ताकि सनद रहे..... / राजेन्द्र यादव
Gadya Kosh से
|
- प्रेमचंद के हंस को निकालने की जिम्मेदारी लेकर उन्होंने साहित्य जगत के लिये बहुत बडा काम किया। यदि उन्होंने इसके अलावा कुछ भी न किया होता तो भी वह साहित्य जगत में अमर हो जाते ............
- नामवर सिंह बरिष्ठ आलोचक
- जितनी बडी संख्या में हंस ने युवा लेखको को खोजा और प्रकाशित किया इतनी किसी दूसरी पत्रिका में नहीं किया गया । यह राजेन्द्र यादव ही थे , जो बिना किसी स्वार्थ और पैरवी के युवा लेखकों केी रचनाऐं पूरे जतन से पढते थे और प्रकाशित भी करते थे । मेरे खयाल से तो पिछले 20-25 सालों मे किसी साहित्यिक पत्रिका के संपादकीय की भी इतनी चर्चा नहीं हुई जितनी कि राजेन्द्र यादव द्वारा हंस मे लिखे जाने वाले संपादकीय लेख की होती थी।
- अशोक बाजपेई वरिष्ठ कवि और लेखक
- उनके साथ विवादों का सिलसिला लगातार जुडा रहा । लोग उन्हें कहते रहे वह कुंठित है, ईष्यालु है, मगर मै 24 सालों से उन्हें जानती हूं और अपने निजी अनुभव के आधार पर पूरे विश्वास के साथ यह बात कह सकती हूं कि वह एक बडे दिल वाले और अच्छे इन्सान थे।
- मैत्रेयी पुष्पा वरिष्ठ लेखिका
- हिन्दी मे दलित साहित्य को आगे बढाने में राजेन्द्र यादव का बहुत बडा योगदान है। मेरी जानकारी में हिन्दी में दलित साहित्य पर पहली गोष्ठी उन्होंने 1990 के दशक में करायी थी। उसके माध्यम से लोग यह जान सके कि हिन्दी में दलित साहित्य की धारा विकसित हो रही है । इसकी बदौलत दलित साहित्य हिंदी में स्थापित धारा बन गया।
- मैनेजर पांडेय वरिष्ठ आलोचक
- कई ऐसी कथाऐं चल पडीं, जिनसे पता चलता है कि जैसे वे दमित कुंठाओं और अंधेरे कोनों को सुनहरा प्लेटफार्म बनाने की अभियांत्रिकी के हीरो हो गए थे। एक अंग्रेजी मुहावरा है, जिसे हिन्दी में उल्था किया जाय , तो लगभग मतलब निकलेगा- अपने गंदे कपडे बीच चौराहे पर धोना! इस मुहावरे को उन्होंने इस्तेमाल नहीं किया , लेकिन उनके साहस और तेज से चौधियाए लोगों ने यथावत् करना शुरू कर दिया। यह संभवतः विरेचन की प्रक्रिया रही होगी , जिससे वे लोग निर्मल हो गए।
- सम्भव है कि ज्योति कुमारी से संबंधित विवाद पर राजेन्द्र यादव जी ने कुछ प्रतिक्रिया व्यक्त की हो जो देर सबेर प्रकाशित होगी परन्तु उनके जीवित रहते प्रकाशित हुये हंस के अंतिम संपादकीय ‘तेरी मेरी उसकी बात’ में ज्योति कुमारी से संबंधित विवाद के लिये उन्होंने बस इतने ही शब्दों को सम्मिलित किया थाः-
............हंस के सितम्बर 2013 में मेरे संपादन में ज्योति कुमारी को अपमानित करना मेरी मंशा नहीं थी उसमें जो तथ्य दिये गये हैं (यथा मासिक राशि काम करने के लिये कम......कहानी का पारिश्रमिक , संघर्षशील...काम मे रिपोर्ट, टिप्पणी, समीक्षा....) उसके लिये मुझे खेद है। उनकी लिखी समीक्षा उनके मना करने के बावजूद छप गयी इसका भी मुझे अफसोस है।
- राजेन्द्र यादव
- संपादक हंस
- अक्टूबर 2013