तस्वीरें बोलती हैं / वंदना मुकेश
जब तक वह उस पोर्ट्रेट को ठीक ढंग से देख पाती तब तक स्कूल की छुट्टी हो गई और जल्दबाज़ी में वह उस पोर्ट्रेट को जी भर कर निहार भी नहीं पाई। फिर घर आकर तो फुरसत ही नहीं मिलती। लेकिन जब उस रात वह लेटी तो उसे फिर वह पोर्ट्रेट याद आ गया, एकदम जीवंत-सा, मानो कोई आकर फ्रेम में बैठ गया हो। शायद वह उस घर में रहनेवाले किसी बुजुर्ग का रहा होगा वह चित्र। उसे सहज ही अपने बाबा की याद आ गई कितना भव्य–सा था वह चित्र। कल जरूर ध्यान से देखेगी वह। उस रात उसने सुधीर को भी बताया और कहा कि वह उस पोर्ट्रेट को ठीक से देख नहीं पाई इसलिए बेचैन है। वह बनाएगी उस चित्र को। लेकिन फिर उसे याद आया कि कल से तो क्रिसमस की छुट्टियाँ शुरु हो जाएँगी। खैर... तस्वीर भाग थोड़े ही न जाएगी, छुट्टियों के बाद सही। तस्वीर के बारे में सोचते-सोचते फिर न जाने कब उसे नींद लग गई। रात भर उस पोर्ट्रेट के ही सपने आते रहे, सुबह उठी तो सिर थोड़ा भारी-सा था।
इंग्लैंड आने का निर्णय रुचि के लिए सहज नहीं था। घर-परिवार सबको छोड़कर चले आना इतना सहज तो नहीं था। रुचि को परिवार से दूर जाने की पीड़ा और एक अनजाना भय था। शायद अज्ञात का भय।
भारत से बरमिंघम आए लगभग नौ महीने हो रहे थे। यहाँ आकर उसकी जीवन शैली एकदम बदल गई। सुबह उठने से लेकर रात सोने तक की उसकी संपूर्ण दिनचर्या एकदम से ऐसे बदल गई मानो किसी ने खटाक से रिमोट द्वारा टी.वी. का चैनल बदल दिया हो। सुबह छः बजे उठने के बाद से सुधीर को रवाना कर, साक्षी और समर्थ को स्कूल छोड़कर आने तक घर लौटते-लौटते 10 बज जाता था। स्कूल भी लगभग डेढ़ मील दूर था। जब लौटकर घर आती तब अपनी सुकूनवाली चाय बनाती। लेकिन, अकेले चाय पीना! उसे याद नहीं था कि बचपन से अब तक उसने कभी अकेले चाय पी हो। भरे–पूरे घर से आकर अकेले रोटी के निवाले उससे खाए न जाते। जैसे-तैसे दो-चार निवाले निगल लेती। फिर घर के अन्य काम करते, बच्चों को लाने का वक्त हो जाता था। घर से ढाई बजे निकलती और 3 बजकर पाँच मिनिट पर स्कूल की छुट्टी होती। घर लौटते-लौटते चार, कभी-कभी साढ़े चार ही बज जाता। उस समय अकसर अँधेरा ही होता था। बच्चों का नाश्ता होते-होते पाँच-साढ़े पाँच बज जाता। फिर उसी अँधेरे और कड़ाके की ठंड में बच्चों को कराटे क्लास छोड़ने जाना, वहाँ जाने में भी 15 मिनिट लगते थे। एक घंटे की क्लास होती थी। दिन भर व्यस्तता। पर मन का एक कोना रीता का रीता। वह बेचैन हो उठती।
बच्चों के लिए स्कूल का गेट ठीक पौने नौ बजे खुलता था। गेट खुलने के इंतज़ार का समय, माता-पिताओं की बातचीत और गपशप का समय होता था। लोग अपनी-अपनी जान-पहचानवालों के साथ खड़े बातों में मगन रहते थे। लगभग एक घंटे तक स्कूल के आस-पास जीवंतता छा जाती थी। बच्चों की आवाजों-खिलखिलाहटों, माता-पिताओं के ठहाकों, आने-जानेवालों और कारों की कतारों, गहमागहमी से वातावरण एकदम खिल उठता। रुचि पहले तो किसी को जानती तो नहीं थी। लेकिन धीरे-धीरे मुस्कराहटों के बाद अब एक-दो जुमलों का आदान-प्रदान भी होने लगा था, साल जो हो रहा था। यहाँ आने पर वह कुछ पलों के लिए इस खुशगवार वातावरण का हिस्सा बन जाती थी। इस बहाने सैर भी हो जाती।
