तालाबंदी / प्रभा खेतान / पृष्ठ 1
. तालाबंदी :
व्यावसायिक-जगत को कथा की धूरी बनाकर लिखा हुआ सन् १९९१ में सरस्वती विहार, दिल्ली से प्रकाशित 'तालाबंदी` उपन्यास प्रभा खेतान का आत्मकथांश है। उपन्यास का नायक 'श्याम बाबू` प्रभा स्वयं ही हैं। औपन्यासिक बदलाव के लिए मात्र कुछ मिथक जरूर गढ़े गए हैं।
सेठो के यहां मुनीम का काम करने वाले खानदान में जन्में श्यामबाबू पैतृक काम करने से मना कर देते हैं और स्वयं व्यवसाय शुरू करते हैं। वे अपनी रात-दिन की मेहनत के बाद व्यावसायिक-जगत में स्थापित हो जाते हैं।
व्यापार की सफलता से श्यामबाबू ने पैसा तो बहुत कमा लिया मगर वे दिन-प्रतिदिन परिवार के सदस्यों से दूर होते गए। खुद गरीबी में जीए श्यामबाबू को लगता है कि उनके पास सभी कुछ न कुछ पाने की इच्छा से आते हैं, सब स्वार्थवश बंधे हुए हैं। उन्हें अपना बेटा बिगड़ता लग रहा है, वो उसे जन्मदिन पर भी समय नहीं दे पाते हैं। पत्नी थोड़ा-सा समय भी साथ बिताने के लिए तरस जाती है। वह मजदूर यूनियन के जुलूस और धमकियों से आतंकित होती है, पति को अपनी बात पर नहीं मना पाती, हमेशा भयभीत-सी रहती है। मां अपने बेटे को श्रवणकुमार मानती है लेकिन फिर भी शिकायत करती है। बेटा उसे समय नहीं दे पा रहा है। मां को लगता है पैसे पाने के बाद बेटा बदल गया है। श्यामबाबू का भानजा विक्रम भी स्वार्थवश मामाजी की खुशामद करता है।
पारिवारिक स्थितियों से बाहर फैक्ट्री में भी रोज नई समस्याएं आती हैं। सीटू यूनियन के सहयोग से लगभग सब ठीक चल रहा है। शेखर बाबू का सहयोग उन्हें सहारा देता है। यूनियन पर शेखर की जगह स्वयं कमाण्ड करने की लालसा उन्हें मार्क्स को समझने के लिए प्रेरित करती है। वे मास्टरजी के पास पढ़ने जाते हैं और पूर्ण स्वामित्व की भूख के कारण यूनियन तोड़कर दूसरी यूनियन बना देते हैं। फैक्ट्री में दूसरी यूनियन बनती है और उसका नेतृत्व भी कोई अन्य व्यक्ति कर रहा है जो शेखर मुखर्जी और श्यामबाबू दोनों के सामने चुनौती खड़ी करता है। यूनियन की बगावत और घर तक आए जुलूस की वजह से पूरा घर आतंकित रहता है। श्यामबाबू स्वयं तनाव में है। दो-तीन दिन की ऊहापोह के बाद पैसे के बल पर शेखर बाबू से मिलकर सीटू से रिजायन करवाते हैं और फैक्ट्री-गेट पर क्लोजर का नोटिस लगवाकर अप्रत्यक्ष मध्यग्राम में नई फैक्ट्री में काम शुरू करने की झूठी खबर फैलाते हैं। इस प्रकार झूठ-सच और चालाकी से अपने-आप को डूबने से बचा लेते हैं।
यह उपन्यास व्यावसायिक परिवार की कुंठाओं के साथ-साथ व्यवसाय की समस्याओं और मालिक-मजदूर के संबंधों पर दृष्टि डालता है। स्वयं प्रभा के शब्द-
तालाबंदी उपन्यास में व्यापारिक धोखाधड़ी, श्रमिक आंदोलन, एक व्यापारी का मानसिक तनाव सभी कुछ अभिव्यक्त हुआ है। व्यापार करना इतना कठिन है इसको भली-भांति दर्शाया गया है।``
एक सुविधाभोगी इंसान जो बाहर से देखने पर सुखी और भाग्यशाली नजर आता है, उसके भीतर के हिस्से कैसे चटकते और टूटते रहते हैं, ये इस उपन्यास में प्रत्यक्ष देखने को मिलता है।