तस्वीर में अवांछित / पंकज सुबीर
"रंजन जी, आ रहे हैं ना आप?" उधर से फ़ोन पर आयोजक ने शहद घुली आवाज़ में पूछा।
"नहीं भाई साहब मैं पहले ही कह चुका हूँ रविवार को मैं कार्यक्रम नहीं लेता। एक ही दिन मिलता है परिवार के साथ बिताने को। उस पर भी पिछले दो माह से रविवार को भी व्यस्तता बनी रही है इसलिए अब कुछ आराम चाहता हूँ।" रंजन ने विनम्रता पूर्वक उत्तर दिया।
"रंजन जी हम आपका नाम प्रचार में उपयोग कर चुके हैं" आयोजक ने दयनीय स्वर में कहा।
"मगर मैंने तो आपको स्वीकृति नहीं दी थी।" रंजन ने कुछ सपाट स्वर में कहा।
"देखिए रंजन जी अगर मानदेय को लेकर ..." कहते-कहते आयोजक ने बात को बीच में ही छोड़ दिया।
"नहीं नहीं वैसी कोई बात नहीं है, आप जितना दे रहे हैं मैं उतना ही लेता हूँ, मगर समस्या परिवार की ही आ रही है। सप्ताह के छः दिन सुबह सात से रात दस तक काम में बीतते हैं। एक दिन तो परिवार को भी चाहिए कि नहीं?" रंजन ने इस बार थोड़े ठीक से स्वर में कहा।
"ठीक है रंजन जी, वैसे आप आना चाहें तो शाम छः बजे भी निकलकर यहाँ आठ तक पहुँच सकते हैं" उधर से आयोजक ने एक और प्रयास किया।
"मैं कह चुका हूँ भाई साहब, फिर भी यदि कुछ होता है तो मैं आपको फ़ोन कर लूंगा" कहते हुए रंजन ने फ़ोन काट दिया।
एक रविवार ही तो मिलता है बड़ी मुश्किल से और अगर उसको भी बाहर वालों को दे दो तो फिर परिवार के लिए बचेगा ही क्या? घर के लोग भले ही कुछ ना कहते हों मगर मन में तो सभी के रहता होगा कि वह एक दिन तो घर पर रहे, उन लोगों के साथ। पिछले दो महीनों से लगातार ऐसी व्यस्तता बनी हुई है कि वह चाहकर भी रविवार को घर नहीं रुक पा रहा है। कुछ न कुछ ऐसा हो जाता है कि उसे जाना ही पड़ता है।
मगर आज वह घर पर है इसलिए क्योंकि शायद आज को लेकर उसने अपनी प्राथमिकता पहले से ही तय कर ली थी कि आज उसे घर पर रहना है। घर...? दरवाज़ों और खिड़कियों से भरी दीवारों पर बिछी हुई छत के अंदर की वह दुनिया जहाँ एक स्त्री है जो सुबह सपाट और भाव विहीन चेहरे से उसे विदा करती है और रात को जब पुनः मिलती है तब भी लगभग वैसी ही होती है। जब रात को मिलती है तो धीरे-धीरे, कुछ-कुछ बोलती भी जाती है, घर के बारे में, आस पड़ोस के बारे में, मोहल्लेके बारे में। उसका ये धीरे-धीरे बोलना सूचनाप्रद होता है, ठीक उसी तरह जिस तरह कमरे में रखा टीवी भी धीमी-धीमी आवाज़ में कुछ-कुछ बोलता रहता है, देश के बारे में, दुनिया के बारे में। लगभग एक साथ ही उसे देश दुनिया से लेकर मोहल्ले और घर तक की सूचनाएँ मिलती हैं मगर वह इन सूचनाओं को निस्पृह रूप से ही लेता है। जो घट चुका है, बीत चुका है उसके बारे में केवल जाना ही जा सकता है, उसमें कुछ संशोधन तो किया नहीं जा सकता, तो क्यों फ़िज़ूल में मानसिक श्रम किया जाए। प्रतियोगिता परीक्षाओं में बैठने की उम्र निकल चुकी है इसलिए धीमे-धीमे स्वर में मिल रही ये सारी सूचनाएँ अगर सामान्य ज्ञान से सम्बंधित हों तब भी उसके काम की नहीं हैं।
उसी घर में एक या शायद दो बच्चे भी हैं जो संभवतः उसी के हैं। संभवतः इसलिए क्योंकि इन बच्चों को सुबह घर से जाते समय भी गहरी नींद में डूबा हुआ देखता है और रात को जब घर लौटता है तब भी। कभी इन बच्चों से उसका परिचय नहीं हो पाया इसीलिए उसने संभवतः का उपयोग किया। कभी यदा-कदा जब वह रविवार को घर पर रुक जाता है तो अपने प्रति एक अपरिचित भाव पाता है इन एक या शायद दो बच्चों की नज़रों में। कभी-कभी उसे लगता है कि उसके रुकने के कारण कुछ बोझिल हो गया है घर का माहौल। फिर कभी लगता है कि नहीं ऐसा कुछ नहीं है घर का माहौल तो रोज़ ही ऐसा रहता होगा, आज वह रुका है तो उसे ही ऐसा लगा रहा है। बाहर की दौड़ती ज़िंदगी से एक ठहरी हुई ज़िंदगी के साथ दिन बीत रहा है कुछ तो अंतर होगा ही। कभी-कभी उसने प्रयास भी किया एक या शायद दो बच्चों के साथ कुछ परिचय बढ़ाने का मगर कहावत है कि ताली दोनों हाथों से बजती है एक से नहीं, उस पर भी यदि वह एक हाथ भी पूरे मन से प्रयास नहीं कर रहा हो तो और भी ज़्यादा मुश्किल है। अक्सर जब वह किसी दिन घर रुक जाता है तो देखता है कि आसपास से गुज़रते उन एक या शायद दो बच्चों का कद कुछ बढ़ गया है, कभी शायद बालों की स्टाइल कुछ बदली हुई नज़र आती है। कभी जब घर रुकता है तभी ऐसा लगता है रोज़ नहीं लगता क्योंकि रोज़ तो वह बच्चे सोए होते हैं और सोए हुए के बारे में अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
