तानाशाही व्यक्तित्व और परिवार / सत्य शील अग्रवाल
समाज में कुछ लोग पूरी दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने की मंशा लिए रहते हैं,शायद जीवन में ज्यादा सफलता उन्हें अधिक उग्र बना देती है। अपने कार्यस्थल पर किये जाने वाले व्यव्हार को ही अपने परिवार में करने का प्रयास करते हैं। जब तक वे कार्यकारी अवस्था में होते हैं,परिवार का आर्थिक स्तंभ होते हैं। परिजनों को मजबूरीवश उनकी उचित अनुचित बातों को सहन करना पड़ता है। परन्तु वृद्धावस्था में यही तानाशाही व्यक्तित्व अभिशाप बन जाता है। और वह अपने ही परिवार में अप्रिय हो जाता है। सभी परिजन उससे दूरी बनाकर रखना ठीक समझते हैं। जब बुजुर्ग को खाली समय में परिजनों का सर्वाधिक सान्निध्य चाहिए होता है, वह अकेला पड़ जाता है। आज जो वृद्ध हैं,उन्हें तो अपनी आदतों में बदलाव लाना ही होगा,परन्तु जो अभी युवा अवस्था और कार्यकारी स्थिति में हैं ,अभी से अपनी तानाशाही प्रवृति को पहचान कर अपने व्यव्हार में समय रहते परिवर्तन लाना होगा ताकि वृद्धावस्था में बदलाव ला पाना असंभव न हो जाए। यहाँ पर निम्न पंक्तियों में विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है की तानाशाही व्यक्तित्व किस प्रकार परिवार के विकास एवं आपसी सामंजस्य में बाधक बनता है? आपसी प्यार एवं सम्मान में कडुवाहट पैदा करता है?और परिवार को छिन्न भिन्न कर देता है।
विषय सूची
क्या है तानाशाही व्यक्तित्व
तानाशाही व्यक्तित्व वाले लोग स्वयं को सर्वोच्च मानते हैं। उनके लिए उनकी इच्छाएं ,उनकी भावनाएं ही प्रमुख होती हैं। अन्य किसी का बर्चस्व सहन नहीं कर पाते । वे अपने परिवार और कार्यक्षेत्र में अपने बर्चस्व को बनाये रखने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं,परन्तु यदि कोई व्यक्ति उनसे अधिक धनवान है या ,उनके कार्य क्षेत्र में उनका बॉस है तो उसकी चापलूसी करने में भी पीछे नहीं रहते। उसके समक्ष अपने हथियार डाले रहते हैं। अपरोक्ष रूप से वे जंगलराज को मान्यता देते हैं,जहाँ बलवान निर्बल को धराशाही कर अपना अधिपत्य जमाता है,उसे खा जाता है या मार डालता है। तानाशाही व्यक्तित्व वाले व्यक्ति के लिए ,न्याय प्रियता,समान अधिकार अथवा भावनाये कोई मायने नहीं रखती। अपने अधीनस्थ कर्मचारी अथवा रिश्ते में छोटे परिजन को कुतर्क द्वारा भी अपनी बात मनवाने में कोई परहेज नहीं करते। उनका अधीनस्थ उनकी तर्कहीन बातों से कितना पीड़ित होता है उसकी उन्हें परवाह नहीं होती। तानाशाह व्यक्तित्व के कुछ विशेष गुणों को जानिए;
- ऐसे व्यक्तित्व वाले व्यक्ति क्रोधी स्वभाव के होते हैं,छोटी छोटी बात पर क्रोधित हो जाते है,उनका क्रोध अपने अधीनस्थ व्यक्ति से व्यव्हार में उमड़ता है। परन्तु अपने शीर्ष अधिकारी के सामने बिलकुल पानी पानी हो जाते हैं। व्यक्ति एक, परन्तु व्यक्तित्व दो होते हैं,यही है उनका तानाशाही स्वभाव।
- ऐसा व्यक्ति किसी की प्रशंसा करना पसंद नहीं करता और न ही किसी की प्रशंसा सहन कर पाता हैं। वह चाहता है सब लोग उसकी ही प्रशंसा करें। हाँ यदि वह आपको नीचा दिखाना चाहता है तो अपने दुश्मन की भी प्रशंसा करने से पीछे नहीं रहता। यदि ऐसा व्यक्ति आपकी प्रशंसा करने लगे तो समझ लीजिए उसके पीछे उसका कोई स्वार्थ छिपा है। शायद वह आपकी तारीफ करके आपसे अधिक कार्य लेने की मंशा हो,अपने किसी स्वार्थ कि पूर्ती चाहता हो,अर्थात आपको आपकी प्रशंसा द्वारा खुश करके अपना उल्लू सीधा करने का इरादा है। ऐसे लोग अपनी बुराई,अपनी आलोचना सुनने की हिम्मत नहीं रखते, इसीलिए इनमे सुधार होने की सम्भावना नहीं होती।
