तहजीब का तमाशा / भाग 3 / पंकज प्रसून
ये खानदानी डॉक्टर
हमारे दादाजी बताया करते हैं कि पुराने लखनऊ में एक डाक्टर साब हुआ करते थे। जो लिखते थे आयुर्वेदाचार्य पर तकनीक ऐसी की एलोपैथ वाला भी गश खाकर गिर जाये। निकान के श्वेत श्याम कैमरे से सीने की फोटो खींचते थे और उसकी निगेटिव मरीज को दिखाते थे। ऐसा होता था उनका हार्ट एक्स-रे। मरीज के पास गर इस अदभुत एक्स रे के दाम चुकाने के पैसे नहीं होते थे वो गेहूं चावल इत्यादि से ही काम चला लेते थे। डा। साब तो नहीं रहे पर उनका डाक्टरी वाला जीन भावी पीढी में स्थानांतरित हो गया। और अब उनकी तीसरी पीढ़ी उनके इस धंधे को आगे बढाने को प्रतिबद्ध है। इसी पीढ़ी कर्णधार से मैंने उनकी डिग्री पूछी तो बोले-“खानदानी हूँ हमें डिग्री की क्या जरूरत। हम अनुभव से काम चलाते हैं। ”
“आपका खानदान कितना बड़ा है। ?”
“देशव्यापी नेटवर्क है हमारा। शहर को ही ले लो। जितने रेन बसेरे नहीं, उससे कहीं ज्यादा तो हमारे खानदानी डाक्टरों के तम्बू लगे हुए हैं। यूँ समझिये ये हमारे ब्रांच आफिस हैं। मरीज पहले यहीं आता है। बाद में बड़े वाले डाक्टर साब को रिफर किया जाता है। ”
“पर ये तम्बू स्थायी तो होते नहीं। ”
“देखिये, हमारे डाक्टर एलोपैथ वाले तो हैं नहीं जो गावों में प्रेक्टिस से घबरा जाएँ। हमारे डाक्टर खानाबदोश हैं, जहाँ मरीजों का घनत्व ज्यादा होता है, वहीँ जाकर गाड़ देते हैं तम्बू। और बीमारी को ख़त्म करके ही दम लेते हैं। ”
“पर आपके पास इतने मरीज आते कहाँ से हैं ?”
“हमारी धुआंधार विज्ञापन पालिसी की वजह से। हम शहर की आबो हवा को बाधित नहीं करते। इसलिए होर्डिंग नहीं लगवाते। शहर के दूर सड़क के किनारे बने घरों की दीवारों को रंगते हैं और उन पर विज्ञापन लिखवाते हैं। ”
“मकान मालिक कुछ बोलता नहीं”।
“हम उसको सुविधा शुल्क देते हैं हर साल दीवार की पुताई मुफ्त अलग से। वो भला क्या बोलेगा। ”
मैं आश्चर्य चकित था। तभी वह खानदानी डाक्टर यह बोलते हुए निकल गया-“देखिये भाई साब मेरा समय बर्बाद मत कीजिये, मेडिकल कालेज के जूनियर डाक्टर बारह घंटे की हड़ताल पर जा चुके हैं और मेरे धंधे के पीक आवर शुरू होने वाले हैं। ”
शहर के नामचीन डाक्टरों से मिलने के लिए आपको प्री अप्वाइंटमेंट लेना पड़ता है। लेकिन शहर में में कुछ ऐसे सड़कीले डॉक्टर हैं जो सर्वसुलभ हैं। ये डिग्रीविहीन अनुभवशील डाक्टर आपको बस स्टेशन, रेलवे स्टेशन और हाई कोर्ट के इर्द-गिर्द मिल जायेंगे। कोई नेत्र रोग विशेषज्ञ टेप रिकार्डर में कैसेट बजा कर ममीरे का सुरमा बेचते हुए मिलेगा तो कोइ उदर रोग विशेषज्ञ 10-12 रुपये में बालम खीरे का चूरन। सुरमे और बालम खीरे का प्रभाव हो न हो पर इनकी वाणी का प्रभाव और आत्मविश्वास इतना प्रबल होता कि है कि लोगबाग़ खरीद ही लेते हैं।
शहर में कुछ ज़मीन और जड़ से जुड़े ऐसे डेंटिस्ट फुटपाथ पर दांत दिखाते हुए मिल जायेंगे जिनके बारे में सुन आपके दांत खट्टे हो जायेंगे और मुंह खुला का खुला रह जाएगा। इनके पास इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर एक दरी, एक छाता, पेड़ की छाँव, और कुछ औजार होते हैं। दाँतों के इन कारीगरों के पास हर साइज, हर वरायटी का दांत मौजूद रहता है। इस अदभुत डेंटिस्ट से दांत साफ़ करवाने और लगवाने लिए आपको रूट कैनाल थेरेपी की ज़रुरत नहीं।
