तलाश / रेखा राजवंशी
मेरा नाम नेटा है, किसने रखा, शायद मेरे माता पिता ने रखा होगा। या शायद बाद में मेरे इंस्टीट्यूशन ने रखा हो। पर इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है, सच्चाई तो यूँ भी बदल नहीं जाएगी न और गया वक़्त भी वापस नहीं आएगा कभी। बहुत दिनों तो मुझे ही समझ नहीं आया ये क्यों हुआ, पर सच तो ये है कि ये हुआ है और जिस तरह से हुआ है, उन ज़ख्मों के निशान आज भी मेरे मन पर हैं।
मैं आज वहीं आ गई हूँ, जहाँ मैं ख़ुद को बार - बार सपने में देखती रही हूँ। जाने कितनी बार मैं सोते - सोते जागकर उठती रही हूँ। न जाने किन गलियारों में भटकती रहीं हूँ और आज …आज…मैं उसी जगह पहुँच गई हूँ, जिसकी मुझे तलाश थी। भावातिरेक के कारण मेरी आँखें बरसने लगी हैं। अचानक एक पहचानी आवाज़ सुनाई देती है, प्रेम में पगी, चॉकलेट-सी मीठी –
“नेटा…! तुम आ गईं। कबसे तुम्हारा इंतज़ार था।“
मैं चौंक पड़ती हूँ। ये कौन है? कहाँ है? ये…ये… ये तो माँ की आवाज़ है।
“माँ… माँ…तुम कहाँ हो?”
मेरे मुंह से अनायास निकल जाता है। पर मेरी आवाज़ शून्य से टकराकर वापस लौट आती है।
मैं आँखों से बहते आंसू पोंछ लेती हूँ। आप मेरी कहानी सुनेंगे तो शायद आप भी भावुक हो जाएँगे। आइये, मैं आपको आज से पैंसठ साल पीछे ले चलती हूँ।
नॉर्दर्न टेरिटरी से एक सौ दस किलो मीटर दूर स्थित जंगली इलाके में अर्लतुंगा के इस छोटे से इलाके में मेरा परिवार रहता था। मेरे परिवार में माँ, पिता के अलावा मेरे दो बड़े भाई और बहन ज़ीटा थे। मुझे याद है उन दिनों दिन बहुत सुनहरे लगते थे और रातें चमकीली होतीं थीं। हम कभी हवाओं के साथ उड़ते, कभी पक्षियों की तरह नाचते। कभी पेड़ों पर चढ़ने की कोशिश करते और कभी रंग बिरंगे फूल चुन कर बालों में सजाते।
हमारी ट्राइब में जितने भी लोग थे वे हमारे परिवार जैसे ही थे, हम सब साथ रहते थे, खाते पीते थे, सुख दुःख बांटते थे। मेरे सगे भाई बहन के साथ और भी अनेक भाई बहन थे, शायद दो सौ लोग होंगे कुल मिलाकर। पुरुष मछली पकड़ने या शिकार के लिए निकल जाते, लड़कों के लिए काम सीखना ज़रूरी था तो भाई भी पिता के साथ चले जाते। माँ अन्य महिलाओं और लड़कियों के साथ हमें लेकर कभी शहद ढूँढने या झाड़ियों में उगी झड़बेरियाँ तोड़ने के लिए ले जाती। कभी - कभी हम मज़बूत डंडी से ज़मीन खोदते और ग्रब्स या कीड़े मकोड़े ढूँढ कर इकट्ठे करते।
हम बहनें माँ के साथ घर वापस आती, माँ खाना पकातीं और हम बाहर बैठ के कोई न कोई खेल खेलते।
“ज़ीटा, लगता है, आज माँ कुछ अच्छा पका रही है।“ पांच साल की मैं हवा में आती खाने की ख़ुशबू को सूंघते हुए कहती।
“हाँ, कितनी अच्छी महक आ रही है। मैं इंतज़ार कर रही हूँ। लगता है माँ मसल पका रही है”
मुझसे दो साल बड़ी ज़ीटा मुस्कुराते हुए जवाब देती।
हम दोनों लड़कियाँ गिट्टियाँ खेलने में मशगूल हो जातीं।
पिता शिकार से आते। हम सब बैठते, खाना खाते और जाने कितनी बातें करते। समय भी तो बस सूरज के उगने और ढलने पर निर्भर करता था। मौसम के झूले में झूलने का आनंद ही अलग था।
कई बार रात होते ही हम अलाव जलाकर दादा को घेर के बैठ जाते और उनसे कहानियाँ सुनते। क्रोकोडाइल, कोआला कैसे बने, टिडलिक मेंढक ने सारा पानी क्यों पी लिया आदि कहानियाँ हमें एक ही सीख सिखातीं “अच्छा काम करो” और एक ऐसे अदृश्य देवता की बात कहतीं जो प्रकृति में रचा बसा है और हमारी बातें सुनता रहता है। हमसे ग़लती होती है तो सजा देता है और कुछ अच्छा करते हैं तो हमें किसी न किसी तरह इनाम देता है।
