ताशकन्द से समरकन्द वाया गुलिस्तान / बुद्धिनाथ मिश्र

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29 जुलाई की सुबह छह बजे होटल तुरान के शीतताप-नियन्त्रित भवन से बाहर निकला, तो सबसे पहले ताशकन्द की फागुनी हवा ने स्वागत किया। प्रवासी भारतीयों का वासन्ती अभिनंदन। इससे पहले का भोर का समय इतनी जल्दी-जल्दी बीता कि पता ही नहीं चला। ताशकन्द से समरकन्द की यात्रा ट्रेन से करनी थी। रात में लौटना था। इसलिए पाँच बजे जगकर एक घंटे के अन्दर नहाने-धोने से लेकर जलपान तक करना था। जो देर से जागते हैं या जो सजने-धजने में ज्यादा समय लगाती हैं, उन्हें थोड़ी असुविधा जरूर हुई, मगर साढ़े पाँच बजे प्रायः सभी नीचे जलपान के टेबुल पर थे। छह बजे तीनो एसी बसें होटल के गेट पर लग गयी थी और आधे घंटे में सभी को लेकर ताशकन्द स्टेशन रवाना हो गयीं। इस तरह यदि सभी अनुशासित ढंग से यात्रा करें तो सहयात्रियों के साथ-साथ प्रबंधकों को आनंद मिलता है। सात बजे हमलोग स्टेशन पहुँच चुके थे। स्टेशन परिसर बिलकुल साफ-सुथरा, उसी तरह जैसे हमारे स्टेशन, रेलवे महाप्रबंधक के दौरे के दिन रहते हैं। अन्य विकसित नगरों की भाँति ताशकन्द में भी न कहीं सड़कों का अतिक्रमण दीखा, न रेलवे स्टेशन या बस स्टैंड या पार्क में गन्दगी दिखाई दी।

ताशकन्द स्टेशन में सारे प्लेटफ़ार्मों पर प्रवेश सुरंगों से ही होता है। जगह-जगह चेकिंग भी होती है, लेकिन चूँकि हम भारतीयों का जत्था दूर से पहचान लिया जाता था, इसलिए हमलोगों की सुरक्षा जाँच एक फ़र्ज़ अदायगी भर थी। हर मोड़ पर मुस्कानों ने ही हमारा स्वागत किया। ताशकन्द में यह हमारी पहली ट्रेन यात्रा थी। शताब्दी एक्सप्रेस की तरह उस ट्रेन के सभी कोच एसी थे। खास बात यह थी कि इसके सभी कोचों में हमारी प्रथम श्रेणी की तरह कूपे थे। प्रत्येक में छह सीटें थीं, आमने-सामने। कूपे के भीतर दोनो ओर दीवार पर टीवी, नीचे साइड में टेबुल, जिसपर छह गिलास सजाकर रखे थे। ट्रेन के बाहर ही टिकट और पासपोर्ट देख लिया गया था, इसलिए कूपे में टीटीई की जगह महिला कर्मचारी चाय-कॉफ़ी पूछने आ जाती थी। मेरे कूपे में मेरे रूममेट देवमणि पांडेय थे और थीं उत्तराखंड भाषा संस्थान की निदेशक डॉ. सविता मोहन, जो मेरे आग्रह पर ही इस यात्रा में शामिल हुई थी। ट्रेन ठीक 7.30 पर रवाना हुई। तीन सौ किमी की दूरी इसे 11बजे तक पूरी करनी थी। पहले हमने ताशकन्द शहर को बगल से गुजरते देखा, फिर बाग-बगीचों को, फिर खेत-खलिहानों को। खेतों में सूरजमुखी और कपास (गोज़ा)की फसलों का वर्चस्व था। हल में जुते गधे यहीं दिखाई पड़े। जिन गाड़ियों में गधे जुते हों, उन्हे क्या कहा जाए? गधागाड़ी ही न! बैलगाड़ी तो कह नहीं सकते। सो प्रचुर संख्या में गधागाड़ियाँ, जो आकार में बैलगाड़ियों से कुछ छोटी थीं, खेतों की चौड़ी मेड़ों पर दौड़ती दिखाई दीं।

