तालियाँ पीटने से कुछ न होगा / मनोहर चमोली 'मनु'
अक्सर सुनने को मिलता है कि रंगकर्मियों को कुछ नहीं चाहिए। बस! उनके काम की तारीफ कर दो। क्यों भाई? क्या रंगकर्मी हाड़-मांस का नहीं है। कठपुतली या बंदर है। अब तो कमोबेश न कठपुतलियां रही न मदारी। फिर? माफ करना। शुरूआत ही तल्ख है। इस लेख का अंत न जाने किस बात पर और कैसे खत्म होगा। पूरी दुनिया में जितनी भी कलाएं हैं। जितने भी शौक हैं। जितने भी मेधा के काम है। आज के दौर में सबसे कठिन और सबसे अधिक मेहनत की दरकार ‘रंगकर्म’ में हैं। ये वो जानते हैं जो खुद रंगमंच से जुड़े हैं। यही कारण है कि बिना नाम लिए बिना मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अपवादों को छोड़ दे या अंगुलियों में गिनने भर वाले वो बड़े नाम हैं जिन्होंने थियेटर को ही ओढ़ा-बिछाया और थियेटर में ही आखिरी शाम बिताई।
यह आलेख रंगकर्मियों के साथ-साथ उन दर्शकों के साथ संवाद करने का बहाना मात्र है जो कहीं न कहीं आज भी रंगमंच से किसी भी तरह से जुड़े हैं। उनसे तो क्या बात करनी जो इसे मात्र ग्लेमर की चीज मानते हैं। फिर वहीं से शुरू करते हैं जहां से आलेख की शुरुआत हुई है। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है कि आज आदमी वक्त के साथ दौड़ रहा है। कल भी वक्त उतना ही था जितना आज है। आज पहले की अपेक्षा रंगमंच करने के लिए सुविधाएं ज्यादा हैं। आज कई तकनीक हैं। कई पोशाकें हैं। री-टेक की संभावनाएं है। यह सब पहले नहीं था। आज यहां-वहां जाने के लिए सुविधाएं हैं। आज मंच से आगे और मंच से पीछे की सब फौरी तैयारियां आदि के लिए साधन हैं। सम्पर्क बढ़ा है। संसाधन भी बढ़े हैं। पहले यह सब नहीं था।
आज रंगमंच के नाम पर-नाटक के नाम पर छोटे-छोटे कस्बों में नाट्य समूह हैं। नाटककारों की भी कमी नहीं है। निर्देशकों की भी कमी नहीं है। लड़के-लड़कियां भी पहले के मुकाबले यहां हाथ आजमाने में कम उत्साह नहीं दिखाते हैं। फिर? फिर दिक्कत क्या है?
रंगमंच को बचाये और बनाये रखने के लिए जो भी योजनाएं हैं वो नाकाफी हैं। एक समय था जब आक्रेस्ट्रा का युग था। रामलीला का युग था। स्वांग का युग था। दंगल का युग था। कबूतर बाजी का युग था। भैंसों-मुर्गो की लड़ाई का युग था। चौपाल पर बैठकर गपियाने का युग था। पुश्तैनी काम धंधों से प्यार करने का युग था। आज सब बदल गया है। कोई नाम लेने वाला भी नहीं बचा। पतंगबाजी भी धीरे-धीरे गायब हो गई। ये कुछ नाम लिए गए है। और भी बहुत कुछ था। कुछ को छोड़ दें तो अधिकतर कौशल भी थे तो मनोरंजन के साधन भी और कहीं न कही आजीविका के भी। कुछ थे जो बारह महीने नहीं कुछ ही समय के लिए खेले-किये जाते थे बाकी फिर दूसरे काम साथ में चलते थे। रंगमंच में कहीं न कहीं मनोरजंन का भाव भी छिपा है। कहीं न कहीं व कला है तो कौशल भी है। उसे अंशकालिक नहीं माना जा सकता। छठी-छमाही में कर दिया और हो गया। कहीं न कहीं उसे आजीविका के साथ भी जोड़ा जाना चाहिए। मैं उसे फिल्मों की ओर ले जाने की वकालत नहीं कर रहा। क्यो? क्या अमिताभ बच्चन कोई दूसरा हुआ? फिल्म जगत में और नाट्य जगत में अंतर है। ये ओर बात है कि नाटक के कलाकार फिल्मों में भी हैं। लेकिन फिल्मों के कितने कलाकार रंगमंच में हैं?
