तलवार नहीं ढाल चाहिए / मनोहर चमोली 'मनु'
बहुत पुरानी बात है। राजा विजय प्रताप का जन्मदिन था। समूचा राज्य उनका जन्मदिन मना रहा था। सुबह से ही राजा को शुभकामना देने वालों का तांता लगा हुआ था। धनी और सम्पन्न राजा को कुछ न कुछ उपहार दे रहे थे। शाम होने को थी। अब दरबारी भी राजा को जन्मदिन की बधाई देने लगे।
महारानी ने राजा के कान में कुछ कहा। राजा ने हामी भरते हुए दरबारियों से कहा-”मैं आज बहुत प्रसन्न हूं। जो चाहे मांग लो।”
फिर क्या था। किसी ने स्वर्ण तो किसी ने रजत मुद्राएं मांग ली। किसी ने मोतियों की माला मांगी तो किसी ने तीर मांग लिया। मंत्री ने तलवार मांगी तो राजा ने अपनी प्रिय तलवारों में से एक उसे दे दी। मंत्री के बाद तो कई दरबारियों ने भी तलवार मांगनी षुरू कर दी। राजा ने सबकी मांग पूरी कर दी।
दरबार में महतो भी था। वह राजा का सेवक था। वह चुपचाप कोने में खड़ा था।
राजा ने कहा-”महतो। तुम भी कुछ मांग लो।”
महतो ने धीरे से कहा-”महाराज। मुझे तो ढाल ही दीजिएगा।”
यह सुनकर दरबारी हंस पड़े। सेनापति ने चुटकी लेते हुए कहा-” लगता है महतो को तलवार उठाने से डर लगता है।” हर कोई सेनापति की हां में हां मिलाने लगा।
राजा बोले-”कहो महतो। कुछ और मांग लेते। ये तुच्छ-सी ढाल क्यों चाहते हो?”
महतो ने सिर झुकाते हुए कहा-”महाराज। मेरी आयु भी आपको मिल जाए। लेकिन मैं सोचता हूं कि ये तलवार हमेशा मारने-काटने का ही काम करती है। वहीं ढाल बचाने का काम करती है। वैसे भी बड़े कह गए हैं कि मारने वाले से बचाने वाला भला। तो भला मैं तलवार लेकर क्या करूंगा!”
राजा समझ गए। मुस्कराते हुए दरबारियों से बोले-” महतो ठीक कहता है। आप सब तो तलवार उठाकर दुश्मनों से लड़ेंगे। किंतु अवांछित प्रहार से मेरी रक्षा करने वाला भी तो कोई होना चाहिए।”
यह सुनकर दरबारियों के सर झुक गये।
वहीं महारानी ने महतो को अपने गले का हीरों का हार महतो को उपहार में दे दिया।