तिनका-तिनका कोशिश / उर्मिला शुक्ल

Gadya Kosh से
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आज विदाई है बेटी की, और उनकी भी बेटी तो ससुराल जा रही है, नई जिन्दगी की शुरुआत करेगी वह। मगर वे? क्या करेंगी वहाँ? अपनी जड़ से उखड़ कर क्या फिर से जम पाएंगीं? मगर उन्हें जाना है, अपना सब कुछ छोड़ कर - अपना अतीत, अपना वर्तमान और... अतीत का अलबम पलट रहा था...

यह घर उन्हें बाँध रहा है तो इसलिए कि इस घर कि दीवारें ईंट और सीमेंट का जोड़ मात्र नहीं हैं। सही मायने में यह उनका अपना घर है। उनका अपना वजूद है। अब अलबम के चित्र तेजी से पलट रहे थे। न जाने कितने चित्र थे वहाँ।और फिर एक चित्र उनकी आँखों में ठहर गया था - वे प्राची का हाथ थामे खड़ी थीं, यही घर था, और यही दहलीज़। एक हाथ में नीम और चम्पा के पौधे और दूसरे में नन्हीं हथेलियों की गर्माहट। यहाँ इस घर में एक सपना रिप था उन्होंने।

"अरे वसुधा तुम यहाँ हो ! और वहाँ विदाई के लिए लोग तुम्हें ढूढ़ रहे हैं। " बड़ी दीदी थीं।

अब वे एक -एक सीढ़ियाँ उतरती नीचे आ रही थी। कर सज - धज कर तैयार थी। पहले ये पल कितना भावुक और महत्वपूर्ण हुआ करता था। नये जीवन में कदम रखती बेटी को अपनी सीखों से नवाजती माँ और भीगे मन से माँ की हर बात गाँठ बाँधती बेटी। मगर आज .....!

गहराती भावनाओं के बीच वे अपने आँसुओं को बरबस रोक रही थीं। कि " ओ ममा ! आप भी न सोचती बहुत हैं। प्रैक्टिकल बनिये सारी तकलीफें अपने आप मिट जाएगी।" प्राची थी

वे सुन रहीं थीं चुपचाप। जानती हैं आज के जमाने में बेटी कि यह सीख बड़े काम की है, मगर क्या वे सीख पायेंगीं? यह उनके बस में कहाँ। और बरसने को आतुर आँखों को वे बरबस रोक रही थीं।

"ओहो कहाँ खोई हो? विदाई की रस्में तो पूरी करो। मुहूर्त निकल जाएगा।" किसी ने उन्हें याद दिलाया और वे यंत्रवत उन रस्मों में शामिल हो गईं।

नाइन विदाई की रस्में पूरी करवा रही थी - "बिटिया ये अच्छत पीछे मुहँ करके घर के भीतर फेंको। अब कहो - मायके की देहरी फले फूले। क्षण भर को प्राची से उनकी नजरें मिलीं, उन्हें लगा कि यह वाक्य दोहराते हुए शायद कुछ हो। मगर .....!

"ओहो ममा आप भी न जाने कहाँ खोई रहती हैं। " प्राची एक बार फिर उनके गले आ लगी थी। उन्होंने उसे अपने में समेटना चाहा मगर तब तक उसके कदम कार की ओर बढ़ चुके थे। कार स्टार्ट हुई और धीरे - धीरे आँखों से ओझल हो गई।

आँखों में उमड़ते आँसुओं के बीच अब वे अकेली थीं। मगर कानों में एक शब्द लगातार बज ढ़ह था - प्रेक्टिकल बनो, मगर अपने बस में कुछ कहाँ होता है भला और वे पचीस वर्ष पीछे चली गई थीं ..............

उनकी अपनी शादी का दृश्य - पिता ने अपनी सारी जमा पूँजी झोंक कर बेटी के लिए एक खानदानी वर जुटाया था, मगर वे फिर भी लोग संतुष्ट नहीं थे। टूट गये थे वे और पिता की वह टूटन उनके भीतर तक उतर गई थी और उन्होंने एक संकल्प लिया और उसके लिए वे प्रतिबद्ध थीं। इस ओर पहला कदम बढ़ाया था, बेटी के जन्म पर कांसे की थाली बजवाकर। बेटी के जन्म पर पीतल और बेटे के जन्म पर काँसे की थाली बजाने का रिवाज़ चलता चला आया था। बिना किसी आक्रोश के, बिल्कुल चुपचाप एक रूढ़ी को तोड़ा था उन्होंने। उनका यह विरोध उस दोयम दर्जे का विरोध था जो लड़की के जन्म के साथ ही शुरू होता है। उनके इस कदम का विरोध भी हुआ था, मगर घर के मुखिया ने नासमझ मानकर माफ़ कर दिया था।

मगर बहुत जल्दी वे सब कुछ जान गये थे कि सदियों से चली आ रही उनकी सत्ता अब खतरे में है। और धीरे - धीरे घर के सारे लोग उनके विरोधी हो गये थे। पति की आड़ जरुर थी मगर उनके जाते ही सारा परिवार उन्हें उनकी औकात बता देने पर आमदा हो गया था।

एक औरत वह भी विधवा, वह दया की जगह अपना अधिकार माँगे, तो वह कुलक्षणी तो होगी ही। सो उन्हें भी यह उपाधि मिली थी। जायजाद से बेदखल करने के सारे जोड़ - तोड़ भी किये गये मगर एक लम्बी लड़ाई के बाद उन्हें अपना हक मिला था और साथ ही मिला था एक अघोषित बहिष्कार। धारा के विपरीत तैरना आसान नहीं होता, मगर वे तैरती रहीं लगातार।

"तुम अकेली सारी दुनिया को बदल तो नहीं पाओगी।टूट जाओगी एक दिन।" पति का कहा यह वाक्य आज अक्षरश : सत्य साबित हो रहा था। आज तो उनकी अपनी बेटी भी ...