ताशकन्द से समरकन्द की यह साढ़े तीन घंटे की ट्रेन यात्रा उज़बेकिस्तान के देहात को जानने-समझने के लिए बहुत जरूरी थी। इस दौरान सभी सहयात्री अपनी सीटों से न चिपककर, एक कूपे से दूसरे कूपे में विचरते रहे। कहीं गाना, कहीं कवितापाठ और कहीं आराम की नींद। मैं ज्यादातर खिड़की से ही चिपका रहा। सविता जी घर से नमकीन ले आयी थीं, जिसके साथ ट्रेन की ‍छह हजार सोम( उज़बेक मुद्रा) की कॉफ़ी का जायका कुछ और ही था। लगभग दो घंटे की निर्बाध यात्रा के बाद ट्रेन जिस स्टेशन पर रुकी, उसका नाम ‘गुलिस्तान’ था। यह नाम मुझे इसलिए भी अच्छा लगा कि हम भी तो एक गुलिस्तान में ही रहते हैं-‘हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलसिताँ हमारा’। हमारे यहाँ की तरह यदि यहाँ भी लोकतंत्र के नाम पर व्यक्तिपूजा का मानसिक रोग होता, तो इस स्टेशन का खूबसूरत नाम बदलकर राष्ट्राध्यक्ष या उसके बाल-बच्चों, या उसके कुत्ते-बिल्लियों के नाम कर दिया जाता। गुलिस्तान स्टेशन के आसपास मात्र एक कस्बे भर की आबादी थी, मगर सिल्करूट पर होने के कारण उसका पारम्परिक महत्व तो है ही।

मानस जी बीच-बीच में आकर अपने सहयात्रियों का कुशल-क्षेम अपने ढंग से पूछ जाया करते थे। कुछ प्रतिभागियों की फ़्लाइट आज ही थी, इसलिए वे इस यात्रा में शामिल नहीं हो सके। उन्हीं में ट्रैवेल एजेंट विक्की भी थे। उन लोगों की कमी खल रही थी। या यों कहें कि उनका इस प्रकार बीच यात्रा में बिछड़ना बुरा लग रहा था। यह कमी तब और खलती, जब हम अकेले होते। इतने नये बंधुओं की धींगामुश्ती में ट्रेन कब समरकन्द पहुँच गयी, पता ही नहीं चला।

तीन सहस्राब्दी पुराना समरकन्द शहर किंवदन्तियों का शहर है, जिसे ‘पूरब का रोम’ और ‘इस्लामिक दुनिया का सबसे कीमती मोती’ कहा जाता है। यह जेराफ़शान घाटी में दो सिंचाई वाली नहरों, उत्तर में दरगोम और दक्षिण में सिआब के बीच स्थित है। ईसापूर्व की पहली सहस्राब्दी में यह जेराफ़शान सोग्दिआना नदी के तट पर विराट कृषि क्षेत्र के केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका था। तब इसे ‘मारकंडा’ (मारकंडेय ?) कहा जाता था। बाद में इसे ‘अफ़्रोसिआब’ कहा जाने लगा। प्राचीन काल में समरकन्द सिल्करूट पर स्थित होने के कारण पूर्व और पश्चिम के बीच आदान-प्रदान का प्रमुख केन्द्र था। कई सदियों तक यह सोग्द का प्रधान शहर रहा। ताशकन्द की तरह इसे भी बार-बार सैनिक हमलों का शिकार होना पड़ा। पहले सिकन्दर की सेना ने इसे लूटा, फिर अरबी सेना और उसके बाद महारक्षस चंगेज़ खाँ की दुर्धर्ष फौज ने। अरबी आक्रमण के दौरान यह शहर स्थानीय शासकों की गठबंधन सरकार के अधीन था। 1220 में समरकन्द तमाम प्रतिरोधों के बावजूद चंगेज़ खाँ की सेना के कब्जे में आ गया, जिसने इसे बिलकुल नेस्त नाबूद कर डाला। सैनिक शासक अमीर तैमूर ने 14 वी सदी में इसे फिर से अपनी राजधानी के रूप में सुसज्जित किया। उसके बाद, अमीर तैमूर की छठी पीढ़ी का बाबर ने 1512 में थोड़े दिनों के लिए इसे कब्जे में लिया था। अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में ईरान के शहजादा नादिर शाह ने भी इसे तहस-नहस किया। 1868 में यहाँ रूसी जार का शासन शुरू हुआ, जिसके बीस बरस बाद ही इस शहर ने रेल का मुँह देखा। 1920 में यह सोवियत संघ के अधीन हो गया और 1925 से 1929 तक यह उज़बेकिस्तान की राजधानी भी रहा। इसकी हर इमारत, हर महल्ला, हर मकबरा और हर मज़ार अपनी कहानी खुद कहती है।

समरकन्द स्टेशन हमारे हवाई अड्डे की तरह ही भव्य है। साफ़-सुथरा और कलात्मक। स्टेशन से बाहर निकलते ही वहाँ प्रतीक्षारत दो एसी बसों में हम बैठ गये। यहाँ दोपहर का सूरज सिर पर था। सफ़ेद इमारतें आँखों को चौंधिया रही थीं। मुझे काला चश्मा निकालना पड़ा। ताशकन्द की ही तरह, मैने चलती बस से पूरे समरकन्द शहर का भी अपने छोटे-से डिजिटल कैमरे की मदद से वीडियो फ़िल्म बनायी। इस शहर का हमारे देश के इतिहास से गहरा सम्बंध है। तैमूर लंग और बाबर यहीं के थे। तैमूर लंग को यहाँ अमीर तैमूर कहते हैं और उसे बड़े प्रतापी सैनिक शासक के रूप में देखा जाता है। अपने 35 साल के शासन काल में उसने वोल्गा से गंगा और तियान शान से बास्फोरस तक पूरी मर्दानगी से हुक्म चलाया। वह जानता था कि राष्ट्र को कैसे मजबूत बनाया जाता है और जनता को कैसे खुश रखा जाता है। वहाँ ‘अमीर’ का अर्थ ‘सेनापति’ होता है।

