तार / प्रतिभा सक्सेना
वह बड़ा उदास था.
थोड़ी देर पहले ही उसे तार मिला था,उसके भतीजे की मृत्यु हो गई थी.जवान भतीजा,खूब तन्दुरुस्त,अच्छा ऊँचा पूरा,नाक के नीचे स्याह रेखाएँ बहुत स्पष्ट दिखने लगीं थी.डूब कर मर गया.ऐसी कोई बात तो थी नहीं, बड़ी मस्त तबियत का था.किसे मालूम था जाकर वापस नहीं लौटेगा? लौटी उसकी निष्प्राण देह! माँ-बाप कैसे सहन कर पायें, छोटे-छोटे भाई-बहिनो को कैसा लग रहा होगा !
उसे सहसा विश्वास नहीं हुआ कि हितेन मर गया है.अभी कुछ दिन पहले ही तो उसके पास आया था.एक हफ़्ते साथ-साथ रहे थे दोनो। उम्र मे भी तो कोई खास अंतर नहीं था.घर मे कोई उसके सबसे निकट था तो बस हितेन ही.भतीजे से अधिक दोस्त था वह उसका. उसे बार-बार लगता अभी दरवाज़ा खुवेगा और बैग लिये हितेन कमरे मे घुस आयेगा,खूब जोर-जोर से हँसकर सारा कमरा गुँजा देगा. नहीं, वह अब कभी नहीं अयेगा!
वह धीरे-धीरे उठा, रोज़मर्रा के काम तो होंगे ही, देह के धर्म तो निभाने ही पड़ेंगे!बिना किसी उत्साह के उसने कपड़े बदले. चाय भी ते नहीं पी थी अभी,पर उसका मन नहीं हुअ कि चाय बनाये और पिये.उदासी और बढ़ गई.रेलवे टाइम-टेबल उठा कर देखा - पौने बारह बजे मिलेगी पहली गाड़ी,तब तक क्या किया जाय? खाना खा ले?फिर तो कहीं आधी रात को पहुँचेगा. मौत के घर मे जाते ही खाने-पीने का डौल नहीं बन पायेगा.यह सब अच्छा भी तो नहीं लगेगा. फूछनेवाला होगा भी कौन? भइया भाभी बेचारे जाने किस हाल मे होंगे!पता नहीं कौन-कौन होगा वहाँपर !
भूख- प्यास? शरीर अपनी माँग करेगा ही.
उसने उठ कर कमरे का ताला लगा दिया.पाँव होटल की ओर बढ़ चले.रास्ते मे भी वह हितेन के बारे मे सोचता रहा.बड़ी छेड़ने की आदत थी,'चाचा,चाची के और बहने होंगी?','यार,चाचा तुमने कुछ सूट-ऊट के कपड़े नहीं खरीदे?'
वह कह देता, 'अब मै लेकर क्या करूँ,सब वहीं से आ जायेगा.' जब से शादी तय हुई थी, कुछ-न-कुछ परिहास करता ही रहता था.'हाँ, चाचा, अब तो कुछ नामा इकट्ठा कर लो.'
बात बड़े पते की कहता था.बीच-बीच मे उसे भाई का ग़मगीन चेहरा और पछाड़ें खाती भाभी के चित्र दिखाई देते रहे. एक मन हुआ खाना खाने न जाय! लेकिन मेरे न खाने से क्या होगा? वहाँ जाकर पता नहीं कब क्या हो!दौड़ भाग भी तो सारी उसी को करनी पड़ेगी.पता नहीं क्या-क्या होगा ! उसका मन बड़ा भारी हो आया. भूख बड़े ज़ोर की लग रही थी. खाना खा लेना ही ठीक है, चाय भी तो नहीं पी है! इस तरह न खाने को देखेगा भी कौन?
रास्ते मे गुप्ता दिखायी दे गया. उसने कतरा कर निकल जाना चाहा, जैसे देखा ही न हो. पर गुप्ता आवाज़ दे बैठा, 'क्या मुँह लटकाये चले जा रहे हो? शादी क्या तय हुई, दुनिया-ज़माने का भी होश खो बैठा, मेरा यार.'
उसने सोचा कह दूँ भतीजा मर गया है, वही हितेन, जो यहाँ आया था- पर वह रुक गया.यह भी क्या सोचेगा, सगा भतीजा मर गया और चले जा रहे हैं खाना खाने!
'आज पता नहीं माइंड बड़ा अपसेट हो रहा है,' वह गुप्ता की ओर हल्के से मुस्करा दिया.
