तिग्मांशु की डाकू फिल्म त्रिवेणी / जयप्रकाश चौकसे

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तिग्मांशु की डाकू फिल्म त्रिवेणी
प्रकाशन तिथि : 30 जनवरी 2014


जब शेखर कपूर 'बैंडिट क्वीन' बना रहे थे तब तिग्मांशु धूलिया उनसे जुड़े थे और चम्बल से खूब परिचित हुए थे। 'पानसिंह तोमर' के लिए भी उन्होंने दो साल तक शोध किया था। 'पानसिंह तोमर' के बाद उन्होंने कंगना रनोट के साथ 'रिवाल्वर रानी' बनाई है जो एक तरह से 'बैंडिट क्वीन' की फिल्मी बहन की तरह है जिनका खून का रिश्ता उसे बहाने की वजह से बनता है, न कि मां की कोख से। अब अपनी डाकू फिल्म त्रिवेणी के लिए वे शाहिद कपूर को लेकर 'सुल्ताना डाकू' बनाने जा रहे हैं। सुल्ताना डाकू भी पान सिंह तोमर की तरह यथार्थ पात्र था और अंग्रेजों के जमाने में सेंट्रल प्रोवेन्सेज में खतरनाक व्यक्ति माना जाता था। जिसे फ्रेडी यंग नामक अफसर ने पकड़ा था। मुद्दा यह है कि आज डाकू समस्या लगभग सुलझ गई है परंतु चम्बल की कोख से समय-समय पर इस तरह के लोग आज भी सामने आते हैं। सच तो यह है कि जब तक ग्रामीण क्षेत्र सामंतवादी अन्याय से मुक्त नहीं होते तब तक बागी होते रहेंगे। सामंतवादी अन्याय और शोषण का तंदूर बुझा-बुझा सा लगता है परंतु राख के ढेर के नीचे चिंगारियां मौजूद हैं।

हिंदुस्तानी सिनेमा में पहला खलनायक सूदखोर महाजन हुआ तो दूसरा डाकू और फिर तस्कर से होती हुई खलनायक यात्रा शोषण करने वाले नेता तक जा पहुंची है। दरअसल हमारे सिनेमा में खलनायक पात्र की विविधता नायक पात्र से ज्यादा रही है। सूदखोर महाजन से नेता तक के खलनायकों की कुछ आधारभूत बातें एक सी रही हैं, वही शोषण, अपार्जित धन पर अधिकार जमाना, लालच और हिंसा। डाके आज भी डाले जा रहे हैं और वे चम्बल में ही नही घटित हो रहे हैं वरन महानगरों में अलग मुखौटों के साथ मौजूद हैं। विशाल मल्टीनेशनल कम्पनियां आधुनिक भी हैं और रख-रखाव कार्यप्रणाली में चमक-दमक भी मौजूद है परंतु काम कमोबेश डाका डालने का ही है। जिस फ्रेडी यंग ने सुल्ताना डाकू को गिरफ्तार किया था, उसी के मिजाजी आधुनिक स्वरूप में अब मल्टीनेशनल चला रहे हैं गोयाकि चम्बल के डाकुओं को मारने वालों की ही बिरादरी के लोग अब डाकुओं वाला काम कर रहे हैं तथा अब इस काम को सरकारी मान्यता प्राप्त हो गई है और सभी चीजें जायज सी बना दी गई हैं गोयाकि जंगल का कानून सीमेंट के बीहड़ों में आ चुका है।

तिग्मांशु धूलिया संवेदनशील निर्देशक हैं और वे इतने अच्छे अभिनेता हैं कि उनके लिए रोचक पात्र लिखने का मन होता है। यह जरूर कुछ अजीब सा लग रहा है कि सुल्ताना डाकू की भूमिका के लिए उन्होंने छुई-मुई सी छवि वाले शाहिद कपूर को लिया है। यह तात्पर्य नहीं है कि अमजद खान द्वारा अभिनीत गब्बर कोई डाकुओं का नुमाइंदा पात्र है परंतु शाहिद की अभिनय क्षमता सीमित है। सच तो यह है कि उसके पिता पंकज कपूर सुल्ताना डाकू के साथ न्याय करते परंतु उनको लेने पर फिल्म के लिए धन उपलब्ध नहीं हो पाता। इस फिल्म मंडी के नियम अलग ही हैं और कमोबेश चम्बलई ही हैं। सैफ अली खान के साथ 'बुलेट राजा' भी रंक ही साबित हुए।

विशाल भारद्वाज भी हैमलेट का अपना संस्करण 'हैदर' शाहिद कपूर के साथ बना रहे हैं। अब तक महान कलाकारों ने ही यह भूमिका निभाई है या इस भूमिका ने कुछ को महान अवसर दिये परंतु अभिनय की दृष्टि से इतना गरीब हैमलेट कभी नहीं आजमाया गया। इन बातों से ऐसा भ्रम बनता है कि फिल्मकारों के लिए वही सुंदर है जो उपलब्ध है। सुल्ताना डाकू के लिए संभवत: सलमान खान उचित कलाकार साबित होते और उन्हें भी महानगरों की दबंगई से अलग कुछ करने को मिलता परंतु फिल्म उद्योग की जमीनी हकीकत यह है कि बड़े सितारे सब को उपलब्ध नहीं हैं और तिग्मांशु की तरह के फिल्मकार शायद सोचते हों कि सितारों के संगमरमरी गुम्बद में जाने से बेहतर है कि अपने आत्मसम्मान की रेत की दीवार को ही बचाए रखें। भारतीय सिनेमा संगमरमरी गुम्बदों और रेत की दीवारों के बीच फंस गया है। बहरहाल तिग्मांशु जैसे प्रतिभावान निर्देशक के लिए प्रार्थना की जा सकती है। संभवत: अपनी डाकू त्रिवेणी फिल्मों के लिए बाद वे 'बैंडिट क्वीन' के निर्माण के समय के प्रभावों और यादों से मुक्त हो जाएंगे।