तलाश : अपराधबोध, प्रायश्चित और प्रार्थना / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 01 दिसम्बर 2012
सिनेमा यकीन दिलाने की कला है। यह सिनेमाघर में भावना की एक लहर पैदा करता है, जिसके प्रवाह में मनुष्य अपने अविश्वास करने के माद्दे को स्थगित कर देता है। मस्तिष्क में इस माद्दे का 'फ्रिज' होना और परदे पर चलती-फिरती तस्वीरों का गहरा संबंध है। इस यकीन दिलाने की प्रक्रिया का सबसे सशक्त साधन सक्षम कलाकार हैं। दूसरे क्रम पर है वातावरण की विश्वसनीयता। फिल्मकार को सशक्त कलाकार मिल जाएं तो वह असंभव-सी घटना पर भी विश्वसनीय फिल्म बना सकता है। रीमा कागती ने अपनी फिल्म 'तलाश' के लिए आमिर खान, करीना कपूर और रानी मुखर्जी जैसे निष्णात कलाकारों के साथ ही छोटी-छोटी भूमिकाओं के लिए कलाकारों का चयन बखूबी किया और उन कलाकारों ने कमाल किया है। अत्यंत सशक्त अभिनय के कारण सब कुछ विश्वसनीय लगता है। धार्मिक फिल्मों में ईश्वर का प्रस्तुतीकरण दर्शकों को मंत्रमुग्ध करता रहा है।
'तलाश' अपराध कथा से अधिक अपराधबोध की कथा है। अपराधबोध दो तरह का होता है। सचमुच गलती का अहसास आपको प्रायश्चित के रास्ते प्रार्थना तक ले आता है। कातिल भी संत हुए हैं, कवि हुए हैं। इससे अधिक आत्मा को सालता है झूठा अपराधबोध। आपसे गलती नहीं हुई है, परंतु आपको लगता है कि हुई है और यह अपराधबोध आपको जकड़ लेता है। दरअसल यह कथा झूठे अपराधबोध की कथा है और तलाश कातिल से अधिक स्वयं के अवचेतन पर पड़े परदों को हटाने की है। आमिर खान की भूमिका ऐसे ही एक काल्पनिक अपराधबोध से ग्रस्त इंस्पेक्टर की है, जो ऊपरी सतह पर एक हादसे की तह तक जाना चाहता है, परंतु उसके अपराधबोध के धागे भी इससे जुड़ गए हैं और दोनों से साथ-साथ ही परदा उठ सकता है। आमिर ने इसमें बढिय़ा अभिनय किया है। उन्होंने अपने भीतरी संताप को दबाते-दबाते अपने वश से निकलते हुए दिखाए जाने के मुश्किल काम को सशक्त ढंग से किया है। इस फिल्म में सबसे जटिल भूमिका करीना कपूर की है और एक भाव का अतिरेक या कम संप्रेषण पूरी फिल्म को लेकर बैठ सकता था। बतौर कलाकार उन्होंने अद्भुत अनुशासन से काम किया है। उन्होंने संतुलन बनाए रखा है। वह पूरी फिल्म में उस कलाकार की तरह हैं, जो दो इमारतों के बीच बंधी रस्सी पर चल रही है। रानी मुखर्जी की भूमिका भी अत्यंत कठिन है। उन्हें इस तरह प्रस्तुत होना है, मानो वह दुर्घटना हुई नहीं है, कहीं नहीं गया है कोई। पति होते हुए नहीं के समान है। पुत्र नहीं होते हुए भी है और इस कश्मकश को जीवंत किया है रानी मुखर्जी ने।
मुंबई के तवायफों के मोहल्ले का विश्वसनीय वातावरण पुडुचेरी में निर्मित किया गया है। पानी के भीतर के दृश्य लंदन में फिल्माए गए और छोटी-से-छोटी बातों का खूब ध्यान रखा गया है। रीमा कागती की सिनेमाई ग्रामर पर पकड़ मजबूत है और उन्होंने श्रेष्ठ तकनीकी प्रस्तुतीकरण किया है। कलाकारों को साधन की तरह इस्तेमाल किया है और तकनीक को मनुष्य का स्पर्श दिया है। इस फिल्म को चार स्त्रियों ने मिलकर बनाया है- कैमरे के पीछे जोया अख्तर और रीमा कागती तथा परदे पर करीना और रानी। आमिर खान इस चार पंख वाले यंत्र के केंद्र हैं।
आध्यात्मिक भारत देश के दर्शक ठोस सिनेमा देखने के आदी हैं और उनके लिए सिनेमाई गुणवत्ता कोई मायने नहीं रखती। उन्हें एक लहर चाहिए और खलनायक का दंडित होना उन्हें तुष्टि का भाव देता है। इस फिल्म में तीन दोषी युवा हैं और दो ब्लैकमेल करने वाले हैं। पांचों ही दंडित होते हैं और लूट का माल उस चरित्र को मिलता है, जो मूल कथानक से जुड़ा ही नहीं है, जैसे जीवन की लॉटरी में सड़क पर मिले टिकट से किसी को पैसे मिल जाएं। १९६७ में प्रदर्शित 'ग्रैंड स्लैम' नामक फिल्म में 30 वर्ष की योजना से लूटा माल एक मामूली उठाईगीरे को मिल जाता है। इस फिल्म में मामूली-सी अधेड़ तवायफ को अनचाहे पैसे मिल जाते हैं। उसने कभी एक भिखमंगे को मुस्कराहट दी थी और वह जान देकर उसे धन दे जाता है।