अक्सर एक रविवार को जब वह घर रुक जाता है तो अगले एक दो माह के लिए निश्चिंत हो जाता है, एक अपराध बोध हट जाता है मन से कि वह घर को समय नहीं दे पाता। फिर ये अपराध बोध एक दो माह बाद ही जन्म लेता है। आज भी वह इसी अपराध बोध के चलते यहाँ पर है। यहाँ पर, मतलब घर पर, जहाँ एक स्त्री है जो चुपचाप कुछ न कुछ लगातार कर रही है उसकी उपस्थिति से सर्वथा निस्पृह। रविवार को जब वह घर होता है तो यह स्त्री उसे धीमे-धीमे स्वर में कुछ भी जानकारी नहीं देती। शायद रविवार को उसके पास अधिक सूचनाएँ होती भी नहीं हैं।
आज भी वह स्त्री लगातार कुछ न कुछ किये जा रही है। कुछ न कुछ सामान लिए हुए उसके सामने से गुज़र जाती है, कभी कुछ उसके सामने भी रख जाती है। वह एक या शायद दो बच्चे भी बीच-बीच में इधर से उधर निकलते हुए दिखाई देते हैं। उनसे एकाध बार उसकी नज़रें भी मिलती हैं नज़रें मिलते ही वह मुस्कुराने का प्रयास करता है या शायद मुस्कुराता भी है। मगर उस तरफ़ से कुछ उत्साह वर्द्धक प्रत्युत्तर नहीं मिलता। वह ड्राइंग रूम में उसी प्रकार बैठा रहता है, कुछ लिखता हुआ, कुछ पढ़ता हुआ, अपनी उपस्थिति का एहसास करवाता हुआ कि मैं हूँ यहाँ। आज का ये दिन मैंने तुम सबको दिया है। रविवार को उस प्रकार ड्राइंग रूम में बैठे हुए उसे लगता है कि जैसे वह भूल से किसी ग़लत स्टेशन पर उतर गया मुसाफ़िर है। जो प्लेटफार्म की बैंच पर बैठा है जहाँ रेलें आ-जा रही हैं, मुसाफ़िर आ-जा रहे हैं, खोमचे वाले आ-जा रहे हैं, उसकी उपस्थिति से लगभग निस्पृह ये सभी आ-जा रहे हैं। कभी-कभी सामने से गुज़रती किसी रेल में एकाध कोई परिचित चेहरा दिखाई भी देता है और वह पहचानने का प्रयास भी करता है किंतु उससे पहले ही वह रेल गुज़र जाती है। ग़लत स्टेशन पर उतरे हुए के साथ यही होता है प्लेटफार्म की बैंच पर बैठा वह यही सोचता है कि कोई देखता क्यों नहीं कि वह बैठा है यहाँ पर। सब क्यों गुज़र रहे हैं इस प्रकार उसकी उपस्थिति से बेख़बर मानो वह है ही नहीं वहाँ पर। अक्सर भूल जाता है कि वह एक ग़लत स्टेशन पर है जहाँ पर उसे नहीं होना था। ग़लत जगह पर उपस्थित वस्तु में और शून्य में कोई फ़र्क नहीं होता। ऐसा इसलिए क्योंकि वह उपस्थित वस्तु किसी शून्य को भर नहीं पा रही है और इसीलिए वह स्वयं ही शून्य में गिनी जाएगी।
घर में बैठा वह भी देखता रहता है उस स्त्री और उन एक या दो शायद दो बच्चों को। एक या शायद दो इसलिये क्योंकि वे दोनों बच्चे लड़कियाँ हैं और दोनों ही उसके सामने से एक ही तरह से गुज़रती हैं। वह फ़र्क ही नहीं कर पता दोनों में और इसीलिए वह कुछ निश्चित नहीं है कि दो लड़कियाँ हैं या एक ही है। थोड़ा बहुत फ़र्क नज़र आने के कारण ही उसे लगता है कि ये दो ही हैं। वे एक शायद दो बच्चे जो लड़कियाँ हैं उन्हें वह देखता रहता है सामने से गुज़रते हुए और अनुमान लगाता रहता है कि कैसी थीं ये पिछली बार, जब उसने देखा था इनको। आज जब वह रविवार को घर पर है तो शायद आज भी यही सब कुछ करेगा। बीच में शायद दोपहर को कुछ देर के लिए सो भी जाएगा और फिर शाम होगी रात होगी और फिर सुबह हो जाएगी और रवाना हो जाएगा वह उस ग़लत स्टेशन से फिर पहले वाली दुनिया में।
"और ये आप सबके बीच में ये कौन खड़ा है?" अवसर जाने पहचाने चेहरों के बीच कोई अपरिचित चेहरा नज़र आते ही रंजन की उंगली उस चेहरे पर रूक जाती थी। "ये तेरी कोटा वाली बुआ के ननदोई हैं ये भी आए थे शादी में" अक्सर ऐसे ही किसी रिश्ते का ज़िक्र कर देता था बताने वाला मगर रंजन उस रिश्ते का, उस चेहरे का उस तस्वीर में होना स्वीकार नहीं कर पाता था। कि इस तस्वीर में माँ हैं, बाबूजी हैं, तीनों बुआएँ हैं फूफा हैं, चाचा चाची हैं, सब एक जैसे चेहरों की तस्वीर है और उनके बीच में ठुंसा हुआ है ये। कभी-कभी उसे हैरानी भी होती थी कि किस तरह से लोग आकर ठंस जाते हैं किसी की भी फैमिली तस्वीर में। शर्म नहीं आती है उन्हें? कभी-कभी पूछ भी लेता था वह माँ से "तुमने इनको मना क्यों नहीं किया खड़े होने से कि ये हमारी फैमिली की तस्वीर खिंच रही है आप ज़रा दूर हो जाइये"। उसकी बालसुलभ ईर्ष्या को भांप कर हंस पड़ती माँ "बेटा तस्वीर और ज़िंदगी में वांछित को रख लेना और अवांछित को हटा देना इतना आसान नहीं होता।" तब का बालमन वांछित और अवांछित जैसे भारी शब्दों के अर्थ भले ही नहीं जान पाता था फिर भी वह ये तो समझ ही लेता था कि कहीं न कहीं कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर होता है जो हमारे ना चाहने के बाद भी होता है और वह केवल इसीलिए होता है क्योंकि वह चाहता है कि वह हो। जैसे उस तस्वीर में वह बुआ के ननदोई अगर वह ख़ुद सोच लेते कि ये तो इनकी फैमिली तस्वीर है इसमें मेरा क्या काम, तो वह उस तस्वीर में नहीं होते। उस स्थिति में वह तस्वीर भी एक मुक़म्मल फैमिली तस्वीर होती। मगर ऐसा हुआ कहाँ? दाल-भात के बीच किरकिराते हुए कंकर की तरह वे थे, हैं और रहेंगे भी।
