तलस्तोय, चेख़फ़ और गोरिकी (गोर्की) / प्रेम कुमार मणि
मेरे युवा दिनों में साहित्य की जो दुनिया थी, उसमें मक्सीम गोरिकी (गोर्की) के नाम का अजीब आकर्षण था। लगभग वैसा, जैसा राजनीति में लेनिन का था। दोनों बीती दुनिया के नायक थे, लेकिन उनके व्यक्तित्व की प्रासंगिकता बनी हुई थी। गोरिकी समाजवादी यथार्थवाद के अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत आदर्श लेखक थे। रूस की बोल्शेविक क्रांति में उनकी भी भूमिका थी और सबसे अधिक यह कि लेनिन स्वयं उनकी इज़्ज़त करते थे। वह उनके मित्र थे। उनके साथ शतरंज खेलते एक तस्वीर मैंने देखी थी। उस हिदायत के बारे में पढ़ा था, जो अपनी पत्नी क्रूप्सकया को लेनिन ने दी थी कि गोरिकी का ख़याल रखना।
गोरिकी हमारे बीच एक किंवदंती की तरह थे। सुना था कोई पाँच दफ़ा उनका नाम नोबेल पुरस्कार केलिए नामित हुआ। सब मिला कर यह कि वह हमारे ज़माने के युवा दिलों की धड़कन थे, हीरो थे। हमारी ख़्वाहिश होती थी कि हम गोरिकी की तरह के लेखक बनें। वे समाजवादी सपनों के दिन थे। ’हर एक देश के झंडे पर इक लाल सितारा माँगेंगे’ जैसी पंक्तियाँ हम नौजवान गुनगुनाते थे। उम्मीदें तगड़ी थीं। बेहतर दुनिया के ख़्वाब देखना तब अर्बन-नक्सल और अपराधी होना नहीं था। उन दिनों पीपुल्स बुक हाउस क़स्बाई इलाकों में भी जगह-जगह पुस्तक-मेले लगाती थी। जिनमें मुख्य रूप से सोवियत प्रकाशनों की पुस्तकें होती थीं। गोरिकी, पूश्किन, चेख़फ़, तलस्तोय, दस्ताएव्स्की, तुर्गेनफ़ और जाने कितने रूसी लेखकों की किताबों से इन मेलों द्वारा ही परिचित हुआ। हमारे पास किताबें ख़रीदने के लिए धन का प्रायः अभाव होता था। फ़ुरसत जरूर होती थी। उनके पास आदमी की कमी होती थी। हम उनके स्टाल की देख-रेख में उनकी सहायता करते थे। इसके एवज अथवा मजूरी में जाते समय वे लोग हमारे पसन्द की किताबें बिना क़ीमत के हमें दे देते थे। कुछ किताबें दूसरी जगहों से भी हम ख़रीदते थे। और इन्ही तरकीबों से हमने अच्छी-ख़ासी घरेलू लाइब्रेरी बना ली थी। युवा काल में पढ़ने की, सब कुछ जल्दी जान लेने की एक ज़िद और जिज्ञासा होती है। गोरिकी की अनेक किताबें इन्ही दिनों पढ़ीं। उनके उपन्यास ’मदर’ का अंग्रेज़ी अनुवाद तो मेरे पास था ही, दो हिन्दी अनुवाद भी थे। यदि भूल नहीं रहा हूँ तो एक मुनीश नारायण सक्सेना और दूसरा नरोत्तम नागर का अनुवाद था।
गोरिकी के आत्मकथात्मक उपन्यास ’मेरा बचपन’, ’जनता के बीच’ और ’मेरे विश्वविद्यालय’ के हिन्दी व अंग्रेज़ी दोनों रूप भी मेरे पास थे। उनके लेखों और कहानियों के भी संकलन थे। हिन्दी लेखक ओंकार शरद की लिखी गोरिकी की जीवनी भी थी। इन सब को कुछ इस तरह पढ़ चुका था कि कहीं से भी कुछ भी का जवाब दे सकता था। नीझ्नी नोवगरद गोरिकी का जन्मस्थान था, जो सोवियत काल में गोरिकी शहर बन गया। उनकी रचनाओं में नीझ्नी नोवगरद बार-बार आया है, नतीज़तन वह मेरे जेहन में इस तरह बैठ गया था, मानो वह मेरा ही शहर हो। ’माँ’ उपन्यास के हर पात्र पर मैं अच्छा-ख़ासा लेख लिख सकता था। पाविल, उसकी माँ पेलगया निलवना, साशा आदि वाकई धड़कते हुए पात्र थे। वे आज भी जेहन में वैसे ही हैं। लेकिन उन दिनों की बात ही और थी। गोरिकी को पढ़े-जाने बग़ैर न अच्छा लेखक हुआ जा सकता था, न अच्छा कम्युनिस्ट। यही हमारी मान्यता थी। अच्छा लेखक और अच्छा कम्युनिस्ट बनने के लिए हम गोरिकी को पढ़ रहे थे।
