तिरिया जनम / उर्मिला शुक्ल
उसके हाथ थपकियॉं दे रहे थे। मगर मन भटक रहा था। आज गहरे तक आन्दोलित हो उठी थी वह । सभ्यता के नित नये सोपान गढ़़ते समाज के इस रूप ने तों, उसे झकझोर ही दिया था।
विचारों के साथ कभी थपकियॉं तेज हो उठती, तो कभी धीमी। इससे तो शायद पहला जमाना ही अच्छा था। धर्म की ढाल मनुष्य को मनुष्य तो बनाये रखती थी। मगर आज ? आज तो सिर्फ विज्ञान है, जिसकी ओट में सारे अत्याचार-सदाचार हो गये हैं । विचारों के भॅंवर में डूबकर बहुत दूर निकल गई वह।
एकाएक मुन्नी के सिसकने से वह वापस अपनी दुनिया में लौटी उसने देखा नींद में भी उसके चेहरे पर पीड़ा की रेखायें बरकरार थीं। थपकियों के साथ वह दर्द की इबारत पढ़ रही थी। दर्द जिसकी परिभाषा से तो नन्हा सा मन अभी अछूता था, मगर उसकी पीड़ा भोगने को विवश था। कैसी है ये विवशता....?
लोग कहते है कि जमाना बदल गया है। शायद बदला भी है। तभी तो शोषण ने ऐसे-ऐसे रूप धरे है कि ......? कुछ भारी भरकम शब्दो के बवंडर जरूर आये। मगर उनसे क्या मिला ? हॉं। नारी स्वंय इस नारी-मुक्ति की अगुआ बनी बैठी है। इस स्वतंत्रता के पीछे छिपे भोगवाद को वह चाहकर भी समझना नहीं चाहती । इस न समझने के बहाने क्या वह अपना पिछला सब भूलना चाहती है ? मगर। अतीत को भूलकर सिर्फ वर्तमान में जीना क्या संभव है ? नहीं। अतीत की नींव पर ही वर्तमान की इमारत खड़ी होती हैं। उसके मन ने इसकी आहट पा ली थी शायद इसीलिए ऐसी मुक्ति की चाह ने उसे कभी नहीं घेरा था और समाज की सारी व्यवस्थाओं को चुपचाप स्वीकार लिया था उसने । बॉंट दिया था अपने आपको, अनेक-अनेक टुकड़ों में...
मम्मी, पापा और सुधीर सबके हिस्से थे उसके भीतर/नहीं था तो अपना कोई हिस्सा। उसने कभी सोचा भी तो नहीं कि इन सारे टुकड़ों से परे भी कुछ है। अपना निज भी होता है, उसने जाना ही न था। फिर भी ....? मगर आज वह महसूस कर रही है कि अपना निजत्व कितना-कितना जरूरी होता है। वह देख रही थी अपने भीतर, अपने टुकडों को...
अनेक टुकड़े थे उसके कोई एक टुकड़ा बेटी था, तो कोई एक बहन, एक टुकड़े में वह शायद पत्नी थी। शायद इस शब्द का प्रयोग ही सार्थक है। फिर भी कोई इंसान एक साथ इतने टुकड़ों में कैसे बटा, यह जानने की फुर्सत किसे थी। यू वह इंसान थी भी कहां । समाज औरत को इंसान मानता ही कब है। उसके मापदन्डों पर तो औरत या तो देवी है, या फिर कुलटा/बीच का कोई मार्ग ही नहीं है उसके लिए बीच को साधारण राह पर तो इंसान चलते हैं... दृश्य आते-जाते, बनते-बिगड़ते रहे ।