- ऐसे व्यक्ति काफी कुछ अध्ययन करने की सामर्थ्य रखते हैं,परन्तु किसी अन्य व्यक्ति को शिक्षित करने की क्षमता नहीं रखते। क्योंकि उनका क्रोधी स्वभाव शिक्षार्थी को विचलित कर देता है।
- उन्हें अपने मान सम्मान का विशेष ख्याल रहता है,परन्तु सामने वाले का अपमान करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती। उन्हें परवाह नहीं होती की उनके शब्द बाणों से किसी को मानसिक आघात भी पहुँच सकता है। वे तो सिर्फ लीडर बने रहना चाहते हैं। यही वजह है की वे अपने अधीनस्थ या परिजन या समाज के किसी भी व्यक्ति में दोष ढूंढ कर उन्हें लज्जित करना अपनी शान समझते हैं। आत्मविश्लेषण कर अपनी कमियां ढूँढना उनके स्वभाव में नहीं होता। अतः जीवन भर अपनी सीमित सोच के साथ ही जीते हैं।
- इस प्रकार के लोगों की छत्रछाया में कोई भी इंसान (संतान हो अन्य परिजन) स्वस्थ्य रूप से बुद्धि का विकास नहीं कर सकता। क्योंकि वे चाहते हैं,जो मैं सोचता हूँ वही सोच या वही दृष्टिकोण प्रत्येक परिजन का होना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति उसके दृष्टिकोण से अलग सोचने का साहस दिखता है तो उसे उसका कोपभाजन बनना पड़ता है। वे अपने अधीनस्थों की सोच को संकुचित कर देते हैं। और उनकी सोचने की सामर्थ्य को निष्क्रिय कर देते हैं। यही तानाशाही व्यक्तित्व के लिए हितकारी होता है। परन्तु परिजन अपने जीवन में उन्नति नहीं कर सकता।
- ऐसे व्यक्ति सभी महत्वपूर्ण निर्णय स्वयं ही लेकर सब पर थोपने का प्रयास करते रहते हैं। किसी भी समस्या पर परिजनों या अपने अधीनस्थ व्यक्तियों से सलाह लेना या सहमति लेना आवश्यक नहीं मानते। यह कार्यशैली उन्हें समाज में और परिवार में अप्रिय बनाती है। और समाज से कटते जाते हैं। उसके परिजन भी उससे दूरियां बना लेते हैं। और अंत में एकांत जीवन के साथ जीना उनकी मजबूरी बन जाती है। जीवन के अंतिम पड़ाव पर उनका तानाशाही व्यक्तित्व उनके लिए अभिशाप सिद्ध होता है।
- ऐसे व्यक्तित्व वाले व्यक्ति किसी निश्चित सिद्धांत पर नहीं चलते अथवा चलना नहीं चाहते। उनके व्यव्हार में पारदर्शिता का अभाव होता है। वे परिस्थितियों के अनुसार अपने स्वार्थ के अनुरूप और अपने अत्मम्मान की रक्षा के लिए अपने सिद्धांत बदलते रहते हैं। अतः उनका परिवार स्पष्ट दिशा निर्देश के अभाव में भ्रमित रहता है। अतः कोई भी उनका सम्मान सिर्फ अपनी स्वार्थ पूर्ती हो जाने तक करता है। उनके मन में उसके लिए कोई सम्मान की भावना नहीं होती।
- वे लोग अपने अधीनस्थों के काम से कभी संतुष्ट नहीं होते। यदि कोई व्यक्ति उनकी सेवा करता है तो उससे और अधिक सेवा की अपेक्षा में उसे अपमानित करते रहते हैं। व्यावसायिक स्तर पर अधिक सेवा की उम्मीद करना व्यवसायिक आवश्यकता हो सकती है,परन्तु परिवार में अपने परिजनों से ऐसा व्यव्हार असहनीय होता है।
- ऐसे व्यक्ति अपना लक्ष्य पूरा न होते देख नाटकीय रूप से अपने को आपत्तिग्रस्त या असहनीय बीमारी से त्रस्त बता कर सहानुभूति प्राप्त करने की रणनीति अपनाते हैं। और अक्सर इस नाटक में सफल होते हैं। परिजनों से सहानुभूति बटोर कर अपनी बात मनवाने में सफलता प्राप्त कर लेते हैं। और पूरे परिवार पर अपने विचार थोप देते हैं।
