ताले / पुष्पा सक्सेना

Gadya Kosh से
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सब समेटकर इंदु भाभी अमेरिका से वापस आ रही हैं। भइया जी की अचानक मृत्यु ने सबको स्तब्ध कर दिया। अम्मा जी का हाहाकार सबके दिल चीर गया। अभी क्या भइया जी की जाने की उमर थी? मुश्किल से चैंतीस-पैंतीस के रहे होंगे। राकेश देवर जी ने भाभी की मदद के लिए अमेरिका जाने की पूरी तैयारी कर ली थी, पर भाभी ने शांत-सधी आवाज़ में मना कर दिया-

‘यहाँ अब कुछ भी शेष नहीं रहा है, राकेश भइया। यहाँ मदद के लिए उनके मित्र हैं। जल्दी ही भारत पहुँच रही हूँ।’ आगे कुछ कहने-सुनने का मौक़ा दिए बिना भाभी ने फोन काट दिया।

राकेश भइया को भाभी की मनाही अच्छी नहीं लगी। वहाँ लोग क्या सोचेंगे, इतने बड़े दुख में भी घर से कोई नहीं पहुँचा। न जाने क्यों किसी को भी अमेरिका बुलाने का भइया या भाभी ने कभी आग्रह नहीं किया। इस वक्त भी भाभी न जाने कैसे सब सह सकेंगी। अम्मा जी ने बहू का ही पक्ष लिया-

‘बड़ी समझदार है इंदु। घर की हालत जानती है। राकेश के आने-जाने में हजा़रों का खर्चा आ ही जाता, सो मना कर दिया। कलेजे पर पत्थर रखकर सब निबटाया होगा।’ अम्मा जी रो पड़ीं।

सबको भाभी के आने का इंतजार था। पिछली बार जब भइया-भाभी आनेवाले थे तो घर में उत्सव का-सा माहौल था। भाभी सबके लिए कुछ-न-कुछ लाई थीं। मुहल्ले की चाची-ताई को भी वह नहीं भूली थीं। मुहल्ले की औरतें उन्हें अशीष देती न थकतीं। माथे पर बड़ी-सी लाल बिंदी और सिर पर आँचल डाल, भाभी ने सब बड़ों के पाँव छू, आदर्श बहू का खि़ताब आसानी से जीत लिया।

भइया जी को जैसे अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था। घर की छत पर अपने नाम के दो कमरों का सेट बनवाया तो केशव सहास्य पूछ बैठे-

‘क्या बात है भइया, बंगले की जगह बस दो कमरों की दुनिया में भला रह सकेंगे? अरे आप तो एक आलीशान घर बनवाइए, भइया।’

‘देख केशव, घरवालों के साथ रहता है इसलिए यह नहीं समझ सकता, हम क्या मिस करते हैं? यहाँ रहने से रोज़ अम्मा के हाथ के आलू के पराँठे मिलेंगे, क्यों अम्मा ठीक कहा न?’

अम्मा निहाल हो उठी। बेटा सात-आठ साल से अमेरिका में है तो क्या हुआ, रत्ती भर भी तो नहीं बदला है। माँ का कितना ध्यान रखता है सुरेश। बाप का प्यार तो उसके नसीब में नहीं था। छुटपन से ही सबकी ज़िम्मेदारी माँ ने उठाई है। माँ ने पिताजी की कमाई का पैसा-पैसा सम्हाल कर खर्च किया। बेटों को उच्च शिक्षा दिलाई। आज घर में पैसा भले ही शेष नहीं रहा, पर तीनों बेटे अच्छी नौकरियाँ कर रहे हैं। बेटे भी माँ का त्याग कभी नहीं भूले।

भइया जी घर में सबसे अधिक महत्त्वाकांक्षी थे। इंजीनियरिंग की डिग्री पा लेने के बाद एम.एस. करने के लिए उन्हें अमेरिकन यूनीवर्सिटी से टीचिंग असिस्टेंटशिप मिल गई। भइया जी के अमेरिका जाने के नाम पर अम्माजी उदास हो गईं, पर बेटे का चमकता मुँह देख चुप रह गईं। एक शर्त ज़रूर रख दी-

‘जाने के पहले मेरे मन की लड़की से शादी करनी होगी।’