इन्हीं दृश्यों के बीच उभर आया बचपन। खिलौनों का अम्बार, तरह-तरह के रसोई के साजो-सामान और सुन्दर नाजुक गुडिय़ा। गुडिय़ा से खेलते मन में हर पल उतरती जा रही थी गुडिय़ा/और आशा आकांक्षा से परे वही निर्जीव गुडिय़ा उसमें कब बैठ गई थी वह कहॉ जान पायी थी भला ।
हॉ। एक बार विरोध किया था शायद . . . भैया के हवाई जहाज को लेकर मचल उठी थी वह । मगर बड़ी खूबसूरती से मॉ ने मना लिया था उसे और फिर उसकी नजर में गुडिय़ा हवाई जहाज से ज्यादा खूबसूरत हो उठी थी ।
सीमायें ऐसे ही बंधती हैं और उसके भीतर बैठी गुडिय़ा ने अपने को बांध लिया था, उन सीमाओं में/बॉट दिया था अपने आपको और फिर विभाजन का एक लम्बा सिलसिला बना गया था उसका जीवन . . . ।
पहला विभाजन मम्मी-पापा के बीच । मम्मी की चाहत घरेलू लडक़ी सर्वगुण सम्पन्न जो आगे चलकर दोनों कुल को रोशन बनाये और पापा उसे कुशल वकील बनाना चाहते थे। बुद्धि कौशल में पारंगत और परस्पर विरोधी धाराओं में डोल रही थी वह जिधर लहर तेज होती वह उधर ही बह जाती। विपरीत धारा के चपेड़े छोलते रहे उसे/फिर भी पापा की इच्छा उसने पूरी की। आज वह एल.एल.बी. डिग्रीधारी है ।
साथ ही मम्मी की कसौटी पर भी कसा अपने को। सिलाई, कढ़ाई, कुकिंग। फिर भी कुछ था, जो रह ही गया था। पूरी कोशिश के बाद भी कुछ था जो उसमें समा नहीं पाया था। क्या? वह भी कहॉ जान पायी थी और जब जाना ???
लहरे और-और तेज हो उठी थी और उनमें डोलती वह लड़ रही थी अपने आपसे । एक विकराल लहर आयी और अपने साथ ले गई पीछे-बहुत-पीछे . . .
उसके भीतर सुधीर का जो हिस्सा था . . . . ? उसके लिए शायद पर्याप्त नहीं था वह। उसे पत्नी के रूप में चाहिए थी फिल्मी नायिका जो परेशानियों में भी मुस्कान परोसती रहे और उसकी ये अपेक्षायें नई भी तो न थी . . . । सदियों पुराने धर्मग्रंथो ने भी तो यही व्यवस्था की थी। भोजन से लेकर शय्या तक की भूमिका निर्धारित की गई है उसके लिए ।
मगर पुरूष ? उसकी भी भूमिका तय है और वह अपनी भूमिका के प्रति सजग भी है। तभी तो उसके स्वामित्व पर ऑच आई नहीं कि . . .? देखे, सुने और भोगे हुए अनेक दृश्य उभर आये . . .
ऐसा एक तरफा विधान। ऑखों में मनु उतर आये थे फिर चेहरे बदलने लगे । राम, कृष्ण युधिष्ठिर एक के बाद एक चेहरे आते रहे और अब वहॉ सुधीर का चेहरा था।
मर्यादा, धर्म, न्याय और तथाकथित सभ्यता के सारे प्रतिनिधि मौजूद थे वहॉं/ युगों का अन्तराल था, मगर स्थितियॉं बिल्कुल वहीं। हॉं, मुखौटे जरूर बदल गये थे ऑखों में उतर आयी थी वही शाम . . .