'यह बात! पेट मे चूहे कूद रहे होंगे. चलो, तुम्हें कुछ स्पेशल खिलायें!'
उसने होटल के नौकर से दाल और फुल्का ले आने को कहा, गुप्ता ने बीच मे टोक दिया,' कहाँ बहक रहे हो आज? ओ शंभू, कबाब और टमाटर प्याज़ की प्लेट बाबू के आगे लाकर रख.'
'नहीं यार, आज मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं.'.
'तो खाने से क्या दुश्मनी है? चल, बिल मेरी तरफ!तू क्यों फ़िक्र करता है? आखिर, दोस्ती किस दिन के लिये है?'
वह इन्कार नहीं कर सका. बढ़िया खाना और चार जनो के बीच हा-हा-हू-हू में उसके ध्यान से सब उतर गया. जितना उदास और भारी मन लेकर वह आया था, उतना ही हल्कापन और भरा पेट लेकर बाहर निकला. उसे लगा खाली पेट मे हर दुख बहुत बड़ा लगा करता है.
मेरे अफ़्सोस करने से होगा भी क्या!जो होना था हो चुका, उसके लिये कुछ किया भी तो नहीं जा सकता! मेरे पास आता था तो मुझे इतना भी लगा नहीं तो किसी के मरने पर किसी और को कौन सा फ़र्क पड़ता है? सुनकर चच्-चच् सभी कर देते हैं,एकाध बात खोद कर पूछ लेते हैं और अपना रास्ता लेते हैं.अपनी-अपनी व्यस्तताओं मे दूसरे के सुख-दुख का ध्यान किसे रहता है?
गुप्ता को नहीं बताया अच्छा ही किया, उसने सोचा, दुख तो केवल उन्हीं लोगों को होता है जिनका कुछ सम्बन्ध होता है. अन्य लोगों के लिये उसका महत्व ही क्या!और सब ऊपरी दिखावा करते हैं. हाँ भाई को तो दुख होगा ही,बहुत दुख. घर का बड़ा बेटा था, उसी पर सारी आशाएँ केन्द्रित थीं. पाले-पनासे की ममता, घर के एक बहुत खास सदस्य की दुखद हानि! और किसी, किसी बाहरवाले को क्या फ़र्क पड़ता है उसके होने या न होने से? यों मुँह देखी सभी कह देते हैं.
गुप्ता को मेरा चुप रहना अजीब लग रहा होगा, सोच कर उसने उसकी ओर मुस्करा दिया.दोनो ने साथ-साथ सिगरेट पी फिर वह अपने कमरे पर चला आया.अन्दर कदम रखते ही उसे वही तार दिखायी दे गया. घड़ी देखी, गाड़ी जाने मे अभी बहुत देर है.चलो दफञ्तर चल कर ही एप्लीकेशन दे देंगे यहाँ बैठ कर भी क्या होगा.उसने तार उठा कर जेब मे डाल लिया - एप्लीकेशन के साथ नत्थी दर दूँगा - हो सकता है,बाद मे छुट्टी बढ़ाने की ज़रूरत पड़ जाये.
उसे एकदम ध्यान आया - कल तो छुट्टी है सेकन्ड सेटर डे की,और परसों संडे!आज छुट्टी लेता हूँ तो ये दोनो बेकार जाएँगी.आज और तार न आता! फिर उसके दिमाग़ मे विचार आया, आजकल तो तार भी अक्सर साधारण डाक से भी देर मे मिलते है.मैं ठहरा अकेला आदमी! कोई जरूरी नहीं तार के टाइम कमरे पर ही मिलूँ!तो ये दिन निकाल दूँ,तीन छुट्टियाँ एकदम बच जायेंगी.और अब वहाँ धरा ही क्या होगा,शुरू का सारा काम निबट चुका होगा!
उसके पाँव ऑफ़िस की ओर चल पड़े. अच्छा हुआ गुप्ता से कहा नहीं, और छुट्टी की एप्लीकेशन भी नहीं दी. एक बड़ी बेवकूफ़ी से बच गया.उसने चैन की साँस ली.
हाँ, बेकार की भावुकता मे क्या घरा है? आज ऑफ़िस करके रात की ट्रेन से चला जाऊँगा, हद -से-हद कल सुबह! यह भी तो हो सकता था, मैं पहले ही कहीं निकल गया होता और फिर तार आता! या मैं खाना खाने होटल जा चुका होता, फिर वहीं से दफ़्तर चला जाता, तब तो शाम को ही कमरे पर पहुँचता! तब तो मुझे ख़बर ही नहीं मिलती।
वह काफ़ी निश्चिन्त हो गया.
