तहख़ाने में धूप / लिअनीद अन्द्रयेइफ़ / अल्पना दाश
एक
वह बहुत ज़्यादा पीने लगा था, जिसकी वजह से न केवल अपनी नौकरी बल्कि अपने दोस्तों से भी हाथ धो बैठा था। अब उसके पास इतना पैसा भी नहीं था कि वह कोई कमरा किराए पर लेकर रह सके। उसे एक इमारत के तहख़ाने में बनी चाल की एक खोली में जाकर रहना पड़ा। वहाँ कुछ चोर-उचक्के और सस्ती वेश्याएँ आदि रहते थे। वह भी वहीं रहने लगा और ज़िन्दगी बसर करने लगा।
उसका बीमार और बेजान जिस्म काम करते-करते घिस चुका था। तकलीफ़ें और वोदका घुन बनकर उसे खोखला कर चुकी थीं। अब मौत पैनी निगाहों वाली एक ख़ूँख़ार चील की तरह उसकी फ़िराक़ में रहने लगी थी। दिन में वह कहीं अँधेरे कोनों में छिपी रहती और रात होते ही चुपचाप उसके सिरहाने आकर बैठ जाती । वह बड़ी शान्ति से अपने शिकार का इन्तज़ार कर रही थी। वह मुसलसल बड़े सब्र के साथ सुबह होने तक वहीं बैठी रहती।
सूरज की पहली किरण के साथ जब वह एक चोट खाए जानवर की तरह अपने कमज़ोर सर को कम्बल से बाहर निकालता तो पाता कि वहाँ कोई नहीं है। वह शक़ भरी निगाहों से अपने कमरे के कोनों में झाँकता, चालाकी से अचानक मुड़कर अपनी पीठ के पीछे की ओर देखता और विदा होती भोर के झुटपुटे में कोहनियों के बल उठकर आँखे गड़ाए देर तक अपने ठीक सामने की तरफ़ देखता रहता। और तब उसे जो चीज़ नज़र आती, वह दूसरे लोग कभी नहीं देख पाते हैं — एक लहराती हुई विशाल, आकारहीन और भयानक सुरमई पारदर्शी काया, जो वहाँ रखी हर चीज़ पर छाई होती थी। ऐसा लगता था मानो उसके कमरे में सब कुछ एक काँच की दीवार के पीछे रखा हो। मगर धीरे-धीरे उसने इस काया से डरना छोड़ दिया। वह समझने लगा था कि यह काया अपने पीछे सर्द निशान छोड़ते हुए थोड़ी देर में वहाँ से चली जाएगी और फिर अगली रात तक वापिस नहीं आएगी।
इसके बाद अक्सर कुछ देर के लिए उसकी आँखें झपक जाती थीं और वह अजीब-अजीब और भयानक सपने देखने लगता था। सपने में उसे झक्क सफ़ेद रोशनी में नहाया हुआ सफ़ेद दीवारों और सफ़ेद छत वाला एक कमरा दिखाई देता। वह देखता कि कमरे के दरवाज़े के नीचे से एक काला साँप रेंगकर निकल रहा है और सरसराहट की आवाज़ आ रही है। यह सरसराहट किसी वहशियाना हँसी की तरह लगती थी। अपने पैने सर को फ़र्श से सटाये हुए और बल खाते हुए साँप तेज़ी से रेंगते हुए बाहर निकल जाता था और उसकी आँखों से ओझल हो जाता था। कुछ देर बाद उसे फिर से वही दृश्य दिखाई देता। दरवाज़े के नीचे की दरार से एक साँप का चपटा मुँह और फैलता शरीर नज़र आता। और फिर उसी सपने में यह दृश्य उसे बार-बार दिखाई देता। एक बार जब उसने कोई मज़ेदार सपना देखा तो वह हँस पड़ा और उसे अपनी हँसी एक दबी हुई सिसकी की तरह सुनाई पड़ी। वह बुरी तरह से डर गया। यह ऐसा डरावना एहसास था, जैसे कहीं दूर गहराई में उसकी आत्मा हँस रही हो या रो रही हो और उसका शरीर एक मरे हुए इनसान की तरह गतिहीन पड़ा हो।
निकलते हुए दिन की आवाज़ें धीरे-धीरे उसकी चेतना में प्रवेश करने लगतीं। गली में से गुज़रते हुए लोगों की बातचीत, दरवाज़ों की चरमराहट और गली में बर्फ़ झाड़ते जमादार की झाड़ू की खर्र-खर्र उसके कानों में घुस आती। उसे यह एहसास होने लगता कि नया दिन निकल चुका है और अब उसे उठकर जीने के लिए फिर से लड़ना होगा, जबकि इस बात की कोई उम्मीद नहीं थी कि इस लड़ाई में जीत उसकी ही होगी। यह एहसास बड़ा भयानक होता।