ममता और स्नेह से लबालब भरी थी वह शाम। इन्तजार के वे बेकरार पल ऑखों में मचल रहे थे। कितना सुखद था सब । बिल्कुल स्वप्न लोक सा। एक उष्मामन की गहराइयों से उठी थी, जिसे सुधीर तक पहुंचाने के लिए आकुल थी वह।
और फिर इंतजार खत्म हुआ था। सुधीर के आते ही उसने अपनी सारी उष्मा सुधीर में रोप दी थी। क्षणभर को लगा कि अब दोनों तक ही धरातल पर हैं । मगर . . . शाम में रात की कालिमा उतर आयी थी।
‘‘तुम डॉ. कुलकर्णी से और भी सारे चेक अब करा लो।‘‘
‘‘अरे। ऐसे क्या देख रही हो । भई मैं चाहता हूँ तुम सोनोग्राफी करवा लो। जब विज्ञान ने सुविधा दी है तब रिस्क क्यों लिया जाय। मैं लडक़ी का रिस्क नहीं चाहता‘‘- कहते हुए चेहरा इतना सपाट था कि जैसे यह बात उनसे नहीं किसी और से संबंध रखती हो । इन बातों का अर्थ न समझे, ऐसी मूर्ख तो वह नहीं थी। पहली बार समझ उसके भीतर तक उतरती चली गई । तथाकथित सभ्य समाज के इस रूप ने उसे भीतर तक आहत कर दिया था।
इन बातों का अर्थ न समझे, ऐसी मूर्ख तो वह नहीं थी। पहली बार समझ उसके भीतर तक उतरती चली गई । तथाकथित सभ्य समाज के इस रूप ने उसे भीतर तक आहत कर दिया था।
वह अनु जो आज तक व्यवस्था को मुस्कराकर स्वीकारती आयी थी आज पलभर को कहीं और चली गई थी, और उसके स्थान पर उग आयी थी एक नई अनु। सब कुछ उलट-पलट देने को आतुर । अब तक की दबी चिन्गारियॉं आज लौ में बदलने को व्याकुल थी। मगर पुरानी अनु ने संभाला था उसे ।
एक अजन्में जीवन को समाप्त करने के लिए वह तैयार न थी। मगर विद्रोह के लिए जो आलम्बन चाहिए वह कहॉं था उसके पास । कहने को तो सभी थे, अपने नितान्त अपने मगर वह अपना कल देख रही थी । एकाएक नितांत अकेली हो। जायेगी वह, उसके अपने ही विरोधी हो जायेगे यह बात जानती थी वह। अकेले चहुँ तरफ़ा वार झेलने के लिए जो सब चाहिए वह कहॉं था उसमें। कोई बात नहीं ...। अनु विद्रोह नही करेगी मगर........ और अपने विद्रोह को झूठ का जामा पहना कर पहला कदम बढ़ा दिया था उसने। बाहर सब कुछ वैसा ही रहा। बिल्कुल शॉंत पहले की तरह। आज पहली बार उसने अपने लिए दी गई व्यवस्था का विरोध किया था । शब्द रहित खामोश विरोध।
अब सुधीर बेहद प्रसन्न थे और बेटे का पिता बनने का गर्व दिनोदिन बढ़ रहा था । अब वे एक अच्छे पति की भूमिका में थे। अपनी अमानत की सुरक्षा के प्रति सजग।
मुन्नी के जन्म के चौबीस घंटे बाद सुधीर से साक्षात्कार हुआ था। और उसने देखी थी सुधीर की तिरस्कार एवं घृणा से लबालक ऑंखें । मगर लोगों ने देखा उन्ही ऑंखो में तिरती मोहक मुस्काने और ओठो पर मचलत जुमले जो बेटी के जन्म पर उछाले जाते हैं। बल्कि औरो से ज्यादा स्नेहिल जुमले, बिल्कुल छायावादी कविता की तरह कोमल और स्वपनिल। चासनी से पगे शब्दों ने पलभर तो उसे भी भ्रमित कर दिया था। उसे भी लगा था कि व्यर्थ ही वह सुधीर के विषय में गलत सोच रही थी। शायद उसके मन की आशंका ने ही कुछ गलत देख लिया था। मगर लोगों के हटते ही फिर वही सब। एक गुलाम अपना और अपनी नस्ल का निर्णय स्वंय ले। स्वामी को भला कैसे बर्दास्त होता ।
