिर क्या...?"

वह उसके बाहर जाते कदमों को गुमसुम, निस्तब्ध, निश्चल जाते हुए देख रही थी। ऐसा लगता था कि वह अशरीर विस्मय से भरी है।

बाहर निकलते ही जीजी ने आग्रह किया कि क्या बात हुई खुलकर बताएँ। वह पूरी बात कह नहीं सकता था सिर्फ यह कहकर तनिक झिझका कि "मैं असफल रहा हूँ..." और यह कहकर बिना किसी को कहे कानपुर के लिए निकलने लगा।

वे सब बिफर पड़े। उसे जाने ना दिया।

"आग तुम्हारी ही लगाई हुई है। बुझाना तुम्हें ही होगा!" जीजा जी गरजे और उनके दोनों बेटे उनके साथ थे। मानो कोई अपराधी छूट जा रहा हो?

उसने बेबस निगाहों से उन्हें देखते हुए जीजी पर दृष्टि केंद्रित हो गई. जहाँ दुख-विलाप और असहायता के सिवाय कुछ ना था।

वे तीक्ष्ण आवाजें भीतर भी पहुँच रहीं थीं। वह अपने कमरे से बाहर निकल आई और दरवाजे पर खड़ी, सब पर एक दृष्टि डालती हुई उस पर स्थिर हो गई.

सम्पूर्ण घर में एक जड़वत निस्तब्धता फैल गई थी।

"यह गलत है।" उसने अत्यंत अनिश्चित और कमजोर लहजे में प्रतिवाद किया।

उसके स्वर में पहले जैसी दृढ़ता नहीं थी। संदेह और अनिश्चय से उसके स्वर में एक तनाव खिच आया था। जैसे वह कहना चाहती हो कि सिर्फ अवी ही दोषी नहीं है।

वह कुछ देर तक चुपचाप उसे घूरता रहा। हालांकि अब तक वह कमरे में जा चुकी थी। उसने एक भरपूर सांस ली-एक हल्का-सा पछतावा होता है कि वह क्यों यहाँ आया था। वह महीन हंसी उसके होंठों में आई किन्तु उस हंसी में एक विवश निरीहता छिपी थी।

उसके भीतर से उमस, बेचैनी और बेबसी टपक रही थी, वह फिर उसके पास चला आया।

उसके चेहरे पर उसकी जिद थी किन्तु उसमें संवेदन हीनता और भावहीनता का नहीं थी। परंतु उसमें सर्वत्र एकाकीपन और अजनवीबोध था। उसे लगा कि एक बड़ी विनम्रता से वह उसका फलितार्थ उसे भेंट कर देंगी।

"अपने निर्णय पर फिर पुनर्विचार कर लो!" उसने अपनी सम्पूर्ण दीनता से कहा। उसने उसके शिथिल हो आए लुढ़कते-पुढ़कते प्रतिवाद न करते देख, उसकी जिद पिघलने लगी थी।

वह रोने लगी थी। उसे अचरज हुआ।

अवरुद्ध कंठ से बोली, "ठीक है, ...शायद यही ठीक हो? ...!"

"मगर एक शर्त है..."

"क्या...?" उसने शीघ्रता पूछा।

"मेरे विवाह में... तुम नहीं आओगे!"

वह सचमुच रो रही थी। उसकी पीड़ा बड़ी विदारक थी, कुछ टूट जाने, कुछ खो जाने की। उसने महसूस किया कि शायद वह भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। उसने उसकी शर्त स्वीकार ली।