आज उसे फिर से जीना होगा।
वह दिन के उजाले की तरफ़ पीठ करके, तहख़ाने में घुस आई रोशनी की पतली-सी किरण से अपने आपको बचाते हुए कम्बल को सर के ऊपर तक खींचकर लेट जाता था। कम्बल के नीचे अपने घुटनों को मोड़कर शरीर की गठरी-सी बना लेता था और चुपचाप, बिना हिले-डुले पड़ा रहता था। तहख़ाने की सरदी से बचने के लिए वह अपने सारे कपड़ों को अपने ऊपर लाद लेता। उसे इन कपड़ों से कोई दिक़्क़त महसूस नहीं होती थी और ठण्ड का हमला उसपर पहले की तरह जारी रहता था। कमरे के बाहर चल रही ज़िन्दगी का सबूत देती हर आहट को सुनकर उसको ऐसा लगता जैसे उसका शरीर फैलकर कम्बल से बाहर आ गया है और वह तुरन्त अपने आप को और ज़्यादा सिकोड़ लेता और चुपचाप कराहने लगता। कराहते हुए वह कोई आवाज़ नहीं करता था क्योंकि वह अपनी आवाज़ और अपने विचारों से भी डरने लगा था। वह मन ही मन मनाता कि दिन निकले ही नहीं और वह दिनभर बिना हिले-डुले और बिना किसी चीज़ के बारे में सोचे अपने चीथड़ों के ढेर के नीचे पड़ा रहे। अपने आप को यह यक़ीन दिलाने में वह अपनी पूरी ताक़त लगा देता कि रात अभी गुज़री नहीं है। वैसे, उसकी अब सिर्फ़ एक ही इच्छा थी कि कोई उसके सर के पीछे बन्दूक रखकर गोली चला दे।
दूसरी तरफ़ दिन शुरू हो चुका था। वह आगे, और आगे बढ़ता जा रहा था और लोगों को जीने के लिए प्रेरित कर रहा था। आस-पास की दुनिया हिलने-डुलने लगी थी और काम करने लगी थी। तहख़ाने में बनी उस चाल में सुबह सबसे पहले वहाँ की मालकिन उठा करती थी। मत्र्योना नाम की उस बुढ़िया का एक पच्चीस-साला प्रेमी भी था, जो उसी चाल में रहता था। उठते ही मत्र्योना रसोई में काम करने लगती। उसके चलने-फिरने और बाल्टियों के टकराने का शोर पूरी चाल में गूँजने लगता। चाल की रसोई हमारी इस कहानी के नायक ख़ीझनिकफ़ के दरवाज़े के एकदम सामने थी। मत्र्योना के रसोई में घुसने की आहट पाकर ख़ीझनिकफ़ सांस रोके पड़ा रहता और तय कर लेता कि मत्र्योना के बुलाने पर वह कोई जवाब नहीं देगा। मगर वह उसे आवाज़ ही न देती। चुपचाप रसोई में अपना काम ख़तम करती और कहीं चली जाती। इसके दो घण्टे बाद तहख़ाने में रहनेवाले दूसरे किरायेदार उठने लगते, जिनमें सबसे पहले दुन्याशा अपना बिस्तर छोड़ती थी, जो धन्धा करके अपनी जीविका चलाती थी। दुन्याशा के बाद मत्र्योना का जवान प्रेमी अब्राम पित्रोविच भी उठ खड़ा होता। अपनी कम उम्र के बावजूद उसे उसके पूरे नाम से बुलाया जाता था, जिसका मतलब रूस में यह होता है कि लोग उसका सम्मान करते थे क्योंकि वह एक दबंग और होशियार चोर था। लोगों को शक था कि वह चोरी के अलावा भी बहुत कुछ करता है, लेकिन इसके बारे में कोई खुलेआम कुछ नहीं बोलता था। इन दोनों से भी ख़ीझनिकफ़ बेहद डरता था क्योंकि ये दोनों बिना पूछे-ताछे उसके कमरे में घुस आते थे और उसके पलंग पर बैठ जाते थे। उससे बात करते-करते ये लोग उससे छेड़छाड़ भी करते थे।