‘नहीं अम्मा, मैं किसी बंधन में नहीं पड़ना चाहता। पहले सेटल तो हो जाऊँ।’

‘ना रे, तब तू अमेरिका नहीं जाएगा। कहीं वहाँ गोरी-चिट्टी मेम कर ली तो उसकी गिटपिट मेरी समझ में नहीं आनेवाली।

भइया को अम्मा की बात माननी पड़ी थी। माँ की सहेली की विधवा बहिन की बड़ी बेटी माँ को भा गई। बारहवीं पास, उजले रंग और तीखे नाक-नक्श वाली इंदु में, अम्मा जी को आदर्श पुत्रवधू दिखी थी।

सीधे-सादे ढ़ंग से भइया का विवाह हो गया। विधवा माँ के पास कुछ विशेष करने की इच्छा भले ही रही हो, पर साधन नहीं थे। विवाह के दो दिन बाद ही भइया अमेरिका चले गए। भइया की एम.एस. की पढ़ाई पूरी होने के बाद, भाभी को भेजे जाने की बात तय हुई थी। जाते वक्त भइया ने भाभी से क्या कहा, कोई न जान सका। सबको यह जरूर पता था अभी भइया को इतने पैसे नहीं मिलेंगे, जिसमें वह भाभी का भी खर्च उठा सकें।

एक वर्ष बाद केशव के लिए नीरजा का रिश्ता आया था। सच तो यह है, केशव ने ही यह रिश्ता कहकर मँगाया था। नीरजा के माता-पिता बेटी का विवाह करने के बाद पुत्र के पास ऑस्ट्रेलिया जाना चाहते थे। शादी पर सबको भइया जी की प्रतीक्षा थी, पर ऐन आने के दो दिन पहले उनकी तबियत खराब हो गई। सबका उत्साह फीका पड़ गया। बुझे मन से रीति-रिवाज़ पूरे किए गए। इंदु भाभी को तब पहली बार नीरजा ने देखा था। उनके शांत-सौम्य चेहरे पर शिका़यत का चिह्न भी न था। निर्विकार भाव से सारे दायित्व निभाती इंदु को देख, अम्मा जी का दिल भर-भर आता-

‘सुरेश आ जाता तो दो-चार दिन इंदु साथ रह लेती। बहू तो तपस्या कर रही है।’ अम्मा जी उसाँस ले, मौन रह गई।

एम.एस. पूरा कर भइया जी जब घर आए तो लगा, शादी का माहौल तो अब घर में बना था। भइया जी नीरजा के लिए अमेरिकन डायमंड का सेट, परफ़्यूम्स, केशव के लिए घड़ी लाए थे।

अम्मा जी की भइया के प्रति अतिशय सहानुभूति पर, केशव कई-कई दिनों तक मुँह फुलाए रहता। नीरजा सोचती, भाभी कितनी भाग्यवान् है, भइया जी उन्हें कितना मान देते हैं। कभी किसी ने उन्हें ऊंची आवाज़ में बोलते नहीं सुना। वैसे एक सच यह भी था, भइया जी का कितना ध्यान रखती। भइया की पसंद-नापसंद ही भाभी की पसंद-नापसंद थी। पिछले कुछ दिनों से भइया का ब्लड-प्रेशर बढ़ गया था। भइया को तला खाने की मनाही थी, सो भाभी ने भी उबला खाना शुरू कर दिया। यहाँ तक कि अम्मा के बनाए आलू के पराँठों पर भी उन्होंने रोक लगानी चाही। अम्मा नाराज़ हो उठीं-

‘रहने दे बहू, अपनी डाक्टरी अमरीका में ही चलाना। एक पराँठे से कुछ नहीं होता।’ लाड़ से अम्मा भइया जी को पराँठे परोसती जाती और भाभी के माथे पर चिन्ता की रेखाएँ गहराती जातीं।

पिछली बार केशव ने भइया जी से अपने लिए अमेरिका में नौकरी खोजने की बात जब कही तो भइया ने साफ़ टाल दिया-

‘दूर के ढोल सुहावने होते हैं, केशू। यहाँ अच्छी-भली नौकरी कर रहा है, आराम से पांव पसार सोता है। वहाँ एड़ी-चोटी का पसीना एक करो तब पैसा हाथ में आता है।’