ऑफ़िस मे उसका मन काफ़ी हल्का रहा, खाया भी तो खूब पेट भर के था! चार जनो के साथ ही तो हँसने-बोलने की इच्छा होती है, नहीं तो चला जा रहा होता ट्रेन में मोहर्रमी सूरत लिये!
लेकिन हितेन था बड़ा हँसमुख!
जब भी आता भाभी से काफ़ी-सा नाश्ता बनवा लाता था. मट्ठियाँ तो उसे बहुत पसन्द थीं औऱ उनके साथ आम का अचार! चचा-भतीजे वहीं कमरे मे चाय बनाते और मिल कर खाते थे. अब कौन लायेगा मट्ठियाँ! वैसे तो कभी भाभी ने भेजी नहीं, वो तो ये कहो अपने बेटे के साथ भेजती थीं, सो मै भी साथ खा लेता था! पर भाई ! भाई के लिये उसके मन मे बड़ी करुणा उपजी. पिता के बाद उन्हीने गृहस्थी का भार सम्हाला था. उसे पढ़ाया-लिखाया, और अब तो शादी भी तय कर दी थी- वहीं कहीं.पर अब साल भर तो उसकी शादी होने से रही!
'कैसे, चुपचाप बैठे हो आज यार? नींद आ रही है क्या?'
वह एकदम चौंक गया, फिर चैतन्य हो गया.
'कल रात नींद ठीक से नहीं आई,' फिर उसे लगा जवाब कुछ मार्के का नहीं बन पड़ा तो उसने जोड़ दिया,' जब दिल ही टूट गया....'और बड़े नाटकीय ढंग से सीने पर हाथ रख लिया.
'छेड़ो मत उसे. अपनी होनेवाली बीवी के वियोग का मारा है बेचारा!'
सब लोग खिलखिला उठे.
अपनी प्रत्युत्पन्न मति के लिये उसने मन-ही-मन अपनी पीठ ठोंकी.
किसी को पता नही लगने देना है अभी. बताने से और दस बातें निकल आयेंगी. अजीब-अजीब बातें जिनका जवाब देने में उसे और उलझन होगी. अभी तार ही तो मिला है कैसे क्या हो गया कुछ भी तो पता नहीं. बहुत पहले पढ़ा हुआ रहीम का एक दोहा उसे याद आ गया-'रहिमन निज मन की बिथा मन ही राखो गोय' रहीम बिचारे भी कभी ऐसी परिस्थिति मे पड़े होंगे-क्या पते की बात कह गये हैं!
घर पर उसकी प्रतीक्षा हो रही होगी! पर उसके होने न होने सेफ़र्क क्या पड़ता है? दुख तो वास्तव मे उसी को भोगना पड़ता है, जिस पर पड़ता है बाकी सब तो देखनेवाले हैं, तमाशबीन की तरह आते है चले जाते हैं.'हाय. ग़जब हो गया', 'बहुत बुरा हुआ', ये सब तो व्यवहार की बातें हैं. ग़मी मे जाना भी तो लोगों की एक मजबूरी है. कैसे घिसे-पिटे वाक्य कहे-सुने जाते हैं.....पर भइया-भाभी बड़े दुखी होंगे.दुख तो होना ही है, इतना बड़ा जवान लड़का, जिस पर ज़िन्दगी की आशायें टिकी हों, देखते-देखते छिन जाये!कैसा लग रहा होगा उन्हे!
'सेकिन्ड -सेटर डे' भनक उसके कानो मे पड़ी. मुँह से निकल गया, ' क्या बात है?'
'पूछ कर मना मत कर देना.'
उसकी जगह उत्तर गुप्ता ने दे दिया, 'अरे, हम लेग क्यों मना करेंगे?मना करें तुम लोग, जो दो-दो, चार-चार बच्चों के बाप हो. ला मिला हाथ1 '
गुप्ता ने उसकी तरफ़ हाथ बढ़ाया. उसने बिना सोचे-समझे अपना हाथ दे दिया.
'दो दिन की छुट्टियाँ हैं तो पिकनिक का प्रोग्राम बना रहे हैं.'
'नहीं, नहीं, मै तो कल घर जा रहा हूँ.'
'अब धोखा मत दे यार! फिर यहाँ क्या मज़ा आयेगा, ख़ाक?' गुप्ता फिर बोल दिया.
'नहीं यार गुप्ता, मुझे ज़रूरी जाना है.ता....खत आया है...'वह कहते-कहते सम्हल गया.