एक बार पीने के बाद ख़ीझनिकफ़ दुन्याशा के साथ सो भी चुका था। तब उसने उससे शादी करने का वादा कर दिया था। हालाँकि इसके जवाब में दुन्याशा उसका कन्धा थपथपाते हुए हँसने लगी थी। दुन्याशा को पूरे दिल से ऐसा लगता था कि ख़ीझनिकफ़ उसके प्यार में दीवाना है, इसलिए वह अक्सर उसपर मेहरबान रहा करती थी। असल में वह काफ़ी खुले दिलवाली, मनचली और बेवक़ूफ़ लड़की थी। उसका रहन-सहन काफ़ी गन्दा था इसलिए उससे हमेशा एक अजीब-सी बू आया करती थी। पुलिसवालों से बचने के लिए वह उनपर भी मेहरबानियाँ करती थी और उसकी कई रातें पुलिस थाने में कटा करती थीं। अब्राम पित्रोविच से ख़ीझनिकफ़ की पुरानी दोस्ती थी। दोनों कई बार साथ में दारू पीते थे। नशे में धुत्त होकर ख़ीझनिकफ़ उसे गले लगाता, चूमता और ज़िन्दगी भर की पक्की दोस्ती की क़समें खाया करता था।
उस दिन जब ख़ीझनिकफ़ को अब्राम की तरोताज़ा और तेज़ आवाज़ सुनाई पड़ी और जब उसने अपने दरवाज़े के पास से फ़ुर्तीले क़दमों से उसे गुज़रते सुना तो वह भय और आशंका से सकते में आ गया। ऐसी हालत में वह ख़ुद को न रोक पाया और ज़ोर से कराह उठा। तभी उसे कुछ याद आ गया और उसकी आँखों के सामने वह दृश्य घूम गया जब दोनों किसी शराबख़ाने में बैठकर पी रहे थे। शराबख़ाने में रोशनी के नाम पर, बस, एक धुंधला-सा बल्ब जल रहा था। वहाँ बैठे लोग आपस में फुसफुसाकर बातें कर रहे थे और वे दोनों भी फुसफुसा रहे थे। अब्राम के चेहरे का रंग उड़ा हुआ था और वह परेशान-सा अपने चोर-जीवन की कठिनाइयों की शिकायत कर रहा था। अचानक अब्राम ने अपनी कमीज़ की आस्तीन ऊपर उठाई और अपने उघड़े हुए हाथ पर एक हड्डी को छूकर देखने को कहा। यह हड्डी ग़लत जुड़ी हुई थी। ख़ीझनिकफ़ ने उसके हाथ को चूमते हुए कहा —
— मुझे चोरी करनेवाले लोग बहुत पसन्द आते हैं क्योंकि वे बहुत हिम्मती होते हैं — यह कहते हुए ख़ीझनिकफ़ ने उससे दोस्ती में और क़रीब आने और उनके बीच बनी हुई दूरी को ख़त्म करने की बात की। इसके लिए उसने रूसी रिवाज के हिसाब से हाथ में जाम उठाकर बाँह में बाँह डालकर पैग पीने को कहा। यह रिवाज पीनेवालों को एक-दूसरे के क़रीब लाता है और उनमें अपनापा पैदा हो जाता है। ख़ीझनिकफ़ के प्रस्ताव के जवाब में अब्राम ने कहा —
— और मुझे तुम इसलिए बहुत अच्छे लगते हो क्योंकि तुम पढ़े-लिखे हो और हम जैसे आम लोगों की बातें भी समझते हो।
— देखो न, मेरा हाथ, यह रहा ! इसी वजह से मेरी ज़िन्दगी ऐसी है।
और फिर से वही रक्तहीन सफ़ेद हाथ ख़ीझनिकफ़ के सामने आ गया। अपनी सफ़ेदी के कारण वह बड़ा दयनीय लग रहा था। तब अचानक नशे की झोंक में ख़ीझनिकफ़ उसके उस हाथ को चूमने लगा जिसकी वजह से अब्राम अपंग माना जाने लगा था। अब्राम को उसके ये जज़्बात बहुत अच्छे लगे और नशे में वह भी चिल्लाने लगा —
— ठीक है, मेरे भाई, ठीक है ! हम जान दे देंगे लेकिन आन-बान-शान नहीं देंगे।
इसके बाद उसकी आँखों के आगे कुछ और मंज़र घूम गए, जिनमें कुछ मिली-जुली यादें थीं — कुछ घिनौने पल, किसी की चीख़ें, सीटियों की आवाज़ें, और नाचती हुई टिमटिमाती बत्तियाँ। तब यह सब मज़ेदार लगा करता था, लेकिन अब, जब उसकी कोठरी के कोने-कोने में मौत चक्कर लगा रही हो और हर दिशा से आगे बढ़ता हुआ दिन जीने और काम करने तथा कुछ पाने के लिए संघर्ष करने को प्रेरित कर रहा हो तो यह सब बहुत तकलीफ़देह और बेहद डरावना लगता है।
— मालिक, क्या आप सो रहे हैं ? — अब्राम ने मज़ाक में दरवाज़े के बाहर से ही पूछा, लेकिन कोई जवाब न मिलने पर बोला—
— ठीक है, सोते रहो। भाड़ में जाओ तुम।
