तिरोहन / कुबेर

Gadya Kosh से
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माह की पहली तारीख थी। मस्तिष्क में गृहस्थ की सामग्रियों की सूची पुनः प्रक्षेपित होने लगी। माह भर का बजट बनाने वाली मेरी पत्नी गंभीर मुद्रा में मेरे सामने खड़ी थी। भरतीय दंपत्ति के समस्त प्रेम दृश्य जो एकांत के क्षणों में ही सुलभ हो सकते हैं, साकार हो उठे थे। चेहरे पर वही सौम्य-स्निग्ध मुस्कुराहट थी, जैसा आफिस जाते समय, बिदाई के क्षणों में हुआ करती है, निर्विकार पर स्नेहयुक्त। वह भाव, जिसे एक दक्ष अभिनेत्री के समान हमेश वह अपने अंतर्मन में छिपा लिया करती थी, और जिसकी हल्की-हल्की झलक उनकी आँखों में भी होती जिसे मैं अनदेख कर दिया करता था, ताकि उन्हें अपनी अभिनय क्षमता पर शक न हो, आज भी उनकी आँखों में दृश्यमान थी। उनकी शांत गहरी आँखों में देखते हुए मुझे पिछले महीने की पहली तारीख का स्मरण का आया।

एक मासिक, साहित्यिक पत्रिका, जिसे पढ़ने के लिये मैं किसी मित्र से मंगकर लाया था, के पत्ते उलटते हुए मैं बिस्तर पर लेटा था। न जाने कब आकर वह सिरहाने बैठ गई थी। उनकी स्नेहयुक्त ऊँगलियों के स्पर्ष से मेरा ध्यान भंग हुआ। वह कह रही थी - “तुम्हारी कमीजें और पेंट काफी पुराने और बदरंग हो चुके हैं, अब की वेतन में एक जोड़ी बनवा लेना, हाँ।”

उनकी मनुहार भरी आदेश की प्रतिक्रिया में मैं कुछ भी कह न सका, और शायद कुछ कहने की मेरी स्थिति भी नहीं थी। मुझे स्त्रियोचित आभूषणप्रियता और सौंदर्यचेतना का बोध था, जिसे मेरी पत्नी आज तक मेरी गरीबी पर न्योछावर करती आ रही थी। शायद इसीलिये वह अपनी सारी इच्छाओं का दमन करके भी मेरे कम वेतन में उतना ही प्रसन्न रहती थी, जितना मिसेज शर्मा अपने पति की ऊपरी कमाई की सेज पर सो कर रहा करती होगी? और इसी कारण मेरा मन उसके प्रति हमेशा कृतज्ञता के भाव से आहत रहता था। बिना कुछ कहे मैंने उसके कपोल चूम लिये। अपना सिर उसकी गोद में रखकर मैं शून्य में ताकने लगा। उनकी दो साड़ियों को छोड़कर बाकी सब में पैबंद लग चुके थे जो मेरी आँखों के सामने मकड़ी के जालों के समान दृष्यमान हो रहे थे।

“क्या सोच रहे हो?”

“क्या?”

“कुछ तो, मुझसे भी छिपाओगे?”

“तुमसे छिपाने को है ही क्या?”

“इतना परेशान मत हुआ करो। तनाव का सेहत पर बुरा असर पड़ता है।”

“मुझे बहुत प्यार करती हो?”

उत्तर में वह लज्जा से लाल अपने चेहरे को मेरे वक्ष में छिपाकर मुझसे आलिंगनबद्ध हो गई।

“सच तो यह है सरोज कि तुमने मुझे क्या कुछ नहीं दिया है। और मैं तुम्हें क्या दे सका हूँ? तुम्हंें फिर भी मुझसे कोई शिकायत नहीं है।”

“कैसी श्किायत? तुम मेरे हो; मुझे और क्या चाहिये।”

मेरे ह्रदय की निराशा और दुख रूपी रात का गहन तिमिर भी उसके इस उत्तर के प्रेमालोक से जगमगा उठा।