पार्कों में कान रोग विशेषज्ञ मिल जायेंगे। हाथ में डिसेक्शन बॉक्स, सर पर टोपी नुमा मास्क पहने और कान में सीरेंजनुमा कुछ नुकीली चीज फंसाए हुए। ये विशेषज्ञ सिर्फ दस रुपये प्रति कान के हिसाब से आपके दोनों कानों का मैल महज दो मिनट में साफ़ कर देते हैं। आप कितने भी साफ़ कान वाले क्यों न हो, बन्दा मैल निकाल के दिखा ही देता है। ईएनटी वाले इनसे प्रेरणा ले न लें पर नगर निगम के सफाई कर्मचारियों को ऐसे सुधी डाक्टरों से प्रेरणा अवश्य लेनी चाहिए।
डाक्टरों के इसी फुटपाथी परंपरा के अंतर्गत कुछ नेफ्रोलाजिस्ट भी आते हैं जो किडनी की पथरी को सिर्फ सात दिनों में जड़ से ख़त्म कर देने का दावा करते हैं, कुछ कार्डियोलाजिस्ट आते हैं जो किसी लकड़ी के तेल से अर्थराइटिस को उड़न छू करने का नुस्खा बताते हैं। इनमे सबसे ज्यादा तरक्की सेक्सोलाजिस्टों ने की है जो पेड़ की छाँव से तम्बुओं में आ गए हैं। ये नाड़ी देखकर पुरुष की कमजोरी की पहचान कर लेते हैं। ये पुश्तैनी डाक्टर न तो एलोपैथी अपनाते हैं और न ही होमियोपैथी, इनका सारा धंधा सिम्पैथी पर टिका हुआ है।
जहाँ झोला छाप डाक्टरों पर लगाम और तम्बूछाप प्रेक्टिस करें खुले आम, लखनऊ तुझे सलाम।
ये टैक्सी वाले
तहजीब की नगरी में टैक्सी का सफ़र आसन नहीं है। कहने को तो जनपथ टैक्सी स्टैंड है पर टैक्सी स्टैंडिंग अवस्था में मिल जाए तो सौभाग्य आपका। टैक्सी तो हमेशा गतिमान अवस्था में रहती है और यदि आप चलती टैक्सी में चढ़ने-उतने का हुनर नहीं जानते तो आप बस इस मंजर के मात्र निगहबान ही बन पायेंगे। यह बिलकुल ऐसा ही दृश्य होता है जैसे किसी चलते हुए टैंकर पर दुश्मन ने आक्रमण कर दिया हो। इसके लिए आपको शारीरिक और मानसिक दोनों रूपों से स्वस्थ्य होना ज़रूरी है। डार्विन के सिद्धांत “सर्वाइवल ऑफ़ फिटेस्ट”का यह चलता फिरता उदाहरण है।
मैं काफी जद्दोजहद के बाद आखिरकार टैक्सी में घुस ही गया। एक सीट पर चार सवारियां एक दूसरे से रगड़ खा रही थीं। ऐसे में यदि आपका क्षेत्रफल ज्यादा है तो दो सवारियों का किराया चुकाना पड़ सकता है।, मैंने उससे पूछा कि तीन की सीट है तो आप चार सवारियां क्यों बिठाते है। ” वह बोला- “लगता है आप पटना नहीं गए साब, वहां पर तो दो सीटों के बीच में एक अतिरिक्त सीट लगा देते हैं। यहाँ तो फिर भी गनीमत है। टैक्सी में सीट पाना तो लाटरी लग जाने जैसा होता है। अगर हम एक सीट पर पांच बिठाएं तो भी लोग बैठेंगे। ”ऐसा कहकर उसने एडवांस में किराया वसूलना शुरू किया। यह उनका अपना प्री पेड सिस्टम है। और अगर आपके पास छुट्टा पैसे नहीं है तो वह आपको वहीँ पर छोड़ देगा। और किसी दूसरी सवारी की लाटरी लग जायेगी। और आपको फिर नए सिरे से जंग लडनी पड़ सकती है, बचे खुचे उत्साह के साथ।
