ताजगी की तपन / पराग मांदले
रिक्शे से रामचंदर को सब्जियों का बोरा उतरवाते देखा तो कमली की बाँछें खिल गईं। उसने आसमान की ओर कृतज्ञता से देख कर हाथ जोड़े। उस एक पल में उसे क्या दिखा होगा राम जाने। दिन चढ़ आया था और आसमान में सूरज देवता ने हमेशा की तरह आग से भरा अपना कमंडल तिरछा करना शुरू कर दिया था। मगर उसका ध्यान सूरज देवता की तरफ था ही नहीं। वह तो रामजी का आभार मान रही थी, जिनके बारे में बचपन में ही उसकी दादी ने बताया था कि वे आसमान के पार रहते हैं और सबकी सुनते हैं।
बचपन से ही उसे दादी की बात का यकीन था। दादी ने उसे यह भी कहा हुआ था कि रामजी के पास दुनिया जहान के काम होते हैं इसलिए उन्हें कभी छोटी-मोटी चीजों के लिए परेशान नहीं करना चाहिए। जब कभी कोई बड़ी मुसीबत आन पड़े तो ही उन्हें तकलीफ देनी चाहिए। दादी के ऊपर उसका बहुत भरोसा था, इसलिए सचमुच उसने कभी रामजी को कोई तकलीफ नहीं दी थी। छोटी-मोटी तकलीफें तो वह खुद सहन कर लिया करती थी। आखिर औरत जात थी। औरत की तो मिट्टी ही भगवान भट्टी में तपा कर भेजता है। मगर इधर दो-तीन दिन से वह रामजी के सामने मन ही मन अरज पे अरज किए जा रही थी। आज सुबह तो जब रामचंदर मंडी के लिए निकल रहा था तो उसने रामजी को अल्टीमेटम ही दे दिया था कि अगर आज भी रामचंदर को मंडी से खाली हाथ घर लौटना पड़ा तो वह समझेगी कि उसकी दादी झूठ कहा करती थी। या तो ऊपर रामजी ही नहीं रहते हैं या फिर वे बहरे हैं। या फिर वे सिर्फ अमीरों के ही देवता हैं और पास की कॉलोनी के बँगलेवालों की तरह गरीबों को नीचा समझते हैं।
एक सप्ताह से रामचंदर हमेशा की तरह रोज सुबह मंडी जाता था मगर तीन-चार घंटे बाद खाली हाथ, नीची गरदन किए लौट आता था। मानो अब मंडी में झोला भर सब्जी नहीं गरदन पर लादने के लिए मन भर बोझ मिलता है। पहले के दो-तीन दिन तो आने के बाद वह जगमग बड़ी बिल्डिंगवाली सब्जियों की ताजगी नाम की दुकान को गाली दिया करता था और उसमें से सब्जी-भाजी लेनेवालों को भी जी भर कर कोसा करता था। मगर इधर दो-तीन दिन से तो बिलकुल ही चुपिया गया था वह। आते ही चादर में मुँह छुपा के लेट जाता था। फिर पता नहीं कब उठ कर बिना कुछ खाए-पिए बाहर निकल जाता था तो फिर देर रात को ही घर लौटता था। सारा दिन उसे रामचंदर की चिंता लगी रहती थी। वह कुछ पूछती या उसे दिलासा देने की कोशिश करती तो भी उसके मुँह से एक शब्द भी नहीं निकलता। बस सिर नीचा किए चुपचाप कुछ देर सुनता रहता और फिर जा कर चादर में मुँह छुपा कर लेट जाता।
बचपन में कभी माँ या बापू कमली को डाँटते थे तो वह भी इसी तरह जा कर दादी के आँचल में मुँह छुपा कर सो जाया करती थी। दादी का आँचल उसकी हर शिकायत को, हर आँसू को, हर वेदना को अपने में समेट लिया करता था, बिना किसी को कुछ बताए। रामचंदर के बारे में उसे पता नहीं था कि उसे भी ऐसी कोई नेमत हासिल थी या नहीं। यदि ऐसी कोई चीज हो तो भी मरी यह चादर तो हो नहीं सकती, इसका उसे पूरा भरोसा था।
'अरी आ कर जरा मदद कर, वहाँ आसमान में क्या तेरी अम्माँ दिख रही है तुझे?' रामचंदर कुछ झल्ला कर बोला।
वह चौंक कर मानो किसी नींद से जागी थी। कोई और दिन होता तो इस तरह उसकी अम्माँ का नाम निकालने के लिए वह रामचंदर की सात पुश्तों की खबर ले सकती थी, मगर आज खुशी का दिन है, उसने सोचा, आज उसकी कड़ुवी बातों को भी मीठा समझ लेने में कोई हर्ज नहीं है।
'बड़ी मुश्किल से आज कुछ सब्जियाँ मिल पाई हैं लाडो, वरना आज तो मैं यह सोच कर निकला था कि यदि फिर से खाली हाथ घर लौटना पड़ा तो जा कर रेल की पटरियों पर सो जाऊँगा।' इतनी भयानक जानकारी देते हुए भी रामचंदर का चेहरा खुशी से चमक रहा था।
