ताऊ श्रवण / विक्रम शेखावत
(एक इंसान की सच्ची कहानी है जिसका सम्पूर्ण जीवन सामाजिक कु-प्रथाओं की भेंट चढ़ गया )
गाँव के मुख्य चौक के किनारे बने चबूतरे पर हम अक्सर ताऊ श्रवण को पसरे हुए पाते थे। वो या तो कुछ पढ़ रहे होते या रेडियो में फ़िल्मी गाने सुन रहे होते। गाँव के बच्चे उन्हें सिर्फ "ताऊ" का संबोधन करते थे क्योंकि हरियाणा और सीमावर्ती इलाके राजस्थान ( जहाँ मेरा गाँव है) में "जी" या "आप" लगाना व्यंग्य की श्रेणी में आता था। ताऊ श्रवण शारीरिक रूप से काफी हट्टे कट्टे और बलिष्ठ काया के स्वामी थे।उन्होंने अपनी उम्र को स्थिर मान लिया था। वो अपने आप को आज भी युवाओ का मुख्य प्रतिद्वन्द्वी मानते थे, हालाँकि वो 65 बसन्त गुजार चुके थे।
अपने हमउम्र बूढों लोगों से ताऊ को सबसे ज्यादा चिड़ होती थी, वो ताऊ को सठियाया हुआ समझते थे,और ताऊ उनके सम्पूर्ण जीवन को ही निरर्थक समझते थे। इसका एक खास कारण जो मुझे लगता था वो था, ताऊ का थोडा बहुत पढ़ा लिखा होना और अन्य का अंगूठा छाप होना, बाकि सब ताश खेलते रहते मगर ताऊ को ताशों के खेल से बहुत नफरत थी।
किताबों से ताऊ ने काफी ज्ञान अर्जित कर रखा था जिसको वो समय समय पर बखान करने से नहीं चुकते थे। उनके बखान से अंगूठा छाप ग्रामीणों के लिए तो भैंस के आगे बीन बजाने वाली स्थिति होती थी। ताऊ श्रवण को किताबें पढने का बहुत शौक था, मगर धार्मिक किताबों से उनका छत्तीस का आंकड़ा था I उनकी पसंदीदा किताबों में कादम्बनी, गृहशोभा, रोमांटिक उपन्यास होते थे मगर चंदामामा और बालहंस जैसी किताबों से भी परहेज नहीं करते थे।
गाँव का कोई न कोई युवा शाम को शहर से लौटते वक़्त पढ़ा हुआ अखबार ताऊ के हाथ में ऐसे थमा देता जैसे ये उन्ही के लिए ही ख़रीदा हो, और बदले में ताऊ उसको अपनी कोई पढ़ी हुई किताब देना नही भूलते ताकि ये लेन देन का सिलसिला निरंतर चलता रहे। वो अपने आप में एक छोटी लाईब्रेरी थे, अपनी किताबें एक दुसरे को देते रहते मगर बदले में उनसे किताब लेना कतई नहीं भूलते।
उनके दो ही शौक थे, किताबें और रेडियों। उम्र के हिसाब से उनको चलने फिरने में मुश्किल तो होती थी, मगर वो किताब के लिए गाँव के हर युवा के घर तक पहुँच जाते। अक्सर चौक में लेटे रहने वाले इस प्राणी को अकस्मात अपने घर के सामने देखकर घर की महिलाये संकोचवश इधर उधर छुप जाती। उन दिनों गाँव में औरतें अक्सर बड़े बूढों के सामने नहीं आती थी, आज तो हालात काफी बदल चुके हैं। अपने मोह्हले में ताऊ को आया देख मोह्हले के बच्चे कोतुहलवश पीछे लग जाते, और ताऊ मस्त हाथी की तरह लहलहाते हुये चले जाते। बच्चो का हुजूम कुछ दूर पीछे पीछे चलता और बाद में लौट आता मानो किसी सर्कस से लौटे हों।
ताऊ आंशिक रूप से कुवारें थे। सुना था उनके बड़े भाई के निधन के बाद उनकी भाभी को उनके पल्ले लगा (बांध) दिया था. ताऊ जिस जाति से सम्बन्ध रखते थे उसमे अक्सर परिवार के छोटे लड़के को कुंवारा रखने का रिवाज था ताकि कभी शादी शुदा के साथ कुछ अप्रिय घटना घट जाये तो उसकी विधवा को उसके नाम की चूडियाँ पहनाई जा सके। मगर ताऊ को सायद औपचारिक विवाह रास नहीं आया और वो अपना मलंग जीवन ही जीते रहे।