कई मिलने-जुलने वाले अब्राम के पास आते रहते हैं और दिनभर ख़ीझनिकफ़ को दरवाज़े के खुलने-बन्द होने का शोर और आदमियों की भारी आवाज़ें सुनाई देती रहती हैं। और उसे हर दस्तक सुनकर लगता है कि कोई उससे मिलने या उसे लेने के लिए आया है। उनसे बचने के लिए वह अपने बिस्तर में और ज़्यादा अन्दर घुस जाता और वहीं से वह देर तक यह पहचानने की कोशिश करता कि वह आवाज़ किसकी है। उसको आख़िर किसका इन्तज़ार है। दिल में दर्द लिए वह किसका इतना इंतज़ार करता है कि उसका पूरा बदन काँपने लगता है। हालाँकि इस पूरी दुनिया में उसका अपना कोई नहीं है, जो उससे मिलने या उसे लेने के लिए आए।
कभी, बहुत पहले, उसकी एक बीवी हुआ करती थी, मगर अब तो उसकी मौत हो चुकी है। उससे भी पहले उसके भाई-बहन थे और उनसे भी पहले उसे वह ख़ूबसूरत औरत याद है, जिसे वह माँ कहता था, लेकिन जिसकी छवि आज धुँधली पड़ चुकी है । अब उन सबकी मौत हो चुकी है। उनमें से अगर कोई ज़िन्दा बचा भी हो तो इस विशाल संसार में वह ऐसे ग़ुम हो गया है कि उसके लिए वह मरे बराबर ही है। वह भी जल्दी ही मर जाएगा — वह यह बात अच्छी तरह जानता है। आज जब वह अपने बिस्तर से उठेगा, उसके पैर लड़खड़ाएँगे और काँपेंगे और उसके हाथ अजीब-सी हरकतें करेंगे — और यही होगी मौत । लेकिन जब तक वह आ नहीं जाती, उसे जीना होगा। पर एक ऐसे आदमी के लिए, जिसके पास न पैसे हैं, न अच्छी सेहत और न ही जीने की कोई इच्छा, यह एक बहुत ही मुश्किल काम है। यह सब सोचकर ख़ीझनिकफ़ नाउम्मीदी में डूब गया। अचानक उसने अपने ऊपर से कम्बल हटा दिया और अपने हाथ सर के पीछे मोड़कर असहाय-सा ज़ोर-ज़ोर से कराहने लगा। वह देर तक कराहता रहा मानो वे कराहें तकलीफ़ झेलनेवाले सभी लोगों की छातियों से होकर आ रही हों। इसीलिए वे दर्द से इस कदर सराबोर हैं ।
अब दुन्याशा उसके दरवाज़े के सामने खड़े होकर चिल्ला रही थी — खोलो भी, अरे जल्दी खोलो, गाज गिरे तुम पर — और दरवाज़े पर मुक्के मारते हुए कह रही थी — खोलो, नहीं तो दरवाज़ा तोड़ दूँगी !
ख़ीझनिकफ़ लड़खड़ाता और काँपता हुआ बिस्तर से उठा और दरवाज़े के पास पहुँचकर उसने सिटकनी खोल दी और गिरते-पड़ते वापिस लौटकर जल्दी से बिस्तर में घुस गया। अन्दर आकर दुन्याशा उसके पास बैठ गई। वह दीवार की तरफ़ सरक गया। दुन्याशा के बाल सँवरे हुए थे और चेहरे पर पाउडर लगा हुआ था। उसने अपना एक पैर दूसरे पैर पर चढ़ा लिया और फुसफुसाते हुए बोली —
— मैं एक बुरी ख़बर लाई हूँ। कल कात्या भगवान को प्यारी हो गई।
— कौन कात्या ? — ख़ीझनिकफ़ ने पूछा। उसकी ज़ुबान बड़ी मुश्किल से हिली। उसे बोलने में तकलीफ़ हो रही थी।
— अरे, तुम उसे भूल गए — दुन्याशा धीमे से हँसी — वही कात्या, जो हमारे यहाँ रहती थी। अभी एक हफ़्ता पहले ही तो उसने कोठरी छोड़ी है। तुम उसे इतनी जल्दी कैसे भूल गए?
उसने बेलागी से कहा — मर गई ?
— हाँ, मर गई। जैसे सब मरते हैं, वैसे ही वो भी मर गई।
दुन्याशा ने अपनी छोटी उँगली पर थूक लगाकर अपनी पलक पर लगे पाउडर को पोंछा।
— कैसे मरी वो ?
— जैसे सब मरते हैं। कौन जाने, उसको क्या हुआ था ! मुझे तो बस, कल चाय की गुमटी पर पता लगा। कोई कह रहा था — सुना है, कात्या मर गई।
— क्या वो तुम्हारी दोस्त थी ?
— बिलकुल थी। यह भी कोई पूछने की बात है !