बुजुर्ग कहते थे कि इस देश में हमारे जैसे अनेक कबीले भी हैं, जिनकी अपनी अलग भाषा है और अलग रिवाज़ हैं।
माँ बताती थी – “हमारे कबीले के अपने रिवाज़ हैं, जो हम सबको मानने चाहिए। जो लोग नहीं मानते, उनको सजा दी जाती है। छोटे अपराधों के लिए छोटा दंड है जैसे कबीले के सामने उनको बेइज्जत करना पर बड़े अपराध के लिए बड़ा दंड भी है।“
हम सब डरते थे और माँ की बात मानते थे। जब कभी विशेष उत्सव होते थे, विशेष रंगों से अपने शरीर को रंगा जाता था और अलाव जलाकर डिजरी डू और जेमबे (ढोल जैसे वाद्य यंत्र) के साथ गीत गए जाते थे। बड़ा मज़ा आता था जब हम सब साथ मिलकर नृत्य करते थे। मैं बड़े कौतूहल से उन्हें देखा करती थी। बड़ी होकर मैं भी अच्छा नृत्य कर सकूँ यही मेरी इच्छा थी। कभी कबीले की स्त्रियाँ मिल के गुफा की दीवारों पर रंगीन चित्र भी बनाती थीं। पिता कहते थे, प्रकृति हमारी सहेली है, हमारी शिक्षक भी है।
मुझे याद है कि एक दिन कबीले के एक व्यक्ति ने चोरी की। कबीले वाले बहुत नाराज़ हुए। बुजुर्गों ने उसे दंड दिया और भाले से उसकी जांघों में प्रहार किया। एक ऐसा घाव बना दिया जिसके भर जाने के बाद भी निशान उसे हमेशा याद दिलाता रहे कि उसे ऐसा दंडनीय कार्य नहीं करना है।
तब मैं इतनी छोटी थी कि आधी बातें तो अब मुझे याद भी नहीं हैं और होतीं भी कैसे? मेरा बचपना तो जैसे छीन लिया गया था न। उन दिनों वैसे भी कबीले में सब लोग चिंतित रहने लगे थे। मैं वह सब तो नहीं समझती थी, पर महसूस कर सकती थी कि कुछ ठीक नहीं है और फिर माँ का बार कहना –
“तुम लोग घर से बाहर मत जाना, संभल कर रहना”
मैं और मेरी बहन ज़ीटा को समझ नहीं आता था और फिर वह दिन ... मैं कैसे भूल सकती हूँ जब मैं और मेरी बहन ज़ीटा घर के आँगन में एक दूसरे के पीछे भाग रहे थे, पकड़ने की कोशिश कर रहे थे, खिलखिला रहे थे तो घर के बाहर बूटों की ठक सुनाई दी। इससे पहले कि हम कुछ समझ पाते, दो गोरे अजनबियों ने हमारा हाथ पकड़ा और मोटर की तरफ़ ले जाने लगे।
हम बहुत डर गए, हम चिल्लाए – “माँ …माँ…, पिता जी… पिता जी…! हमें बचाओ…।“
हमने हाथ छुड़ा के भागने की कोशिश की। पर वे आदमी बहुत मज़बूत थे और हम छोटे और कमज़ोर। पिता तो शिकार पर गए थे, माँ ने हमारी आवाज़ें सुनीं और भागी आईं। मैंने दूर से उन्हें आते देखा, वे सड़क पर गाड़ी के पीछे दौड़ रहीं थीं। पर तब तक हमें मोटर के पिछले हिस्से में बंद कर दिया गया था। हम रो रहे थे, चिल्ला रहे थे, पर सब कुछ व्यर्थ था। यही वह पल था जब माँ को मैंने आख़िरी बार देखा था।
आगे बैठे हुए व्यक्ति ने एक चॉकलेट देते हुए कहा “हम एलिस स्प्रिंग जा रहें हैं। तुम लोगों को बहुत-सी अच्छी - अच्छी चीज़ें दिलानी हैं।“
उस वक़्त हमें अच्छी चीज़ें नहीं, माँ चाहिए थी, हमारे आंसू रुकते नहीं थे, हिचकियाँ बंधी हुईं थीं। शीघ्र ही माँ ओझल हो गईं और बस आँखों के सामने रह गए हमारे साथ दौड़ते हुए पेड़। धीरे - धीरे पीछे छूटता हमारा घर, खुला आसमान।
मुझे याद है, मैंने मचल के ज़ीटा से कहा -
“मुझे माँ के पास जाना है, मुझे घर जाना है। हमने क्या किया है? ये हमें कहाँ ले जा रहे हैं?”