‘फिर तुम भी वापस क्यों नहीं आ जाते, भइया?’ केशव अपना आक्रोश छिपा न सका।

‘मैं तो ऐसी दलदल में फंस गया हूँ, निकल पाना मुश्किल है।’ भाभी ने भइया को ज़रा सा देख, सिर नीचा कर लिया।

केशव अंदर ही अंदर भइया जी से नाराज़ हो गया। उसे भइया स्वार्थी लगे थे। लोग तो दूर-दराज़ के रिश्तेदारों की अमेरिका जाने में मदद करते हैं, यहां अपने भाई ने कैसा टका-सा जवाब दे दिया।

भाभी अमेरिका से सब समेट, वापस आ गई। साथ में बड़े-बड़े दो संदूक और दो बैग थे। माथे पर बड़ी-सी लाल बिंदी की जगह छोटी-सी काली बिंदी थी। उन्हें सीने से चिपटा माँ रो पड़ी। सबकी आँखे नम हो आईं। भाभी ने अम्मा को तसल्ली दी थी-

‘रोइए नहीं अम्मा जी, मैं तो हूँ। मुझे ही अपना बेटा समझिए...।’

भाभी के उस धैर्य पर सब स्तब्ध थे। दो-चार दिन बाद ही भाभी ने सहज भाव से घर के काम शुरू कर दिए। उनका सामान ऊपर वाले हिस्से में पहुंचा दिया गया। स्टोर में जगह बना, भाभी ने छोटा-सा मंदिर रख दिया। भगवान् की प्रतिमा के साथ भइया जी का चित्र रखा देख, माँ की आँखें डबडबा आईं। इंदु के लिए पति भी परमेश्वर तुल्य है। सुबह उठकर, नहा-धोकर भाभी एक घंटे तक पूजा करती। घर के कामकाज में ऐसे जुट जाती मानो वह कभी अमेरिका गई ही नहीं थी। माँ मुहल्ले भर में कहती फिरती-

‘कलयुग में सीता जी ने इंदु बनकर जनम लिया है। सुरेश की पूजा करती है, इंदु बहू।’ मुहल्ले में इंदु भाभी की यश-गाथा फैल गई।

केशव और राकेश अनुमान लगाते भाभी के पास कितना पैसा होगा। भइया इतना कमाते थे, उनका सारा पैसा भाभी ने कहां रखा है? राकेश बहुत दिनों से एक कार खरीदना चाहता था, अगर भाभी कुछ पैसे दे दें तो बात बन जाए। आखिर भाभी का अपना और है भी कौन? दो-तीन बार राकेश ने अपनी समस्या का ज़िक्र किया, पर भाभी निर्विकार सुनती रहीं। उनकी ओर से कोई प्रतिक्रिया न देख राकेश बुदबुदाता-

‘न जाने किसके लिए सारा पैसा दबाए बैठी हैं। ज़रूर अपनी माँ-बहिनों को चुपचाप दे आएँगी।’

पिछले कुछ दिनों में नीरजा, इंदु भाभी के काफ़ी निकट आ गई थी, एक दिन पूछ बैठी-

‘इतनी लम्बी जिंदगी कैसे काट सकोगी, भाभी? आजकल तो तुम्हारी उम्र में लड़कियों की शादी होती है। दूसरी शादी की बात नहीं सोच सकतीं?

‘एक ही शादी में इतना पा लिया, सात जिंदगी तक कुछ और पाने की इच्छा नहीं है, नीरू।’

‘हाँ भाभी, यह तो मैं मानती हूँ। भइया जी ने तुम्हें इतना प्यार दिया, तभी तो वह तुम्हारे मंदिर में भगवान् बन गए। सबकी ऐसी किस्मत कहाँ?’ नीरू की आवाज़ में मायूसी थी।

‘भगवान न करे तुझे मेरी क़िस्मत मिले। परमात्मा तुझे सुखी रखें, नीरू।’ भाभी जैसे डर-सी गई।

सच, विधवा का जीवन भी कोई जीवन है, भाभी ने ठीक ही कहा। नीरजा भाभी का दुःख बाँटने की कोशिश करती, पर भाभी ने अपने सुख-दुःख को अपने अंतर में कैद कर लिया था। केशव अक्सर उकसाते-

‘तुम तो भाभी के साथ रहती हो। ज़रा पता करो न भाभी का पैसा कहाँ है?’