कहते-कहते उसका हाथ फिर पैन्ट की जेब मे चला गया जिसमे तार पड़ा था. उसने फ़ौरन हाथ बाहर खींच लिया. उसकी अस्वाभाविकता पर किसी ने ध्यान नहीं दिया.
'तो, कौन वहाँ बीवी इन्तज़ार कर रही है तेरी?'
'अरे वही तो चक्कर है', क्या बोले यह सोचने का मौका उसके पास नहीं था.
उत्सुकता मे दो-चार जने उसके पास खिसक आये.
यह क्या कह दिया उसे पछतावा होने लगा.
' तो यह कह ससुर जी ज़ेवर चढ़ाने आ रहे हैं? '
'और हमारी मिठाई?'
उसने मन-ही मन स्वयं को धिक्कारा. कुछ उत्तर सूझ न पड़ा. मुँह से निकला, 'अब तो घपले में पड़ गई साल..' कहते-कहते रुक गया। '
'जाने दे यार ! जब कह रहा है जाना जरूरी है.'
'तो एक दिन मे क्या फ़र्क पड़ जायेगा?'
' वह चुप रहा, हाँ, एक दिन मे क्या फ़र्क पड़ जायेगा -उसके भी मन में आया. न हो कल शाम को चला जाऊँगा, रात की गाड़ी सो! परेशान लोगों को रात मे न जगाना ही ठीक रहेगा। उसने हामी भर दी।
अपने आप ही फिर उसका हाथ जेब मे चला गया और तर के कागज से फिर छू गया. उसका मन फिर दुविधा मे पड़ गया.पिकनिक पर जाना अच्छा नहीं लगता, क्यों न लोगों को बता दूँ? पर ये लोग क्या सोचेंगे? गुप्ता तो सुबह से ही पीछे लगा है. सबसे कहता फिरेगा! नहीं-नहीं, बेकार है कहना.
कोई सुनेगा तो क्या कहेगा? एक भाई ग़मी मे पड़ा है दूसरा पिकनिक पर जा रहा है. पर किसी को क्या पता कि मुझे तार मिल गया है! उसने अपने मन को संतुष्ट कर लिया।
इतनी जल्दी उस वातावरण में जाने मे उसे उलझन हो रही थी. भाई के बाद वही घर का बड़ा है. उस स्थिति मे वह स्वयं को बड़ा असहाय अनुभव करने लगा. उसे स्वयं पर बड़ी दया आने लगी. उस दृष्य की कल्पना कर वहफिर विचलित हो गया.
'क्यों शादी क्यों टल गई?लड़की मे कुछ....'
'नहीं, नहीं उसकी रिश्तेदारी मे मौत हो गई है,' उसने अपना पिण्ड छुड़ाया.
'वाह मरे कोई और शादी किसी की रुके?'
बड़े शायराना अन्दाज़ मे रिमार्क पास किया गया था. उसे फिर उलझन होने लगी पर वह चुप रहा.
'इसीलिये ऑफ़ है मेरा यार?' गुप्ता ने फिर टहोका
उसका मन समाधान खोज रहा था-जब कल जाना है तो आज बेकार परेशान हुआ जाय! उसने स्वयं को तर्क दिया-दुख किसी को दिखाने के लिये थोड़े ही होता है, वह तो मन की चीज़ है। ये ऊपरी व्यवहार तो चलते ही रहते हैं. चलो, बिगड़ी बत सम्हल गई!
सुबह खाने का बिल गुप्ता ने दिया था.क्यों न आज शाम को उसका उधार उतार दूँ!वह गुप्ता की ओर मुड़ा.
'ऐ गुप्ता, भाग मत जाना, साथ चलेंगे। '
'भागूँगा कहाँ? हम दो ही तो हैं फ़िलहाल अल्लामियाँ से नाता रखनेवाले। '
बेकार कमरे पर जा कर क्या करूँगा, उसने सोचा, यहीं से घूमने निकल जोयेंगं,फिर खाना खाकर पिक्चर चले जायेंगे, रात भी कट जायेगी।
उसे फिर भूख लगने लगी थी और ग़म फिर उसके मूड पर छाने लगा था. जल्दी से जल्दी वह होटल पहुँच जाना चाहता था. खाली पेट में उलझने और बढ जाती हैं।
भतीजे की मृत्यु अब उसके लिये पुरानी बात हो गई थी। घर पहुँच कर फिर रिन्यू कर लेंगे उसने सोचा।
उसका हाथ फिर जेब में चला गया और उस काग़ज से टकरा गया। जैसे बिच्छू छू गया हो, उसने झटक कर जेब से हाथ निकाल लिया और गुप्ता के साथ होटल की ओर बढ़ गया।