आगे से एक कड़कती आवाज़ आई – “शट अप गर्ल्स।“
और हम सहम गए । मैं बेहद डर गई थी। मैंने बहन का हाथ ज़ोर से पकड़ लिया। नज़र घुमाई तो देखा गाड़ी के पिछले हिस्से में कुल मिलाकर हम पांच बच्चे थे। आगे बैठे लोगों ने हमें बिस्किट का पैकेट दिया, डबडबाती आँखों से ज़ीटा ने मुझे बिस्किट पकड़ाया और जाने कब खाते - खाते मेरी आँखे बंद होने लगीं और मैं ज़ीटा के कंधे से अपना सर टिका कर सो गई।
जब डेढ़ घंटे बाद मोटर रुकी तो समझ ही नहीं आया हम कहाँ आ गए हैं। हमें गाड़ी से उतार के अंदर ले जाया गया। सब कुछ इतना अलग था कि मैं समझ नहीं पा रही थी। ज़ीटा सहमी हुई थी, मेरे आंसू बह रहे थे।
वहाँ हमारी तरह अनेक क्षेत्रों से लाए गए बहुत से बच्चे थे, सब अपने माँ बाप से बिछड़ जाने से दुखी थे। हमको पहले एलिस स्प्रिंग्स के पुराने टेलीग्राफ स्टेशन के बंगले में ले जाया गया, फिर बाद में गार्डन पॉइंट भेज दिया गया।
मुझे आज भी इंस्टीट्यूशन में वह रात याद है जब मैं बिस्तर में ज़ीटा का हाथ थाम के बैठी हुई थी। पहली बार हम माँ, पिताजी से दूर थे। बिल्कुल अनजान और अकेली दुनिया में, वहाँ आए सभी बच्चे हमारी तरह थे। जाने कितनी देर मैं ज़ीटा का हाथ थामे रोती रही। सब घबराए हुए थे। समझ नहीं पा रहे थे कि हमारे साथ ऐसा क्यों हुआ? हमने तो गलती नहीं की थी, कोई चोरी भी नहीं की थी। फिर हमें यह सजा क्यों मिल रही थी? वहाँ सभी दुखी थे, कोई भी हमारी बोली नहीं बोलता था।
अगले दिन सुबह - सुबह उठा दिया गया और हमारी नई दिनचर्या शुरू हो गई। हमें बताया गया कि हमारी भलाई के लिए हमें लाया गया हैं। ये भी कि हमारे माँ बाप हमें अपने पास नहीं रखना चाहते थे। घर में हमें ग़लत बातें सिखाई जा रहीं थीं। ये भी ठीक नहीं हैं कि हम मूर्तिपूजक हैं। हम शैतान के वंशज हैं और हमारी भाषा खराब है। हम अपनी भाषा में बात नहीं कर सकते थे। जब भी हमने अपनी भाषा में बात की, हमारी हर बार बेल्ट से पिटाई हुई। उनके सख्त अनुशासन में हम रोते हुए बच्चों के आंसू गाल पर हो सूख गए। कभी-कभी मेरा मन करता था इंस्टीट्यूशन छोड़ के भाग जाऊँ या उसी बेल्ट से उनकी पिटाई करके पूछूं, कोई दर्द हुआ क्या?