कमली ने झट उसके मुँह पर अपनी हथेली सटा दी। वह कुछ कहना चाहती थी मगर शब्द उसके गले से बाहर आने को राजी नहीं थे। उनकी जगह चंद आँसू उसकी आँखों से छलक उठे। रामचंदर ने उसकी ओर देखा तो एक पल को देखता ही रह गया। कमली की भीगी आँखें और कातर चेहरा शब्दों के उथलेपन को उजागर करते हुए उसके मन का सब हाल कह रहे थे। रामचंदर ने कमली को अपने सीने से लगा कर उसका सिर स्नेह से थपथपा दिया।
सबसे पहले जब दिल्ली में आया था रामचंदर तो उसके शरीर में जवानी की कोंपल बस फूटी ही थी। अठारह साल की उमर भी भला कोई उमर होती है। मालवा के छोटे से देहात जवासिया में खेत में मजदूरी करते थे उसके बापू। छह बच्चे, उनमें भी पाँच छोरियाँ। चार छोरियों का ब्याह करते-करते ही उनकी देह का सारा सत निकल गया था। मानो पचास बरस में ही सठिया गए हों देह से। आठवीं कक्षा के बाद पढ़ना उसे मुश्किल लगने लगा। अभाव और मजबूरियों की दीमक एक खुशहाल जिंदगी बिताने के उसके नन्हें-से ख्वाब को खोखला करने पर तुली हुई थी। उसके दूर के एक चाचा यहीं दिल्ली में रहा करते थे। कभी गाँव आते तो दिल्ली का ऐसा गुणगान करते मानो किसी दूसरे ही ग्रह पर बसी हुई हो दिल्ली। वह तो दिल्ली के नाम से ही रोमांचित हो जाया करता था। उसकी बड़ी इच्छा थी दिल्ली जाने की, मगर उसके बापू अपने इकलौते छोरे को अपनी आँखों से दूर जाने देने की कल्पना से ही सिहर जाते थे। उनकी वह सिहरन उसके पाँव की बेड़ी बन जाती थी। मगर अठारह का होते न होते उसने एक दिन उस बेड़ी को अपने भविष्य के सपनों के गँड़ासे से तोड़ ही डाला। घर में किसी को बिना कुछ कहे-सुने ही निकल पड़ा था वह। जब किसी तरह ढूँढ़ते-ढाँढ़ते चाचा के दुवारे पर पहुँचा तो अचरज में पड़ गए थे चाचा। फिर भी उन्होंने दुत्कारा नहीं उसे। महानगर की तपती परिस्थितियों में भी गाँव की गीली आत्मीयता कहीं भीतर छुपा कर सहेजी हुई थी उन्होंने।
पहले कुछ दिन वह चाचा के साथ ही मंडी में उनकी सब्जी की दुकान पर बैठा। जब महानगर की चकाचौंध से सहमा उसका ग्रामीण मन कुछ सहज हुआ तो उसने नई शुरुआत करने का निर्णय लिया। जिस तरह अपनी पहली उड़ान के लिए कुछ डरते-डरते घोंसले से बाहर कदम रखता है नन्हा पंछी, उसी तरह उसने भी सिर पर सब्जियों की टोकरी रखे पहला कदम रखा था, जमना पार की इस नई-नई बसी कालोनी विचित्र विहार में।
यह उन दिनों की बात है जब पूर्वी दिल्ली को शेष दिल्लीवाले उतनी ही हिकारत भरी निगाहों से देखते थे जितना बिहारियों को दिल्ली के पंजाबी। मंत्रालयों और सरकारी दफ्तरों में बैठनेवाले बाबू लोग नाक-भौं सिकोड़ कर इसे ट्रांस यमुना कहते थे और आमजन जमना पार। आज जो विकास मार्ग बड़ी-बड़ी कंपनियों के शो रूमों से अटा पड़ा है, उन दिनों एक कच्ची सड़क हुआ करता था। लक्ष्मीनगर-शकरपुर के आगे जाते हुए लोग डरते थे। ऊँची-ऊँची आवासीय इमारतों से गजबज इंद्रप्रस्थ विस्तार या आईपी एक्स्टेंशन में तब खेती होती थी और मयूर विहार में सचमुच मोर नाचा करते थे।
उस जमाने में जब कुछ लोगों ने को-ऑपरेटिव सोसाइटी बना कर यहाँ कॉलोनी विकसित करने का इरादा किया तो हर किसी ने उन्हें विचित्र कहा। यह शब्द उन्हें इतनी बार सुनना पड़ा कि फिर तंग आ कर उन्होंने अपनी कॉलोनी का नाम ही विचित्र विहार रख लिया।
कॉलोनी स्वीकृत हो गई, जमीन मिल गई, प्लॉट भी कट गए मगर बहुत साल तक बियाबान में आ कर मकान बनाने की हिम्मत बहुत लोग नहीं कर पाए। जिन लोगों ने शुरू में ही यह दुस्साहस किया उनमें से एक थे दिनेशचंद्र सक्सेना। हालाँकि इस दुस्साहस के कारण आनेवाले कई सालों तक उनकी पत्नी यानी सुधा बहनजी उन्हें सिरफिरा कहती रहीं। आज चाहे इस मकान की लगाई जानेवाली कीमत सुन कर वह अपनी आँखों के डबकों को तालाब कर लेती हों मगर उस जमाने में इस कॉलोनी में आने के कई साल बाद तक वे सक्सेनाजी को इस बात के लिए कोसती रहीं कि उन्होंने करोलबाग की भरी-पूरी बस्ती से उठा कर उन्हें इस जंगल में ला पटका था। सिरफिरा की उपाधि उस कोसन-क्रिया की पूर्णाहुति होती थी।