ताऊ का मकान हमारे स्कूल जाने के रास्ते में पड़ता था। शरारती बच्चे आते जाते वक़्त ताऊ पे एक सरसरी नजर डालते और उसके बाद उनके घर की दीवारों पे लटके अमरबेल के पोधे की कुछ बेलें तोड़ कर भाग जाते। ताऊ उनके पीछे पीछे गलियां देते हुए जाते और कुछ दूर तक उनको भगाकर वापिस आ जाते। बच्चे इस क्रिया को महीने में ३ य ४ बार दोहराते इसलिए ताऊ को उनकी हरकतों का पूर्वानुमान लगाने में खासी परेशानी होती थी।
गाँव में पढ़े लिखे बुजर्गों में एक मात्र ताऊ ही थे इसलिए हमारे स्कूल के प्रधानाचार्य १५ अगस्त या २६ जनवरी जैसे उत्सव में उन्ही को आमंत्रित करते थे। ताऊ जैसे इसी मौके की तलाश में रहते थे। वो वक़्त पर पहुंचकर मुख्य अतिथि वाली कुर्सी पर अपने भरी भरकम शारीर को रख देते और चश्मे को ऊपर निचे करके सामने पक्तियों में बैठे उन शरारती बच्चो को तलाशने लगते। बच्चे भी कम नहीं थे, वो एक दुसरे के पीछे ऐसे छुपकर बैठते जहाँ ताऊ की दिव्य द्रष्टि नहीं पहुँच पाती थी। जब ताऊ को अभिभाषण के लिए कहा जाता तो ताऊ अपना भाषण शुरू करते। वो बताते की कैसे अंग्रेजो ने हम पे सितम ढाए थे और कैसे हम लोगों ने आजादी के लिए संघर्ष किया। इसके साथ साथ वो समाज में फैली सामाजिक कुप्रथाओं की भी खुलकर धजियाँ उड़ाते रहते। वो क्रांतिकारियों के कारनामों की तारीफ करते मगर बीच बीच में उन बच्चो को भी कोसते जो उनकी बेल तोड़कर भाग जाते थे। उनकी इस बात पर छुपकर बैठे बच्चे एक दुसरे की तरफ देखकर मुस्कराते और उधर सभी अध्यापकगण तथा अन्य अतिथि भी मुस्कुराने में उनका साथ देते।
ताऊ से मेरी स्कूल के दिनों से ही अच्छी पटरी बैठती थी। वो मुझे बेटे और एक दोस्त की तरह मानते थे। मेरे और उनके बीच किताबों का लेन देन चलता रहता था में अक्सर समय बिताने के लिए उनके पास बैठ जाया करता था। में जितनी देर उनके पास बैठता था उस दरमियाँ अगर गाँव का कोई भी वृद्ध उधर से गुजरता तो ताऊ फुसफुसाकर उसके बारें में बुरा भला कहते और उसके दूर चले जाने के बाद मुझ से पूछते,"किसलिए पैदा हुए ये लोग? साले खा पी के सो जाते हैं, दुनिया में क्या हो रहा है कुछ पता है इनको?,धरती के बोझ " में मुस्करा के ताऊ का समर्थन करता।
ज्यादातर लोग उनके एकाकी और अक्खड़ स्वभाव के कारण उनको पसंद नहीं करते थे लेकिन वो भी अन्दर से एक आम इंसान की तरह ही थे। बस लोग उनको समझ नहीं पाए। एक बार किसी किताब में लिखी प्रेम कहानी के बारें में मेरे और ताऊ के बीच वार्तालाप चल रहा था। किताब की कहानी इतनी भावुक थी की ताऊ खुद बहुत भावुक हो गए और वो अपने जीवन का एक वाकया मुझे बताने लगे।
उन दिनों श्रवण अपनी युवा अवस्था में थे। किसी परिचित मारवाड़ी के साथ आसाम चले गए और वहां उसकी दुकान में काम करने लगे। मारवाड़ी ने श्रवण के लिए एक किराये का मकान खोज कर दिलवा दिया था। वो दिनभर दुकान में और शाम को अपने मकान में आकर सो जाते। मकान एक स्थानीय निवासी का था जिसमे मकान मालिक अपनी पत्नी तथा एक जवान बेटी बिनोदिनी के साथ रहता था। वो लोग ताऊ का खास ख्याल रखते थे, यहाँ तक की उनका खाना भी वही लोग बनाते थे। धीरे धीरे बिनोदिनी 25 वर्षीय श्रवण के प्रति आकर्षित होने लगी।