तलस्तोय और चेख़फ़ के पढ़ने के बाद गोरिकी का असर थोड़ा गौण हुआ। उनमें वैसी विलक्षणता नहीं है, जो चेख़फ़ और तलस्तोय में है, मैं इस नतीज़े पर पहुँचा था। लेकिन मुझे अपनी बात सार्वजनिक तौर से कहने में संकोच होता था। कुछ मित्रों से चर्चा की तो उन लोगों ने इसे मेरा विचलन माना। कहा, मैं अमूर्तन का शिकार हो रहा हूँ और जनता तथा उनके संघर्षों से दूर जा रहा हूँ; और यह भी कि साहित्य के मूलभूत क्रान्तिकारी-बदलावकारी तत्वों को मैं समझ नहीं पा रहा हूँ, फिर समाजवादी यथार्थवाद को समझने के लिए मैंने कुछ किताबें पढ़ीं। ग्योर्गी लुकाच को पढ़ने के बाद मानो कुछ और भटक गया। जितना सोच-समझ सकता था, वह किया। मेरी राय यह नहीं थी कि गोरिकी का महत्व कम है। एक लेखक के रूप में भी मुझे वह पसन्द थे। लेकिन चेख़फ़ और तलस्तोय कुछ अधिक पसन्द थे। तलस्तोय का उपन्यास ’युद्ध और शान्ति’ (वॉर एण्ड पीस) और ’पुनरुत्थान’ (रेजरेक्शन) मुझे कुछ अधिक पसन्द आए। उनकी कई कहानियाँ, ख़ासकर ’डेथ ऑफ़ इवान इल्यीच’ की वर्णनात्मकता और उसके प्रवाह पर मैं मुग्ध होता रहा। चेख़फ़ ने तो मानो मुझे पागल ही बना दिया। नहीं, लेखक को तो चेख़फ़ की तरह होना चाहिए। उनकी कुछ कहानियाँ मैंने कई-कई दफ़ा पढ़ीं। गोरिकी के प्रति आदर और चेख़फ़ के प्रति प्यार विकसित हो रहा था।
कुछ उन्ही दिनों की बात है .हमारे वरिष्ठ साथी ( अब दिवंगत ) खगेन्द्र ठाकुर जी 1979-80 में कुछ महीनों के लिए मास्को गए। वह मेरे चेख़फ़-प्रेम से परिचित थे। वह जब लौट कर आए, तब मुझ से कहा — आपके लिए एक ख़ास जानकारी लाया हूँ। उन्होंने बताया कि लेनिन ने जिस कमरे में आख़िरी साँस ली थी, उसे देखा। उस कमरे में अन्य चीज़ों के साथ एक छोटी-सी तस्वीर भी है, जो दीवार पर टँगी है। उन्होंने बूझो तो जानें के अंदाज़ में कहा — आप नहीं पूछेंगे किस की तस्वीर थी? मैंने कहा — मार्क्स की? उन्होंने इत्मीनान से कहा — नहीं, चेख़फ़ की। मेरी आँखों में आँसू आ गए। ओह ! तो लेनिन चुप-चुप चेख़फ़ को पसन्द करते थे ! मुझे स्वयं पर थोड़ा यक़ीन हुआ। मैं ग़लत नहीं था। अब मुझे किसी के सर्टिफ़िकेट की ज़रूरत नहीं थी। चेख़फ़ को पसन्द करने का मतलब, गोरिकी को ख़ारिज करना नहीं हो सकता था। कतई नहीं।
गोरिकी जिन स्थितियों से उठ कर लेखक बने थे, वह एक रोमांचक अनुभव है। उसके बारे में खूब पढ़ चुका था। गोरिकी बड़े लेखक थे; लेकिन वह चेख़फ़ नहीं थे। मुझे उन दोनों में से जब एक को चुनना हो तो निस्सन्देह चेख़फ़ को चुनूँगा। गोरिकी स्वयं चेख़फ़ से अभिभूत थे। उन्होंने चेख़फ़ पर एक खूबसूरत संस्मरणात्मक लेख भी लिखा है। इसे मैंने कई बार पढ़ा है। एक कविता की तरह है यह लेख, जिसमें चेख़फ़ के प्रति गोरिकी के भाव छलछला रहे होते हैं। इसे पढ़कर ही जाना जा सकता है।