गाजरघास की तरह उस जमाने में मदर डेयरी के बूथों का विस्तार नहीं हुआ था। इसलिए नई-नई बसी इस कालोनी में सिर पर सब्जी का टोकरा रखे आनेवाले रामचंदर का आगमन पुरानी दिल्ली की गजबजी गलियों में रह चुकी महिलाओं के लिए ऐसा था मानो मायके का कोई बंदा आ गया हो खैर-खबर पूछने।
शुरू-शुरू में सुधा बहनजी मालवा के ठेठ ग्रामीण इलाके से आए रामचंदर की भाषा और उच्चारण ठीक से समझ ही नहीं पाती थी। उधर रामचंदर को भी सुधा बहनजी की पंजाबी मिश्रित खड़ी बोली समझने में मुश्किल होती थी। ऐसे समय में घाट-घाट का पानी पी चुके सक्सेनाजी दोनों के बीच दुबोलिए का काम किया करते थे। मगर शीघ्र ही रामचंदर ने जहाँ पंजाबी टोनवाली खड़ी बोली के घूँट गले से उतारने शुरू कर लिए वहीं सुधा बहनजी भी मालवी शब्दों और लहजेवाली हिंदी समझने लगीं। उसी दौरान रामचंदर ने बीबीजी में से सुधा बहनजी का आविष्कार किया और फिर इस संबोधन को पूरी कॉलोनी ने ही अपना लिया। सक्सेनाजी की दुबोलिए की भूमिका को विराम मिल गया मगर सामने पड़ जाने पर राम-राम भाईसाब की सलामी जरूर उन्हें यदा-कदा मिलने लगी।
बियाबान में बिना प्रयास उग आनेवाले सुंदर पुष्पोंवाले पौधे की तरह धीरे-धीरे सुधा बहनजी और रामचंदर के बीच भी विश्वास और स्नेह-आदर का मिलाजुला एक रिश्ता उग आया। उसके चलते आनेवाले कुछ ही समय में रामचंदर को दिल्ली जैसे कहने को दिलवाले मगर स्वार्थ की बात आने पर बिलकुल बेमुरव्वत हो जानेवाले शहर में एक रहनुमा मिल गया। वहीं दूसरी ओर सुधा बहनजी ने रामचंदर में अपना छोटा भाई तो नहीं मगर छोटे भाई के समान एक विश्वासपात्र खोज लिया था। कभी-कभी इस रिश्ते का खमियाजा उठाना पड़ता था सक्सेनाजी को। सुधा बहनजी ने मानो कसम ही खा ली कि सब्जी लेनी है तो सिर्फ रामचंदर से वरना लेनी ही नहीं। सो यदि किसी दिन घर में सुबह सब्जी न हो और रामचंदर को आने में कुछ देरी हो जाए तो फिर सक्सेना जी को लंच में मन मसोस कर सब्जी के नाम पर मूँग की बड़ियाँ ले कर जाना पड़ता, जो उन्हें सख्त नापसंद थीं। कुछ ही दिनों में सुधा बहनजी की यह आदत संक्रामक रोग की तरह आसपास की और बहनजियों को भी लग गई। और जब यह कहानी घर-घर की हो गई तो तमाम पति बेचारे सक्सेना जी की ही गति को प्राप्त भए।
जैसे-जैसे कॉलोनी में रहनेवालों की संख्या बढ़ी, वहाँ सब्जी बेचनेवालों की संख्या में भी अनुपातिक वृद्धि होना लाजमी था। मगर उन तमाम सब्जीवालों के लिए कॉलोनी का सक्सेना जीवाला ब्लॉक एक तरह से नो इंट्री जोन में बदल गया था। किसी नामांकित संस्थान से एमबीए किए बगैर आठवीं पास रामचंदर ने एकाधिकार का यह चमत्कार कर दिखाया था। और इस चमत्कार की जड़ों में मुनाफे के सिद्धांत की जगह सहज संबंधों और सहजीविता की वह भावना साँसें लिया करती थी जिसे रामचंदर ने अपने छोटे-से गाँव के संस्कारों से विरासत में पाया था।
समय के साथ रामचंदर के सिर की टोकरी साइकिल पर आ गई और फिर साइकिल की जगह ठेले ने ली। थोड़े दिनों बाद ठेले की जगह मालवाहक रिक्शा आ गया। उसी दौरान वह कमली को भी गौना करा कर दिल्ली ले आया था। कुछ समय बाद विचित्र विहार से कुछ ही दूर नाले से सट कर एक झुग्गी बस्ती उगी तो एक झोंपड़ी उसमें रामचंदर की भी खिल गई। शुरू-शुरू में तो विचित्र विहार के रहवासियों ने इन झुग्गियों की ओर कुछ ध्यान नहीं दिया। मगर कुछ सालों बाद जब आसपास कई अच्छी कालोनियाँ खड़ी हो गईं तो उन्हें यह झुग्गी बस्ती देह पर खाज की तरह चुभने लगी। मगर तब तक यह रोग लाइलाज हो चुका था।