इंग्लैंड के लोगों की एक विशेषता, जो रुचि के मन को बहुत भा गई, वह यह कि वे अपने घरों के भीतर ही नहीं बाहरी हिस्से को भी बेहद सज़ा-सँवारकर रखते हैं। बच्चों को स्कूल छोड़ने जाते हुए कितने ही बूढ़े आदमी–औरतों को अकसर उनके घरों के आगे बड़े जतन से बगीचे सँवारते, खिड़कियाँ पोंछते, दरवाज़ों के हैंडल पॉलिश करते देख रुचि का मन प्रशंसा से भर जाता। वे काम के बीच भी आँख के कोनों से स्कूल जाते बच्चों और उनके माँ-पिताओं को मुस्कराकर ', हैलो लव, आर यू ऑलराइट' कहना नहीं भूलते थे। कभी–कभी रुक कर बातें भी कर लेते थे।
उन घरों की खिड़कियों पर नेट के खूबसूरत डिज़ाईनवाले परदे और उनमें से झाँकता अंदर सज़ा हुआ घर, खूबसूरत सजावट की चीज़ें। अकसर उसकी नज़र उन छोटी–बड़ी पेंटिंग्स पर अटक जाती जो अपने भीतर न जाने क्या-क्या कहानियाँ छुपाए बैठीं थी। उसने बी.ए. तक फाइन आर्ट्स जो लिया था। वैसे भी उसे पेंटिंग करने का शौक उसे बचपन से ही था। वह मन ही मन उनके सुरुचिपूर्ण ढंग से सजे घरों की प्रशंसा करती। उन बुज़र्गों को काम करते देखती तो कभी-कभी सोचती कि उनके यहाँ कोई बहुएँ थोड़े ही बैठी थीं कि घर का काम कर दें और सास ससुर बैठे रहें। यहाँ तो शायद इन बुज़र्गों को भी सब काम अपने हाथ से ही करना होता है।
बच्चों का स्कूल सड़क के आखिरी कोने पर था। वहाँ सड़क खत्म हो जाती थी। जहाँ सड़क खत्म होती वहाँ एक दीवार बनी थी। बच्चों की प्रतीक्षा में रुचि अकसर उस दीवार से सटकर खड़ी हो जाती। दीवार ठंडी होने पर भी रुचि को बहुत अपनी-सी लगती, क्योंकि एक वह दीवार ही थी जो रुचि को अपने उतना निकट आने की इजाज़त देती थी। रुचि जब वहाँ खड़ी होकर सामने की ओर देखती तो सड़क के दोनों ओर लगे पेड़ों की लंबी कतारें नज़र आती। अब तक उसने इन वृक्षों को कई रूप बदलते देख लिया था। जब वह फरवरी में आई तो उसे लगा वास्तव में वह स्वर्ग में आ गई। सड़क के दोनों ओर लगे पेड़ों की मतवाली डालियाँ सफेद-गुलाबी फूलों के भार से झुकी, झूलती नज़र आतीं तो सारा वातावरण खिल जाता। उसे ऐसा लगता मानो उसकी सहेलियाँ ही सफेद-गुलाबी स्वेटर-शाल पहने बाँहें पसारे उसे गले लगाने को आतुर हैं। वसंत के आगमन की आहट तो डैफोडिल के फूलों के खिलने से ही होता है, उसने यह सब अबतक सिर्फ कविताओं कहानियों में ही पढ़ा था लेकिन डैफोडिल के फूलों की जीवंतता ने तो उसे मोह लिया था। गरमियों में तो प्रकृति का सौंदर्य अपने पूरे निखार पर था। उसे अच्छा लगता था कि कैसे नगरपालिका के कर्मचारी चौराहों पर बने गोलचक्करों में मौसमी फूल लगाकर उनके नियमित रखरखाव में संलग्न रहते थे। हर तरफ स्वच्छता और सुंदरता। सितंबर-अक्टूबर में पत्ते पीले, बादामी, बदरंगे होते-होते निर्वसन हो गये थे। नवंबर के अंत तक तो धीर–गंभीर, वीतरागी से दिखते पेड़, जिनकी