दुन्याशा उसकी तरफ़ ऐसे देखने लगी मानो कह रही हो, तुम कितने मूढ़ और नासमझ हो। उसके पास कहने को और कुछ नहीं था। इसलिए वह प्यार से उसकी तरफ़ ताकने लगी।
और दिन शुरू हो गया।
दो
इन दिनों सरदी इतने कड़ाके की पड़ रही थी कि स्कूलों में बच्चों की छुट्टी कर दी गई और घुड़दौड़ के मैदान में घोड़ों की रेस भी कुछ दिनों के लिए बन्द कर दी गई। दरअसल ऐसी सरदी में घोड़ों को ठण्ड लग जाने का डर रहता है। जब नतालिया अपने छह दिन के नवजात शिशु को गोदी में लिए अस्पताल से बाहर आई तो एक पल के लिए तो वह यह देखकर ख़ुश हो गई कि उस दिन बेहद सरदी की वजह से शाम के धुँधलके में नदी के किनारे वाले पुश्ते पर कोई नहीं था और अब उसको किसी जान-पहचानवाले के अचानक टकरा जाने का डर भी नहीं था। पहले वह सोच रही थी कि जैसे ही अपने बच्चे के साथ वह अस्पताल की दहलीज़ पार करेगी, शोर-गुल मचाते और सीटी बजाते हुए लोगों की भीड़ उसका स्वागत करेगी। इस भीड़ में शामिल होगा उसका लकवाग्रस्त बाप, कुछ परिचित छात्र, सेना के जवान और कुछ भद्र क़िस्म की महिलाएँ। वे सभी उसकी ओर इशारा करते हुए चिल्ला-चिल्ला कर कहेंगे — यही है वो लड़की, जो सिर्फ़ छठी तक पढ़ी है। भले घरों के होशियार लड़कों से इसकी दोस्ती थी। पहले यह लड़की भद्दे शब्द सुनकर शर्म से लाल हो जाया करती थी, पर अब केवल छह दिन पहले इसने ख़ैराती अस्पताल में दूसरी छिनालों के साथ बच्चे को जना है।
मगर रास्ता एकदम ख़ाली पड़ा था। उस समय वहाँ तेज़ बर्फ़ीली हवा चल रही थी। पाले की वजह से बर्फ़ के फ़ाहे छोटी-छोटी कंकड़ियों में बदल गए थे और तेज़ हवा से सड़क पर पड़ी ये मटमैली कंकड़ियाँ छींटों की तरह ऊपर उछल रही थीं। रास्ते में आनेवाली हर ज़िन्दा और मुर्दा चीज़ को यह बर्फ़ीली आँधी अपने आग़ोश में ले लेती थी। इस बेहद ठण्डे माहौल में नतालिया ख़ुद को भी बर्फ़-सा ठण्डा और जीवन से कटा हुआ महसूस कर रही थी। इस वक़्त उसने वही छोटा-सा स्वेटर पहन रखा था, जो वह अक्सर स्केटिंग के लिए जाते हुए पहना करती थी। जब उसे दर्द शुरू हुए तो अस्पताल जाते समय उसने जल्दबाज़ी में वही स्वेटर पहन लिया था।
पाला इतना भयानक था और हवा इतनी ठण्डी कि ठण्ड ने उसे भी अपने आग़ोश में जकड़ लिया तो वह बेहद घबरा गई। उसे लगने लगा कि दुनिया एक असीम बर्फ़ीला रेगिस्तान है, जहाँ न तो जीवन है, न रोशनी और न ही किसी तरह की गरमी। उसकी आँखों से दो गरम आँसू छलक पड़े और वे तुरन्त ही उसकी पलकों के कोरों पर जम गए। सर झुकाकर उसने उन आँसुओं को अपने एक हाथ में पकड़ी गठरी से पोंछ लिया, फिर हिम्मत जुटाकर वह तेज़ क़दमों से आगे चल दी। इस वक़्त उसके दिल में बच्चे के लिए ज़रा भी प्यार नहीं था। उसे लग रहा था कि दुनिया में किसी को भी उसकी और उसके बच्चे की ज़रूरत नहीं है। लेकिन उसका हौसला फिर भी टूटा नहीं था। और वह अपने दिमाग़ में एक पते को बार-बार दोहरा रही थी :
— निमचीनफ़ स्ट्रीट, कोने से दूसरा मकान … निमचीनफ़ स्ट्रीट, कोने से दूसरा मकान ।
अस्पताल में बिस्तर पर लेटे हुए बच्चे को दूध पिलाते-पिलाते पूरे छह दिन उसने इस पते को कई बार दोहराया था। यह पता उसकी एक दूध-बहन का था। उससे नतालिया का ख़ून का तो कोई रिश्ता नहीं था, लेकिन दोनों को एक ही माँ ने अपना दूध पिलाकर पाला था। कात्या नाम की वह लड़की एक वेश्या थी। नतालिया जानती थी कि उसे और उसके बच्चे को सिर्फ़ उसी के पास पनाह मिल सकती है। कोई एक साल पहले, जब उसकी ज़िन्दगी हँसते-गाते गुज़र रही थी, तब कात्या के बीमार पड़ने पर वह उससे मिलने जाती थी और उसे मदद के तौर पर कुछ पैसे देकर आती थी। आज जब वह ख़ुद मुसीबत में है तो कात्या ही अकेली ऐसी इनसान थी, जिससे उसे मदद माँगते हुए कोई शरम महसूस नहीं हो रही थी। उसने मन ही मन फिर से उसका पता दोहराया —