कभी हम दुखी होते, कभी डिप्रेस्ड हो जाते, कभी कोई रोने लगता तो सब उसे चुप कराते। मुझे याद है कि एक दिन एक किशोर ने तो आत्महत्या की कोशिश भी की। पर उसे बचा लिया गया। परिवार से अलग हो जाने का, अपनों से बिछुड़ जाने का और अकेलेपन का दुःख सिर्फ़ वही समझ सकता है जिसका परिवार उसके पास न हो। शायद ही कोई रात ऐसी होती जब मैं माँ को याद न करती। ऐसा नहीं कि इन जेल जैसे इंस्टीट्यूशंस से बच्चों ने भागने की कोशिश नहीं की। पर अधिकतर को ढूँढ कर वापस ले आया गया और फिर नशे में धुत्त सुपरवाइज़र्स के गुस्से का शिकार हुए। तेरह साल का एक लड़का, जो तीन बार भागने की कोशिश कर चुका था, उसकी इतनी पीटा गया कि मर गया। वैसे पिटाई होना तो आम बात थी, लड़के लड़कियों के साथ बलात्कार की घटनाएँ भी सुनाई देतीं थीं। वैलरी, जिसे फ़ॉस्टर घर में भेज दिया गया था, उसके पिता जैसे मालिक ने ही उसके साथ बलात्कार किया। जब उसने हिम्मत करके शिकायत की तब अधिकारी उसे वहाँ से हटा कर वापस ले आए। उसके बाद से उसकी सूनी आँखों में जैसे ग़म का सैलाब भरा रहता। हर वक़्त आसमान में देखती वह जाने किन अनसुलझे प्रश्नों के उत्तर तलाशती रहती।
जाने कितनी बार मैं भागने की सोचती पर ज़ीटा मुझे समझाती, उससे मुझे हिम्मत मिलती। हम दोनों को कम से कम एक दूसरे का साथ तो था। हम शायद इसीलिए ठीक से पढ़ लिख भी पाए। हमारे अध्यापक और सुपरवाइज़र्स हमसे खुश रहते। ज़ीटा मुझे समझाती, कहती पहले अपने पैरों पर खड़े होना ज़रूरी है। ज़ीटा न होती तो मैं बागी हो जाती, अपने परिवार को ढूँढने भाग जाती। पर जाती भी कहाँ? घर का पता नहीं था। तब कंप्यूटर और इंटरनेट तो थे नहीं। कैसे नक़्शा निकालती और कैसे घर पहुँचती? धीरे - धीरे हम सभी वही करने लगे जैसा वे चाहते थे। वे हमें सभ्य बनाना चाहते थे, अपने रंग में रंगना चाहते थे। सुबह से शाम एक नियम में बंधे रहते। रात को थक कर सब सो जाते।
सोलह साल की होते - ज़ीटा काम पर जाने लगी और वहीं उसको एक नौजवान मिला। दोनों में प्रेम हुआ और जल्द शादी कर ली। ज़ीटा की ज़िन्दगी तो बदल गई पर मैं अब और अकेली हो गई। मुझे लगा, एक बार फिर मुझे माँ से छीन लिया गया है। मेरा दिल गुस्से और हताशा से भरा होता पर अक्सर मैं चुप रहती और काम में व्यस्त रहती। मेरे साथ की दो लड़कियाँ नन बनने के लिए और कुछ अमीरों के घर घरेलू कामों में मदद के लिए भेज दी गईं। हममें से कई लोगों को सस्ते श्रमिकों के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा था, हमारे साथ के कई लोगों को परिवारों और संस्थानों के भीतर दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ रहा था।
मैंने काम में मन लगाया। दो साल बाद मुझे भी नौकरी मिल गई और एक दिन लोकल पब में ऑलिवर से मेरी मुलाकात हुई। वह ऑस्ट्रेलिया की आर्मी में था और छुट्टियों में घर आया हुआ था। उसने जब मेरी तारीफ की तो शुरू में तो मैंने उसकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया। मुझे वह भी अपने सुपरवाइजर जैसा कुटिल लगता। पर बाद में लगा कि वह थोड़ा अलग है, सरल ह्रदय का होने के साथ - साथ खुले विचारों का है। ऑलिवर और मैं एक दूसरे से प्यार करने लगे। एक साल की मुलाकात के बाद हमने शादी कर ली। मुझे पत्नी के रूप में