कुछ सालों बाद जब रामचंदर अपनी सबसे छोटी बहन के ब्याह के लिए गाँव गया तो सक्सेनाजी के विरोध के बावजूद सुधा बहनजी ने उसके लिए एक कीमती लाल साड़ी और चाँदी की पाजेब दी थी। उसके बापू ने जब इन चीजों को देखा तो वह भीगी आँखों और भरे गले से सिर्फ इतना ही कह पाए थे, 'अरे छोरा, तेने पैसो तो जादा नी कमायो, पर प्यार खूब कमायो है रे।'
समय के साथ जमना पार की तस्वीर ही नहीं, तकदीर भी पूरी तरह से बदल गई। रामचंदर अब भी विचित्र विहार के पास बसी, अब और ज्यादा घनी हो चुकी झुग्गी बस्ती में रहता था मगर उसने गाँव में पक्का मकान बनवा लिया था। सुधा बहनजी की सलाह और सहायता के चलते उसके दोनों बच्चे अच्छे स्कूलों में पढ़ने लगे थे। उधर मदर डेयरी के बूथ भी जगह-जगह खुल गए थे जिनमें दूध के साथ-साथ सब्जियाँ भी मिलने लगी थीं। मगर रामचंदर के व्यवसाय पर इसका कुछ ज्यादा असर नहीं पड़ा। उसके ज्यादातर ग्राहक अब भी उससे जुड़े और बँधे हुए थे और वह उनसे।
मगर कहते हैं न कि सब दिन होत न एक समान। रामचंदर के साथ यही हुआ। तस्वीर बदली ताजगी ने। देश का एक बड़ा उद्योग समूह जब रिटेल के धंधे में उतरा तो सबसे पहले उसने ध्यान दिया सब्जी-फल के व्यवसाय की ओर। दिल्ली में जगह-जगह ताजगी के नाम से बड़ी-बड़ी वातानुकूलित दुकानें खुल गईं, जहाँ ट्रॉली ले कर नव धनाढ्य वर्ग शान से सब्जियाँ खरीदने जाने लगा। वातानुकूलित दुकान में अपनी मर्जी से चुन-चुन कर सब्जियाँ और फल लेना और फिर ताजगी की चमकीली थैली में उसे लिए घर लौटना शान की बात समझी जाने लगी। और दिल्ली तो वैसे भी दिखावे में सारी दुनिया को मात दे सकती है। देश का शायद यह पहला शहर था जहाँ औरतें शादी में पहनने के लिए गहने ही नहीं, कपड़े भी किराए से लेती हों। सो छूत की बीमारी की तरह ताजगी में सब्जी-फल लेने का रोग जल्द ही मध्यम वर्ग को भी लग गया। ऐसी ही एक दुकान विचित्र विहार के पास ही खुल गई।
जब तक लोगों को ताजगी की आदत नहीं लगी, तब तक ठीक था। मगर उसके बाद न सिर्फ रामचंदर बल्कि उसकी तरह ठेले या साइकिल रिक्शे पर सब्जियाँ बेचनेवाले तमाम लोगों को दोहरी मार पड़ने लगी। मंडी में आनेवाली सारी ताजी और अच्छी किस्म की सब्जियाँ ताजगीवाले ज्यादा दाम दे कर खरीदने लगे। ताजगी की गाड़ियाँ मंडियों में से भर-भर कर रवाना होने के बाद गली-मोहल्ले में सब्जियाँ बेचनेवालों के लिए दोयम दर्जे का माल ही बचने लगा, वह भी उन्हें महँगे दामों में खरीदना पड़ता। दो पैसे का मुनाफा ले कर वे इसे बेचने जाते तो उन्हें कोई खरीदने को तैयार नहीं होता, क्योंकि ताजगी में उनसे बेहतर सब्जियाँ कम दामों पर लोगों को मिल रही थीं।
रामचंदर ने शुरू से ही सिर्फ अच्छी सब्जियाँ लाने का नियम बना रखा था इसलिए उसे रोज खाली हाथ ही लौटना पड़ रहा था। एक सप्ताह तक यह सिलसिला चलता रहा था। आज सुबह जब रामचंदर मंडी के लिए निकला तो पूरी तरह से टूट चुका था। उसने तय कर लिया था कि आज भी यदि उसे अच्छी सब्जियाँ नहीं मिलीं तो फिर कभी वह लौट कर मंडी का मुँह नहीं देखेगा। मगर आज लगता है भगवान को उस पर तरस आ ही गया था। उसके चाचा का एक पुराना साथी आढ़तिया उसे मिल गया और उसके चलते कुछ अच्छी सब्जियाँ भी मिल गईं।
अपने रिक्शे में सब्जियों को जमा कर सबसे पहले विचित्र विहार ही पहुँचा रामचंदर। अपने भरोसे के सबसे पुराने और सबसे बड़े केंद्र में। लेकिन दो-चार घरों के सामने से गुजर कर ही उसका दिल बैठने लगा था। आज उसकी आवाज पर बाहर सब्जी लेने आने को ही कोई तैयार नहीं था। हर घर उसकी आवाज की छुअन से खुद को वैसे ही समेटता हुआ महसूस हुआ जैसे छुईमुई का पौधा छूते ही अपनी पत्तियों को समेटता है। सिर पर चढ़ आया सूरज अपनी लपलपाती जबान-सी धूप से उसके भीतर के पानी को ही नहीं, उसकी उम्मीद और उसके हौसले को भी सोख ले रहा था। आखिर थक-हार कर वह बड़ी आशाओं से सुधा बहनजीवाले ब्लॉक में पहुँचा। पहला घर श्रीवास्तव बीबीजी का था। उसकी आवाज सुन कर वह बाहर आईं तो रामचंदर ने राहत की साँस ली।