घर लौटने पर सारी रस्में हुई, जो आम तौर पर हुआ करती है। पार्टी तो इतनी जोरदार थी कि लोग आज भी याद करते हं। मगर इस सबके बीच कॉंटे चुभते रहे। मुन्नी सुधीर के स्वामित्व के लिए चुनौती थी। और वह जानती थी कि अब राह आसान नहीं है। राह में कॉंटे ही कॉटे उग आये है। मगर यह चुनाव उसका अपना था। सो वह चलती रही हर सम्भव कॉंटे बीनती रही। मगर कॉंटे बढ़ते ही जा रहे थे निरन्तर.........फिर भी वह चल रही थी।
सुधीर के लिए अब उसका वजूद इक मशीन से ज्यादा न था। जब चाहा स्विच आन। वह उसमें ऑंधी सा प्रवेश करता और तूफान सा लौट जाता। सब कुछ उजाडक़र मन आहत होता मगर वह पत्नी थी और पत्नी धर्म निभाना उसका कर्तव्य था सो अपना कर्तव्य पाल रही थी वह।
समय के साथ सुधीर और कॅंटीले हो चले थे। बात-बात में उलझते, मगर उसने खामोशी को ढाल बना लिया था। उसे विश्वास था कि वक्त के साथ सब ठीक हो जायेगा। मगर। उसकी खामोशी उन्हें और-और आक्रामक और संवेदन शून्य बनाती चली गई थी। समय कुछ और बढ चला था। मुन्नी की किलकारियॉं पूरे घर में गूंजती मगर एक कोना अब भी ऐसा था जहां उसकी पहुँच न थी। उस कोने को लेकर अनु अक्सर व्याकुल हो उठती। ऐसा व्यवहार। उसकी कल्पना से परे था। मगर सब प्रत्यक्ष था उसके अपने ही जीवन मे। फिर भी आशा का दामन थामे वह बढ़ रही थी। कदम दर कदम । मगर आज की घटना ने तो उसके हाथ से आशा का दामन झटक लिया था।
आज के यथार्थ को उसकी आशा भी थाम न सकी । उसकी आशा धूल धूसरित हो गई थी आज। और चारों ओर था भयंकर झझावत और उसमें तिनके सी डोल रही थी वह। क्या करे, दूर-दूर तक कोई अवलम्ब न था। पीड़ा और अवसाद के बीज आज की सुबह ऑंखों मे फिर उभर आयी थी......,।
सुधीर को नाश्ता देकर वह रसोई में व्यक्त थी। आज आया छुटटी पर थी सो जल्दी-जल्दी काम से निपट लेना चाहती थी..... पिछले कुछ दिनों से मुन्नी चिड़चिड़ी भी बहुत हो गई थी। जरा देर हुई नहीं कि रो-रोकर बेहाल हो जाती है। तभी झन्न.....की आजाज और रसोई के फर्श पर दूध ही दूध नजर आने लगा।
‘‘मियाऊं‘‘ खिडकी पर बैठी बिल्ली शायद उसकी प्रतिकिया की प्रतीक्षा में थी। और अनु की सारी कोशिश नाकाम हुई थी इसी झनाके के साथ । मुन्नी जाग गयी थी। अब तक बिखरते दूध की चिन्ता में उसके कानों में आवाज पहुँच गया था। मग वह चाह रही थी कि रसोई का बिखरापन समेट ले। तभी सुधीर की आवाज ने दखल दी ‘‘अनु मेरी टाई कहॉं है ? हॅंइ इस घर में तो कोई चीज मिलती ही नहीं।‘‘
उसने कपडों के साथ टाई भी निकाली थी। शायद जल्दी में रह गई हो। सुधीर की अवहेलना के परिणाम से वह गाफिल न थी । भागकर कमरे में पहुंची .....
सारे कमरे में कपड़े ही कपड़े पल भर को मन किया कि वह भी बुक्का फाडक़र रो पड़े। मगर किसके सामने। सो टाई ढूढऩे में लग गई। तभी धम्म की आवाज से कमरा भर उठा था और .....