तस्वीरें अक्सर अवांछितों को लिए-लिए फिरती हैं, शायद तस्वीरें स्वयं भी मुक्ति पाना चाहती हों इन अवांछितों से ज़िंदगी की तरह। जैसा वह सोचता है शायद वैसा ही दूसरे भी सोचते हों, जितने भी लोग उस तस्वीर में हैं शायद वे सब भी यही सोचते हों कि अगर ये एक बुआ का ननदोई नहीं होता तो कितना अच्छा होता, ये एक फैमिली तस्वीर बनकर इनलार्ज होकर उस तस्वीर में शामिल सभी के घरों की दीवारों पर लटकी रहती। दीमकें खा जातीं, फ्रेम सड़ जाता, बुरादा भी टपकने लगता, फिर भी ये टंगी रहती, तब तक, जब तक एक पीढ़ी नहीं गुज़र जाती। तस्वीर भी यही सोचती होगी कि काश ये बुआ का नन्दोई एन मौक़े पर आकर बीच में नहीं ठुसा होता।
अक्सर ही पड़ोस का वह व्यक्ति जिसका नाम राधेश्याम, घनश्याम, रमेश या दिनेश जैसा कुछ है उसे रविवार को घर पर पाकर चला आता है। वह आदमी शायद एकमात्र व्यक्ति है जो उस ग़लत स्टेशन पर बिताए गए रविवार में उससे बोलता है, बतियाता है, लेकिन वह भी इतना ज़्यादा बोलता है कि आख़िरकार उसे उससे भी ऊब होने लगती है। इसी बीच वह स्त्री बीच-बीच में आकर चाय या कुछ खाने-पीने का सामान किसी नियम की तरह रखती जाती है। वह राधेश्याम या दिनेश या पता नहीं क्या नाम वाला आदमी उस दौरान उस स्त्री से कुछ संवाद स्थापित करने का लिजलिजा-सा प्रयास भी करता है, प्रत्युत्तर में वह स्त्री केवल मुस्कुराकर चली जाती है।
रंजन उठ कर टीवी चालू करना चाह ही रहा था कि अचानक वही पता नहीं कौन से नाम वाला आ गया "क्या बात है आज तो घर पर ही हैं।" "हाँ बस ... आइये ना" कहते हुए रंजन ने उस आदमी को बैठने का इशारा किया। कुर्सी पर बैठने के बाद उस पता नहीं कौन से नाम वाले आदमी ने सामने टेबल पर रखी किताब उठा ली और उसे पलटने लगा। रंजन ग़ौर से उस राधेश्याम, घनश्याम या शायद दिनेश को देखने लगा। अभी दो रोज़ पहले इंदौर के उस कार्यक्रम में रविकांत मिला था, काफ़ी दिनों बाद मुलाकात हुई थी मगर अभी भी उसे वह उतना ही फूहड़ लगा था। मिलते ही बोला "चलो गुरु आज तुम्हें एक धांसू चुटकुला सुनाते हैं" चुटकुले का नाम सुनते ही उसे घबराहट होने लगी क्योंकि चुटकुले का मतलब हंसना और हंसने जैसे फालतू काम तो वह कब का छोड़ चुका है। उसकी अनिच्छा के बाद भी रविकांत ने उसे घेरकर जबरदस्ती पूरा चुटकुला सुना दिया था। एक आदमी जब भी बाहर से आता तो पड़ोस के बच्चों को रोककर पूछता जानते हो ताजमहल कहाँ है, लाल क़िला कहाँ है या फिर गेटवे ऑफ इंडिया कहाँ है? बच्चे बिचारे हर बार अनभिज्ञता से सर हिला देते तो वह हिकारत से कहता जानोगे भी कैसे, हमेशा घर में ही तो रहते हो, बाहर निकलो तो पता चले। एक बार उस आदमी के पूछने से पहले ही बच्चों ने पूछ लिया जानते हो रामलाल कौन है उस आदमी ने सर हिला कर मना किया तो बच्चे बोले जानोगे भी कैसे हमेशा बाहर जो रहते हो कभी घर में रहो तो पता चले। चुटकुला सुनाने के बाद अत्यंत फूहड़ता के साथ देर तक हंसता रहा था रविकांत।
रंजन को लगा वह पड़ोस का जाने कौन से नाम वाला व्यक्ति चोर नज़रों से इधर-उधर देख रहा है। मगर वह तो किताब पढ़ रहा है इधर-उधर कैसे देख सकता है। घर और मोहल्ले की ख़बरें सुनाने वाली स्त्री ने चाय और बिस्कुट लाकर टेबल पर रख दिया, जैसे ही वह जाने के लिए मुड़ी कि रामलाल बोला (राम लाल ...? उस पडोसी का नाम रामलाल कैसे हो सकता है...? रामलाल तो रविकांत के चुटकुले वाले का नाम था) "भाभी जी ग़ैस का नंबर मैंने लगा दिया है आज आ जाएगी आपकी टंकी"। उस स्त्री ने ठिठक कर सुना और जैसे ही रामलाल (फिर रामलाल ...?) का वाक्य समाप्त हुआ वह धीमे से मुस्कुराकर आगे बढ़ गई। रामलाल (...?) चाय का कप बढ़ाते हुए बोला "लीजिए ना भाई साहब" पर ये वाक्य तो रंजन को बोलना था ...?