पर उन्होंने कोशिश तो की थी। पूरे मन से चाहा था कि स्थितियाँ बदलें। और इसीलए शुरुवात भी अपने घर से की थी। तोडना चाहा था उन रुढ़यों को जो औरत को इन्सान नहीं वस्तु बना देते हैं। और इसीलिए वे यह बात वर पक्ष के सामने रखना चाहती थीं। मगर .....

"देखो ममा आपके आदशों के लिए मैं अपनी जिन्दगी को तमाशा नहीं बनाउंगी। लोग कैसी- कैसी बातें बनायेगे? सो प्लीज़ आप ऐसा कुछ मत करना कि......|" और वह प्लीज़, प्लीज़ नहीं एक हिकात थी जो उन्हें भीतर तक छील गई थी।

झंझावत उन्हें उड़ाए लिया जा रहा सब कुछ तिनका - तिनका बिखर रहा था, सारे सपने, सारी सोच और उनकी सारी शक्ति भी। इस झंझावत का पहला झोंका कब आया था .....? शायद उस दिन जब प्राची ने पहला सवाल किया था -" ममा तुम ऑरों कि तरह क्यों नहीं हो? न किसी से दोस्ती, न किसी के घर आना जाना? बस आप और आपकी ये समाज सेवा।"

"बेटा यह तो...|"

"हुँह क्या देती है ये हमें? क्या मिला है आपको? आपको पता है कितनी अनसोशल हैं आप? रिश्ते तक तो निभाए नहीं गये आपसे?" वे आवक रह गयी थीं ! उन्होंने समाज सेवा को फैशन नहीं अपना जीवन माना था। ध्येय था उनका। इसके मन में इतनी कडवाहट क्यों और कैसे? उन्होंने उसे समझाने की कोशिश भी की, मगर सब व्यर्थ रहा और शायद यहीं से उनके रास्ते अलग होते चले गये थे। फिर तो प्राची को वह हर चीज अच्छी लगती जो उन्हें नापसंद थी। और उन्होंने सब कुछ स्वीकार लिया था।

इस विवाह में भी कौन कौन सी रस्में होगीं? विवाह कहाँ और किस तरह होगा? सब कुछ प्राची ने ही तय किया था। यहाँ तक उसे दहेज़ में क्या-क्या चाहिए यह भी उसी ने तय किया था। वे तो बस उसके पीछे खड़ी थीं। वह सब जुटाया जो प्राची ने चाहा। मगर...

"ममा यहाँ इतने बड़े घर की जरूरत तो है नहीं। और फिर थोड़े दिनों की तो बात है। हम आपको भी कनाडा बुला ही लेंगे। आदित्य ने ब्रोकर से बात कर ली है। "

वे आवाक रह गई थीं। बेटी ने अपने भविष्य के साथ - साथ उहके भविष्य का फैसला भी कर लिया था, वह भी उनसे बिना पूछे ! मगर वे चुप थीं। कहती भी तो क्या? और किस्से? बेटी का तो कनाडा जाना तय था। मगर वे क्या करेगीं वहाँ? अपनी सोच में डूबी वे सोच नहीं पा रही थीं कि क्या करें? तभी पंखों की फड़फडाहट से उनकी तन्द्रा टूटी। गौरय्या थी, चोंच में तिनका दबाये घोसले के लिए जगह तलाश रही थी। और लगातार कई उड़ान भरने के बाद, वह बिजली के मीटर पर आ बैठी थी। फिर उसने दीवार से सटी जगह पर तिनका रखा और उड़ गई तिनके की तलाश में। और देखते ही देखते घोसले की नीव पड़ गई थी।

वे देख रही थीं गौरय्या को, उसकी जिजीविषा को। ये पक्षी होकर नहीं हारतीं, फिर वे? सब स्वीकार लेंगी? अपना विस्थापन भी? नहीं वे कहीं नहीं जाएँगी। यहीं रहेंगी अपने देश में, अपनों के बीच।

डूबते सूरज कई लालिमा से उनका चेहरा आवृत्त हो रहा था। वे देख रही थीं सूरज को, सूरज तो कभी नहीं डूबता, बस आँखों से ओझल है और सुबह फिर नजर आता है, अपनी पूरी उष्मा के साथ।

मगर प्राची? क्या वह समझ पायेगी उन्हें? शायद नहीं, अभी तो बिल्कुल नहीं। मगर एक दिन जरुर समझेगी उन्हें, उस दिन का इंतजार रहेगा उन्हें।

और आज वे बहुत खुश हैं। आज प्राची वापस आ रही हमेशा-हमेशा के लिए। उसका पत्र वे बार -बार पढ़ रही हैं - ममा अपना देश, अपने लोग क्या मायने रखते हैं, मैं यह समझ चुकी हूँ। मैं लौट रही हूँ आपके पास, अपनी ममा के पास। इसी दिन का तो इंतजार था उन्हें।