सबसे पहली बात और जरूरी यह है कि आज का रंगमंच सिर्फ साधना का मसला नहीं रह गया है। ये तुरत-फुरत में मजमा लगा कर करने वाला कोई खेल तमाशा तो है नहीं। कई तरह के लोग एक नाटक को खेले जाने से जुड़े होते हैं। उनकी प्रतिष्ठा-सोच-उद्देश्य तक दांव पर लगा होता है। कुल मिलाकर नाटक को अब यदि खेले जाने की पंरपरा में जिंदा रखना है तो कलाकारों के बारे में उनके कॅरियर के बारे में उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए ठोस योजना की दरकार होगी। फिर वहीं की साल में एक-आध नाट्य समारोह होने से बात नहीं बनती। न ही। हर महीने नाट्य समूह एक शहर से दूसरे शहर में डोलता रहेगा।
फिर रास्ता क्या है। रंगकर्मी आज तक भी एक मत नहीं हो पाएं हैं। दो तरह के मत प्रचलित हैं। रंगमंच रोटी नहीं दे सकता। दूसरा मत है रंग मंच को छठी-छमाही नहीं किया जा सकता। यह सतत् चलने वाला कर्म है। दोनों मत कुछ हद तक सही हैं लेकिन दोनों एक दूसरे की पुष्टि भी नहीं करते और न ही दोनों एक दूसरे के विरोधी दिखाई पड़ते हैं।
आज के दौर में पूर्णकालिक रंगमंच से जुड़े साथियों की आर्थिक स्थिति किसी से नहीं छिपी हुई है। वे एक उम्र के बाद बेहद तनाव में दिखाई पड़ते हैं। उनके समर्पण से सबको सहानुभुति तो होती है। लेकिन मदद को हाथ नहीं उठते। सरकार पर या संस्थाओं से भी कोई बड़ी उम्मीद लगाना बेमानी है। कमाने-घर बसाने अपने विकास का सारा समय तो थियेटर को दे दिया। अब? नाटक रोज-रोज तो होते नहीं। फिर साल भर खुद को रंगकर्मी कहां तक व्यस्त रखे। यहां-वहां हो रहे नाट्य समारोह में जाने-शिरकत करने-नाटक देखने ही के लिए किराया-भाड़ा-वहां रहना-खाना अपनी जेब से कब तक करेगा। कब तक? ये तो रही उन रंगकर्मियों की जो आज भी रंगमंच को पूर्णकालिक ढंग से समय दे रहे हैं। वे खाली समय में कितना तो सोएंगे। कितना तो पढ़ेंगे और कितनी रिहर्सल करेंगे। किनके साथ करेंगे और कब तक? यह यक्ष प्रश्न हैं। जाहिर-सी बात है कि एक सीमा तक ये जूनून और जोश समय के साथ कुंद पड़ जाता है। अभिनय क्षमता से लबरेज रंगकर्मी साथी रोजगार की तलाश में कहीं खो जाते हैं।
दूसरा मत कि यह सतत् चलने वाली प्रक्रिया है। कुछ दलों को छोड़ दे तो यह बेहद संघर्षपूर्ण-जटिल और तनाव भरा रास्ता है। लगातार और लगातार नाटक करते रहना। एक शहर से दूसरे शहर जाना। सिर्फ रंगमंच को समर्पित हो जाने वाले साथियों से ये उम्मीद करना कि वे सिर्फ नाटक के बारे में सोचे-अभिनय के बारे में सोचे। रिहर्सल को पूरा वक्त दें। घर-परिवार-दोस्त-रिश्तेदार के लिए समय बाद में निकालें। ऐसा हो नहीं पाता। हर मंचन के बाद दूसरे मंचन के लिए जाते समय कई बार किसी नाटक के पात्रों का न जा पाना