तलाश / विजयानंद सिंह

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विजयानंद विजय »

" और कितनी दूर जाना है, माँ ? " " बस ! थोड़ी दूर और...। " " थोड़ी दूर...थोड़ी दूर करते-करते बहुत दूर तक ले आई हो तुम ? " - उसने लगभग रोते हुए कहा। " हाँ कम्मो। और थोड़ी दूर ...बस। " - माँ ने हिम्मत बँधाई। " कहाँ जा रहे हैं हम ? " कम्मो ने पूछा। " उस गाँव तक, वहाँ एक कुआँ है। " माँ ने उँगली से दूर गाँव की ओर इशारा करते हुए कहा। आज कम्मो जिद कर पहली बार माँ के साथ पानी लाने जा रही थी।

" धरती तो सूखी हुई है। धूप कितनी तेज है। " कम्मो ने मन में उठ रहे प्रश्न माँ के सामने रख दिए थे। " जंगल-पेड़ कट रहे हैं, तो वर्षा कम हो रही है। जमीन में पानी कम हो गया है। गर्मी बढ़ रही है। " माँ ने बेटी को समझाया। " हाँ माँ। स्कूल में मास्टर साहब भी यह बता रहे थे, और कह रहे थे कि हमें पानी बचाना चाहिए। " कम्मो माँ को अपनी पढ़ाई के बारे में बताते हुए खुश हो रही थी और माँ भी खुश थी कि मेरी बेटी अच्छी तरह से पढ़ रही है। " माँ, मैं बड़ी होकर गाँवों में पानी की समस्या दूर करुँगी और गाँव को शहरों से भी अच्छा बनाऊँगी। " कम्मो ने माँ की ओर देखते हुए कहा।

माँ ने बेटी की आँखों में तैरते सपनों को देखा और उसकी आँखों से दो बूँदें टपक पड़ीं। गाँव अब नजदीक आ गया था, और कुआँ दिखाई दे रहा था।