‘क्यों तुम भाभी के पैसे के दावेदार हो? न जाने उनकी कितनी उम्र हो, वक्त-ज़रूरत में पैसा ही काम आता है। भाभी का पैसा उनके लिए है, समझे।’

नीरजा की कही बात सच ही हो गई। एक दिन भाभी अचानक चक्कर खाकर गिर गई।। डॉक्टर ने ब्रेन- हैमरेज बताया। भाभी कोमा में चली गई थीं। अब पता नहीं कितने दिन अस्पताल में रहना पड़े। अस्पताल के व्यय की चिन्ता राकेश को अधिक थी।

‘भाभी के पास डॉलर तो ज़रूर होंगे। आजकल डॉलर काफ़ी महँगे हैं। नीरजा, हम भाभी का संदूक खोल कर देखें।’

‘नहीं, भाभी के पीछे उनका संदूक खोलना ठीक नहीं।’ नीरजा संकुचित थी।

‘देखो नीरजा, भाभी, हमलोग कोई धन्ना-सेठ नहीं हैं, नोकरी पेशे वाले हैं। भइया ने चाहे जितना कमाया, हम पर तो छींटा भी नहीं डाला। अम्मा के नाम भी साल-दो साल में जो भेजा, वह कोई ज़्यादा नहीं है। भाभी का इलाज महँगा होगा, पैसे तो चाहिए ही।’राकेश ने कहा।

‘आखिर उनका पैसा उन्हीं पर तो खर्च होगा।’ केशव ने भी राकेश का पक्ष लिया।

‘हाँ नीरजा, ये ठीक कह रहे हैं। हम पैसे उसी के इलाज पर तो खर्च करेंगे।’ अम्मा जी ने भी हामी भर दी।

भाभी के संदूक का ताला राकेश ने ही तोड़ा। संदूक में भाभी की शादी की साड़ियाँ सावधानी से तह करके रखी गई थीं। लगता था साड़ियाँ कभी पहनी ही नहीं गई थीं। कुछ सूती कपड़े ज़रूर इस्तेमाल किए गए थे। संदूक की तह में पास-बुक रखी थी। भारत के बैंक में मात्र तीस हजा़र चार सौ नब्बे रुपयों का बैंक-बैलेंस देख, सब ताज्जुब में आ गए। नगद दो सौ डॉलर के छोटे-बेड़े नोट भी थे। राकेश ने मायूसी से सिर हिला दिया-

‘जरूर भाभी ने अपना पैसा कहीं छिपा रखा था। अगर बीमारी लम्बी खिंच गई तो इतने रुपयों से क्या होनेवाला था?’

अम्मा ने सुझाया-

‘सुरेश के भेजे रुपए मेरे नाम बैंक में जमा हैं। इंदु की बीमारी में वे पैसे लगा लो। इंदु घर आ जाए तो बात कर लेंगे।’

भाभी का इलाज शुरू हो गया। आखिर एक दिन इंदु ने आँखें खोल, चारों ओर अचरज से ताका था। अम्मा ने प्यार से सिर सहला हाल पूछा तो उनकी आँखों से मोती जैसे आँसू ढुलक पड़े। प्यार से आँसू पोंछ, हाथ जोड़ माँ ने भगवान् को धन्यवाद दिया। बहू को परमात्मा ने नया जनम दिया था। कुछ ही दिनों बाद उन्हें घर ले जाया जा सकेगा। खतरा टल चुका था।

उस शाम लॉन में नीरजा अकेली थी, घर के सारे लोग विज़िटिंग आवर्स में भाभी के पास हॉस्पिटल गए हुए थे। गेट से एक अपरिचित युवक को आता देख, नीरजा चौंक गई। नीरजा के पास पहुँच उसने अपना परिचय दिया था-

‘मैं संजीव हूं। अमेरिका में इंदु का पड़ोसी था। उनसे मिलना चाहता हूँ।’ उसकी आँखें भाभी को तलाश रही थीं।