आज आवश्यक सामग्रियों की सूची में सबसे ऊपर मैंने लिख दिया - एक साड़ी और ब्लाऊज।

वेतन लेकर सबसे पहले मैंने कपड़े की एक मामूली दुकान से एक साड़ी, मैच करता हुआ एक पेटीकोट और एक ब्लाऊज खरीदा। इसे खरीदकर जैसे मैंने दुनिया की सारी खुशियाँ खरीद ली हो। खरीदी गई अपनी खुशियाँ मैंने हाथ में रखे मटमैले थैले में रख लिया।

आज पहली बार अपनी पत्नी को मैं कुछ देने जा रहा था। मन में एक भय घर किये जा रहा था कि कहीं सरोज इसे नापसंद न कर दे। मिसेज शर्मा और मिसेज वर्मा की कहाँ बनारसी साड़ियाँ और पॉलिएस्टर की कहाँ यह साधारण साड़ी?

रास्ते में शर्मा जी से भेट हो गई। शर्माजी वन विभाग के कर्मचारी हैं। अपनी अभावजनय हीनता के कारण मैं हमेशा उनसे कतराया करता था। उसके सहज संबोधन भी मुझे व्यंग्य बाणों की तरह चुभा करते थे। अपनी नई बाइक रोक कर शर्माजी ने अभिवादन करते हुए कहा - “ओ हो, क्या बात है गुरूजी, आज तो आप बड़े प्रसन्न नजर आ रहे हैं?”

“क्यों नहीं, आज पहली तारीख जो है। महीने के बाकी दिन तो राते-धोते ही कटती है।”

“अरे, थैले में क्या रखा है। साड़ी? ब्यूटिफूल, बहुत फबेगी भाभी पर। आपकी पसंद का भी कोई जवाब नहीं।”

शर्मा जी की यह प्रशंसा मुझे निहायत ही बनावटी और चिढ़ाने वाली लगी और अंदर तक घायल कर गई। शर्माजी ने शायद यह प्रशंसा निःश्छल मन से किया हो; और अपनी अभावजनय हीनता के कारण मुझे ऐसा लगा हो, पर इस विषय में सोच-सोचकर मुझे दुख के सिवा ओर कुछ नहीं मिल रहा था। मेरी यह ग्रंथि हर बार मेरी खुशी के आड़े आने से नहीं चूकती थी। पिछले महीने भी इसी तरह मुलाकात हुई थी। शादी की वर्षगाठ पर शर्माजी अपनी पत्नी के लिये एक कीमती साड़ी और अन्य उपहार खरीदकर ले जा रहे थे। उन्होंने मुझसे पूछा था। - “कैसी है?”

“बहुत सुंदर।” मैंने कृत्रिम मुस्कुरहट के साथ कहा था। फिर हम दोनों अपने-अपने रास्ते चल दिये थे।

आज शर्माजी की वही कीमती साड़ी बार-बार मुझे चिढ़ रही थी। मेरी यह साड़ी उसक सामने चिंदी जान पड़ रही थी। अब मेरा सारा उत्साह जाता रहा। शर्माजी की उन प्रशंसात्मक बातों का भी मेरे मेरे हीन विचारों ने भिन्न अर्थ ही लगाया था। - “मास्टर की आखिर औकात ही क्या?”

थके मन से मैंने घर में प्रवेश किया। थैला पत्नी की हाथों में दे दिया। यह क्या? साड़ी देखते ही सरोज चहक उठी। उसके चेहरे पर खुशी की एक अप्रतिम आभा चमक उठी। इतना खुश शायद उसे मैंने पहली बार देखा था।

मेरे चेहरे पर भी मुस्कान की एक हल्की रेखा खिंच आई। अब मेरे मन की हीनता तिरोहित हो चुकी थी। सरोज की उस प्रसन्नचित्त मुखमुद्रा मेरे मस्तिष्क पर स्थिर हो गई।