उस दिन जब वह राघव को कम्प्यूटर पर कार्य करते हुए देख रहा था तो उसने देखा कि राघव ने एक तस्वीर में से एक भरा-पूरा चेहरा हटा कर वहाँ दूसरा चेहरा रख दिया है। आश्चर्यचकित रह गया था वह ये देख कर, ऐसा भी कर सकता है कम्प्यूटर? राघव ने जवाब दिया था "हाँ इसमें क्या बड़ी बात है इस चेहरे को सेलेक्ट करके डीलिट करो और दूसरे चेहरे को कहीं से कॉपी करके लाओ और पेस्ट कर दो यहाँ पर, बन गया काम"। सेलेक्ट, डीलिट, कापी, पेस्ट अंग्रेज़ी के इन चार अक्षरों में उलझ कर रह गया था वह। कितना आसाान काम है। "क्या कम्प्यूटर में कुछ भी सेलेक्ट करके डीलिट किया जा सकता है?"
"हाँ यही तो फर्क़ है कम्प्यूटर और ज़िंदगी में कि यहाँ आप वांछित को कापी पेस्ट करके ला सकते हैं और अवांछित को सेलेक्ट करके डीलिट कर सकते हैं" दार्शनिक की तरह उत्तर दिया था राघव ने।
घर लौट कर आने के बाद उसने सारे पुराने फोटो निकाल कर छांटना शुरू कर दिया था। किस-किस में से किस-किस को हटाना है और उसकी जगह पर किस-किस को लाना है। माँ अक्सर कहती हैं "इस फोटो में सब हैं बस तेरी इन्दौर वाली चाची ही नहीं हैं आतीं भी कैसे? जब फोटो खिंच रहा था तब बुखार में पड़ी थी बिचारी"। अब इन्दौर वाली चाची के बग़ैर तस्वीर अधूरी रह गई। ऐसे ही किसी न किसी के बग़ैर हमेशा अधूरी रह जाती है तस्वीर। ये तस्वीर की नियति ही है शायद कि वह हमेशा अधूरी ही रह जाती है, कुछ न कुछ, कोई न कोई छूट ही जाता है हमेशा और उसकी जगह आ जाता है कोई न कोई ऐसा जिसे नहीं आना था। कभी इन्दौर वाली चाची छूट जाती हैं तो कभी झांसी वाली बुआ। कुछ फोटो में तो वह स्वयं भी नहीं है, पता चला कि उसके इंतज़ार में दस पन्द्रह मिनट रूके भी रहे थे सब, मगर वह जाने कहाँ खेल रहा था। बहुत ढूँढने के बाद भी नहीं मिला तो अख़िरकार खिंच गया फोटो। फोटो खिंचवाने वाले भी आख़िर कब तक बैठे रहते एक ही मुद्रा में? आज जब उन तस्वीरों को देखता है तो नीचे दरी पर बैठे हुए सब नज़र आते हैं, बस वही नहीं होता है।
कितना मुश्किल होता है मुक़म्मल होना, कितना ही प्रयास करो कुछ न कुछ तो छूटता ही है। सारी तस्वीरों को ले जाकर राघव को दे आया था वह और समझा भी आया था कि कहाँ-कहाँ से किस-किस को हटाना है और किस-किस को बढ़ाना है। उस दिन के बाद से थोड़ा निश्चिंत है वह कि कम से कम कुछ तस्वीरें तो अब उसके पास भी ऐसी होंगी जो मुक़म्मल होंगी। कहीं कुछ भी नहीं छूटा होगा और कहीं कुछ भी अवांछित नहीं होगा। एक तस्वीर में बैठी हुई अपरिचित महिला जिसे माँ अपनी पूरी स्मरण शक्ति लगाने के बाद भी स्मृत नहीं कर पाई हैं, उसके स्थान पर इंदिरा गांधी को बैठाने का कह आया था राघव से। सही भी है कोई अपरिचित बैठा है तो उससे अच्छा तो इंदिरा गांधी को ही बैठा लो।
चाय पीकर और कुछ इधर-उधर की बातें करने के बाद रामलाल उठ कर चला गया। रंजन को लगा कि जाते-जाते उसने एक ठंडी और निराशा भरी सांस भी छोड़ी थी। रंजन उस जाते हुए रामलाल की पीठ को देखता रहा, ये सोचकर कि शायद वह मुड़कर देखेगा लेकिन रामलाल समझदार था वह बिना मुड़े ही ओझल हो गया। उसके जाते ही कमरे में पुन शांति छा गई। रंजन फिर अपने हाथ में पकड़ी पुस्तक का छूटा हुआ सिरा पकड़ने का प्रयास करने लगा। पुस्तक में रंजन का ध्यान कुछ ही देर में भंग हो गया। कमरे के टीवी के चालू हो जाने के कारण। रंजन ने देखा कि उन एक या शायद दो बच्चों में से बड़ी वाली लड़की कमरे में पड़े दीवान पर गाव का सहरा लेकर अधलेटी है, हाथ में रिमोट कंट्रोल है और कुछ लापरवाही-सी मुद्रा में टीवी पर आ रही फ़िल्म देख रही है।