'बड़े दिनों बाद आया रामचंदर। कहाँ था इतने दिन?' श्रीवास्तव बीबीजी ने हमेशा की तरह मुस्कराते हुए पूछा।
'यहीं था बीबीजी, बस कुछ अच्छी सब्जियाँ नहीं मिल रही थीं। आप तो जानती हैं, रामचंदर बस अच्छी और ताजी सब्जियाँ ही बेचता है।' रामचंदर के स्वर में अभिमान का पुट आ गया था।
'यह भिंडी कैसे दी?' श्रीवास्तव बहनजी ने उसके अभिमानी स्वरों की जगह भिंडी में ज्यादा रुचि दिखाई।
'दस रुपए पाव है बीबीजी।' रामचंदर कुछ सकुचाता हुआ अपने अभिमान को समेट कर फिर विनम्र सब्जीवाले के चोले में आ गया।
'दस रुपए पाव?' श्रीवास्तव बीबीजी ने इस तरह चौंक कर रामचंदर की ओर देखा जैसे उसने भिंडी का भाव नहीं बताया हो बल्कि उनके मृत्यु की भविष्यवाणी की हो। फिर उनके अगले वाक्य ने तो रामचंदर के कानों में सीसा ही उँड़ेल दिया था, 'यही भिंडी ताजगी में छह रुपए पाव मिल रही है भैया।'
'और टमाटर कैसे दिए?' बीबीजी का अगला सवाल था।
'आपके लिए आठ रुपए पाव हैं बीबीजी।' अब रामचंदर को बीबीजी के सब्जी लेने के इरादे पर संदेह होने लगा था।
'लो कर लो बात, ताजगी में इससे अच्छे टमाटर पाँच रुपए पाव मिल रहे हैं।' श्रीवास्तव बीबीजी के इस वाक्य ने उसके सब्र का बाँध तोड़ दिया।
'ठीक है, फिर आप वहीं से ले लीजिए बीबीजी।' इतना कह कर रामचंदर ने अपना रिक्शा आगे बढ़ा दिया।
श्रीवास्तव बीबीजी उसे आश्चर्य से जाते हुए देखती रहीं। फिर बड़बड़ाईं, 'दो कौड़ी का सब्जीवाला और तेवर तो देखो मरे के।'
श्रीवास्तव बीबीजी के सामने तो दिलेरी दिखा दी रामचंदर ने, मगर जब यही किस्सा अगले पाँच-छह घरों के आगे भी दोहराया गया तो रामचंदर को अपने पाँवों के नीचे की जमीन खिसकती हुई महसूस हुई। अब उम्मीद की बस एक आखिरी किरण बची थी। डूबने से पहले आशा के आखिरी तिनके को थाम लेने की उम्मीद में वह सुधा बहनजी के घर के आगे जा कर खड़ा हुआ।
उसकी पुकार पर सुधा बहनजी की जगह सक्सेनाजी आ कर गेट के पास खड़े हुए। उनकी आँखों की भंगिमा प्रश्नवाचक थी, मगर न जाने क्यों रामचंदर को उनमें एक उपेक्षा का भाव भी महसूस हुआ। अपना सारा साहस बटोर कर उसने पूछा, 'सुधा बहनजी हैं?'
'क्यों?' तीर की तरह उसके प्रश्न के जवाब में सक्सेनाजी का सवाल आया।
अचकचा कर वह बोला, 'नहीं, वह सब्जी ले कर आया था, इसलिए पूछ रहा था।'
ऑफिस में अपने तमाम मातहतों के मुँह से भी ताजगी से सब्जियाँ और फल लाने के आह्लाददायक अनुभवों को सुन-सुन कर सक्सेनाजी कई दिनों से हीन-भावना से भरे हुए थे। दो-तीन दिन रामचंदर सब्जी ले कर नहीं आया तो फिर अगले तीन-चार दिन रोज ताजगी के शीतल और सुकून देनेवाले माहौल में जा कर सब्जी खरीदने का लुत्फ भी सक्सेनाजी ने उठा लिया था। जीवन में पहली बार उन्हें सब्जियों के दामों की भी ठोस जानकारी हुई थी। और सुधा बहनजी का रामचंदर पर जरूरत से ज्यादा निर्भर रहना तो वैसे भी उन्हें बड़े जमाने से खटक रहा था। इन सब बातों के घालमेल ने उनके स्वरों में रुखाई पैदा कर दी थी, 'आजकल सब्जी सुधा नहीं, मैं ही लेता हूँ।'
एक पल को रामचंदर की समझ में ही नहीं आया कि क्या कहे। सक्सेनाजी के स्वरों के भाव ने उसके सारे हौसलों और उम्मीदों को तोड़ कर रख दिया था। फिर जैसे जुआरी अपना अधिकांश पैसा हार जाने के बाद एक आखिरी दाँव लगाता है, वैसे ही किसी तरह हिम्मत बटोर कर बोला वह, 'बिलकुल ताजी सब्जियाँ ले कर आया हूँ भाईसाब। क्या लेंगे?'