— निमचीनफ़ स्ट्रीट, कोने से दूसरा मकान … निमचीनफ़ स्ट्रीट, कोने से दूसरा मकान ।
आगे एक पुल था जिसपर चढ़कर उसे पार करना ज़रूरी था। हवा लगातार उसे अपने घूँसे मार रही थी। जब वह पुल पर पहुँची तो शीत लहर ने उसकी छाती पर भयानक चोट की और अपने मज़बूत पंजे उसके ठिठुरते हुए चेहरे पर गड़ा दिए। मुक़ाबले की इस बाज़ी में हारकर हवा शोर मचाते हुए बार-बार पुल से नीचे नदी पर कूद जाती और फिर जमी हुई नदी की बर्फ़ीली सतह पर एक चक्कर लगाकर फिर ऊपर उड़ आती और अपने फड़कते सर्द पंखों को फैलाकर नतालिया का रास्ता रोककर खड़ी हो जाती। आख़िर थककर नतालिया रुक गई और पस्त-सी पुल के जंगले पर टिक गई। उसने देखा कि नीचे नदी के एक छोटे-से हिस्से पर पानी अभी तक नहीं जमा है। उसे लगा उस गहरे पानी से एक काली-सी आँख उसे घूर रही है। नदी को घूरते देखकर उसके मन में डर पैदा हो गया। लेकिन वह दिलेरी के साथ आगे बढ़ी और मन ही मन कात्या के पते को फिर से दोहराने लगी —
— निमचीनफ़ स्ट्रीट, कोने से दूसरा मकान … निमचीनफ़ स्ट्रीट, कोने से दूसरा मकान ।
तीन
उधर ख़ीझनिकफ़ कपड़े बदलकर दोबारा बिस्तर में घुस गया था और उसने अपना गरम कोट अपने बदन पर डाल लिया था। उसके पास गर्म कपड़ों में से बस, यह कोट ही बचा था और उसकी खोली में इतनी ज़्यादा ठण्ड थी कि दीवारों के कोनों में बर्फ़ की हलकी परत जम गई थी। लेकिन वह कोट के समूर में नाक-मुँह घुसाकर गहरी-गहरी सांस ले रहा था, जिससे उसको गरमाहट और सुकून मिल रहा था। सारा दिन पड़े-पड़े वह ख़ुद से झूठ बोलता रहा कि कल वह काम की तलाश में ज़रूर जाएगा और कोई न कोई काम ढूँढ़ ही लेगा।
लेकिन फ़िलहाल वह आलस में पलंग तोड़ रहा था और कुछ सोचना तक नहीं चाहता था। बस, बाहर से आती किसी तेज़ आवाज़ या दरवाज़े की धड़ाम से वह काँप जाता था। अचानक बाहर किसी ने दरवाज़ा खटखटाया। ऐसा लगा जैसे किसी ने डरते-डरते जल्दबाज़ी में हथेली के पिछले भाग से तहख़ाने के मुख्य दरवाज़े पर दस्तक दी हो। उसका कमरा तहख़ाने के मुख्य दरवाज़े के सबसे नज़दीक था, इसलिए ध्यान से सुनने पर उसे इस बात की भनक लग जाती थी कि बाहर क्या हो रहा है। उसे सुनाई दिया कि यह दस्तक सुनकर चाल की मालकिन मत्र्योना ने तहख़ाने का दरवाज़ा खोला। कोई तहख़ाने के अन्दर आया और दरवाज़ा फिर से बंद हो गया। उसके बाद कुछ देर के लिए ख़ामोशी छा गई। उसने अपने कान खड़े कर लिए और वह अपने कमरे में पड़े-पड़े आगन्तुक और मत्र्योना के बीच होनेवाली बातचीत का इन्तज़ार करने लगा। मत्र्योना ने बड़े ग़ैर-दोस्ताना अन्दाज़ में पूछा —
— किससे मिलना है ?
तब एक धीमी-सी औरताना आवाज़ ने घबराकर कहा — जी, मुझे कात्या निचायेवा से मिलना है। वो यहीं रहती है न ?
— यहीं रहती थी। तुम्हें उससे क्या काम है ?
— जी, मुझे उससे बहुत ज़रूरी काम है। क्या वो घर पर नहीं है ?
— कात्या मर चुकी है। उसकी हाल ही में मौत हो गई। वो अस्पताल में भर्ती थी।
फिर एक लम्बी ख़ामोशी छा गई। इतनी लम्बी कि ख़ीझनिकफ़ की गरदन में दर्द होने लगा, क्योंकि जब तक वे दोनों औरतें चुप थीं, वह उस ओर से अपने कान हटाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। तभी उस अजनबी औरत ने धीमे से कहा —
— जी, तो मैं चलती हूँ ।
पर अगले ही पल मत्र्योना ने उससे पूछा :
– यह तुम्हारे हाथ में क्या है ? क्या कात्या के लिए कुछ लाई थीं ?