चेख़फ़ गोरिकी से आठ साल बड़े थे। वह 1904 में ही गुज़र चुके थे। बोल्शेविक-क्रांति के दिनों में वह होते तो क्या करते, यह निष्कर्ष निकालना मुश्किल है। अधिक संभव है वह फ़्रांसीसी लेखक बाल्ज़ाक की तरह तटस्थ हो कर अपने रूसी समाज पर क्रान्ति के प्रभावों को विश्वसनीय ढंग से लिखते। उन्होंने यदि निकअलाई अस्त्रोवस्की का उपन्यास ’हाउ द स्टील वाज टेम्पर्ड’ जिसका हिन्दी अनुवाद अमृत राय ने ’अग्निदीक्षा’ के नाम से किया है, देखा होता तो लेखक की पीठ थपथपाते। जिस साल चेख़फ़ मरे, उसी साल अस्त्रोवस्की का जन्म हुआ था। चेख़फ़ मिथ्याचारों का पर्दाफ़ाश करने में माहिर थे। उनका मन इसी में लगता था। यही उनकी ख़ासियत थी। मुझे लगता है, हर सच्चे लेखक की यही ख़ासियत होती है, या होनी चाहिए कि वह भयमुक्त होकर अपनी बातें रखे। वह किसी के दबाव में नहीं आए, चाहे वह राजसत्ता हो, या धर्मसत्ता या और कोई सत्ता। उसे हमेशा मनुष्य और सच्चाई के पक्ष में होना चाहिए।
गोरिकी और यहाँ तक कि तलस्तोय भी इस निकष पर मुझे बाज़ दफ़ा फिसलते या दयनीय अनुभव होते हैं। तलस्तोय अप्रतिम लेखक हैं, लेकिन उनके लेखन पर बूढी ईसाईयत का बोझ हमेशा रहा। वह उसके दबाव से कभी मुक्त नहीं होते। कई दफ़ा यह ईसाईयत उनके मनुष्य को अपने दबाव में ले लेती है, जैसे उनके उपन्यास ’पुनरुत्थान’ में नेख़्लुदफ़ अन्ततः ईसाईयत की गोद में जा बैठता है। अपनी मुक्ति उसे इस रूप में मिल भी सकती है; लेकिन क्या पाप के कारण तत्वों के विरुद्ध वह खड़ा नहीं हो सकता था? कारण तत्व था वह सामंती समाज जो दूसरों के परिश्रम पर पलता है। इस समाज व्यवस्था के प्रति तलस्तोय सुस्त हैं। ईसाईयत से उन्हें अब भी मुक्ति की उम्मीद है।
तुर्गेनफ़ (1818 -1883 ), दस्ताएव्स्की (1821 -1881) और तलस्तोय (1828 -1910) उन्नीसवीं सदी के लेखक थे और तीनों अभिजात परिवारों से आते थे। इन तीनों ने खोखले अभिजात तबके की उधेड़बुन और पाखण्ड को अपने साहित्य में ज़ोरदार ढंग से रखा। भूदासों और वंचित तबकों के प्रति अपना मौन समर्थन जताया। उन्नीसवीं सदी के रूस का सामाजिक जीवन हलचलों से परिपूर्ण था। ज़ार निकअलाय प्रथम के दमन-चक्र ने सम्पूर्ण रूस को एक अजीब सी स्थिति में ला दिया था। तलस्तोय एक लेखक के रूप में तो बेजोड़ हैं और यह भी समझते हैं कि भूदासों के शोषण पर चलने वाला यह अभिजात रूसी समाज ख़त्म होने वाला है। वह गहरी हताशा में हैं। लेकिन लेखकीय फ़लसफ़े के तौर पर ईसाईयत की आशावादिता के अलावा उनके पास कुछ नहीं है। इसके ठीक विपरीत गोरिकी ईसाईयत से कोई उम्मीद नहीं करते। वह स्पष्टतः सामंतवादी-पूँजीवादी समाज के विरुद्ध और समाजवादी समाज के पक्ष में हैं। लेकिन समाजवादी राजनीति इसकी बड़ी क़ीमत चाहती