बच्चे के शारीरिक विकास में माँ का सहयोग होता है,तो उसके मानसिक विकास में पिता का सहयोग होता है। अतः माँ या बाप में किसी में भी तानाशाही प्रवृति है तो बच्चे का विकास अवरुद्ध हो जाता है। वह शारीरिक रूप से कमजोर और मानसिक रूप से हीन भावना ग्रस्त भी हो सकता है। उसमे आत्मविश्वास का अभाव होता है,उसका व्यक्तित्व संकोची स्वभाव हो सकता है,उसे हर समय तानाशाह की छत्र छाया में रहने की आदत हो जाती है। आत्मविश्वास के अभाव में जीवन की ऊंचाईयों को पाने में असमर्थ रहता है। बच्चे के स्वस्थ्य विकास के लिए परिवार में तानाशाही से मुक्त स्वच्छंद ,पारदर्शी एवं स्नेह का वातावरण होना आवश्यक है।
अब देखते है उनके इस तानाशाही व्यक्तित्व से परिवार किस प्रकार प्रभावित होता है
तानाशाह पिता
एक तानाशाह प्रवृति का पिता अपने बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास में अवरोधक बन जाता है। बच्चों में जीवन में संघर्ष करने की क्षमता विकसित नहीं हो पाती। क्योंकि तानाशाह पिता अपने विचार बच्चों पर इस प्रकार से लादते रहते हैं,जिससे उनकी अपनी स्वतन्त्र सोच उभर नहीं पाती। ऐसे पिता अपने बच्चे को निरंतर अपनी छत्र छाया प्रदान कर उन्हें मानसिक,शारीरिक रूप से अपँग बना देते हैं। क्योंकि पिता के लिए अपनी संतान कि राय हमेशा बचकाना और निरर्थक लगती है। उसे अपनी संतान के तर्क संगत विचार भी विचलित करते हैं। अतः वह अपनी सोच को ही संतान पर थोपने का इरादा रखता है। उसे अपने विचारों से प्रथक किसी अन्य के विचार सुनने या जानने कि आदत नहीं होती। वह उसके प्रथक विचारों को अपने लिए बगावत के रूप में देखता है। अतः अपनी संतान कि प्रत्येक बात के विरुद्ध बोलना उसकी आदत होती है। उसका एक सूत्रीय कार्यक्रम होता है कि अपनी संतान द्वारा कही गयी बात को उलट दे। चाहे उसकी बात सौ प्रतिशत सही हो। वह कभी भी अपने विचारों के लिए ईमानदार और पारदर्शी नहीं होता।
तानाशाह पिता कि विशेषता होती है कि वह अपनी संतान को जड़ खरीद गुलाम मानता है,और वह (संतान )उसके तर्कहीन आदेशों, विचारों को मानने के लिए बाध्य है। वे कभी भी अपनी संतान पर भरोसा करना उचित नहीं मानता, भले ही उसकी संतान प्रौढ़ अवस्था में क्यों न पहुँच चुकी हो। मान लीजिए यदि बेटा डॉक्टर है तो उसके इलाज पर भरोसा नहीं होगा किसी अन्य डॉक्टर से इलाज कराना उसे सुरक्षित लगता है,भले वह डॉक्टर उसके बेटे से जूनियर हो। इसी प्रकार यदि बेटा वकील है तो उसकी सलाह पर भरोसा न कर अन्य वकील से सलाह लेना आवश्यक समझता है। उसके लिए उनकी संतान हमेशा अपरिपक्व ही होती है।
परिवार में यदि पुत्र तानाशाह हो
तानाशाह व्यक्ति का अपने माता पिता के प्रति व्यव्हार सम्माननीय नहीं होता,बल्कि आक्रोश से भरा होता है। यदि वह अपने जीवन में असफल है तो माँ बाप की कमी के कारण वह असफल रहा और यदि सफल है तो वह उसकी कड़ी महनत और लगन का परिणाम है । माता पिता का सहयोग तो कोई विशेष सहयोग नहीं था। अतः ऐसी संतान के सामने माता पिता तो ऐसे निरीह प्राणी हैं जो बच्चे कि सफलता और असफलता दोनों स्थिति में उसके आक्रोश का शिकार होते हैं। जबकि यदि पुत्र तानाशाह प्रवृति का नहीं है तो वह हमेशा हर हाल में अपने माता पिता को यथाशक्ति मान सम्मान देगा। और उनका आभारी रहेगा। दूसरी तरफ तानाशाह पुत्र परिवार में कलह का कारण बनता है।