टैक्सी में यदि आपका कोई आवश्यक फोन आ गया तो आपको अपनी संपूर्ण मौखिक शक्ति झोंक देनी पड़ेगी क्योंकि आपका शक्ति परीक्षण टैक्सी में बज रहे कान फोडू संगीत से हो रहा होता है। भोजपुरी, अवधी, ब्रज पाश्चात्य और फ़िल्मी संगीत के बोलों से आप ड्राइवर की बोली का अनुमान लगा सकते हैं। यदि आपने अनुरोध किया तो वह वाल्यूम थोडा सा कम कर लेगा और यदि आपने विरोध किया तो आपको सड़क का रास्ता दिखा देगा, अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम का यह अदभुत उदाहरण है।
सवारियों का कोई संगठन नहीं है पर इन टैक्सी चालकों का संगठन बहुत मजबूत है, मडियांव से कैसरबाग जाने वाली टैक्सी अचानक बिना कारण बताये मोहिबुल्लापुर में रुक जाती है, चालक सबके पैसे वापस कर देता है, देखते ही देखते वहां पर टैक्सियों का मेला लग जाता है, कोई भी आगे नहीं जा रही थी। तभी मालूम चला कि पुरनिया पर आरटीओ चेकिंग लगी है। सवारियां रिक्शे वालों के मुंह मांगे किराए पर गंतव्य की ओर जाने के लिए बाध्य थीं।
सड़क पर वाटर हार्वेस्टिंग
जीवन में सतर्कता कितनी महत्वपूर्ण होती है, यह हम लखनऊ की सड़कों पर ड्राइविंग करके सीख सकते हैं। सड़क के गड्ढे आपकी कंसंट्रेशन में वृद्धि करते हैं। साथ ही आपको आपदा प्रबंधन करना भी सिखा देते हैं। कहा जाता है क्रिकेट अनिश्चिताओं का खेल होता है, पर यहाँ की सड़कों पर गाडी चलाकर ऐसा लग जाएगा कि यहाँ पर ड्राइविंग करना भी अनिश्चिताओं की ही खेल है। ऑफिस जाने और आने के बीच सड़क का नक्शा ही बदल जाता है। सुबह जहाँ पर सपाट चिकनी सड़क दिख रही होती है शाम ढले वहां पर गड्ढा हो जाता है। इन गड्ढों का अपना एक दर्शन है। इस दर्शन को स्पष्ट करते हुए एक इंजीनियर ने मुझे बताया कि सवाल यह नहीं की इन गड्ढों की वजह से कितने लोग गिरते हैं सवाल यह है कि इन गड्ढों की वजह से जल स्तर कितना ऊपर उठा? जल जीवन की मूलभूत आवश्यकता है। सड़क पर गड्ढे होंगे, गड्ढों में पानी भरेगा। और जब गड्ढों में पानी लगातार भरता रहेगा तो तो शहर का जल स्तर ऊपर उठेगा। इस तरह हम सड़कों पर वाटर हार्वेस्टिंग का पुनीत कार्य कर रहे हैं।
शहर में कई सारे मार्ग हैं। इन मार्गों की अपनी हैसियत है। अपना सौन्दर्य है। डनडहिया मार्ग की बराबरी वीआईपी मार्ग नहीं कर सकता। लाटूश रोड, रिंग रोड के समान नहीं हो सकती। कुर्सी रोड, महात्मा गांधी मार्ग एक तरह नहीं हो सकते। कुछ सड़के गलियों की तरह हैं, कुछ गलियाँ सड़कों की तरह हैं। कुछ तो रहस्यमयी सडकें हैं। साइकिल जाने की जगह नहीं, स्कार्पियो घुस जाती हैं। मैं बाइक चलाता हुआ नगर निगम ट्रक के पीछे लिखी यह पंक्तियाँ देखते देखते पूरा नगर पार कर गया कि जगह मिलने पर पास दिया जाएगा। पास लेने की इच्छा चारबाग से प्रारम्भ होकर मडियांव में जाकर पूरी हुयी। मैं रास्ते भर यही सोचता रहा कि सड़क संकरी है या ट्रक चौड़ा है। तमाम सारी विविधताएं हैं यहाँ की सड़कों की। पर इन विविधताओं के बीच गड्ढों के मामले में सड़कों में एकता कायम है। मैंने महात्मा गांधी मार्ग बनवाने वाले से पूछा-, ’यह कैसा एमजी मार्ग है जहाँ सीवर खुला है, पानी बह रहा है, सड़क खुदी है उस पर रोड़े ही रोड़े हैं। ’वह बोले ‘आपका कहना सही है, पर
गांधी के पथ पर चलना आसान भी तो नहीं है।