पूरा सम्मान दिया। मैं जैसी भी थी, उसे बहुत पसंद थी। मेरी ज़िन्दगी में ख़ुशी के फूल खिल गए। ऑलिवर ने मुझे सारी खुशियाँ दीं। दो खूबसूरत, स्वस्थ बच्चे भी दिए। बच्चे मेरी तरह काले रंग के नहीं थे और न ही ऑलिवर की तरह दूधिया सफ़ेद। उनके मिश्रित रंग और नाक नक्श सबको बहुत भाते थे। मैं उन्हें अपने दादा की कहानियाँ सुनाती थी। अपनी एबोरीजनल संस्कृति के बारे में जितना याद था और जो भी मैंने किताबों में पढ़ा था, उन्हें सिखाती थी।
यूँ तो सब कुछ ठीक चल रहा था पर 1964 वियतनाम का युद्ध शुरू हो गया। उत्तरी वियतनाम की सोवियत यूनियन और चीन ने सहायता दी जबकि दक्षिणी वियतनाम का साथ देने के लिए अमेरिका, फिलीपीन, साऊथ कोरिया, थाईलैंड और ऑस्ट्रेलिया ने अपनी सैन्य शक्ति भेजी। ऑस्ट्रेलिया से भेजे गए चालीस हज़ार सैनिकों में ऑलिवर भी शामिल था और मेरी दुनिया में फिर से एक बड़ा बदलाव आया। बच्चों को अकेले पालना, नौकरी करना आसान नहीं था। युद्ध चल ही रहा था, पांच साल से हम सब बेसब्री से ऑलिवर की प्रतीक्षा कर रहे थे। ऑलिवर को छुट्टी न मिली और फिर आया भी तो उसकी मौत का समाचार। करीब सवा पांच सौ ऑस्ट्रेलियाई सैनिकों की जाने गई। मेरा ओली, मेरी ज़िन्दगी की एकमात्र ख़ुशी छिन गई। मेरे बच्चे मेरी तरह अनाथ बन गए। मैं अपनी क़िस्मत पर दुख भी कैसे बनाती? दोनों बच्चों का मुंह देखकर रोना आता था, पर कैसे रोती? उनके लिए मुझे मज़बूत रहना था। मेरा और बच्चों का दिल टूट गया। उसके बाद तो मैंने जैसे पूरा समय बच्चों की देखभाल में उन्हें खुश रखने में लगा दिया। मज़बूती से उनको पालना भी मुझे ही था। समय पलक झपकते बीतने लगा। अब बच्चे बड़े हो गए हैं दोनों की ज़िन्दगी व्यवस्थित हो गई है। बेटी ने शादी कर ली है।
बच्चे बड़े होते - होते मेरे अंतस की पीड़ा मुझे बेचैन करने लगी। मेरी अपने परिवार को ढूँढने की इच्छा फिर बलवती होने लगी। मेरे भीतर की नेटा उदास रहने लगी। मैं अक्सर सोचा करती कि उन्होंने हमारे साथ ऐसा क्यों किया? क्यों हम बच्चों को अपने घर परिवार माता पिता से छीन लिया? ये तो मुझे बड़े होने पर बाद में पता चला कि हम कैरोलिंगा और एलडोलांडा ट्राइब के *स्टोलेन जेनेरेशन के थे। कोलोनाइज़ेशन के बाद सरकार की यह धारणा थी कि हम एबोरीजनल लड़कियाँ जब बड़ी होंगी, तो अच्छे गोरे लड़कों से शादी करेंगी और हमारे बच्चे उनकी तरह होंगे। अंततः एक दिन हमारी प्रजाति और हमारा रंग समाप्त हो जाएगा । यह निष्कासन नीति ज़्यादातर महिलाओं पर आधारित थी क्योंकि महिलाएँ प्रजनन कर सकती थीं। हमारी ट्राइब के लड़के उनके यहाँ नौकर का काम करेंगे या उनकी परियोजनाओं में कर्मचारी बनेंगे, यही उनकी मंशा थी। हालाँकि वे इसे हमें अपने समाज से जोड़ने का हिस्सा मानते थे। शायद उन्होंने ये कभी नहीं सोचा था कि वे हमारा हमारे परिवार से अपहरण कर रहे हैं। हमारा शारीरिक और मानसिक ही नहीं भावात्मक शोषण भी कर रहे हैं।
मैं वह अपहृत बच्ची थी, जिसे न सिर्फ़ अपने परिवार से बल्कि अपनी सभ्यता और संस्कृति से उखाड़ कर फेंक दिया गया था। ‘स्टोलेन जेनेरेशन’ का हिस्सा थी मैं। एक दिन मैंने ज़ीटा से अपने मन की बात की।
उसने कहा - “नेटा अब समय है, बच्चे बड़े हो गए हैं। मुझे पता है तुम सालों से परिवार को ढूँढने जाना चाहती हो । क्यों न तुम छुट्टियों में चली जाओ। काश मैं भी तुम्हारे साथ जा पाती। “