रंजन का ध्यान भी किताब से हटकर टीवी पर केंद्रित हो गया। कोई नई फ़िल्म वहाँ चल रही थी। हीरोइन शादी शुदा है उसका पति कहीं बाहर गया है ओर वह अपने कॉलेज के ज़माने के मित्र से मिलने उसके फ़्लैट पर आई हुई है। वह हट्टा-कट्टा मित्र हीरोइन से बात करने के बजाय शारीरिक क्रियाएँ अधिक कर रहा है। रंजन का मन भी फ़िल्म से जुड़ गया। हीरोइन का मन अभी भी मर्यादा और पतिव्रता जैसी बातों में कुछ उलझा है हालांकि वह उस मित्र का कुछ विशेष प्रतिरोध नहीं कर रही है। उस मित्र ने मर्यादा के प्रश्न में उलझी हीरोइन के शरीर से कुछ अत्यंत ज़रूरी वस्त्रों को छोड़कर सब कुछ उतार दिया है। दोनों बेडरूम में पलंग पर पहुँच गए हैं जहाँ मित्र पुरुष हो गया है और हीरोइन अभी भी अपने पति को लेकर प्रश्नों में उलझी हुई है। वात्स्यायन द्वारा वर्णित क्रियाकलापों का सजीव चित्रण प्रारंभ होते ही पृष्ठभूमि में एक गीत गूंजना भी शुरू हो गया है "भीगे होंठ तेरे, प्यासा मन मेरा, लगे अब्र सा, मुझे तन तेरा ..." "पापा ये अब्र क्या होता है?" फ़िल्म के दृष्य में उलझे रंजन को ये सवाल अचानक आकर लगा। उसने टीवी से नज़र घुमाई तो देखा लड़की सवालिया नज़रों से उसकी ओर देख रही है। "अरे ये भी तो है यहीं पर मुझे तो ध्यान ही नहीं रहा" मन ही मन सोचते हुए रंजन ने कहा "चलो बंद करो ये टीवी, मुझे पढ़ना है" रंजन की तेज़ आवाज़ सुनकर अंदर से स्त्री भी कमरे में आ गई "क्या हुआ?"। "मुझे मर्डर देखना है" लड़की ने विरोधात्मक स्वर में कहा। "कितनी बार तो देख चुकी हो ना? सीडी तो लाकर दे दी है तुम्हें। कल लगाकर देख लेना, अभी पापा को पढ़ने दो" स्त्री ने निर्णयात्यक अंदाज़ में झिड़का। रंजन ने हैरत के साथ स्त्री को देखा, इस फ़िल्म की सीडी इस स्त्री ने लाकर लड़की को दी है? ऐसी फ़िल्म की? मगर स्त्री के चेहरे पर कोई भाव नहीं थे, उसने लड़की के हाथ से रिमोट लिया और टीवी बंद कर दिया लगभग नग्न अवस्था में लिपटे मित्र और हीरोइन का दृष्य एक झटके के साथ बुझ गया। लड़की जो पूरे मन से उस दृष्य में डूबी हुई थी, भुनभुनाती हुई अंदर चली गई।
उस दिन जब राघव का फ़ोन आया था कि आकर अपने फोटो ग्राफ़्स की फाइनल सेटिंग को देख लो, तो शाम को बड़ी उत्सुकता के साथ पहुँचा था वो। कम्प्यूटर के मानीटर की स्क्रीन पर राघव ने उसे वह सारे फोटो एक-एक करके दिखाने शुरू किये थे। सारी की सारी मुकम्मल तस्वीरें। जहाँ जो-जो अवांछित था उसके स्थान पर कोई न कोई वांछित चेहरा लगा हुआ था। बड़ी हैरत के साथ देख रहा था रंजन उन तस्वीरों को। उसके पूछने पर कि यहाँ जो पहले से बैठा हुआ था वह कहाँ गया? राघव ने धीरे से वांछित चेहरे पर माउस से क्लिक किया और उसे खींचा। खींचते ही वह चेहरा हटा और उसके नीचे से वही नज़र आने लगा "अवांछित" "अरे ये तो यहीं है।" उसने आश्चर्य के साथ कहा था। "हाँ और रहेगा भी क्योंकि शरीर तो उसी का उपयोग किया है केवल चेहरा ही बदल दिया है, पुराने चेहरे के ऊपर ये नया चेहरा पेस्ट कर दिया है" ठंडे स्वर में कहा था राघव ने। "ये पूरी तरह से नहीं हट सकता?" रंजन ने पूछा था। "हट सकता है लेकिन वह बहुत मुश्किल प्रक्रिया है, इसी मुद्रा में उस दूसरे वाले की भी तस्वीर होना चाहिए जो आमतौर पर थोड़ा कठिन होता है। इसीलिए हम किसी को भी पूरी तरह से नहीं हटाते केवल चेहरा ही लगाकर और उसे शरीर के साथ मेच करके काम चला लेते हैं। ये इतनी सफ़ाई से होता है कि किसी को पता भी नहीं चलता। पूरी तरह से हटा देने के मुकाबले काफ़ी आसान है केवल चेहरा बदल देना" राधव ने थोड़ी लापरवाही के साथ उत्तर दिया था। कुछ निराश हो गया था रंजन अवांछित तो अब भी वहीं का वहीं है। शरीर तो उसी का है जिस पर जयपुर वाले फूफाजी का चेहरा लाकर लगा दिया गया है। हो सकता है किसी दिन रंजन किसी को ये अलबम दिखा रहा हो ओर जैसे ही वह इस फोटो पर उंगली रखकर कहे कि ये हैं हमारे जयपुर वाले फूफाजी और वैसे ही ये अवांछित हाथों से चेहरे को हटाते हुए बोले "जी नहीं ये मैं हूँ ...