'हाँ... हाँ... वह तो ठीक है। पहले दाम तो बताओ।' सक्सेनाजी की बात से उसे आश्चर्य नहीं हुआ, मगर कहीं भीतर उसे कुछ दरक गया-सा महसूस हुआ। सुधा बहनजी ने कभी उससे सब्जियों के दाम नहीं पूछे। उन्हें जो लेना होता, वे लेतीं और उसका कुल जो भी दाम होता, रामचंदर के कहने पर बिना किसी हिचक के दे देतीं। वह भी सुधा बहनजी को औरों से कुछ कम ही दाम लगाता। मगर आज सामने सुधा बहनजी नहीं थीं, सक्सेनाजी थे। दाम पूछते हुए।
उसने जल्दी से कुछ सब्जियों के दाम दोहरा दिए।
'बहुत महँगी हैं भाई। हमें नहीं चाहिए।' उपेक्षा से भरा एक वाक्य रामचंदर की ओर उछाल कर मुड़ गए सक्सेनाजी।
'सुबह से बोहनी नहीं हुई है भाईसाब। कुछ ले लीजिए। सुधा बहनजी का बहुत भरोसा रहा है हम पर। वे जानती हैं, हमने कभी उन्हें ज्यादा दाम नहीं लगाए हैं। हमारे लिए तो यह घर का ही मामला है।' रामचंदर ने सुधा बहनजी के साथ सालों पुराने रिश्तों की दुहाई देनी चाही।
'घर का मामला क्या होता है इसमें।' सक्सेना जी को रामचंदर का इस तरह से घरोपा जताना पसंद नहीं आया था। 'तुम माल बेच रहे हो, हम खरीदते हैं। तुम यह काम अपने मुनाफे के लिए करते हो। कोई समाजसेवा थोड़े ही कर रहे हो। हमें कहीं और अगर बेहतर चीज मिलेगी तो हम वहाँ से खरीदेंगे। इसमें घर का मामला कहाँ से आ गया?'
'इतने सालों का रिश्ता है बाबूजी। आप लोगों के भरोसे तो हमारी सारी जिंदगी कटी है। अब इस तरह मुँह मत मोड़िए।' गिड़गिड़ाने लगा था रामचंदर।
'इस तरह दुगने दामों पर चीजें खरीद कर रिश्ता निभाने लगे तो एक दिन कटोरा ले कर भीख माँगने की ही नौबत आएगी हम पर। कहीं और जा कर दो भैया रिश्तों की दुहाई।' बिना रामचंदर की ओर देखे लौट गए सक्सेनाजी भीतर।
रामचंदर ठगा-सा बहुत देर तक उस बंद दरवाजे को देखता रहा। इस उम्मीद में कि शायद अभी सुधा बहनजी बाहर आएँगी और हमेशा की तरह मुस्कुराते हुए उसका हालचाल पूछेंगी और उससे सब्जियाँ खरीदेंगी। मगर उम्मीदें भी भला कभी इस तरह पूरी होती हैं?
पहली बार विचित्र विहार से एक रुपए की सब्जी भी बेचे बिना ही लौटा रामचंदर। फिर दिन भर आसपास की सभी कालोनियों में घूम लिया। मगर शाम तक उसकी बोहनी भी न हो पाई। ताजगी ने उसके अपने ग्राहकों के साथ सालों पुराने रिश्तों को बासी कर दिया था। सब्जियों से भरा रिक्शा वापस घर ले जाने की हिम्मत नहीं हुई उसकी। ताजगी की दुकान के बाहर ही खड़े हो कर उसने आधे दामों में सारी सब्जियाँ बेच दीं। आज एक सप्ताह बाद उसे सब्जियाँ मिली थीं मंडी से, मगर उसमें भी उसका बहुत ज्यादा नुकसान हो गया था।
रात जब घर लौटा रामचंदर तो कमली ने चहक कर दिन भर का हाल पूछा। कमली का चहकता चेहरा और उत्सुक सवाल उसकी आँखों के रास्ते उसके भीतर जल रही आग में घी की तरह पड़े। चिढ़ कर पहले एक झापड़ रसीदा उसने कमली को, फिर अपनी हरकत से क्षुब्ध कर उसके गले लग कर फूट-फूट कर रोया वह। इतने दिनों तक सारी हताशा भीतर ही भीतर समेट कर चुप था रामचंदर। मगर आज के अनुभव ने उसके सब्र के बाँध को तोड़ दिया था।
'इस तरह हिम्मत हार जाने से क्या होगा रमेश के बापू?' रामचंदर के सिर पर ममता भरा हाथ फेरते हुए कहा कमली ने।
'तो क्या दीवारों से जा कर अपना सिर फोड़ूँ मैं?' कमली की दिलासा ने रामचंदर को फिर चिढ़ा दिया।
'दीवारों से सिर फोड़ें आपके दुश्मन। जरूरत पड़े तो उनके सिर फोड़ो जिन्होंने आपकी यह दशा की है।' कमली ने कहा।
'पागल हो गई है तू कमली। बहुत बड़ी कंपनी है वह, जिसने शहर भर में सब्जियों की बड़ी-बड़ी दुकानें खोली हैं, एसी वाली। उनके सामने मेरी औकात क्या है जो उनसे जा कर लड़ूँगा मैं।'