है। उसकी ज़िद है कि मनुष्य की आज़ादी को वह गिरवी रखकर ही सामंतवाद और पूंजीवाद से मुक्ति का वायदा करेगी। लेखक के लिए यह धर्मसंकट की स्थिति होती है। क्या गोरिकी इस मोड़ पर असहज नहीं हुए होंगे? क्या वह बहुत आसानी से सहमत हुए होंगे? ऐसा लगता तो नहीं है। सोवियत संघ के निर्माण के बाद गोरिकी ने अकेले इस तकलीफ़ को झेला। उनके नेता और साथी लेनिन 1924 में ही चल बसे थे। गोरिकी 16 जून 1936 तक रहे। कोई बारह साल इस कश्मकश को उन्होंने झेला, जिसकी ओर कभी चेख़फ़ ने इशारा किया था। अफ़सोस-जनक यह है कि उनके जीवन के इस दौर के बारे में हमें जानकारी बहुत कम है। यह ज़रूर कहा जाता रहा कि गोरिकी की मौत स्वाभाविक नहीं थी।
चेखफ़ ने बोल्शेविक क्रान्ति नहीं देखी। 1904 में मात्र चौआलिस साल की उम्र में उनका यक्ष्मा रोग के कारण निधन हो गया था। वह ऐसे लेखक थे जिसने समाजवादी यथार्थवाद का भले अनुपालन नहीं किया; लेकिन सामाजिक यथार्थवाद का अनुपालन हमेशा किया। उनकी कहानी ’वार्ड नंबर-6’ किसी को भी बेचैन कर सकती है। लेनिन को यह कहानी शायद बहुत पसन्द थी। चेख़फ़ अपने समाज का भविष्य देख रहे थे। वह क्रांति की आहटें सुन रहे थे, जिनका विस्फोट 1917 में हुआ. लेकिन एक दूसरी कहानी ’बाज़ी’ (द बेट) में उन्होंने मनुष्य की उस नियति को भी रखा, जो आर्थिक परिपूर्णता या निदान के उपरान्त उठ सकती है। मनुष्य को आज़ादी की कीमत पर रोटी नहीं चाहिए। वह विद्रोह कर देगा। इसकी जानकारी चेख़फ़ ने अपने रूसी समाज को दी थी। चेख़फ़ की यह कहानी सोवियत काल में वहाँ के सरकारी प्रकाशनों द्वारा दबा दी गई थी। कम से कम चेख़फ़ के सिलेक्टेड वर्क्स में मैंने यह कहानी नहीं देखी। क्यों? यह कहानी सोवियत संघ की तत्कालीन राजनीति को अपने विरुद्ध प्रतीत होती होगी। एक लेखक ज़ारशाही और सोवियतशाही दोनों को समझ सका है। ज़ारशाही से तो वह गुज़र चुका था, लेकिन सोवियत ज़माना तो अभी आया ही नहीं था। यह एक लेखक की परिकल्पना अथवा हाइपोथीसिस ही है। लेकिन जितनी जानकारी है, उसके मुताबिक गोरिकी ने अन्तर्मन की तकलीफ़ें चाहे जितनी झेली हों, सोवियत-काल के अन्तर्विरोधों और मिथ्याचारों पर कहीं कोई उँगली नहीं उठाई। उनका उपन्यास ’मदर’ क्रांति की तैयारियों के बीच लिखा गया और जैसाकि सब जानते हैं, सबने यह स्वीकार किया है, इस कृति ने बोल्शेविक आंदोलन को गति दी और हज़ारों नौजवानों को प्रेरित किया। लेकिन इस उपयोगितावादी चरित्र से साहित्यिक मानदण्ड प्रभावित नहीं होते। यह तो स्वीकार करना ही होगा कि इस उपन्यास में लेखक क्रांतिकारियों के अन्तर्विरोधों को नज़रअंदाज़ कर जाता है। इसलिए उपन्यास क्रान्तिकारी उपक्रम के लिए चाहे जितना उपयोगी हो, साहित्य की कसौटी पर थोड़ा सपाट दिखता है। एक लेखक के लिए राजसत्ता नहीं, मनुष्यता महत्वपूर्ण होती है, होनी चाहिए। मनुष्य के अलावा अन्य कुछ भी, चाहे वह नैतिकता ही क्यों नहीं हो, यदि प्रभावी होता है, तो एक विकृति उभरती है। गोरिकी और चेख़फ़ में यही अन्तर चेख़फ़ को महत्वपूर्ण बनाता है. आज भी अपने देश रूस और दुनिया भर में चेख़फ़ लोगों को आकर्षित करते हैं. लेकिन गोरिकी अपने देश में ही विस्मृतप्राय हो गए हैं।
