तलवार / विजयानंद सिंह
" जय श्री राम " का उद्घोष करते हुए भक्तों का हुजूम रामनवमी में सड़कों पर उतर आया था। रास्ते के अगल-बगल मकानों की बालकनी, छतों, खिड़कियों से सभी इस विशाल जुलूस और भव्य झाँकी को देख रहे थे।
शहर की दरो-दीवार रामनामी झंडों,बैनरों और पोस्टरों से पटी हुई थी। ट्रकों पर राम-लक्ष्मण-हनुमान-विश्वामित्र व वानर सेना की वेशभूषा में बच्चे-युवक दृश्य को और जीवंत बना रहे थे। माथे पर " जय श्रीराम " की पट्टियाँ बाँधे और हाथों में तलवारें लिए, अति उत्साही युवकों का समूह जब अपनी-अपनी बाईक पर अपने शौर्य का प्रदर्शन करते हुए तेजी से सामने से गुजरता....तो सबकी साँसें थम जातीं !
सहज उत्सुकतावश परवेज़ सड़क किनारे खड़ा हो, इस नयनाभिराम दृश्य को देख रहा था। उसकी दाईं ओर रहीम चाचा , मोहन काका और सुुुनील भैया के साथ, जुलूस में शामिल लोगों को शरबत पिला रहेे थे। बायीं ओर रहमत भाई गुब्बारे बेच रहे थे। बाईक सवारों का एक दल नजदीक आ गया था।
अचानक....एक बाईक बिजली-सी तेजी से उसके सामने से निकली, और एक तलवार..... सनसनाती हुई उसकी आँखों के ठीक सामने से गुजर गयी.....!
एक क्षण को तो उसकी धड़कन ही रुक गयी थी और उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया था। उसने पीछे से जब उस लड़के को देखा, तो दंग रह गया....अरे ! यह तो आलोक था....! उसके कोचिंग इंस्टीच्यूट का सबसे आज्ञाकारी और शरीफ स्टूडेंट...!
" या अल्लाह!" उसके मुँह से बेशाख्ता निकला और वह नि:शब्द, स्तब्ध ऊपर आकाश के महाशून्य में निहारने लगा। तलवार की सनसनाहट देर तक उसके कानों में गूँजती रही....!