तब ख़ीझनिकफ़ को लगा कि जैसे ज़मीन पर कुछ गिरा हो। यह आवाज़ सुनकर वह समझा कि कोई घुटनों के बल ज़मीन पर गिरा है। वह अजनबी लड़की सिसकते हुए बोली —
— आप ही इसे ले लीजिए ! भगवान के लिए, ले लीजिए ! और मैं … मैं चली जाऊँगी।
— अरे, यह क्या है ?
फिर से लम्बी ख़ामोशी छा गई और देर तक रह-रह कर रोने की आवाज़ आती रही। इस रुदन में रोनेवाली की गहरी थकान और निराशा महसूस हो रही थी। ऐसा लग रहा था कि जैसे उसकी उम्मीद की आख़िरी किरण भी टूट गई हो।
— अरे, यह तो बच्चा है। तुमने इसे इतनी सख़्ती से क्यों लपेट रखा है। इसका दम घुट जाता तो ?! — बड़ी रुखाई से गुस्से में मत्र्योना चिल्लाई। फिर आगे बोली —
— कैसी फूहड़ औरत है ! बच्चा तो जन दिया लेकिन उसकी देखभाल कैसे करते हैं, यह आता नहीं। कौन भला बच्चे को इस कदर कसकर लपेटता है ?! ख़ैर, आओ, अन्दर आओ मेरे साथ। अरे, वहीं ठिठकी क्यों खड़ी हो ? मैं कह तो रही हूँ, चलो, भीतर चलो !
फिर दरवाज़े के पास सन्नाटा छा गया। ख़ीझनिकफ़ ने कुछ और देर तक अपने कान खड़े रखे, फिर अपना सर कोट में घुसा लिया। वह ख़ुश था कि उसे उठना नहीं पड़ा था। दरवाज़े के पास क्या घटा था, उसने यह जानने की कोशिश भी नहीं की। थोड़ी देर में उसे लगा कि रात होने वाली है।
वह अपने जीवन के बारे में सोच रहा था और खीझ रहा था कि यह ज़िन्दगी भी कोई ज़िन्दगी है। दिन-रात ख़ुद को घिसते रहो तब दो जून की रोटी मिल पाती है। यह सब सोचकर वह बेचैन हो गया था। उसकी बीती ज़िन्दगी ग़लाज़त, सड़ाँध, गन्दगी, कंगाली और ख़ौफ़ से भरी थी। और आनेवाला वक़्त भी इससे बेहतर दिखाई नहीं दे रहा था। वह गरम कोट के नीचे लेटा था, फिर भी ठण्ड से सिकुड़ता जा रहा था। तभी दुन्याशा उसकी खोली में घुस आई। आज वह लाल कमीज़ पहने हुए थी और कुछ सुरूर में थी। उसकी पोशाक से ऐसा लग रहा था कि वह बाहर जाने के लिए तैयार होकर आई है। अन्दर आकर वह धम से पलंग पर बैठ गई और ताली बजाते हुए बोली —
— एक बढ़िया ख़बर लाई हूँ ! — वह ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगी। — अब हमारे साथ एक बच्चा भी रहेगा। वह इतना छोटा-सा है, एकदम नन्हा-सा, नन्हा-मुन्ना। लेकिन चिल्लाता किसी हवलदार की तरह है, कसम से, पूरा हवलदार है वो !
वह खुशी से फूली नहीं समा रही थी। बोलते-बोलते उसने प्यार से ख़ीझनिकफ़ की नाक पर हल्की-सी थपकी दे दी और फिर बोली —
— चलो न बच्चे को देखने, नहीं तो अकेले तुम ही ऐसे रह जाओगे, जो उससे नहीं मिला है। सब वहाँ पहुँच चुके हैं। मत्र्योना उसे नहलाने की तैयारी कर रही है। पानी गरम करने के लिए उसने चूल्हे पर पतीला चढ़ा दिया है। अब्राम मत्र्योना की मदद कर रहा है। बड़ा मज़ा आ रहा है वहाँ। और बच्चा उआँ-उआँ कर रहा है … ।
ख़ीझनिकफ़ से यह सब कहते हुए दुन्याशा ख़ुद भी बच्चा बन गई थी। बच्चे जैसा चेहरा बनाने की कोशिश करते हुए वह ख़ीझनिकफ़ के कान के पास मुँह लाकर उसी की तरह चिल्लाने लगी —
— उआँ-उआँ … ! अरे, क़सम से, एकदम हवलदार है ! चलो, उठो न। क्या आलसियों की तरह पड़े हुए हो।
ख़ीझनिकफ़ को बच्चा देखने की कोई उत्सुकता नहीं थी। उसे ठण्ड लग रही थी। और वह कोट से बाहर निकलना भी नहीं चाहता था। दुन्याशा ने थोड़ा नाराज़गी से फिर कहा —
— नहीं चलोगे, तो ठीक है, भाड़ में जाओ तुम और तुम्हारा आलस। इसी आलस में पड़े-पड़े मर जाओगे और फिर सड़ जाओगे।
ख़ीझनिकफ़ को बुरा-भला कहकर बच्चे को देखने की उत्सुकता में वह ख़ुशी से उछलते हुए उसकी खोली से चली गई। कोई आधे घण्टे बाद अपने कमज़ोर पैरों पर लड़खड़ाते हुए और दरवाज़े की चौखट का सहारा लेते हुए ख़ीझनिकफ़ अपनी खोली के सामने ही बनी सबकी मिली-जुली रसोई तक पहुँचा। झिझकते हुए उसने रसोई का दरवाज़ा थोड़ा-सा खोला और उसकी झिर्री में से अन्दर झाँका। अन्दर से वहाँ जमा औरतें चीख़ने लगीं —
— अरे, कौन है यह, बेवक़ूफ़ ! जल्दी से बन्द करो। देखते नहीं, बच्चे को नहला रहे हैं, सरदी लग जाएगी उसको !