‘यानी आप हमारे सुरेश भइया के पड़ोसी हैं।’ नीरजा स्वागत के लिए खड़ी हो गई।

‘जी नहीं, सुरेश जी तो कहीं अलग फ़्लैट में रहते थे। मैं इंदु के साथ वाले अपार्टमेंट में रहता था। सुरेश जी से मेरा परिचय नहीं है।’

‘क्या...आ? यह क्या कह रहे हैं आप?’ नीरजा की आँखे फैल गईं।

‘आप इंदु की कौन हैं?’ संजीव, नीरजा के विस्मय पर अचकचा आया।

‘जी, मुझे उनकी छोटी बहिन समझ लीजिए। प्लीज अपनी बात साफ़-साफ़ कहें।’ चाय का कप थमाती नीरजा का रोम-रोम काँप गया।

‘आप उनकी बहिन हैं, फिर भी यह नहीं जानतीं कि सुरेश ने लिलियन से विवाह कर लिया था। उन दोनों की एक बेटी भी है। इंदु और सुरेश के बीच कोई संबंध था ही नहीं।’

‘यानी इंदु भाभी, भइया जी के जीवन में थी ही नहीं? मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। प्लीज पूरी बात खोलकर समझाइए।

‘इंदु को अपने साथ अमेरिका ले जाने के पहले ही सुरेश ने वस्तुस्थिति स्पष्ट कर दी थी। एम.एस. करते समय वह लिलियन के पेइंग-गेस्ट बनकर रहे और फिर उसी के होकर रह गए।’

'इंदु भाभी यह सत्य जानते हुए भी भइया जी के साथ गईं, भारत आती रहीं। कभी मुंह से एक शब्द भी नहीं निकलने दिया...क्यों? ऐसी क्या मज़बूरी थी, संजीव जी?’ नीरजा जड़ सी हो गई।

‘विधवा मां और दो छोटी अनब्याही बहिनों का भविष्य उसे इस हद तक आंतकित करता रहा कि उनके लिए अपना भविष्य दाँव पर लगा दिया।’ संजीव उदास था।

‘ओह! भाभी ने ये सब कैसे सहा होगा। कितनी अकेली थीं वह? कैसे इतने साल काट सहीं।’ नीरजा का गला भर आया।

‘ठीक कहती हैं, पति के साथ घर बसाने के खंडित सपनों के साथ वह अमेरिका गई ज़रूर, पर पति से कोई सहायता स्वीकार नहीं की। लड़कियों को गाना सिखाती, डिपार्टमेंटल स्टोर में काम करती, पर सुरेश की दया अस्वीकार कर दी।’

‘आप भाभी के बारे में इतना सब जानते हैं और हम उनके इतने करीब होकर भी कुछ न जान सके?’

‘हम दोनों के बीच दर्द का रिश्ता जो था, नीरजा जी। मैं भी ढेर सारे सपने लेकर अमेरिका गया था। जॉब न मिलने के कारण चाचा-चाची पर बोझ बनकर रह गया। इंदु ने दुःख के उन दिनों में मुझे सहारा दिया, संघर्ष की प्रेरणा दी। हम दोनों एक-दूसरे का दुःख बाँट, मन हल्का कर लेते थे।’

‘भाभी ने आपके बारे में कभी कुछ नहीं बताया?’

‘मैंने शायद ग़लती ही ऐसी की थी, वह नाराज़ हो गई। इंदु कहां है नीरजा जी?’ अचानक संजीव को महसूस हुआ, जिसे ढूँढ़ता वह यहाँ तक आया है, वह आसपास कहीं थी ही नहीं।

‘इंदु भाभी बीमार हो गई थीं। अस्पताल में हैं।’

‘क्या हुआ इंदु को, अब कैसी है?’ प्याले की चाय छलक-सी गई।

‘परेशान न हों, अब वह बिल्कुल ठीक हैं। दो-चार दिनों में घर आ जाएँगी।’ संजीव के स्वर की आकुलता नीरजा को अन्दर तक छू गई।

‘नहीं, मैं तुरन्त उसके पास जाना चाहूँगा। वह बहुत केयरलेस है। इतना समझाया, अपनी परवाह रखनी चाहिए। कभी तो खाना भी जबरदस्ती खिलाना पड़ता था। किस हॉस्पिटल में है इंदु?’

