तलब / दीपक मशाल
आँख खुलते ही सुबह-सुबह मुकेश को अपने घर के सामने से थोड़ा बाजू में लोगों का मजमा जुड़ा दिखा। भीड़ में अपनी जानपहिचान के किसी आदमी को देख उसने अपने कमरे की खिड़की से ही आवाज़ देते हुए पूछा-
“क्या हुआ अरविन्द भाई? सुबह से इतनी भीड़ क्यों लगी है?”
“यहाँ कोई भिखारिन मरी पड़ी है मुकेश जी, शायद सर्दी और भूख से मर गई।”
जवाब सुन कर उसे बीती रात का घटनाक्रम याद आ गया।
१० बजे के आसपास सिगरेट की तलब उठते ही वो नाईट ड्रेस में ही १४-१५ रुपये डाल पान की दुकान, जो कि गली के मुहाने पर थी, की तरफ बढ़ गया। रास्ते में एक मरगिल्ली सी भिखारिन २-३ रुपये के लिए गिगियाने लगी-
“ऐ बाबू जी, दू ठो रुपईया दे देओ। हम बहुत भूखाइल बानी अउर पेट दुखाता। तनी दू ठो रोटी खा लेब”
एक पल को मुकेश ठिठका तो पर उसे ख्याल आया कि 'इसे २ रुपये दे दिए तो सिगरेट के पैकेट को कम पड़ जायेंगे और उसे वापस घर भागना पड़ेगा पैसे लेने के लिए। फिर ये तो मंगनी है कोई ना कोई दे ही देगा इसे।'
“अरे दे देओ बाबू जी। ना तो भूखे हम मर जाइब, भगवान् भला करी” भिखारिन अभी भी गिड़गिड़ा रही थी और वो “खुल्ला नहीं है माई” कह कर वहाँ से बच कर निकल लिया था ।
दुखी मन से दातुन करते हुए अब उसे पछतावा हो रहा था कि उसकी सिगरेट की तलब किसी की भूख पर भारी पड़ गई। एक ज़िंदगी पर भारी पड़ गई। वो उठा और सबसे पहिले सिगरेट के आधे बचे पैकेट को कमोड में बहा दिया, शायद कुछ दृढ निश्चय सा किया था उसने।