युवा दिलों को प्रेम करना सीखना नहीं पड़ता वो स्वत: ही सीख़ जाते हैं। गृह स्वामी और स्वामिनी को दोनों के परस्पर मिलने से कोई आपति नहीं थी। उन्होंने मन ही मन ताऊ को अपना दामाद मान लिया था। वक़्त बीतता गया और ताऊ अपनी दुनिया में बहुत ख़ुशी से जीवन बसर करने लगे। कहते हैं की किस्मत कब बदल जाये किसी को कुछ पता नहीं होता। श्रवण और बिनोदिनी की किस्मत ने भी एक करवट ली। एक साल बाद अचानक ताऊ को पता चला उनके बड़े भाई की एक हादसे में मौत हो गई। वो आनन फानन में वहां से आ गए। गाँव पहुंचकर स्वछंद जीवन जीने वाले श्रवण के पैरों में सामाजिक बेड़िया पहना दी गई। उनकी भाभी को उनके नाम की चूड़िया पहना दी गई। युवा इच्छाएं परिवार और समाज की भेंट चढ़ चुकी थी। किस्मत की एक करवट ने दो युवा दिलों की हसरतों को एक झटके में मसलकर रख दिया था। देखते देखते पाँच साल गुजर गए मगर श्रवण आज तक बिनोदिनी को नहीं भुला पाए थेl
एक दिन अचानक घरवालों को बिना बताये आसाम के लिए निकल गए। दो दिन बाद वहां पहुंचे तो पहले मारवाड़ी के पास गए। मारवाड़ी उनको देखते ही चौंक गया और उनका हाथ पकड़कर दुकान के अन्दर ले गया। " अरे !, तुम यहाँ क्यों आये हो? वो लोग तुम्हे मार डालेंगे ", मारवाड़ी ने डरते हुए कहा। बाद में वो श्रवण को अपने घर ले गया तथा उसके जाने के बाद से अब तक का सारा हाल बताया। वो लोग श्रवण के ऐसे चले जाने और फिर कई दिनों तक ना आने से बहुत नाराज हो गए तथा अपने परिचितों को लेकर अक्सर दुकान में आ धमकते थे।
उन लोगों के हाथों में खुखरीनुमा हथियार होता था जिसको ऊपर उठाकर वो अपनी स्थानीय भाषा में काट डालने की धमकी देते थे। दो सालों तक ये सिलसिला चलता रहा बाद में बिनोदिनी की शादी उन्ही के समाज के एक दबंग के साथ करदी। श्रवण थे तो युवा मगर पराये देश में ऐसे हालात ने उनको बहुत डरा दिया था और वो उसी दिन वहां से भागकर वापिस गाँव आ गए।
इतना कहकर ताऊ चुप हो गए। फिर ना जाने कब कहाँ से वक़्त की दरारों में फंसे कुछ आसूँ, ताऊ की आँखों से निकल किताब पे आ गिरे। एक अक्खड़ आज अबोध बच्चे सा सुबक कर रह गया था। आज चालीस सालों से दबे तूफान ने सिर उठाया तो मलंग ने फिर से उसे अपने अन्दर ही कुचल दिया।
आज से करीब दो साल पहले गाँव गया तो पता चला श्रवण ताऊ नहीं रहे। सुनकर बहुत दुःख हुआ। आज जब भी गाँव जाता हूँ, तो उस चौक में गाँव की पंचायत द्वारा छोड़ा गया सांड जुगाली करता हुआ मिलता है जो अक्सर गाँव के बूढों की तरफ फुंकारता रहता है। मुझे ना जाने क्यों उसको देखकर ताऊ की याद आ जाती है। ताऊ भी ऐसे ही मस्त मौला की तरह इसी चौक में जमे रहते थे। में ताऊ के जीवन की कहानी याद करके अक्सर अपने आप से कह देता हूँ की "कभी किसी को मुक्कमल जहाँ नहीं मिलता।।।कभी जमीं तो कभी आसमान नहीं मिलता"।
(मेरा ये स्मृति लेख ताऊ श्रवण को श्रधांजली है... अगले जन्म में भगवान उनको वो सब खुशियाँ दे जो उनको इस जन्म में मयस्सर नहीं हुई)