तिड़के घड़े / सुभाष नीरव
“सुनो जी, बाऊजी से कहो, लैट्रिन में पानी अच्छी तरह डाला करें। भंगन की तरह मुझे रोज़ साफ करनी पड़ती है।"
गुड़ुप!
“बाऊजी, देखता हूँ, आप हर समय बैठक में ही पड़े रहते हैं। कभी दूसरे कमरे में भी बैठ जाया करें। इधर कभी कोई यार-दोस्त भी आ जाता है मिलने।"
गुड़ुप!
“बाऊजी, आप तो नहाते समय कितना पानी बर्बाद करते हैं। सारा बाथरूम गीला कर देते है। पता भी है, पानी की कितनी किल्लत है।"
“अम्मा, हर समय बाऊजी के साथ क्यों चिपकी रहती हो। थोड़ा मेरा हाथ भी बटा दिया करो। सुबह-शाम खटती रहती हूँ, यह नहीं कि दो बर्तन ही मांज-धो दें।"
गुड़ुप! गुड़ुप!
“बाऊजी, यह क्या उठा लाए सड़ी-गली सब्ज़ी! एक काम कहा था आपसे, वह भी नहीं हुआ। नहीं होता तो मना कर देते, पैसे तो बर्बाद न होते।"
गुड़ुप!
“अम्मा, आपको भी बाऊजी की तरह कम दिखने लगा है। ये बर्तन धुले, न धुले बराबर हैं। जब दुबारा मुझे ही धोने हैं तो क्या फ़ायदा आपसे काम करा कर। आप तो जाइए बैठिये बाऊजी के पास।"
गुड़ुप!
दिनभर शब्दों के अनेक कंकर-पत्थर बूढ़ा-बूढ़ी के मनों के शान्त और स्थिर पानियों में गिरते रहते हैं। गुड़ुप-सी आवाज होती है। कुछ देर बेचैनी की लहरे उठती हैं और फिर शान्त हो जाती हैं।
रोज की तरह रात का खाना खाकर, टी.वी. पर अपना मनपसंद सीरियल देखकर बहू-बेटा और बच्चे अपने-अपने कमरे में चले गये हैं और कूलर चलाकर बत्ती बुझाकर अपने-अपने बिस्तर पर जा लेटे हैं। पर इधर न बूढ़े की आँखों में नींद है, न बूढ़ी की। पंखा भी गरम हवा फेंक रहा है।
“आपने आज दवाई नहीं खाई?”
“नहीं, वह तो दो दिन से ख़त्म है। राकेश से कहा तो था, शायद, याद नहीं रहा होगा।"
“क्या बात है, अपनी बांह क्यों दबा रही हो?”
“कई दिन से दर्द रहता है।"
“लाओ, आयोडेक्स मल दूँ।"
“नहीं रहने दो।"
“नहीं, लेकर आओ। मैं मल देता हूँ, आराम आ जाएगा।"
“आयोडेक्स, उधर बेटे के कमरे में रखी है। वे सो गये हैं। रहने दीजिए।"
“ये बहू-बेटा हमें दिन भर कोंचते क्यों रहते हैं?” बूढ़ी का स्वर धीमा और रुआंसा-सा था।
“तुम दिल पर क्यों लगाती हो। कहने दिया करो जो कहते हैं। हम तो अब तिड़के घड़े का पानी ठहरे। आज हैं, कल नहीं रहेगें। फेंकने दो कंकर-पत्थर। जो दिन कट जाएं, अच्छा है।"
तभी, दूसरे कमरे से एक पत्थर उछला।
“अब रात में कौन-सी रामायण बांची जा रही है बत्ती जलाकर। रात इत्ती-इत्ती देर तलक बत्ती जलेगी तो बिल ज़्यादा तो आएगा ही।"
गुड़ुप!