पलभर को सब निस्तब्ध हो गयी थी। फिर मुन्नी की लम्बी चीख उभर कर फैल गई थी कमरे में । मुन्नी सुधीर के पैरो के पास पड़ी थी। भय और पीड़ा से चेहरा जर्द हो गया था। मगर सुधीर निरपेक्ष खड़े थे अपनी टाई के इन्तजार में।
उसने दौडक़र मुन्नी को उठाया। उसकी सॉंस खिंच आयी थी। और इसी क्षण सुधीर से ऑंख मिलते ही अब तक संचित राख में दबी चिंगारियॉं भभक उठी थी। जिसकी लपट ने पलभर सुधीर को घेरा जरूर, मगर अहंकार ने उसे ठेल दिया था और ब्रीफकेस उठाकर बढ़ चले थे गैरेज की ओर ।
और वह कठुआयी सी देख रही थी उसे। कोई इंसान इतना पत्थर भी हो सकता है। उसने सोचा भी न था। फिर सुधीर तो पिता थे, उसके जन्म दाता। हाथ मुन्नी की पीड़ा सहला रहे थे मगर मन में था तूफान और उसमें तैरती लम्बी-लम्बी परछाइयॉं।
कार के स्टार्ट होने से वह सजग हुई। सुधीर जा चुके थे। मुन्नी देर तक हिचकियॉं भरती रही, फिर सहज हो गई । मगर अनु आज सहज न थी, उसने सुधीर से झूठ बोलने की गलती की थी। मगर इसकी सजा मुन्नी को ?........फिर उसके गलती भी क्या थी। यह कि एक जीव हत्या में उसने हाथ नहीं दिया था। हॉं यही उसका अपराध था। वह भूल गई थी कि.......
उसने देखा मुन्नी नीद में भी भय और पीड़ा से मुक्त न थी। उसका मन कराह उठा था। ऑखे छलछला आई। इस नन्ही जान का क्या दोष है भला। यही कि उसने स्त्री जन्म पाया है तो क्या स्त्रियॉं सिर्फ पीड़ा सहने के लिए हैं ? यही उनकी नियति है? हॉं युगो युगों से यही तो होता चला आया है। पीड़ा ने ही आकार ग्रहण किया और लोगो ने उसे नारी नाम दे दिया । उसका मन बहुत पीछे चला गया। बचपन में नानी गाया करती थी:-
तिरिया जनम झनि दे हो विधाता।
तिरिया जनम झनि दे
तिरिया जनम कॉंटो की सेजिया।
सोवत चुभ-चुभ जाये हो विधातां।
बचपन में वह कहॉं समझ पायी थी कि इस गति के साथ नानी की ऑखें क्यों। भर आती है। मगर आज इस पीड़ा में गोते लगा रही है वह आसू ढलते रहे थे मन भीगता रहा और दर्द गहराता रहा।
यह कैसी पीड़ा है जिसका स्त्रोत आज तक नहीं सूखा। क्या कभी नहीं सूखेगा यह । सोच ने नया मोड़ लिया। उसकी बेटी ने भी तो तिरिया जनम पाया है तो क्या उसकी लाडली भी सारा जीवन यूं ही पीड़ाओं में जीयेगी ?...........
जीवन भर सजा पायेगी, वह भी उस गलती के लिए जो उसने की ही नही । नहीं। उसके जीवन से कॉंटो को निकाल फेकेगी वह। चाहे उसके साथ लहूलुहान क्यों न हो जाय। वह लड़ेगी.... अपनी लड़ाई, अपनी बेटी की लड़ाई और अपने आने वाली नस्ल की लड़ाई । अपनी सामर्थ्य भर लड़ेगी ।
‘‘मगर वह सामर्थ्य है कहॉं ? मन ने ललकारा‘‘।
सामथ्र्य जुटाऊगी मैं। मैं जानती हूं कि ऑधी में खडे होने के लिए पैरों में शक्ति चाहिए। मै भरूगी वह शक्ति अपने कमजोर पैरो में। और धीरे-धीरे उसकी ऑंखे बन्द हो गई थी।
वह आज पहली बार दुआ मॉंग रही थी अपने लिए, सिर्फ अपने लिए। आज वह मॉंग रही थी- जन्म जन्मान्तर तक तिरिया जनम। युगों युगों से बाये कॉंटे निकालने के लिए जनम पर्याप्त न था। तो वह बार-बार तिरिया जनम की कामना कर रही थी और धीरे -धीरे दर्द का कुहरा छॅंटने लगा था।
सुधीर देर रात क्लब से लौटे तो पाया कि आज स्टडी रूप की लाइट जल रही है। भीतर झॉंका । वहीं उनके टेबल के करीब एक टेबल और लग गयी थी। टेबल कैम्प की रोशनी बहुत कुछ कह रहे थे। अनु अपने कार्य छेत्र के लिए तैयार हो रही थी।