तब क्या गोरिकी आज के लिए अप्रासंगिक हो गए है ? मैं इस सवाल को ही ख़ारिज करना चाहूँगा। जैसे क्रांतियों की एक ऐतिहासिक भूमिका होती है, वैसे ही क्रान्तिकारी साहित्य की भी होती है। फ़्रांसिसी, रूसी या चीनी क्रांति अब इतिहास की चीज़ें हैं। हमारा स्वतंत्रता संग्राम इतिहास की चीज़ है। लेकिन उनका महत्व है और रहेगा। गोरिकी ने साहित्य को युगधर्म से जोड़ कर देखा। यदि बोल्शेविक क्रांति के लिए उनका साहित्य उपयोगी रहा, तो यह एक असाधारण कार्य ही कहा जाएगा। लेकिन ऐसे साहित्य का आकलन भी उस क्रांति के परिप्रेक्ष्य में ही किया जाएगा। इसमें कोई शक नहीं कि गोरिकी ने अपने समय में साहित्य के चक्र को थाम लिया था और उसे गति दी थी. उनके महत्व को इसी रूप में आँकना होगा. हमारे देश भारत में गोरिकी और चेख़फ़ को पढ़ने -समझने वाले लोग लाखों में हैं। निस्सन्देह एक दौर था जब गोरिकी का महत्व अधिक था. लेकिन यह शायद राजनीतिक कारणों से अधिक था, साहित्यिक कारणों से कम। (जैसे हिन्दी में तुलसीदास का महत्व धार्मिक कारणों से अधिक है।) मक्सीम गोरिकी की जब मृत्यु हुई थी, प्रेमचन्द भी बीमार थे।1936 के जून में गोरिकी मरे और अक्टूबर में प्रेमचन्द। लेकिन उस बीमार अवस्था में भी भोर में उठकर उन्होंने भाषण लिखा और पत्नी के लाख मना करने पर भी शोक-सभा में गए। हालत इतनी बुरी थी कि भाषण को दूसरे को पढ़ना पड़ा। लेकिन गोरिकी के प्रति एक उत्पीड़ित देश का प्रतिनिधि लेखक शोकांजलि कैसे नहीं दे ! यह दो देशों के समानधर्मा लेखकों के मनोभावों का जुड़ाव था।
हमारे देश में गोरिकी (गोर्की) के प्रति झूठा-दिखावटी सम्मान प्रकट करने के सिलसिले में कुछ लोगों ने प्रचार-साहित्य लिखा और उनके प्रति अवज्ञा प्रदर्शित कर कलावादी बनने के चक्कर में कुछ लोगों ने नकली और बेजान साहित्य लिखा। ये दोनों दो तरह की अतिवादिता थीं। सोवियत काल में गोरिकी कितने सक्रिय थे, इस पर आज भी शोध करने की ज़रूरत है। जैसाकि मैंने पहले कहा है, संभवतः गोरिकी इत्मीनान नहीं थे. लेकिन क्या उन्होंने अपने वरिष्ठ साथी चेख़फ़ की नज़र से नई व्यवस्था को देखा था? रूसी लेखक बरीस पस्तिरनाक और बहुत बाद में सल्झेनित्सिन ने तो सगुन शब्दावली में एतराज जाहिर किए; लेकिन अस्त्रोवस्की ने अपने उपन्यास के उत्तरार्द्ध में अपनी ही पार्टी के लोगों को जिस तरह देखा, वह पतन का एक बड़ा संकेत था। गोरिकी के उपन्यास ’मदर’ का नायक पात्र पाविल है, लेकिन अस्त्रोवस्की के उपन्यास में पाविल कर्चागिन है। पाविल और पाविल कर्चागिन की कश्मकश अलग-अलग है. पाविल कर्चागिन विसंगतियों पर उँगली उठाता है। अफ़सोसजनक यह है कि इन साहित्यिक संकेतों को किसी भी देश-समाज में और किसी भी काल में राजनीति नहीं समझ पाती।