‘जिसके लिए इतनी दूर से भागे आए हैं, उससे आपका एकान्त में ही मिलना ठीक होगा संजीव जी।’

‘देखिए, आप मेरी बातों का अन्यथा अर्थ न लें। यह सच है, जिस दिन मुझे जॉब का ऑफर मिला, उसी दिन मैंने इंदु के सामने अपने साथ विवाह का प्रस्ताव रखा था, पर आम भारतीय लड़की की तरह उसने मेरा प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। न जाने कब औरतें घर-परिवार की मर्यादा के झूठे बंधन तोड़ पाएँगी।’ संजीव की आवाज़ में आक्रोश था।

‘इंदु भाभी आपको प्यार करती हैं न?’

‘प्यार शब्द का अर्थ तो उसने मुझसे ही जाना, पर प्यार का प्रतिदान देते वह डर गई। प्यार की भरी-पूरी जिंदगी बिताने की जगह उसने रीती जिंदगी बिताने का फै़सला ले डाला। वह डरपोक है नीरजा जी, टिपिकल हिन्दुस्तानी औरत।’

‘शायद आप अधिकारपूर्वक अपनी बात नहीं मनवा सके संजीव जी।’

‘अधिकार देकर भी उसने सीमा-रेखा खींच रखी थी। वह अलग मिट्टी की बनी है।’

‘यह तो आप ठीक कहते हैं वरना इतनी बड़ी त्रासदी भला कोई सामान्य औरत अपने सीने में इस गहराई तक दफ़्न कर सकती है कि किसी को आभास भी न मिले।’

‘हाँ नीरजा जी, सुरेश की मृत्यु के बाद वकीलों ने उसे पति की सम्पत्ति में से हिस्सा दिलाना चाहा, पर उसने साफ़ मना कर दिया वरना वह लाखों की सम्पत्ति पा सकती थी।’

‘यह तो भाभी का अधिकार था। आखिर कानूनन वह सुरेश भइया की पत्नी थीं? क्यों मना किया उन्होंने?’

‘इंदु ने दृढ़ स्वर में कह दिया- ‘नहीं, जीते जी जिसने कोई अधिकार नहीं दिया, उसे मृत्यु के बाद धोखा नहीं दे सकती। झूठा दावा करने की इच्छा नहीं, उनकी किसी भी चीज़ पर मेरा अधिकार नहीं। उनका सब कुछ लिलियन और उसकी बेटी का है।’

‘ओह! कितनी महान् हैं इंदु भाभी।’ नीरजा का स्वर गद्गद था।

‘वकीलों ने विश्वास दिलाया था इंदु शर्तिया मुकदमा जीतेगी, तो जवाब दिया-

‘मैं अपना मुकदमा पहले ही हार चुकी, दुबारा केस लड़ने की कतई इच्छा नहीं है, मुझे क्षमा करें प्लीज।’

‘वकील विस्मित देखते रह गए। इंदु के उस त्याग ने लिलियन का दिल जीत लिया। प्यार से हाथ पकड़ इंदु से क्षमा मांगी थी उसने।’

‘आपको ये सब बातें कैसे पता लगीं? क्या आप वहीं थे?’

‘नहीं, मैं उस वक्त न्यूयार्क में था। इंदु की अस्वीकृति ने मुझे बेहद आहत किया था। उससे फिर कभी न मिलने का निर्णय ले, इंदु को बिना बताए शहर छोड़ गया था। चाची के पत्र से जब इंदु के विषय में पता लगा तो अपने निर्णय पर दृढ़ न रह सका। जब पहुँचा तो देर हो चुकी थी, इंदु भारत लौट गई थी।’

‘काश! इंदु भाभी ने आपका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया होता। अब क्या आप उनके साथ टूटा रिश्ता नहीं जोड़ सकते? सबके बीच भी वह बहुत अकेली हैं, संजीव जी।’

‘पता नहीं, हारा मुकदमा जीत पाऊँगा या नहीं, पर कोशिश ज़रूर करूँगा। आपसे बातें करके सोच रहा हूँ, अपनी जिंदगी का इतना बड़ा सच उसने क्यों छिपाया। आप उसे साहस दे सकती थीं।’