मैं" और इसी तरह एक-एक करके चेहरों से ढंके हुए सारे के सारे अवांछित अपने ऊपर लगे चेहरों को हटा कर हाथ में ले लें और ज़ोर-ज़ोर से चीखने लगें "ये मैं हूँ, ये मैं हूँ, ये मैं हूँ"। सोचते ही सोचते रंजन के माथे पर पसीना चुहचुहा आया था। "ठीक है? फाइनल कर दूँ इन सबको?" राघव ने अवांछित के ऊपर लगाए चेहरे को अपनी स्थान पर वापस सेट करते हुए पूछा था। "नहीं यार रहने दे" कहते हुए रंजन टेबल पर फ़ैली अपनी तस्वीरों को समटेने लगा था। "क्यों? क्या हो गया?" हैरानी के साथ उसकी तरफ़ देखने हुए पूछा था राघव ने। "नहीं कुछ नहीं, सॉरी यार तुझे फ़िज़ूल ही परेशान किया।" कहते हुए अपनी तस्वीरें समेट कर राघव को उसी प्रकार हैरत की अवस्था में छोड़ कर चला आया था वह वहाँ से।
लड़की ने जो टीवी पर फ़िल्म देख रही थी अंदर जाकर कुछ सामान ज़ोर से पटका और फिर किसी खिड़की या शायद दरवाज़े को ज़ोर से लगाया। सारी की सारी आवाज़ें रंजन तक पहुँचीं, ज़ाहिर-सी बात है पहुँचाने के लिए की गईं थीं तो पहुँचेगी ही। अंदर कुछ देर तक अंसतोष अपने आपको विभिन्न ध्वनियों के माध्यम से व्यक्त करता रहा, फिर जैसी की असंतोष की प्रवृति होती है वह धीरे-धीरे कम होता हुआ समाप्त हो गया। असंतुष्ट होना सबसे अस्थायी गुण है। कई बार तो समय के साथ हम स्वयं ही भूल जाते हैं कि हम क्यों असंतुष्ट थे।
रंजन ने कुर्सी पर कुछ पसरते हुए सिर को पीछे टिका लिया और आंखें मूंद ली। कुछ देर पहले देखे गए फ़िल्म के दृष्य अभी भी दिमाग़ में थे। फ़िल्म की हीरोइन कितनी ज़्यादा संस्कारों से जुड़ी हुई थी। जब वह अपने पुरुष मित्र के साथ बिस्तर में थी तब भी उसके ख़यालों में उसका पति ही था। इधर उसका पुरूष मित्र आदिम चेष्टाएँ कर रहा था उधर उस हीरोइन का मन पति को याद कर रहा था। संभवतः वह भी अपने मन का कम्प्यूटर चालू करके वहाँ उस पुरुष मित्र के चेहरे के स्थान पर अपने पति का चेहरा कापी पेस्ट करने का प्रयास कर रही थी। ताकि उस मित्र की क्रियाओं में अपनी सक्रिय सहभागिता दर्ज कर सके। जब वह ऐसा करने में सफल हो गई थी तभी गूंजा था वह गीत "भीगे होंठ तेरे, प्यासा मन मेरा"। अपने पति का चेहरा उस पुरुष मित्र के चेहरे पर पेस्ट करके वह पूरे मनोयोग से अपने पति को सक्रिय सहयोग प्रदान करने लगी थी और जब गाने की अगली पंक्ति बजी "लगे अब्र सा, मुझे तन तेरा" तो उसने फुसफुसाते हुए अपने प्रेमी के कान में पूछा था "अब्र का मतलब क्या होता है" उसने ...? उसने कहाँ पूछा था? वह तो उन एक या शायद दो बच्चों में से बड़ी वाली लड़की ने पूछा था। "मुझे नहीं मालूम अब्र का मतलब" कुछ भुनभुनाते हुए कहा रंजन ने।
"क्या हुआ पापा" रंजन के ऐसा कहते ही ये स्वर आया। चौंक कर रंजन ने आंखें खोलीं तो देखा पास में उन एक या शायद दो बच्चों में से छोटी वाली लडकी वहाँ खड़ी हैरत से उसकी तरफ़ देख रही है। संभवतः वहाँ से गुज़र रही थी और उसे बड़बड़ाता देख कर रुक गई थी।
"क्या हुआ?" रंजन को अपनी ओर देखता पाकर उसने पुनः प्रश्न को दोहराया। "
"कुछ नहीं" रंजन ने आगे बेटी शब्द कहने और मुस्कुराने का प्रयास भी किया किन्तु दोनों ही काम नहीं कर पाया।
"पापा मुझे एक छोटी साइकिल दिलवा दो ना" उस लड़की ने संवाद स्थापित होता पाकर कहा।
रंजन को याद आया कि अभी दो माह पूर्व जब वह घर रुका था तब ये लड़की अपने लिये एक गुड़िया मांग रही थी, हालांकि वह अभी तक गुड़िया भी नहीं ला पाया है और आज ये अपने लिए साइकिल की मांग कर रही है।
"अभी उस दिन तो तुम कह रही थीं कि गुड़िया चाहिए, आज गुड़िया से एकदम साइकिल पर आ गईं" रंजन ने कहा।
"मैंने ...? मैंने कब मांगी गुड़िया?" उस लड़की ने कुछ हैरत के साथ पूछा।
"अभी पिछली बार जब मैं संडे को घर पर रुका था तब नहीं कहा था तुमने कि मुझे एक बड़ी-सी गुड़िया चाहिए"। रंजन ने उत्तर दिया।
"नहीं... मैंने तो नहीं कहा" लड़की के स्वर में अभी भी हैरानी थी।