और उसकी जगह फिलर पात्र से अभिनय कराना पूरे नाटक को कमजोर कर देता है। यह हम सब जानते हैं। इन दिनों प्रसिद्ध गायकों-कव्वालों-नर्तकों की साथी मंडली को रंगकर्मियों से अधिक पैसा मिलता है। वे दस बारह दिन ये काम करते हैं और बाकी समय अपने परिवार को देते हैं। उन्हें माह में दो-तीन शो से इतना पैसा मिल जाता है जो एक अदद प्राइवेट नौकरी से ज्यादा होता है। सो वे अच्छे से मानसिक-सामाजिक-सांस्कृतिक और सामुदायिक रूप से
ग्रुप के साथ बने रहते हैं। लेकिन रंगमंच में ऐसा नहीं है। यहां तो तीस-चालीस दिन की रिहर्सल के बाद ही एक मंचन हो पाता है। उसमें भी दर्शक आएं न आएं। दर्शक दीर्घा में कैसे लोग होंगे। हौसला बढ़ाएंगे या सिर्फ समय बिताने के लिए आएंगे। अनुरोध पर मान रखने के लिए आएंगे। कई बार देखा गया है कि थियेटर से जुड़े कलाकारों के परिचित ही दो-तीन घंटे सभागार में शांति से नाटक नहीं देख पाते। कारण आदत में शामिल ही नहीं है अब नाटक जो देखना। नाटक की समझ और एक दृश्य से दूसरे दृश्य में बदलते समय का जो समय होता है उसमें सीटीबाजी-हो हल्ला आज आम बात हो गई है। आर्थिक मदद करना तो दूर की कौड़ी हो गया है। बहुत जगह टिकट लेकर नाटक देखने की शुरुआत के परिणाम सुखद नहीं रहे। अब नाटक के मंचन से पहले लोग पूछते हैं कि टिकट तो नहीं रखा है?
आलेख समाधान क्या देता है? इसमें संशय है। देशकाल और परिस्थितियां भिन्न हो सकती हैं। कुछ क्षेत्र विशेष हैं जहा मुरीद हैं जो चाहते हैं कि नाटक खेले जाएं। कलाकारों का सम्मान हों। लेकिन हर माह तो नाटकों के लिए वे सहयोग नहीं कर सकते। फिर? रंगमंचीय कलाकारों को स्थाई कोष बनाना ही होगा। शराब के ठेके छूटते हैं। एक-एक आदमी सौ-सौ आवेदन करता है। बीस-बीस हजार जमानत राशि होती है। कई ठेके पड़ते हैं। कई प्रकार के काम और धनराशि विकास के नाम पर भेंट चढ़ जाती है। धर्म के नाम पर विधायक-सांसद-मंत्री-विवेकाधीन कोष के नाम पर अरबों रुपयें यहां-वहां हो जाते हैं। क्या ये कथित दबंग लोग-संस्थाएं-ऐजेन्सी ‘कला-संस्कृति’ के नाम पर कुछ सहयोग नहीं कर सकते? किया जाना चाहिए। विज्ञापन के नाम पर करोड़ों रुपये अखबार मालिक बटोर रहे हैं। पूंजीपति-औद्योगिक संस्थान सहयोग को आगे आ सकती हैं। दूसरे शब्दों में नाटक को बचाए और बनाए रखने के लिए कोशिश करने वाले संसाधनों के स्रोतों की पड़ताल कर सकते हैं। की जानी चाहिए भी। भण्डारे के नाम पर, भजन कीर्तन के नाम पर, कृपा के नाम पर चढ़ावे के नाम पर और पार्टी-दावत के नाम पर हजारों रुपए आए दिन हर तीसरा आदमी खर्च कर रहा है। लेकिन नगर में रंगकर्म के नाम पर जो बीस-तीस युवा व उनके सहयोगियों के काम को सराहना भर से बाय-बाय कर देना कहां की समझदारी है? ऐसा नहीं है कि नाट्य दल अपने स्तर पर कुछ नहीं करते। सहयोग नहीं लेते। वे सारे प्रयास करते हैं। हां अब तक मुनाफाखोरों, सूदखोरों और व्यापारियों और सेठों से सहयोग लेने से कतराने का प्रचलन ही है।