'अकेले जाने को कौन कहता है? हमारी बस्ती में ही कितने सब्जी बेचनेवाले हैं। उन सबका धंधा भी तो खराब हुआ है उस मरी दुकान के चलते। इतने लोग बात-बात पर मोर्चा निकालते हैं। आप लोग मिल कर ऐसा कुछ क्यों नहीं करते। आखिर कोई अंधेरगर्दी तो नहीं मची है सारे देश में। सब लोग मिल कर चिल्लाओगे तो कुछ तो उनके कान के परदे हिलेंगे। कुछ असर होगा उन पर भी।' एक ही साँस में ढेर सारे वाक्य कह गई थी कमली।
रामचंदर इस तरह कमली को देखने लगा जैसे कोई अजूबा देख लिया हो। इतना तो वह भी जानता था कि घर-गृहस्थी के मामले में तेज है कमली। मगर दुनियादारी के मामले में भी इतनी तेज होगी, ऐसा कभी उसने सोचा ही नहीं था। आज उसे एक नई कमली के दर्शन हुए थे।
अगले तीन-चार दिन बहुत व्यस्तता में बीते। पहले तो बस्ती के सारे सब्जीवालों को इकट्ठा करके आंदोलन के लिए तैयार किया उसने। फिर आसपास के दूसरे सब्जीवालों को इकट्ठा करने में अगला पूरा दिन चला गया। आंदोलन करना चाहिए, इस पर तो सब एकमत थे, मगर किस तरह का आंदोलन करना चाहिए इस पर बड़ी माथापच्ची हुई। आखिर सबने तय किया कि सारे सब्जीवाले अपने-अपने इलाके की ताजगी की दुकान के आगे धरना दे कर बैठेंगे। दो दिनों तक जगह-जगह धरना देने के बाद भी जब कोई असर न हुआ तो रामचंदर अपने कुछ साथियों के साथ ताजगी की दुकान के सामने आमरण अनशन पर बैठ गया। उसकी देखा-देखी कुछ दूसरे इलाकों में भी सब्जीवाले अनशन पर बैठ गए।
जब अनशन का तीसरा दिन शुरू हो गया और अनशन करनेवालों की हालत बिगड़ने लगी तो सब्जी बेचनेवालों में गुस्से की लहर दौड़ने लगी। कुछ लोग जहाँ एक-दो दिन और इंतजार करने के पक्ष में थे, वहीं कुछ जवानों का खून इतना उबलने लगा कि उन्होंने ताजगी की काँच की बाहरी दीवारों को ही चकनाचूर करने की ठान ली।
उनकी इस योजना की भनक ताजगीवालों को लगी तो उन्होंने दो कदम उठाए। एक तो अपने रसूख का उपयोग करके ताजगी की सारी दुकानों पर पुलिस सुरक्षा की व्यवस्था की, दूसरे अनशन करनेवालों से बातचीत करने के लिए अपने एक अधिकारी को भेजा। रामचंदर और उसके साथियों से अनशन तोड़ने का अनुरोध करने के लिए।
'आप भी कमाल करते हैं बाबू, हमरे पेट पर लात मारते हैं और रोने भी नहीं देते हैं।' एक सब्जीवाले ने उस अधिकारी को ताना मारा।
'तुम्हारे पेट की चिंता तो कंपनी को भी है भैया।' अधिकारी ने अपने स्वर में अपनापन घोला।
'इसीलिए तो हमरा धंधा सारा चौपट कर दिए हैं आप लोग।' दूसरे सब्जीवाले का जवाब था।
'इसी बात का तो ख्याल करके कंपनी ने मुझे आप लोगों के पास भेजा है। यदि आप यह अनशन तोड़ कर कंपनी की बात मान लेते हैं तो इसमें आपका भी फायदा है और कंपनी का भी।' अधिकारी ने चारा फेंका।
'कौन-से फायदे की बात कर रहे हो बाबू?' कई सब्जीवालों ने वह चारा एक साथ निगल लिया।
'देखो, आप लोगों में से कुछ को कंपनी अपने यहाँ काम पर रखने के लिए तैयार है।' अधिकारी ने कहना शुरू किया।
'वाह जी वाह, कमाल करते हैं आप भी। कुछ लोगों को कंपनी नौकरी पर रखेगी और बाकी लोग क्या अपना पेट बजाएँगे?' कुछ सब्जीवाले अधिकारी की बात को काट कर बोले।
'पहले आप लोग मेरी पूरी बात तो सुनिए।' अधिकारी ने विनम्रता से आग्रह किया। इस पर अचानक सब्जीवालों के बीच श्मशान-सी शांति छा गई। सबने अपना पूरा ध्यान कानों पर केंद्रित कर लिया।
'जिन लोगों को नौकरी नहीं मिलेगी, या जो लोग कंपनी में नौकरी नहीं करना चाहते हैं, उन लोगों को कंपनी खुद सब्जी बेचने का रिक्शा तैयार करके देगी।' अधिकारी ने इतना कह कर जान-बूझ कर एक लंबा पॉज लिया।
'वह भला किसलिए?' अधिकारी की उम्मीद के मुताबिक सब्जीवालों के भीतर उत्सुकता जाग चुकी थी।
'कंपनी सिर्फ रिक्शा तैयार करके ही नहीं देगी, रोज सुबह बेचने के लिए सब्जी भी कंपनी ही देगी। आपको कंपनी के नाम से और कंपनी द्वारा तय दामों पर ही सब्जी बेचनी होगी।'
