तर्जनी / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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पीपल वाले चौराहे पर बरसों से एक पत्थर की मूर्ति लगी हुई थी। वैसे तो हर शहर या कस्बे में चौराहे पर कोई न कोई मूर्ति लगी होती ही है, लेकिन ये पत्थर की मूर्ति आम मूर्तियों की तरह नहीं थी। इस मूर्ति का चेहरा जीवित था जो बात करता था, हंसता था, मुस्काता था, बस बाक़ी पूरा धड़ पत्थर का बना हुआ था, जिसमें कोई हरकत नहीं होती थी।

कौन जाने वह कोई शापित स्त्री थी, जिसे कुदरत ने श्राप देकर आधे से ज़्यादा पत्थर का बना दिया था। या वह कोई पत्थर ही था जिसे कुदरत ने वरदान देकर इनसानों की-सी आवाज़ दे दी थी। वह जो भी थी, बड़ी ही विचित्र थी।

कई बरस बीत गए, रुत बदली, मौसम बदले, लेकिन पीपल चौराहे पर लगी उस मूर्ति के भाग्य नहीं बदले। न वह पूरी स्त्री बन सकी, न उसे पूरा पत्थर ही होते देखा गया। कितनी बरसातें आईं, तूफान आये पर वह अपने स्थान से हिली तक नहीं।

उस गाँव के कुछ लोग उस मूर्ति को शापित ही मानते थे। कोई नज़र उठाकर देखता भी नहीं था और न अब वह उस गाँव के लोगों के लिए अचरज का विषय ही रही थी। बच्चे भी उसे पत्थर मार-मारकर उकता गए थे। हाँ देश-विदेश से पर्यटक ज़रूर कौतूहलवश उस मूर्ति को देखने चले आते थे, लेकिन उस मूर्ति के बात करने और जोर-जोर से हंसने की वज़ह से वे पर्यटक भी उससे ख़ौफ़ खाते थे और कोई भी पास जाने की हिम्मत नहीं करता था।

बरसों से आसपास के गाँव की कई पीढिय़ां उस मूर्ति को देख रही थीं, इसलिए अब वह किसी के लिए भी विशेष नहीं रही।

लेकिन कहते हैं न कि ईश्वर की बनायीं इस सुन्दर धरती पर हर एक चीज किसी न किसी ख़ास मकसद से बनाई गयी है और हर चीज किसी न किसी के लिए तो विशेष होती ही है।

एक दिन की बात है, न जाने कहाँ से भटकता हुआ कोई चित्रकार श्योपुर गाँव में आया। शायद शहर की भीड़ से उकताकर वह कुछ दिन उस गाँव में बिताना चाहता था। नर्मदा नदी के किनारे बसे उस गाँव का सौन्दर्य उसे कुछ ऐसा भाया कि वह वापस जा नहीं सका। दिनभर वह नदी, पहाड़ और प्रकृति के चित्र बनाता रहता। उसके हाथ में हमेशा रंग और ब्रश होते थे। एक शाम उसका मन चित्रकारी से भी ऊब गया और वह टहलने निकल गया और पीपल वाले चौराहे पर ठहरकर सिगरेट सुलगा ली, तभी अचानक उसकी नज़र उस हंसने वाली मूर्ति पर पड़ी तो वह हैरान रह गया। वह घंटों उस मूर्ति को देखता रहा। कभी घूम-घूमकर, कभी रुक-रुककर बस छूने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। जी भरकर देखने के बाद वह वापस जाने लगा, लेकिन मन नहीं माना। उसने फिर एक बार रुककर उस पत्थर की मूर्ति को ग़ौर से देखा और अपने कांधे पर टंगे झोले में से ब्रश और रंग निकाल लिए और उस खूबसूरत मूर्ति के चित्र बनाने लगा।

वह मन ही मन सोचता जाता था कि इस मूर्ति की आंखें बहुत सुन्दर हैं और इसकी मुस्कान में ग़ज़ब का आकर्षण है। रोज़ वह मूर्ति के पास घंटों बैठा रहता। ये सब देख मूर्ति हैरान होती थी। कई सदियों से कोई इस तरह से उसके करीब आकर नहीं बैठा था। लोग तो उससे ख़ौफ़ खाते थे। चित्रकार का आना और चित्र बनाने का सिलसिला कई दिनों तक चला। अब वह नदी के किनारे जाकर प्रकृति के चित्र नहीं बनाता था। अब वह मूर्ति के ही चित्र बनाता था।

कई दिन बीत गए। चित्रकार और मूर्ति के बीच कोई सम्वाद नहीं हुआ। उन दोनों के बीच एक खामोशी बहती रही। ये खामोशी यूं ही चलती अगर उस दिन मूर्ति ने ख़ुद चित्रकार से बात शुरू न की होती तो। मूर्ति उस दिन बोल पड़ी "कौन हो तुम और यहाँ मुझ बेजान पत्थर के चित्र क्यों बनाते हो, क्या संसार का सारा सौन्दर्य समाप्त हो गया?" कहकर मूर्ति ज़ोर से हंसी।

