तालियों और प्रशंसा के विध्वंस / जयप्रकाश चौकसे

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तालियों और प्रशंसा के विध्वंस
प्रकाशन तिथि : 15 फरवरी 2013

फरवरी १९४७ को राज कपूर के ज्येष्ठ पुत्र रणधीर का जन्म हुआ, भारत की आजादी के 6 माह पूर्व। कुछ ही समय पूर्व राज कपूर की पहली फिल्म 'आग' प्रदर्शित हुई थी और लागत पर मात्र पैंतीस हजार के मुनाफे से राज कपूर ने फिल्म जगत में अनेक वर्ष के संघर्ष के बाद अपनी पहली कार खरीदी थी। परिवार में प्रसन्नता की लहर चल रही थी और निहायत ही खूबसूरत चेहरे वाले बालक को अतिरिक्त लाड़-प्यार से पाला गया। उसे दक्षिण मुंबई के श्रेष्ठि वर्ग के स्कूल में शिक्षा के लिए भेजा गया, जहां उसने स्वतंत्र विचार-शैली को अपनाया। उसे ढोंग सख्त नापसंद रहा तथा उनके मखौल के लिए उसने अपनी हास्य शैली विकसित की। सत्रह वर्ष की आयु में उसने राज कपूर के सहायक रहे लेख टंडन के सहायक पद को संभाला। साथ ही अपने पिता को फिल्म 'मेरा नाम जोकर' बनाते देखना ही उसकी असली शिक्षा थी।

वेलेंटाइन डे उन दिनों लोकप्रिय नहीं था, परंतु ऐसे ही किसी दिन बबीता शिवदासानी से प्रेम हो गया। वे फिल्म 'राज' में राजेश खन्ना के साथ काम कर चुकी थीं। बबीता के पिता चरित्र अभिनेता शिवदासानी राज कपूर के नियमित दरबारी थे, अत: अपनी सामंतवादी प्रवृत्तियों को दबाने वाले राज कपूर कुछ अनमने भाव से ही इस रिश्ते को स्वीकार कर पाए। गोयाकि यह प्रेम-कथा सलीम अनारकली के पथ पर नहीं गई, क्योंकि राज कपूर मुगले आजम पृथ्वीराज की तरह नहीं थे और समानता आधारित समाजवाद के हिमायती थे।

रणधीर कपूर ने अपने पिता की तरह चौबीस वर्ष की आयु में अपनी फिल्म 'आज, कल और आज' निर्देशित की, परंतु पीढिय़ों के विचार का अंतर उस समय तक लोकप्रिय विचारधारा नहीं थी, अत: फिल्म असफल रही। फिल्म में सिनेमाई गुणवत्ता का अभाव नहीं था, परंतु रणधीर थोड़े निराश हुए और उन्हें लगा कि अमिताभ बच्चन के प्रादुर्भाव के साथ एक्शन फिल्मों का दौर है। अत: उन्होंने 'धरम करम' बनाई, जिसने लागत पर नाममात्र का धन कमाया। दो सिनेमाई स्कूल पर हाथ आजमाने के बाद रणधीर ने निर्देशकीय दिशा खो दी और कुछ हास्य फिल्मों में उन्हें बतौर अभिनेता सफलता मिल गई, जैसे 'चाचा-भतीजा', 'हाथ की सफाई', 'रामपुर का लक्ष्मण', 'जवानी-दिवानी' इत्यादि, परंतु उन्हें सितारा हैसियत वैसी नहीं मिली, जैसे उनके अनुज ऋषि कपूर को मिली, जिसने अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र, राजेश खन्ना की लहरों के समय भी अपनी जमीन नहीं छोड़ी और अनेक एकल सितारा हिट फिल्में दीं।

बहरहाल, रणधीर कपूर की छवि एक हास्य कलाकार की बन गई और व्यक्तिगत जीवन में स्वतंत्र विचार शैली के कारण उनके लतीफे और हाजिर जवाबी की खूब सराहना होती थी। उनके 'विट' पर तालियां पड़ती थीं। वे हर महफिल की जान बन जाते थे। इन त्वरित तालियों और प्रशंसा ने उन्हें सीमित कर दिया और महफिलबाजी ने एक विलक्षण निर्देशकीय प्रतिभा को लील लिया। वे फिल्म निर्माण से विमुख हो गए, जिसमें लंबे समय तक आप परिश्रम करते हैं और तालियां दूरदराज के सिनेमाघरों में पड़ती हैं, जहां आप मौजूद नहीं होते। रंगमंच और कवि सम्मेलन तथा मुशायरों में भी तत्काल आपके सामने ही तालियां पड़ती हैं और प्रशंसा होती है। अनेक प्रतिभाशाली कवि और शायर इन तालियों और त्वरित प्रशंसा से आत्म-मुग्ध होकर कभी ऐसा काम नहीं कर पाए, जो साहित्य में लंबे समय के लिए उन्हें स्थापित करता। इसी तरह उपन्यास लेखन में भी 'गुनाहों के देवता' की भूल के बाद भी धर्मवीर भारती कुछ श्रेष्ठ रचनाएं कर पाए - यह विरल उदाहरण है। इसी तरह गालिब, कबीर, टैगोर भी लोकप्रियता के साथ गहराई का निर्वाह कर गए, क्योंकि वे सदियों में कभी-कभी प्रगट होने वाली विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। प्राय: सस्ती त्वरित प्राप्त लोकप्रियता के अपने विध्वंसक परिणाम होते हैं। पश्चिम में पहली किताब के बाद अनेक लेखक 'सेलिब्रिटी सर्कस' के शिकार हो जाते हैं। उन्हें इतने दावतनामे मिलते हैं, वे इतना अधिक प्रशंसकों से घिरे रहते हैं कि सृजन के लिए समय ही नहीं होता। इसी तरह चुनावी जीत भी नेता से विचारशक्ति ीन लेती है। वह प्राय: उसी परचम को अपना कफन बना लेता है, जिसे लेकर गली-गली घूमकर उसने प्रचार किया था। असली सृजक खुद को जलाकर उसकी रोशनी में अध्ययन करते रतजगों को झेलता है। साधना का अलख अलग ढंग से जगाया जाता है, उसमें तालियों की गूंज नहीं होती, केवल अपनी श्वास का पाश्र्व संगीत होता है। अभिनव विचार दबे पांव ही आते हैं, जूतों की आवाज केवल समूह करते हैं, सेना करती है।

बहरहाल, रणधीर कपूर ने अपने पिता की मृत्यु के बाद उनकी फिल्म 'हिना' के अनेक आधे-अधूरे संस्करणों को समझकर एक सफल और सार्थक फिल्म १९९१ में बनाई। गोयाकि वे चौदह वर्ष बाद निर्देशन में लौटे और अब उसको भी बाईस वर्ष बीत चुके हैं। वह अत्यंत समझदार, सदाचारी व्यक्ति हैं, परंतु सृजनशील व्यक्ति अपने को केंद्रित करने की बात जानते हुए भी अनदेखा करता है। वह महत्वाकांक्षी नहीं है। वह एक निष्क्रिय, निष्फल, दार्शनिकता में डूबा व्यक्ति है, परंतु जो भी दृष्टिकोण समाज के हित में काम करने से मनुष्य को विमुख करे, उसकी गहराई सूखे कुएं की भांय-भांय मात्र रह जाती है। फिर भी वह अपने में मगन है और किसी को हानि नहीं पहुंचाता - यह भी कोई कम नहीं है।