बिन पत्तों वाली डालियों पर बर्फ की झीनी परत चढ़ी रहती थी। वह मन ही मन मुस्करा पड़ती। प्रकृति कैसे-कैसे रंग-रूप बदल लेती है। फूल से लदे इन वृक्षों को देखना रुचि के मन को बहुत सुकून देता था। रुचि मौसम के हिसाब से इन वृक्षों के नाम बदल-बदल कर बतियाती रहती। कभी तो उन्हें सहेली या बहन बुलाती और फिर सर्दियों में पत्रविहीन वृक्षों में किसी को पहलवान साहब, तो किसी को सींकिया चाचा तो किसी को बाबा साहब बना लेती। उसने एक साल में मौसम के इन बदलते रूपों को वॉटर कलर्स से अपनी स्केचबुक में उतार लिया था।
वहाँ खड़े-खड़े रुचि, अकसर, चोरी–चोरी आसपास बने घर की खिड़कियों से अंदर, जहाँ तक नज़र जाती वहाँ तक, देखने की कोशिश करती और उन घरों का भारतीय घरों से मिलान करती रहती। भारतीय घरों के विपरीत घरों के अंदर चलते–फिरते लोग उसे कम ही दिखाई पड़ते तो उसकी जिज्ञासा और भी बढ़ जाती। उसे उन घरों के भीतर जाने की तीव्र इच्छा होने लगती।
छुट्टियाँ खत्म होने पर बच्चों से ज़्यादा उत्साह रुचि को था। एक बार पुनः एक नियमित दिनचर्या आरंभ और फिर वह उस पोर्ट्रेट को भी देखना चाहती थी जिसकी अब तक उसने झलक मात्र ही देखी थी लेकिन मन ही मन उसके बारे में अनेक कहानियाँ बना चुकी थी। स्कूल जाते वक्त उसके मन में बेचैनी थी। वह सोच रही थी कहीं ऐसा न हो कि घर मालिक ने उस पोर्ट्रेट को वहाँ से हटा दिया हो। लेकिन उस दिन सुधीर को ऑफ़िस देर से जाना था, सो रुचि और सुधीर बच्चों को कार से स्कूल छोड़ते हुए, बाज़ार निकल गये, गाड़ी से उतरना ही नहीं हुआ। बस दूर से ही उड़ती-उड़ती एक झलक। तसल्ली थी कि वह तस्वीर वहीं थी।
आखिरकार उस शाम बच्चों के लेने जब स्कूल पँहुची तो सदाबहार वृक्षों और झाडियों से ढँके–छुपी उस घर की खिड़की में जैसे ही वह पोर्टेट उसे दिखाई दिया, तो उसे लगा कि उसकी जान में जान आ गई। पहली बार वह उसे ढंग से देख सकती थी। पोर्टेट वहीं जड़ा था। बहुत ही खूबसूरत और प्रभावशाली। लगभग छह फुट लंबे और चार फुट चौड़े इस फ्रेम की किनारी सुनहरी थी। भव्य-सी, शाही कुर्सी पर शान से बैठा वह लंबा-चौड़ा अंगरेज़ बुज़ुर्ग लगभग अस्सी से ऊपर ही रहा होगा। रोबीला चेहरा। देवानंद-स्टाइल में बने सन से सफ़ेद बाल। उभरी हुई नाक पर रखा सुनहरी कमानी का चश्मा। गले में सलीके से बँधा बादामी स्कॉटिश मफ़लर, गहरी लाल शर्ट, गहरे भूरे चौखानेवाला कोट के साथ कड़क इस्त्री किया हल्के बादामी रंग का पैंट। दाँये पैर पर रखे बाँये पैर का गहरे भूरे रंग का चमचमाता लेसवाला नोकीला जूता। बाँया पैर फोटो फ्रेम में नहीं था। गोद में एक के उपर एक रखे हाथ। क्या तस्वीर बनाई थी! स्वयं चित्रकार होने के कारण वह जितना बारीकी से उस तस्वीर को देखती उसकी बारीकियाँ देखकर मुग्ध होती रहती। बस यों लगता था कि अभी बोल उठेगी वह तस्वीर। पास रखी तिपाई टेबल पर सुनहरी किनारी का बादामी रंग का टी-सेट, उसी टेबल पर एक सुनहरी किनारीवाली बादामी रंग की डायरी और सुनहरा पेन यों रखे थे मानो, बस अभी-अभी कुछ लिखकर रखी हो। पीछे रखे फूलों का गुलदस्ता, नक्काशीदार कुरसियाँ आदि। कलाकार ने कितनी बारीकी से रंगों, फ्रेम की लंबाई-चौड़ाई, क्वालिटी आदि का संयोजन किया होगा। वह उस अनजान कलाकार के प्रति श्रद्धा से भर गई। क्या पता वह कलाकार जीवित हो, वहीं, कहीं आसपास रहता हो, कभी मुलाकात हो जाए तो ...