चित्रकार घबरा गया, "एक पत्थर ऐसे कैसे बोल सकता है!" वह उसे देर तक घूरता रहा और बोला, "पत्थर होकर बोलती हो, हंसती हो, ये असम्भव है। मैंने आज तक ऐसी सच्ची हंसी नहीं सुनी। ये तुम्हारी आवाज...ये तुम्हारी आंखें, ये मुस्कान ये सब इतना सच्चा क्यों लगता है" कौन हो तुम? ये सब कहाँ से आता है तुम्हारे भीतर? तुम तो पत्थर की मूरत हो न, फिर कैसे मुस्काती हो? और तुम्हारा चेहरा क्यों अभी तक पत्थर का नहीं बना? सारी देह क्यों पथरा गयी? "मूर्ति ने हंसना बंद कर दिया और उदास हो गयी और उसकी आंखों से दो बूंद आंसू ढलक पड़े। चित्रकार हैरान था, कुछ बोल न सका। बस इतना कहा," कल फिर आऊंगा। "

उस रात वह चित्रकार सो न सका, पूरी रात करवटें बदलते हुए वह सोचता रहा कि दुनिया घूमी है मैंने, कई गुफाओं में सैकड़ों मूर्तियाँ देखी हैं, लेकिन ये बोलने वाली मूर्ति कभी कहीं नहीं देखी। आधी पत्थर आधी इनसान, ये कैसे संभव है? मैंने आधी मछली आधी इनसान (जलपरी) के बारे में तो सुना था पर इसे क्या पुकारूं मैं संगपरी, आधी संग (पत्थर) आधी इंसान। उसे किस बात ने अब तक जीवित रखा हुआ है? उसे किस चीज ने पत्थर कर दिया? किस दुख ने उसे बेजान कर डाला और क्या सुख उसे जानदार बनाये हुए है? ऐसे तमाम सवालों में उसकी रात कटी।

चित्रकार अब नियम से मूर्ति के पास जाने लगा। मूर्ति और चित्रकार घंटों बातें करते रहते। गाँव वालों ने उस चित्रकार को पागल समझ लिया था, लेकिन उन दिनों चित्रकार ने विभिन्न कोणों से उस मूर्ति के कई सुन्दर चित्र बनाये। ये सभी चित्र उसके जीवन के सर्वश्रेष्ठ चित्र थे। वह जब भी उस मूर्ति के पास से उठकर जाता, उसे लगता उसका कोई भीतरी हिस्सा वहीं कहीं मूर्ति के आसपास ही छूट गया है। ये कैसा रिश्ता बनता जा रहा था उसका उस विचित्र पत्थर से? चित्रकार अपने पूरे जीवन में इतना परेशान कभी नहीं हुआ था, जितना इन दिनों हो रहा था। अक्सर वह सोचता कि हजारों स्त्रियाँ उसके जीवन में आयीं, उसके चित्रों की प्रेरणा बनीं, उसकी प्रेयसी बनीं, लेकिन वह अब इस उम्र में एक विचित्र से पत्थर के आकर्षण में पड़ गया है शायद...

उस दिन चित्रकार बहुत ही अनमना-सा था। उसने उस दिन कोई चित्र नहीं बनाया और न मूर्ति से कोई बात की। बस यूं ही खामोशी से बैठा रहा। उस दिन उसे मूर्ति पर बहुत गुस्सा आ रहा था। इतने दिन हो गए इस पत्थर से बात करते हुए इसने अभी तक मुझे अपने पत्थर होने का रहस्य नहीं बताया। कितने दिनों से इस पर मेहनत कर रहा हूँ। अगर ये अपना रहस्य मुझ पर उजागर कर दे तो मैं दुनिया को इस रहस्य से रूबरू करा सकता हूँ और शायद मुझे इस मूर्ति के बनाये चित्रों के ऊंचे दाम भी मिल जाये। चित्रकार मन ही मन बड़बड़ाया।

चित्रकार को यूं चुप देख मूर्ति बोल पड़ी "क्यों चित्रकार आज चित्र नहीं बनाओगे? बनाओ, बनाओ मेरे ख़ूब चित्र बनाओ, ऊंचे दाम कमाओ, तुम्हारे मन की सब बात जानती हूँ। तुमसे पहले हजारों लोग मुझ तक मेरे रहस्य जानने ही आये थे, लेकिन वे कभी जान नहीं सके। वे भी आला दर्जे के कलाकार थे, कोई गायक था, कोई मूर्तिकार था, कोई जौहरी था कोई कवि था।" चित्रकार अब घोर अचम्भे में पड़ गया बोला, "अरे...ये क्या कहती हो तुम, मैं बस इतना जानना चाहता हूँ कि तुम चीज क्या हो आखिर?" मूर्ति फिर जोर-जोर से हंसने लगी। जाओ-जाओ चित्रकार ये जानना तुम्हारे बस का काम नहीं।