ख़ीझनिकफ़ ने तुरन्त रसोई में घुसकर दरवाज़े को खींचकर बन्द कर दिया और अपना दायाँ हाथ माथे की तरफ़ ले गया। वह बच्चे की तरफ़ देख रहा था, मानो उससे माफ़ी माँग रहा हो। पर जब किसी ने भी ने उसकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया तो उसने चैन की सांस ली।
रसोईघर छोटा-सा था। वहाँ जल रहे चूल्हे, पतीले से उठ रही भाप और वहाँ मौजूद लोगों की भीड़ की वजह से रसोई में काफ़ी गरमी थी। मत्र्योना अपनी भौहें सिकोड़े एक तसले में बच्चे को नहला रही थी और हाथ तिरछा करके पतीले से पानी भरकर बच्चे पर डालते हुए लाड़ से बोलती जा रही थी :
– मेरे मुन्ने, नहा ले ! नहा-धोके राजा बाबू बन जा ! लिल्ली … लिल्ली … लिल्ली …लिल्ली …! देख ज़रा वो आई बिल्ली ! ठण्ड बहुत है चिल्ली-चिल्ली …!
बच्चा आराम से नहा रहा था, शायद इसलिए कि रसोई में रोशनी थी और बहुत-से लोग थे, या शायद इसलिए कि उसको गरम पानी की छुअन अच्छी लग रही थी। वह कभी-कभी अपना लाल चेहरा ऐसे सिकोड़ लेता मानो उसे छींक आनेवाली हो। मत्र्योना के पीछे से दुन्याशा तसले की ओर देख रही थी। मौक़ा मिलते ही उसने अपनी तीन उँगलियों को पानी में डालकर उन्हें बच्चे पर छिड़क दिया, मानो बच्चे का बपतिस्मा कर रही हो। मत्र्योना को दुन्याशा की यह दखलअंदाज़ी बिलकुल पसन्द नहीं आई। वह उसपर चीख़ पड़ी —
— चलो, हटो यहाँ से। तुम कहाँ घुसी आ रही हो ? देखती नहीं हो, मुन्ना अभी ज़रा-सा है। तुम्हें इतने छोटे बच्चे को नहलाना आता है ?
— अरे भई, तंग मत करो — अब्राम ने कहा — मुन्ना अभी बहुत छोटा है। बहुत नाज़ुक है। अच्छी तरह से उसकी देखभाल करनी होगी।
ख़ीझनिकफ़ रसोई की मेज़ पर एक कोने में बैठ गया था और बड़े प्यार से मुन्ने के नन्हे गुलाबी हाथों को निहार रहा था। अचानक मुन्ना अपनी उँगलियाँ हिलाने लगा। यह देखकर दुन्याशा ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगी और बोली —
— बिलकुल हवलदार है, कसम से !
अब्राम ने दुन्याशा को चिढ़ाते हुए पूछा —
— अच्छा ? तो इसका मतलब यह है कि तुमने किसी हवलदार को भी नहाते हुए देखा है ?
यह सुनकर सब लोग हँसने लगे और ख़ीझनिकफ़ लाड़ से मुस्कुरा दिया। अगले ही पल, उसने वहाँ जमा औरतों से डरकर मुस्कुराना बन्द कर दिया और ग़ौर से बच्चे की माँ की तरफ़ देखा। वह थकी-हारी दीवार से अपना सर टिकाकर कुरसी पर बैठी थी। उसकी काली आँखों में बड़ा सुकून नज़र आ रहा था। उसके बेटे को पनाह मिल चुकी थी। उसके पीले पड़ चुके चेहरे पर एक धूपीली मुस्कान खेल रही थी। यह देखकर ख़ीझनिकफ़ ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा।
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अल्पना दाश
भाषा एवं पाठ सम्पादन : अनिल जनविजय
मूल रूसी भाषा में इस कहानी का नाम है —’फ़ पदवाले’ (Леонид Андреев — В подвале)