उस चित्र को देख कर उसे राजा रवि वर्मा के चित्र तो कभी राजा-महाराजाओं के म्यूज़ियम में रखे आदमकद चित्र स्मरण हो उठे। वह लगभग दस-बारह मिनिट कर उस तस्वीर को बारीकी से देखती रही। बस, एक बात जो उसे बेचैन कर रही थी वह यह कि इतनी भव्यता और दिव्यता के बाद भी उस तस्वीर की आँखों गहरी में वीरानी थी। हो सकता है इनकी पत्नी का देहांत हो गया हो और यह वीरानी उसी कारण हो या किसी का प्रतीक्षा
उस दिन जब बच्चों को लेकर घर आई तो उसका मन काफी विचलित था। वह उस तस्वीर के बारे में और जानना चाहती थी। उस तस्वीर में कुछ ऐसा था जो उसे बेचैन किये दे रहा था। लेकिन दोनों बच्चों को फ्लू होने के कारण अगले पूरे सप्ताह वह स्कूल नहीं जा सकी। लेकिन वह पोर्ट्रेट उसके दिमाग पर छा गया था। वह रात को सो न पाती जब आँखें बंद करती तो वह पोर्ट्रेट अपनी संपूर्ण भव्यता के साथ उसकी आँखों के सामने आ खड़ा होता और उस और वह उठकर बैठ जाती और अँधेरे में ही आँखें फाड़-फाड़कर उसे देखने का प्रयास करती। वह उस पोर्ट्रेट के अलावा कुछ सोच ही नहीं पाती उसे लगता कि वह पोर्टेट वाला बुज़ुर्ग उससे कुछ कह रहा है, वह और बेचैन हो जाती। बस उसे लग रहा था कि वह जल्दी से वहाँ जाए। क्या पता कोई तस्वीर हटा दे...
उस रात हमेशा की तरह आँख बंद करते ही वह पोर्ट्रेट एक बार फिर आ खड़ा हुआ। मानो, कुछ कहना चाहता हो, उसकी वात्सल्यपूर्ण आँखों में एक अनकही तकलीफ नज़र आई। रुचि ने जब सुधीर से कहा तो उन्होंने सीधे कहा कि वह उस पोर्ट्रेट के बारे में कुछ ज्यादा ही सोच रही है। क्या कहे अब वह? ...न न नहीं सु...धी...र... वह... तस्वीर... मुझसे कुछ कह रही थी। सुधीर के रूखे जवाब ने उसे चुप कर दिया।
उस घर के लिये स्कूल की तरफ से तो कोई द्वार नहीं था। सो, वह बच्चों को स्कूल वाली सड़क के कोने तक छोड़, गली की दूसरी ओर निकल पड़ी। संभवतः, वहीं कहीं मुख्य द्वार होगा, ऐसा सोचते-सोचते उसे लगा कि वह कुछ आगे निकल आई है क्योंकि जहाँ उसे उस घर के होने का अंदाज था वहाँ तो नर्सिंग होम का बोर्ड लगा था। वह हिचकिचाई। लेकिन जब तक वह कुछ निर्णय ले पाती वह नर्सिंग होम के मुख्य द्वार तक पहुँच चुकी थी। स्वचालित दरवाज़े के सरकने की आवाज़ से उसे होश आया। वह सोच रही थी कि किसी का घर होगा, लेकिन यह क्या? कैसे पूछे वह चित्र और चित्रकार के बारे में। क्या पूछे वह?
रिसेप्शन पर एक युवा अंग्रेज़ लड़की थी। रुचि ने अपनी आवाज़ को भरसक संयत बनाते हुए पूछा कि क्या वह पोर्ट्रेट देख सकती है जो स्कूलवाली सड़क से दिखता है?
"पोर्ट्रेट? किस पोर्ट्रेट की बात कर रही हो तुम? वहाँ तो कोई पोर्ट्रेट नहीं है!"