मेरी आँखों में आंसू आ गए, मैं ज़ीटा के गले लग गई। मुझे लगा कि शायद इसी घड़ी का मुझे इंतज़ार था। मैंने ज़ीटा के साथ मिलकर अपने परिवार के बारे में जितनी सूचनाएँ मिल सकतीं थीं, सारी इकट्ठी कीं और अंततः एक दिन चल पड़ी अपने कबीले, अपने लोगों से मिलने।
_और आज… आज … मैं ढूँढते - ढूँढते अपने कबीले, अपने गाँव तक पहुँच गई हूँ। मेरी आँखें आंसुओं से भरी हुई हैं। चीज़ें बदल गई हैं यहाँ, झोपड़ियाँ टूट - फूट गई हैं। कच्चे पक्के घर बन गए हैं । मैं आस पास के लोगों से अपनी माँ और पिता का नाम लेती हूँ। वे चौक कर मुझे देखते हैं और अंततः मुझे मेरे भाई वारु के पास ले जाते हैं। जो एक छोटे से पुराने टिन शेड में रह रहा था और जब मैंने उसे देखा और उसने मुझे, तो देखते ही उसने मुझे पहचान लिया और रोने लगा। मैं भी ख़ुद को संभाल नहीं पाई। जाने कितनी देर तक हम रोते रहे। उसने बताया कि हमें ज़बरदस्ती ले जाए जाने के बाद सब लोग बहुत दिन तक परेशान रहे। उन्होंने हमें बहुत ढूँढा, यहाँ तक कि पिता के साथ वह हमें ढूँढने डार्विन भी आया, पर उन्हें बताया गया कि हम मर चुके हैं। यह सुनकर मेरे पिता बहुत रोये और वापस लौट गए।
कबीले वालों ने मेरी माँ को समझाया – “तुम्हारे भाग्य में यही था। ज़ीटा और मैं हम शरीर नहीं थे। एक आत्मा थे, जो दुनिया से चले गए। अब दुखी रहने का क्या फायदा? “
माँ ने ख़ुद को भाग्य के हवाले कर दिया और कुछ वर्ष पूर्व माँ और पिताजी चल बसे थे।
अब मैं उन्हें तो वापस नहीं ला सकती हूँ, पर उनकी आत्मा को प्रसन्न कर सकती हूँ। मुझे विश्वास है कि वे जहाँ भी हैं मुझे देख रहे हैं, मोइनी देवता की तरह और मैं उनसे जुड़ना चाहती हूँ। इतने सालों में जो कुछ छूट गया है, उसे झोली में भर लेना चाहती हूँ। मैं...मैं … अपनी संस्कृति से जुड़ना चाहती हूँ। मैंने हिम्मत करके अपनी ट्राइब के लोगों से अनुरोध किया कि क्या वे मुझे स्वीकार कर लेंगे?
अब मैं कुछ दिनों के लिए यहाँ रुक गई हूँ। मुझे बहुत ख़ुशी हुई, जब हमारे लोगों ने मुझे खुले मन से वापस स्वीकार कर लिया। अपनी परंपराएँ, रीति रिवाज़ और ड्रीमटाइम कहानियों के बारे में उनसे सीख रही हूँ।
कभी मैं आकाश से बातें करती हूँ, कभी पक्षियों-सी चहचहाती हूँ। कभी रात को कबीले के लोगों के साथ अलाव के पास बैठ जाती हूँ, कभी फूलों और पौधों से नैसर्गिक रंग बनाती हूँ। कभी छोटे - छोटे बच्चों के चेहरों को रंगती हूँ। उनके साथ खेलती हूँ और अपना बचपन ढूँढ लाती हूँ।
सच तो ये है कि यहाँ आकर मुझे जितनी शांति मिली है, वह किसी चर्च या धार्मिक स्थान पर जाकर भी नहीं मिलती। मुझे लगता है कि अंत में मुझे वह खज़ाना मिल गया है, जिसे मैं सालों से तलाश रही थी और ये खज़ाना इतना बेशकीमती है कि दुनिया की कोई भी दौलत मुझे इतनी ख़ुशी नहीं दे सकती।
- (यह कहानी ऑस्ट्रेलिया के एबोरीजनल्स (आदिवासी) समुदाय की स्टोलेन जेनेरेशन (चुराई हुई पीढ़ी) पर आधारित की कहानी है। सन 1900 से 1960 के मध्य अंग्रेजों द्वारा अनुमानतः तीन लाख आदिवासी बच्चों को उनके परिवार से जबरन छीन लिया गया ताकि वे अंग्रेज़ी समुदाय में सामंजस्य स्थापित कर सकें और उनके काम आ सकें।)