तसल्ली / दीपक मशाल
दो महीने हो गए थे पासपोर्ट के लिए आवेदन जमा किये हुए लेकिन ना तो कोई पुलिसथाने से जाँच के लिए आता और ना ही पूंछने पर पासपोर्ट कार्यालय से कोई समुचित जवाब देता। ऑनलाइन चेक करने के लिए फार्म संख्या आदि डालने पर बताया जाता कि पुलिस रिपोर्ट अभी तक जमा नहीं हुई। पुलिस थाने में पता करने पर वह जवाहर भवन से पता करने का कह के पल्ला झाड़ लेते। कुछ समझ में नहीं आता कि क्या करें कि तभी एक दिन शाम के वक़्त जवाहर भवन से एक अधेड़ उम्र के अधिकारी सज्जन पासपोर्ट के सम्बन्ध में जाँच के लिए प्रकट हुए।
दो-चार फ़ॉर्मल सवाल करने के बाद अन्दर लॉन में आ गए। चाय, बिस्किट और नमकीन का मज़ा लेते हुए पिताजी से उनकी नौकरी के दौरान हुईं रोचक घटनाएं सुन दोस्ती बढ़ाते रहे। बीच-बीच में बड़े प्यार से आश्वासन देते जाते,
“अब किस बात की देर है।अब तो बेटी का पासपोर्ट बन ही गया समझिये।”
पिताजी भी कह देते, “ अरे साब, आप जैसे सज्जन अधिकारी के हाथ में फ़ाइल पहुँची है तो काम हो ही जाना है। फिर एक सरकारी अधिकारी दूसरे की मदद नहीं करवेगा तो कौन करेगा फिर।”
लेकिन कप में चाय की मात्र कम होने के साथ-साथ अधिकारी के “अब तो बेटी का पासपोर्ट बन ही गया समझिये” श्लोक की पुनरावृत्ति की आवृत्ति और आयाम बढ़ते जा रहे थे।
अंत में पिताजी ने मुस्कुराते हुए, जेब से दो सौ-सौ के नोट निकाल कर उनके हाथ में थमाए तो अधिकारी थोडा सकुचाये।
“अरे रख लीजिये बाबू जी दीवाली पर बच्चों को अंकल की तरफ से पटाखे खरीद दीजियेगा, कुछ आपको थोड़े ही दे रहे हैं” भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रही देशव्यापी मुहिम से डरे बाबू को बड़ी तसल्ली हुई।
खिलखिलाते हुए कह उठे, “आप भी कमाल करते हैं सिंह साहब।”