तानाशाहों का विरोध करती फिल्में / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 28 अगस्त 2019
छब्बीस अगस्त को डॉ. शिवदत्त शुक्ला, कुमार अंबुज और अजीत राय से संस्कृति सचिव पंकज राग द्वारा बुलाई एक बैठक में मुलाकात हुई। पत्रकार अजीत राय विगत अनेक वर्षों से कान फिल्म समारोह जा रहे हैं और उनकी रिपोर्ट हिन्दी भाषी अखबारों में प्रकाशित होती है। कान समारोह के आयोजकों ने उन्हें विशेष दर्जा दिया हुआ है। वे इस तरह का सम्मान पाने वाले हिन्दी भाषा के एकमात्र पत्रकार हैं। अजीत राय से ज्ञात हुआ कि ईरान के फिल्मकार असगर फरहादी की फिल्म 'सेल्समैन' को ऑस्कर पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई परंतु ट्रम्प महोदय की नीतियों का विरोध करते हुए वे ऑस्कर ग्रहण करने नहीं गए। उनकी जगह उनके देश के एक वैज्ञानिक ने पुरस्कार ग्रहण करते हुए कहा कि अंतरिक्ष से दुनिया देखने पर कहीं कोई सरहद नज़र नहीं आती। सारी सरहदें मनुष्यों द्वारा निर्मित हैं।
अजीत राय ने बताया कि एक सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली कंपनी ने कान फिल्म महोत्सव परिसर में एक सेट लगाया है। भारतीय कलाकार उसी सेट पर जाकर लाल कालीन पर चलने के दृश्य शूट करते हैं। केवल भारत के अखबारों में प्रकाशित होता है कि फलां भारतीय कलाकार को लाल कालीन पर चलने का सम्मान दिया गया। कान समारोह पर विदेशों में प्रकाशित सामग्री में यह रेड कारपेट सम्मान की कोई बात कभी प्रकाशित ही नहीं की जाती, क्योंकि तमाम आमंत्रित लोग लाल कालीन पर चलकर ही फिल्म देखने पहुंचते हैं। अजीत राय ने विगत दशक में कभी किसी भारतीय सितारे को कान में कोई फिल्म देखते हुए नहीं पाया है। कुछ कलाकार फोटो प्रकाशित कराने हेतु सिनेमाघर में प्रवेश तो करते हैं और फायर एग्जिट गेट से बिना फिल्म देखे ही बाहर चले जाते हैं।
कुछ वर्ष पूर्व एक फिल्मकार ने उस समय चर्चित महिला कलाकार को अपनी फिल्म में अभिनय के लिए 20 लाख रुपए के मेहनताने पर अनुबंधित किया था। सितारों ने उन्हें बताया कि अगले सप्ताह वे कान फिल्म समारोह में आमंत्रित हैं और लौटते ही उसकी फिल्म की शूटिंग शुरू करेंगी परंतु कान में लाल कालीन पर उनके चलने के चित्र भारतीय अखबारों में प्रकाशित हुए तो उन्होंने अपने मेहनताने के रूप में 75 लाख रुपए की मांग की गोयाकि कान में लाल कालीन पर चलते ही उनमें कोई सुर्खाब के पर लग गए थे। फिल्मकार ने फिल्म बनाने के इरादे को ही निरस्त कर दिया। विगत सौ वर्षों में बनकर प्रदर्शित होने वाली फिल्मों से सौ गुना अधिक फिल्में बन ही नहीं पाई या आधी-अधूरी बनकर रह गईं। खाकसार की ऐसी ही एक फिल्म 'वापसी' बारह रीलें बनकर अधूरी रह गई। उस फिल्म के पूंजी निवेशक किसी अपराध में उलझ गए थे। उसी फिल्म के लिए निदा फाज़ली का गीत इस तरह था, 'ये कंकर पत्थर की दुनिया जज़्बात की कीमत क्या जाने, दिल मंदिर भी है, मस्जिद भी है ये बात सियासत क्या जाने। आज़ाद न तू, आज़ाद न मैं जंजीर बदलती रहती है, दीवार वही रहती है तस्वीर बदलती रहती है।' गौरतलब है कि अंतरिक्ष से देखने पर धरती पर खिंची हुई कोई सीमा-रेखा नज़र नहीं आती परंतु मनुष्य शायद अंतरिक्ष में पहुंचते ही वहां भी सरहदें बना देगा। अजीत राय ने कहा कि तानाशाही प्रवृत्ति का विरोध केवल सिनेमा कर रहा है। पत्रकार तो नागपाश में बंधे हैं। अजीत राय ने बताया कि कान समारोह के समय वहां के कछ निवासी अपने घर का एक हिस्सा विदेशों से आए दर्शकों को किराये पर देते हैं। कुछ रहवासी अपना पूरा घर ही किराये पर देकर कुछ दिनों के लिए अपने किसी दूर रहने वाले रिश्तेदार के घर चले जाते हैं। कान परिसर में होटल के कमरे का किराया दो लाख रुपए प्रतिदिन तक हो जाता है। डॉलर और पाउंड देने वालों के लिए यह रकम साधारण हैं परंतु रुपए का अवमूल्यन होता जा रहा है।
बलदेवराज चोपड़ा की फिल्म 'धूल का फूल' का गीत है- 'कुदरत ने बख्शी थी हमें एक ही धरती, हमने ही कहीं भारत, कहीं ईरान बनाया'। जावेद अख्तर ने फिल्म 'रिफ्यूजी' के लिए गीत लिखा था- पंछी नदिया पवन के झोंके, कोई सरहद ना इन्हें रोके सरहदें इन्सानों के लिए हैं सोचो तुमने और मैंने क्या पाया इन्सां हो के'। 2022 में वैश्विक मंदी सब कुछ बदल देगी।