चित्रकार उसे एकटक निहारता रहा और धीरे-धीरे उस मूर्ति की तरफ़ बढऩे लगा। आज वह इस विचित्र पत्थर को छूकर देखना चाहता था कि वह सच में पत्थर है या इनसान है। उस विचित्र मूर्ति के बार-बार कटाक्ष करने से उसका अहम् घायल हो रहा था। अब उसका सब्र ख़त्म होने लगा। वह मूर्ति के सारे रहस्य आज और इसी वक़्त जान लेना चाहता था। उसने अपना हाथ उठाया और अपनी तर्जनी उंगली मूर्ति की तरफ़ बढ़ा दी। मूर्ति ने जब ये देखा तो वह घबरा गयी और अपनी आंखों में आंसू भरकर उसने मूर्तिकार को आंखों ही आंखों में उसके पास न आने का इशारा किया। मूर्ति का जीवित चेहरा भय से कांप रहा था। उसने फिर एक बार डबडबाई आंखों से चित्रकार को उसे छूने से मना किया, लेकिन चित्रकार ने उसकी कोई बात नहीं मानी और उसके सुन्दर होठों पर अपनी तर्जनी उंगली रख दी।

तभी एक तेज आवाज़ के साथ मूर्ति का चेहरा भी पत्थर का होने लगा।

मूर्ति आखिरी बार हंसी, देह को छुए बिन तुम रह नहीं सके न चित्रकार। मुझे छूकर मेरा रहस्य जानना चाहते थे तुम...तो सुनो चित्रकार, पहले मेरी सम्पूर्ण देह ही बोलती थी। एक झंकार होती थी देह में। संगीत बजता था रुनझुन-रुनझुन। मेरी इस देह पर इतने अत्याचार हुए कि मेरी देह पथरीली हो गयी। एक ये चेहरा शेष बचा था, जिसमें मेरी तमाम इच्छाएँ सिमट आई थी। आंखों में पानी था, होठों पर संगीत, मुस्कानों में जीवन था, हंसी में खनक, बेजान जिस्म के साथ मैंने ये जीवित चेहरा कई जन्मों से ढोया है। इस चेहरे को बमुश्किल बचाया था मैंने।

मैं स्पर्शों की मौत मरी थी, मुझे अजीब-सा रोग हुआ था। देह के जिस हिस्से को कोई बिन प्रेम के स्पर्श करता, वह हिस्सा पत्थर का हो जाता। आज तुमने मेरे बोलते होठों पर अपनी तर्जनी रखकर मेरे जीवित चेहरे को भी पत्थर का बना दिया। अगर नहीं छूते तो हम कई जन्मों तक यूं ही बातें कर सकते थे, मुझे तुम जीवित पाते। चित्रकार तुमने मुझे अपनी तर्जनी से क्यों छुआ? प्रेम से अपने होंठ क्यों नहीं रख दिए मेरे होठों पर? चूम ही लिया होता मुझे। तुम डरते थे न कि कहीं तुम मुझे चूमकर पत्थर न बन जाओ ...हा हा हा... अगर प्रेम से चूम लेते मुझे तो ये पत्थर का जिस्म फिर से स्त्री में बदल जाता यकीनन, लेकिन तुमने मुझे प्रेम से नहीं चूमा। तुमने मुझे जिज्ञासा से कौतूहल से, मुझे आजमाने की दृष्टि से, मुझे जानने की मंशा से छुआ और तुमने अपने भीतर एक इच्छा रोपी और उस इच्छा के वश में आकर मुझे छू लिया। जैसे बिजली को टेस्ट करते हैं न एक टेस्टर द्वारा, ठीक वैसे ही। है न चित्रकार ...क्या अंतर है तुममें और बाक़ी लोगों में चित्रकार बोलो तो?

मैंने जन्मों से प्रेम की राह देखी थी, मैं तो सम्पूर्ण स्त्री बन जाने की बाट जोह रही थी, इसीलिए जरा-सी जीवित थी, लेकिन आज तो मेरा ये ' जरा-सा जीवनÓ भी ख़त्म हुआ। देखते-देखते उस मूर्ति का चेहरा पत्थर में बदल गया।

चित्रकार की आंखों के आगे अँधेरा छा गया। ये क्या हुआ, अचानक से उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था।

पलभर में गांवभर में ये बात आग की तरह फैल गयी कि मूर्ति अब पूरी तरह से पत्थर की हो चुकी है। क्यों हुई, कैसे हुई? किसी को इस बात को जानने में कोई रुचि नहीं थी। अब सब खुश थे उस रहस्यमयी मूर्ति के ख़ौफ़ से सभी को निजात मिल गयी थी। सब मूर्ति को घेरकर खड़े थे, बातें कर रहे थे। चित्रकार उस भीड़ के बीच से भारी मन से चलता हुआ आज फिर नदी किनारे आकर बैठ गया। आज उसका मन बहुत भारी हो रहा था। बहुत बेचैन होकर उसने आखिरकार फिर से चित्र बनाने के लिए रंग और ब्रश उठाये लेकिन ये क्या...उसकी तर्जनी पत्थर की हो चुकी थी। चित्रकार जीवन भर फिर कभी कोई चित्र नहीं बना पाया। मूर्ति का पत्थर और उसकी तर्जनी के पत्थर का रंग एक ही था।