रुचि पल भर के लिये उस लड़की के रूखेपन से क्षुब्ध हो गई। लेकिन फिर संयत होते हुए उसने कहा विस्तार से चित्र के बारे में बताया।
उस लड़की ने उसे वहीं ठहरने के लिये कहा और अंदर चली गई। थोड़ी देर बाद एक प्रौढ़ दिखनेवाली महिला बाहर आई। रुचि और उसके बीच फिर वही संवाद। वह महिला, जिसका नाम एमा था, उसे बड़े प्रेम से अपने ऑफिस में ले गई। उसने पूछा, क्या आप चित्र बनाती हैं? रुचि ने उत्साह से हाँ में सिर हिलाया। लेकिन उसके सपाट चेहरे को पढ़ने में रुचि असफल रही। फिर भी उसके रुख से रुचि के मन में तस्वीर तक पँहुचने की उम्मीद बँधी। रुचि ने एक बार फिर पोर्ट्रेट से सम्बंधित अपने सारे सवाल दोहरा दिये।
"तुम्हारे सभी सवालों के जवाब मिल जायेंगे।"
एमा एक अलमारी में से एक बादामी रंग की डायरी निकाल लाई।
"अरे, उस चित्र में भी बिल्कुल ऐसी ही डायरी थी ...! ..."
एमा ने डायरी का आखिरी लिखा पन्ना खोला और डायरी रुचि के सामने रख दी।
"पढ़ो" , वह बोली। जॉन यह तुम्हें देने को कह गया था। "
"क कौन? ...म...मुझे......?" , कहते हुए रुचि ने असमंजस में डायरी अपने हाथों में ले ली।
अंग्रेज़ी में काली स्याही से लिखे, सधे हुए सुंदर हस्ताक्षर। दो पन्ने खुले थे।
तारीख, 21 दिसम्बर
कैथरीन, जब हमारी प्यारी बेटी रोज़ हमें बिलखता छोड़ कर चली गई तब मेरे पास तुम थीं। कैथरीन तुमने मुझे धोखा दे दिया, तुम तो मुझे एक पल अकेला न छोड़ती थी, कैसे बिना बताए मुझे एकदम अकेले छोड़ कर चली गई, आठ साल हो गये तुम्हें गये और मुझे यहाँ बैठते हुए पाँच। लेकिन...लगता है... आज मेरी प्रतीक्षा खत्म हुई। तुम्हें तो पता है रोज स्कूल छूटने के समय से ठीक दस मिनिट पहले मुझे यहाँ बैठ दिया जाता है। ताज्जुब की बात है कि इन पाँच सालों में मुझे इस स्कूल के किसी बच्चे या माँ-पिता ने नहीं देखा।
तुम्हें बताया था न उस बड़ी-बड़ी काली आँखों और लंबेबालों वाली उस विदेशी लड़की के बारे में, जिसके दाहिने गाल पर गहरा काला तिल था! हमारी रोज़ शायद बड़ी होकर उसकी-सी ही दिखती। । इतने दिनों से उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। आज फिर आई थी। उसने फिर बड़े ध्यान से मुझे देखा। सिर्फ देखा ही नहीं, महसूसा भी। मेरे मन को टटोला भी। मुझे यकीन है वह फिर आयेगी।
कैथरीन, अब मेरी और तुम्हारी प्रतीक्षा खत्म हुई। मैं आ रहा हूँ तुम्हारे पास, यह क्रिसमस हम साथ मनायेंगे।
मेरी यह डायरी, सामान और मेरी बची-खुची जमा-पूँजी उस काली आँखों और लंबेबालोंवाली लड़की को दे देना। एक महिना उसकी राह देखने के बाद ही मेरा अंतिम संस्कार करना। वह जरूर आयेगी।
रुचि ने अविश्वास से एमा को देखा जो उसे ही देख रही थी।
ऐमा ने धीरे से उसका हाथ दबाते हुए कहा, तुम्हारे सारे सवालों के जवाब जॉन की डायरियों में मिल जायेंगे। जॉन 22 दिसम्बर की सुबह उठा नहीं। वह कैथरीन के पास गया। डायरियाँ पढ़ लेना। आगे का कार्यक्रम तुम्हारी सुविधानुसार ही होगा। रुचि स्तब्ध थी!
"वाह रुचि! नई तस्वीर! किसकी पोर्ट्रेट है यह? कौन है यह अंग्रेज़? कितनी खूबसूरत है, ब्यूटीफुल! क्या बारीक काम है..., लगता है यह अंग्रेज़ अभी बोल उठेगा, कौन है यह आदमी! वाह! ... और यह तस्वीर...अंग्रेज़ औरत कौन है"
सुहासिनी से यह प्रश्न अपेक्षित था।
रुचि धीमे से बुदबुदा उठी, वे बात करते थे मुझसे...हम सभी पोर्ट्रेट ही तो हैं।