‘आप ठीक कहते हैं, उन्होंने हम सबको भ्रम में रखा। जिस पति ने अपने जीते जी उन्हें विधवा का जीवन बिताने को विवश किया, भाभी उनकी फ़ोटो अपने मंदिर में रख, उनकी पूजा करती रहीं। हाँ, अब समझ पा रही हूँ पूजाघर से बाहर आती भाभी के चेहरे पर शांति की जगह उद्विग्नता और बेचैनी दिखती थी।’

‘मैं उसकी विवशता समझ रहा हूँ, विधवा के अभिशप्त जीवन से बचने के लिए यह नाटक ज़रूरी था। निश्चय ही सुरेश की माँ और परिवार-जनों के बीच उनका सम्मान अवश्य बढ़ा होगा। मैं इंदु का अपराधी हूं, काश उस दुःख की घड़ी में मैं उसके साथ होता।’

‘अगर आप उनके साथ होते तो क्या उन्हें यहां वापस आने देते?’ नीरजा ने सीधा सवाल किया।

‘शायद मैं उसे रोक पाता।’ संजीव कहीं खो-सा गया।

‘एक बात कहूँ संजीव दा, आज रात में इंदु भाभी के पास मेरी ड्यूटी है, क्या मेरी जगह आप उनके लिए जाग सकेंगे?’

‘मैं पूरी रात क्यों, पूरी जिंदगी उसके लिए जाग सकता हूँ। भाई का पद देने के लिए थैंक्स, नीरजा।

बाहर जाते संजीव को नीरजा मुग्ध दृष्टि से ताकती रह गई। आज सबके सामने जिस सत्य का उद्घाटन करना था, उसके लिए रिहर्सल ज़रूरी था। भइया जी घर भर के आदर्श रहे हैं, उनकी उस छवि को तोड़ने के लिए नीरजा को साहस जुटाना होगा।

पूरी बात सुन, घर में सन्नाटा खिंच गया। अम्मा विश्वास ही नहीं कर पा रही थीं। उनका सबसे लाडला, आज्ञाकारी बेटा ऐसा अन्याय कर सकता है, कब सोच सकी थीं वह? स्तब्ध माँ का मौन केशव ने तोड़ा-

‘देख लिया अम्मा, सुरेश भइया पर बड़ा नाज़ था न तुम्हें।’ मृत भाई के प्रति भी केशव ईर्षालु ही रहा।

‘यह वक्त तानाकशी का नहीं है। इंदु भाभी के बारे में सोचिए।’ नीरजा ने पति के व्यंग्य पर रोष जताया।

‘उनके बारे में क्या सोचना। उनका प्रेमी आ गया है, ले जाए अपने घर। अब हमारा उनसे कोई लेना-देना नहीं है, अम्मा।’ राकेश की बात ने नीरजा को तिलमिला दिया-

‘ठीक कहते हो, राकेश भइया। पुरुष के हजा़र खून माफ़, सारे बंधन औरतों के लिए ही हैं। एक बार भाभी के बारे में भी सोच-देखते। किस तरह इतना बड़ा दुख उन्होंने अकेले सहा।’

‘वाह! पति के रहते पराए पुरूष के साथ प्रेम का नाटक रचाना क्या भली औरतों का काम है? मैं कहे देता हूँ अम्मा, अब वह इस घर में नहीं आएगी।’ केशव दहाड़े।

‘खबरदार, जो आगे एक शब्द भी कहा। अरे काहे का पति? मेरी देवी जैसी बहू पर सौत ले आया, उसका जीवन बर्बाद कर दिया। एक बात और सुन लो, यह घर इंदु का है। जिसे यहाँ रहना है रहे वर्ना अपना इंतजा़म कर लें।’

‘तुम्हारा जवाब नहीं, अम्मा। अपने बेटे पराए हो गए और पराई औरत अपनी हो गई।’ राकेश ने व्यंग्य किया।

‘हाँ राकेश, अम्मा के सारे सिद्धांत, नियम हमारे लिए थे। अम्मा को तो यह भी याद नहीं, दो बरस तक तुम्हारी प्यारी बहू और वो संजीव दोनों एक साथ अकेलापन बांटते रहे। क्यों अम्मा, इसके आगे भी कुछ समझाने की ज़रूरत है?’ केशव की आवाज़ ज़हर उगल रही थी।