दोनों की बातचीत सुनकर स्त्री भी अंदर से निकलकर कमरे में आ गई। "क्या हुआ?" उसने पूछा। "पापा कह रहे हैं कि पिछली बार जब मैं संडे को रुका था तो तुमने मुझसे गुड़िया मांगी थी।" लड़की ने सफ़ाई देने वाले स्वर में कहा। स्त्री के चेहरे के भाव कुछ बदले फिर उसने संभलते हुए लड़की से कहा "अच्छा-अच्छा ठीक है तुम जाओ, पापा को आराम करने दो"। स्त्री के ऐसा कहते ही लड़की बाहर चली गई। रंजन ने स्त्री की ओर देखते हुए कहा "पर उसने मांगी थी गुड़िया।"
"हाँ मांगी थी मुझे भी मालूम है" स्त्री का चेहरा तथा भाव दोनों ही सपाट थे।
"तो फिर तुमने अभी कहा क्यों नहीं उससे कि हाँ मांगी थी।" रंजन ने कुछ झुंझलाहट के स्वर में कहा।
"इसलिए क्योंकि गुड़िया उसने पांच साल पहले मांगी थी, जब वह छः साल की थी, अब वह ग्यारह साल की है।" एक-एक शब्द को लगभग चबाते हुए बड़े ही शुष्क अंदाज़ में कहा उस स्त्री ने और रंजन के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही पलट कर अंदर भी चली गई। ये हो क्या रहा है? ये कोई षड़यंत्र तो नहीं है उसके विरुद्घ? रंजन उस स्त्री के वहाँ से चले जाने के बाद कुछ देर स्तब्ध-सा बैठा रहा।
"अगर उसे पता ही है कि उसका इतना ज़्यादा विरोध है तो फिर हट क्यों नहीं जाता वह उस पद से?" यूं ही चलते-चलते प्रश्न किया था उसने अपने वरिष्ठ सहयोगी कमलकांत जी से। प्रश्न अंबरीश सक्सना को लेकर था जिनके विभाग में उनको ही लेकर भारी विरोध की स्थिति बन गई थी। उसका प्रश्न सुनकर चलते-चलते ठिठक गए थे कमलकांत फिर वहीं गलियारे के खंबे से पीठ टिकाकर खड़े हो गए थे। उसकी आँखों में गहरे तक झांकते हुए बोले थे "दरअसल अंबरीश अभी भी इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पा रहा है कि वह अवांछित हो चुका है। अंबरीश ही क्या कोई भी इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पता। तुम, मैं, हम सब इसी गलतफहमी में जी रहे हैं कि हम जहाँ पर हैं, हम-हम जो भी हैं वहाँ पर सबसे वांछित हमीं हैं। विरोध होता है तो हमें दिखाई नहीं देता, दिखाई देता है तो हम उसे इग्नोर करते हैं। इग्नोर करने लायक नहीं होता तो फिर हम अपने आपको दुनिया का सबसे झूठा वाक्य" हर अच्छे आदमी और हर अच्छे काम का विरोध होता है"सुनाकर संतुष्ट कर देते हैं। तर्क से कुतर्क से हम अपनी स्थिति को जस्टीफाई करते रहते हैं।" कहते हुए कुछ देर रुक गए थे कमलकांत और एक गंभीर-सी मुस्कुराहट के साथ रंजन को देखने लगे। "हमारे चारों ओर ये जो अवांछितों की भीड़ बढ़ती जा रही है, ये इसी आत्म संतुष्टी का परिणाम है। हम इस बात पर यक़ीन ही नहीं करना चाहते कि हम भी अवांछित हो सकते हैं। अपने घर में, अपने समाज में, अपने कार्यक्षेत्र में, हर जगह हम अपने आपको सबसे उपयुक्त पाते हैं।" कहते हुए उसकी पीठ पर हाथ रख कर वापस गलियारे से सीढ़ियों की ओर बढ़ने लगे थे कमलंकात। "हम सब सबसे ज़्यादा डरते हैं अपने अंदर झांकने से, अपनी स्थिति का अवलोकन करने से और वह इसलिए क्योंकि हम जानते हैं कि परिणाम क्या होगा। आत्मावलोकन से हमारा यह भय ही जन्म देता है अंबरीश सक्सेना जैसे चरित्रों को" सीढ़ियाँ उतरते हुए कहा था कमलकांत ने आख़िरी सीढ़ी उतरकर फिर ठिठक गए और रंजन के कंधे को दबाते हुए कहा "लेकिन ये सब कुछ जो मैं कह रहा हूँ यह मरे हुए लोगों के बारे में कहा रहा हूँ, ज़िंदा आदमी ऐसा नहीं होता, ज़िंदा आदमी अपनी हर स्थिति पर नज़र रखता है और उसका आकलन भी करता रहता है। यही सबसे बड़ा फ़र्क होता है ज़िंदा होने और मरे हुए होने में।" कहकर रंजन के कंधे को कुछ मुस्कुराकर थपथपाया और अपने स्कूटर की ओर बढ़ गए थे कमलकांत।
ट्रिनःट्रिन फ़ोन अपने बेसुरे स्वर में चीख रहा है। शाम होने वाली है। रंजन ने बेमन से उठकर फ़ोन को उठाया। रंजन के हलो कहते ही उधर से चिरपरिचित स्वर आया "हाँ रंजन जी मैं बोल रहा हूँ सुधाकर, तो आप आ रहे हैं ना?।"