सबसे पहले हमारी बस ‘गुर-अमीर’ यानी तैमूर लंग के मकबरे पर गयी। अपनी मृत्यु से एक साल पहले 1404 में तैमूर ने अपने जान से भी प्यारे पोते मुहम्मद सुल्तान के अवशेष को जगह देने के लिए इस मकबरे के निर्माण का आदेश दिया था। स्थापत्य की दृष्टि से पूरे मध्य एशिया में इस मकबरे की सानी नहीं। गुर-अमीर मकबरे में तैमूर लंग की कब्र के अलावा, उसके दो पुत्र शाहरुख और मीरनशाह, पौत्र मु. सुलतान, प्रख्यात ज्योतिर्विद उलुगबेक और आध्यात्मिक गुरु मुस्लिम शेख मीर सैयद बरेक की कब्रें एक ही छत के नीचे हैं। सबसे बड़ी कब्र आध्यात्मिक गुरु की है। उसीके पैताने तैमूर की कब्र है, जिसपर लगा बेशकीमती पत्थर जेड (मरकत) का इतना बड़ा टुकड़ा पूरी दुनिया में कहीं नहीं है। मकबरे के बाहर गाढ़े हरे रंग की मोजाइक की चित्रकला देखते ही बनती है।

इसके अलावा तैमूर द्वारा अपनी पत्नी की स्मृति में बनवायी गयी ‘बीबी खानम की मस्जिद’ की इमारत 480 खम्भों पर है और १५वीं सदी में पूर्व की सबसे ऊँची मानी जाती थी। 14वीं सदी में ही आध्यात्मिक गुरु मीर सैयद बरेक की सलाह पर अमीर तैमूर द्वारा बनवाया गया ‘रूहाबाद’ मकबरा इसलिए महत्वपूर्ण है कि इसमें मुहम्मद साहब के सिर के सात बाल संरक्षित हैं। इसी मकबरे में दसवी सदी के शेख बुरहानुद्दीन सागर्ज़ी , उनकी चीनी पत्नी बीबी खलीफ़ा और दस सन्तानें दफ़न हैं। सागर्ज़ी का निधन चीन में हो गया था। उनके शव को चीन से लाकर यहाँ दफ़न किया गया। सागर्ज़ी समरकन्द को ‘देवताओं का नगर’ कहते थे। ‘हजरते-हिज्र’ मकबरा इसलिए महत्वपूर्ण है कि इसका निर्माण उस शख्स के सम्मान में हुआ, जो इस्लाम से पहले का था और यहाँ आनेवाले हर मुसाफ़िर का खैरख्वाह था। एक ‘शाही- जिन्दा’ परिसर भी है, जहाँ एक साथ 11 मकबरे हैं।

इसमें उस कुसम-इब्न-अब्बास की काल्पनिक कब्र भी है, जो सातवीं सदी में इस्लाम का प्रचार करने समरकन्द आया था और अपने साथ अरबी हमलावरों को भी ले आया था। उसे नमाज पढ़ते वक्त ‘विश्वासघातियों’ ने मार डाला था। मकबरों को देखते-देखते मन ऊब गया था, इसलिए हमारे गाइड ने अन्त में ‘रेगिस्तान स्क्वेयर’ दिखा दिया, जो पुराने समरकन्द का हृदय था और व्यावसायिक, प्रशासनिक तथा हस्तशिल्प का प्रमुख केन्द्र था।

लंच का समय बीत रहा था। सबको जोरों की भूख लगी थी। इसलिए हमारी बस वापस मुड़ी। रास्ते में महाकवि मीर अली शेर नवाई के नाम पर बना भव्य पार्क दीखा, जो कहते थे कि रश्क और खुदगर्जी के जज्बे जाहिल और बेमुरव्वत लोगों में ज्यादा पाये जाते हैं। उनका यह भी मानना था कि फ़न के ऊँचे रास्तों पर जाहिल लोग सलाहियत-मन्दों का रास्ता रोक लेते हैं। मुझे दिल्ली के बहुत से चेहरे उस समय याद आ गये जो साहित्य जगत में रास्ता रोके खड़े हैं। उसी पार्क के बगल में तैमूर लंग की विशाल प्रतिमा है, जिसे देखने अनेक सहयात्री गये, मगर मैं बस में ही बैठा रह गया।