‘नहीं, मुझे कुछ समझाने की ज़रूरत नहीं है। मैं सब समझती हूँ। इंदु भी हाड़-मांस की बनी औरत है। अगर संजीव के साथ उसके संबंध बने तो इसके लिए ज़िम्मेवार कौन है। मैं खुद दोनों की शादी कराके, इंदु को इस घर से विदा करूँगी।

‘यह तुम क्या कह रही हो, अम्मा? एक अपवित्र विधवा का पुनर्विवाह कराओगी?’ केशव की आँखें विस्मय से फैल गईं।

‘मेरी बहू को अपवित्र कहने का हक किसी को नहीं है, केशू। उसे भी नहीं, जो ब्याहता पत्नी को छोड़, पराई औरत के पल्लू से जा बँधा। बेटे की भूल का प्रायश्चित मुझे ही करना है।’ अम्मा जी का स्वर दृढ़ था।

‘मैं पूछती हूँ, औरत की पवित्रता को परिभाषित किसने किया है, केशव? औरतों के लिए सारी सीमाएँ, सारे बंधन लगानेवाले पुरुष ही तो हैं। भइया जी आदर्श बने रहे और भाभी...।’ अधूरी बात छोड़ नीरजा ने जीभ काट ली। मृतात्मा के लिए वैसी अशोभनीय बात क्या अम्मा जी सह सकेंगी?

‘मेरे ख्याल में इन बेकार बातों में समय नष्ट करना ठीक नहीं। आज इंदु आनेवाली है, उसका कमरा साफ़ करा दो, नीरजा।’

‘जी माँजी।’ अचानक झुककर नीरजा ने अम्मा जी के पाँव छू लिए। आज उसे उनपर गर्व हो गया।

घर आई इंदु के गले लग, नीरजा रो पड़ी। पाँव छूती इंदु को सास ने सीने से चिपटा, बहुत कुछ कह दिया। एकान्त पाते ही नीरजा पूछ बैठी-

‘तुमने अपने मन पर भी ताले डाल दिए, क्यों भाभी? क्या हमपर विश्वास नहीं था?’

‘सच कहूँ तो मेरा अपना मन ही पापी था, नीरू। वापस आने पर लगा, सबकी आँखें टटोल रही थीं, कितना माल लेकर आई हूँ। सच्चाई सिर्फ मैं जानती थी। सीमित आय में ज़रूरत-भर का खर्च ही चल पाता था। वापसी का टिकट खरीदने के बाद रह ही क्या गया था?’ इंदु उदास हो आई।

‘लेकिन तुमने तो संदूकों पर बड़े-बड़े ताले डाल रखे हैं, भाभी?’ नीरजा के होठों पर शरारती मुस्कान थी।

‘हाँ नीरू, यह मेरा अपराध था। धन-विहीन विधवा का जीवन मुझे आतंकित कर रहा था। अचानक बचपन में पढ़ी एक कहानी याद हो आई। एक विधवा ने एक खाली संदूक में बड़ा-सा ताला डालकर सबको इस भ्रम में रखा कि उसके पास बहुत धन है। उस एक ताले ने उसका सम्मान अक्षुण्ण रखा।’

‘अच्छा तो तुमने भी वही तरकीब आज़माई। एक बात बताओ, भइया जी के चित्र को पूजा-घर में स्थान देने के पीछे क्या राज़ था?’ नीरजा के होंठों पर शरारती मुस्कान थी।

‘मेरे अपराध-बोध को और अधिक न बढ़ा, नीरू। सोचा था, उस चित्र की वजह से अम्मा जी के मन में जगह पा सकूँगी। अब तो अपने उस सोच पर भी शर्म आती है। वह तो देवी हैं, नीरू।’

हाँ भाभी, तुम ठीक कहती हो, पर अपने मन को कैसे सबसे छिपा सकी?’

‘देख नीरू, ताले सिर्फ संदूकों पर ही नहीं, मेरे मन, मेरे होंठों सब पर लगे थे। इन सभी तालों को कभी न खोलने के लिए, मैंने सारी चाबियाँ बाहर फेंक दी थीं।’

‘पर एक ताले की चाबी मुझे मिल गई, भाभी। संजीव जी भी तो तुम्हारे मन के ताले में बंद थे न?’

‘छिह! अब माफ़ भी कर, नीरू!’ इंदु का चेहरा लाल बहूटी बन गया।