"अरे हाँ सुधाकर जी आप हैं" किसी सिलसिले को तोड़ते हुए उत्तर दिया रंजन ने "जी में आ रहा हूँ अभी पांच बजे रहे हैं छः साढे छः तक निकलूंगा तो उधर आठ तक पहुँच जाऊँगा।"
"अरे ...बहुत-बहुत धन्यवाद रंजन जी आपने बड़े संकट से बचा लिया हमें। वरना हम तो लगभग निराश ही हो चुके थे।" उल्लासित-सा स्वर आया उधर से।
"अरे नहीं सुधाकर जी ऐसी कोई बात नहीं है, आप सक्षम हैं, समर्थ हैं, हर परिस्थिति में आयोजन कर सकते हैं" रंजन ने थोड़ी विनम्रता बरतते हुए कहा।
"ये आपकी महानता है जो आप ऐसा सोचते हैं। तो ठीक है रंजन जी हम प्रतीक्षा कर रहे हैं, जैसे ही आप पहुँचते हैं वैसे ही कार्यक्रम प्रारंभ कर देंगे" उधर से स्वर आया।
"ठीक है मैं समय पर पहुँच जाऊंगा।" कहते हुए रंजन ने फ़ोन काट दिया।
"क्या हुआ?" स्त्री ने पूछा जो फ़ोन की बातचीत सुनकर वहाँ आ गई थी।
"आयोजक का फ़ोन आया था, पहले तो मैंने मना कर दिया था फिर सोचा कि चला ही जाता हूँ। तीन हज़ार दे रहे हैं" रंजन ने उत्तर दिया। स्त्री के चेहरे के भाव स्थिर बने रहे। रंजन ने स्त्री के चेहरे में उसके जाने की बात सुनकर नागवारी के चिह्न ढूँढने का प्रयास किया किंतु वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था।
थके क़दमों से चलता हुआ वह आकर कुर्सी पर बैठ गया, कुर्सी पर सर टिका कर आंखें बंद किये अभी उसे कुछ ही देर हुई थी कि अचानक उसे लगा कि उसके चेहरे के किनारे-किनारे बारीक सूई की चुभन या चीटियों के काटने का एहसास हो रहा है। उसने घबरा कर आँखें खोलीं तो देखा चारों तरफ़ गहरा अँधेरा है, ठण्डा, काला और उदास अंधेरा। चेहरे के किनारों पर चुभन तेज़ होती जा रही थी और अंधेरे में कापी-पेस्ट, कापी-पेस्ट जैसी फुसफुसाहट भी आनी शुरू हो गई थी। अचानक उसे लगा कि उसका चेहरा किसी बड़े वेक्यूम क्लीनर में फंस गया है और वह वैक्यूम क्लीनर उसके चेहरे को खींच रहा है। उसने चेहरा छुड़ाने का प्रयास किया पर सफल नहीं हुआ। कापी-पेस्ट, कापी-पेस्ट की फुसफुसाहट तेज़ होती जा रही थी। फुसफुसाहटों के बीच ही उसे ट्रेन की सीटी की तेज़ आवाज़ सुनाई दी। सीटी की आवाज़ सुनकर उसने चेहरा छुड़ाने के लिए पूरी ताक़त लगाई। वैक्यूम क्लीनर भी कुछ कमज़ोर हो गया था वह अपने चेहरे को छुड़ाने में क़ामयाब हो गया। उसे लगा कि कुछ वैक्यूम क्लीनर पर छूट गया है, चेहरा टटोला तो सब कुछ ठीक था। वैक्यूम क्लीनर में अटक कर छूटी चीज़ को देखने को जैसे ही बढ़ा वैसे ही पीछे से ट्रेन की सीटी फिर बजी, वह पलटा तो देखा ट्रेन धीरे-धीरे सरक रही थी, वह दौड़ा और दौड़ता हुआ जाकर ट्रेन में चढ़ गया। ट्रेन में चढ़कर उसने देखा वहाँ सारे परिचित चेहरे थे, वह चेहरे जिनके नाम वह जानता है। सारे चेहरे मुस्कुरा रहे थे। सबको मुस्कुराता देख वह भी मुस्कुराया और दरवाज़े से बाहर की ओर देखने लगा। उसने देखा कि कुछ देर पहले अंधरे में डूबे उस ग़लत स्टेशन पर लाइटें जगमगा रही हैं। रोशनी का झाग पूरे स्टेशन पर फैला हुआ है जिस बैंच पर वह बैठा था उसके पास धीरे-धीरे समाचार सुनाने वाली वही स्त्री खड़ी है, उसके पास बड़ी लड़की और छोटी लड़की खड़ी हैं। स्त्री के हाथों में एक चेहरा है जो दूर से देखने पर भी जाना-पहचाना लग रहा है। स्त्री के चेहरे पर कुछ उदासी के भाव नज़र आ रहे हैं। उसने देखा कि स्त्री से कुछ दूरी पर खंबे की ओट में रामलाल भी खड़ा है जो ललचाई नज़रों से उस चेहरे को देख रहा है जो स्त्री ने अपने हाथों में पकड़ा हुआ है। उसने ट्रेन से कूदने का प्रयास किया मगर ट्रेन रफ़्तार पकड़ चुकी थी, एक जाने पहचाने चेहरे ने उसे तुरंत रोक दिया। ग़लत स्टेशन धीरे-धीरे पीछे जा रहा था, वहाँ के चेहरे धीरे-धीरे धुंधले होते हुए अदृष्य होते जा रहे थे।