'और उसमें हमको क्या मिलेगा?' किसी ने पूछा।
'आपको सब्जी बेचने पर निश्चित कमीशन मिलेगा।' अधिकारी ने जवाब दिया।
'और यदि किसी दिन सब्जी बिकी ही नहीं, या कम बिकी तो?' प्रश्नों की सब्जीवालों के पास कोई कमी नहीं थी।
'कंपनी आपको एक न्यूनतम कमीशन देने का वचन देगी। आप चाहे एक रुपए की सब्जी बेचें, तय रकम आपको मिलेगी ही। और अधिकतम की कोई सीमा नहीं होगी। वह आप कितनी सब्जी बेचते हैं, उस पर निर्भर करेगा।' अधिकारी ने विजयी मुद्रा में सब्जीवालों की ओर देखा। उसे पूरी उम्मीद थी कि अब उनके पास कोई और प्रश्न नहीं बचा होगा।
अगले एक सप्ताह के भीतर जहाँ कुछ सब्जीवाले ताजगी की एयरकंडीशंड दुकानों में नौकरी करने लगे वहीं रामचंदर जैसे कुछ सब्जीवालों को ताजगी के विज्ञापनों से भरा हुआ एक रिक्शा मिल गया। उस रिक्शे में हर सब्जी और फल के लिए अलग-अलग खाने बने हुए थे। रुपए रखने के लिए एक सुंदर पेटी थी। नीचे की तरफ ताजगी की चमकीली थैलियाँ थीं और साथ में इलेक्ट्रॉनिक वजन काँटा भी था। और हाँ, सब्जी बेचनेवाले की सीट के ऊपर एक छोटी-सी छतरी भी लगी हुई थी।
जिस दिन ताजगी के ये रिक्शे सड़क पर उतरे, उस दिन अचानक ताजगी की दुकानों में सब्जियों और फलों के दाम दुगुने हो गए। जाहिर है, कंपनी द्वारा तैयार कराए गए रिक्शों पर भी बिकनेवाली सब्जियों और फलों के दाम भी ताजगी की दुकानों के समान ही थे।
उस दिन विचित्र विहार में जब सुधा बहनजी के घर के सामने पहुँचा रामचंदर तो इस बार भी उसकी पुकार पर सक्सेनाजी ही बाहर आए। सुबह-सुबह ताजगी की दुकान पर सब्जियों के दुगुने दाम देख कर खाली हाथ ही चले आए थे वह। उन्होंने जब नए रिक्शे पर बैठे रामचंदर को देखा तो भौंचक्के रह गए। रिक्शे पर लगे ताजगी के नाम और विज्ञापनवाले बोर्डों ने उनके आश्चर्य को और गहरा दिया था।
'यह क्या रामचंदर, तुम्हारा पुराना रिक्शा कहाँ गया?' उसी आश्चर्य को प्रश्न का रूप दिया सक्सेनाजी ने।
'छूट गया वह तो आप लोगों की कृपा से।' अपने भीतर की तल्खी को उपेक्षा के स्वरों में अभिव्यक्त करने से खुद को रोक नहीं पाया था रामचंदर।
'लौकी क्या भाव दी है भैया?' सक्सेनाजी ने बात बदलते हुए कुछ नरमी से ही पूछा।
जवाब में रामचंदर ने रिक्शे पर एक ओर लगे बोर्ड की ओर इशारा कर दिया, जिस पर रिक्शे में मौजूद सारी सब्जियों व फलों के दाम लिखे हुए थे।
'लौकी पचास रुपए किलो? अभी कल तो बीस रुपए किलो मिल रही थी। टमाटर भी पचास रुपए। सबसे सस्ते आलू भी चालीस रुपए किलो हैं। यह क्या अंधेरगर्दी है भाई?' सक्सेनाजी के स्वरों में शिकायत और लाचारी एक साथ झलकी थी।
'इसमें अंधेरगर्दी की क्या बात है जी?' पहली बार भाईसाब के संबोधन को जान-बूझ कर निगल गया था रामचंदर।
उसके स्वरों के तीखेपन से कुछ सहम गए सक्सेनाजी। कुछ और नहीं सूझा तो अनायास ही बोल पड़े, 'अरे भाई, इतने सालों का रिश्ता है तुमसे, क्या तुम भी औरों जैसे ही हो जाओगे?'
'वह रिश्ता तो हमने इस कंपनी में गिरवी रख दिया है बाबू।' रामचंदर की तल्खी बरकरार थी।
सक्सेनाजी उसके इस वाक्य से तिलमिला गए। आखिर था तो सब्जीवाला ही। कितना ज्यादा बोल रहा था उनके सामने। उनके भीतर का अहंकार जाग उठा। बोले, 'इन दामों पर तो हम सब्जी खरीदने से रहे।'
'कोई जबरदस्ती थोड़ी ही है, आपकी मर्जी है। लेना है तो लो, वरना मत लो। मगर इतना याद रखो बाबू, बाहर कहीं भी इससे कम दामों में सब्जी अब आपको मिलने से रही।' टका-सा जवाब दिया रामचंदर ने। सक्सेना जी उसकी बात का जवाब देने के लिए शब्द ही खोजते रह गए। उधर एक गहरी दृष्टि सक्सेनाजी पर डाल कर रामचंदर ने अपना रिक्शा आगे बढ़ा दिया। सक्सेनाजी खुले मुँह और विस्फारित नेत्र लिए बड़ी देर तक रिक्शे के पीछे लगे ताजगी के बोर्ड पर निगाहें गड़ाए वहीं खड़े रहे।