अब दौर बदल गया है। हम यह कब तक देखते रहेंगे कि पहले स्वस्थ समाज बनेगा तभी राम राज आएगा। अलबत्ता हमारा ध्येय जनसरोकारों से जुड़े मुद्दों को नाटक के जरिए उठाना है। फिर उस में आ रहे खर्च को वहन कोई भी करे। हम उसके सुर में सुर कहां मिला रहे हैं। क्या वो समाज में नहीं रह रहा है। उसकी सामाजिक स्थित बहिष्कृतों जैसी है भी कहां? फिर हमें उससे परहेज क्यों। फिर हम अपने हाथ कौन सा मलिन कर रहे हैं। हम क्या कर रहे हैं। हम तो रोजमर्रा व्यय होने की धनराशि का सहयोग मात्र ले रहे है। बाकी तो हमारा ध्येय, हमारे मंशा तो जनता के स्वस्थ मनोरंजन के साथ कुछ मुद्दों पर जनता को आईना दिखाना है। बगैर नाम लिए एक नाट्य दल ने एक माफिया से आर्थिक सहयोग मांगा। उसे मुख्य अतिथि बनाया। उसने नाटक के मंचन से पहले और बाद की सारी औपचारिकताओं को खर्च उठाया। मजेदार बात देखिए कि नाटक भी माफिया केंिद्रत था। उस कथित माफिया ने अपने संबोधन में बुरी आदतों और उसके कारणों पर अपनी बात भी रखी। कलाकारों को सम्मान स्वरूप अच्छी खासी रकम देने की पेशकश की। कलाकारों ने लेने से इनकार कर दिया। लेकिन दर्शकों ने खुले हाथों से कलाकारों के लिए तत्काल आर्थिक सहयोग इकट्ठा किया। कुछ दर्शकों ने विभिन्न क्षेत्रों में उसी नाटक के कुछ और शो कराने की जिम्मेदारी ली। माफिया साहब तो चलते बने लेकिन शो के बाद की स्थिति बदल गई।
इस आलेख के बहाने यह कहा जाना गलत होगा कि कलाकार मर रहा है। नाटक मर रहे हैं। थियेटर दम तोड़ रहा है। हां यह कहना गलत न होगा कि ये दौर संक्रमण का है। अच्छा दौर भी आएगा। अभिव्यक्ति का दमदार और असरदार हथियार रंगमंच ही हो सकता है। इतिहास में झांकने से भी यह पुष्ट होता है। यही नहीं रंगमंच के कलाकार कम से कम विध्वंसकारी ताकतों की तरह तो नहीं हैं। भ्रष्टाचारी तो नहीं हैं। अनाचारी तो नहीं हैं। वे मनुष्य बनने की प्रक्रिया में रत हैं। दर्शकों को हमें और आपको एक ये संदेश तो देते ही हैं कि-‘मनुष्य बनो। इस धरती के लिए कुछ करो। मानवता और नैतिकता को मत छोड़ो। भागो मत और जो अच्छा नहीं है उसे बदल डालो।’ इस बहाने यह कहना जरूरी होगा कि इन रंगकर्मियों के लिए तालियां पीटने मात्र से कुछ नहीं बदलने वाला है। इन्हें समझने की आवश्यकता है। इनके साथ होने की आवश्यकता है। इनके काम में शरीक होने की आवश्यकता है। नही ंतो सहयोग करने की आवश्यकता तो है ही। आइए कुछ बदलने की प्रक्रिया में सहभागी बने।