तानाशाह पति का व्यव्हार अपनी पत्नी के प्रति
प्राचीन काल में पति को परमेश्वर के रूप में मान्यता थी, अर्थात उसके जुबान से निकली बात पत्नी के लिए स्वीकार्य होती थी। चाहे वह बात तर्कहीन और कष्टदायक ही क्यों न हो। उचित अनुचित व्यव्हार को सहन करना,उसके प्रत्येक आदेश को निभाना पत्नी का परम् धर्म होता था। अतः प्रत्येक परिवार में अक्सर पति का व्यव्हार तानाशाह प्रवृति लिए होता था और वह अपनी पत्नी सहित पूरे परिवार पर हावी रहता था। जिसे एक परंपरा भी माना जाता था। परन्तु वर्तमान युग में जब नारी उत्थान और समानता का दौर आया है,पत्नी भी पति के समान शिक्षित है उसकी भी अपनी तर्कशक्ति है,वह अपने पति की तर्कहीन बातों को ,या आदेशो को मानने को बिलकुल तैयार नहीं है। अतः आज पति का तानाशाही व्यव्हार मान्य नहीं है। उसे पारिवारिक कलह से बचने के लिए उदारवादी और तार्किक होना ही पड़ेगा। इसी प्रकार उसके परिवार का भविष्य सुरक्षित रह सकता है।
तानाशाह पत्नी का व्यव्हार
यद्यपि पति कि तानाशाही प्रवृति होना सामान्य बात है ,परन्तु कभी कभी पत्नी भी पति के साथ तानाशाही व्यव्हार करती है,वह पति कि उचित बातों को भी नकार देती है। उसकी इस प्रवृति का दुष्प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। उनमे संस्कार हीनता उत्पन्न होती है,वे किसी का सम्मान करना नहीं सीख पाते। उनका स्वभाव क्रोधी और जिद्दी का हो जाता है। क्योंकि बच्चों को विशेषकर लड़कों को नियंत्रित करने के लिए पिता का परिवार में प्रभावकारी रोल होना आवश्यक होता है। यदि पत्नी पति कि प्रत्येक बात को काटकर उसका अपमान करती रहेगी तो बच्चे दिग्भ्रमित हो जाते हैं,दिशाहीन हो जाते हैं। गृहस्वामिनी के नियंत्रण में परिवार का और परिवार के बच्चों का समुचित विकास असंभव है। उसके व्यव्हार में परिपक्वता एवं समझदारी नहीं हो सकती।
तानाशाह व्यक्ति और समाज
तानाशाह व्यक्ति हमेशा चापलूसों से घिरा रहना पसंद करता है। अतः जब तक कोई रिश्तेदार अथवा मित्र उसकी हाँ में हाँ करता है। उसकी चमचागिरी करता है वह व्यक्ति बहुत बढ़िया होता है। परन्तु उसकी इच्छा के विरुद्ध जाते ही सबसे घटिया हो जाता है। शीघ्र ही उससे सम्बन्ध विच्छेद कर लेता है। अतः तानाशाह व्यक्ति किसी व्यक्ति के प्रति उसकी धारणा समयानुसार बदलती रहती है। क्योंकि वे किसी व्यक्ति के सिद्धांतों पर नहीं, उसकी अपने प्रति चापलूसी के अनुसार उसके लिए अपने विचार नियत करते हैं। यही कारण है वे किसी रिश्तेदार ,पडोसी ,या किसी मित्र से स्थायी सम्बन्ध बनाने में असफल रहते हैं। समाज भी ऐसे लोगों से दूरी बनाकर रखना उचित मानता है। जब तक उसका अपना कोई स्वार्थ है या कोई कार्य उससे सिद्ध होना होता है,तो उसकी चापलूसी करना उसकी मजबूरी होती है। तत्पश्चात अपने सम्बन्धों को सीमित कर लेता है।
उपरोक्त सभी पहलुओं पर विचार करने के बाद यही निष्कर्ष निकलता है, कि परिवार एवं समाज कि भलाई के लिए समय समय पर आत्मविश्लेषण करते रहना चाहिए। और अपने व्यक्तित्व में आवश्यक सुधार करते रहना चाहिए। अपने व्यव्हार से सभी को हर्षित करने का प्रयास करना चाहिए। भय रुपी सम्मान कि कामना छोड़ कर, श्रद्धा रुपी सम्मान पाने का प्रयास करना चाहिए। तभी हम स्वयं को एवं अपने परिवार एवं समाज को प्रसन्न रख पायंगे। वृद्धावस्था में भी परिवार में सबके प्रिय बने रहेंगे।