तिरोहन / वंदना शुक्ला
प्रेम रोमांस मात्र नहीं गहन आत्मीयता है विश्वास और शक्ति है... .प्रेम बंधन नहीं मुक्ति है......
“क्या सोच रहे हो?”
कुछ नहीं?पर...
क्या कहा बात कर रहे थे खुद से?इस उम्र में अलावा इसके कोई और विकल्प भी तो नहीं?
हाँ होता है ये... .कभी कभी यूँ भी अच्छा लगता है बात करना अपने से ही।
आप कह रहे हैं मै नहीं करता?नहीं जनाब मै भी आपका ही हमउम्र हूँ तकरीबन। वैसे भी जहाँ तक “अच्छा लगने’ की बात है, ये उम्र की मोहताजी नहीं होती। मैंने नौजवानों को अंतर्मुखी और गंभीर चिंतन करते हुए भी देखा है और साठ पार वृद्धों को छिछोरी बचकानी बातों पर ठहाके लगाते भी। हा हा हा हा...
“मै यहाँ क्यूँ आता हूँ कहीं और क्यूँ नहीं?सही सवाल... .
“सच पूछिए तो मै भी यहाँ कश्मीर के इस अनजान से कोने में ख़ूबसूरत हरे भरे अरण्य, ऊँचे नीचे पहाड़,छायादार घाटियों,गरजती नदियों और इन पाइन और देवदार के ऊँचे दरख्तों के इस अलौकिक सौंदर्य से गुफ्तगू करने ही आता हूँ सात सौ मील दूर शुष्क बीहड़ धूल और लोगों से भरे मैदानी इलाकों से भागकर। दुनिया और दुनियादारी से अघाई/उकताई हमारी उम्र ऐसी ही जगहों की तलाश में रहती है|
सच बताइए क्या मै गलत कह रहा हूँ?...कैसे बीतते होंगे खुद से वे लोग जिनकी ज़िंदगी की सड़क से इंतज़ार के पदचिन्ह मिट जाते हैं?मुझे लगता है जनाब इंतज़ार एक ना ढलने वाली रात है एक अलसाई उनींदी उम्मीद... .जिसे सवेरे की तलाश होनी ही चाहिए।
ओहो ऐसी भी कोई खास नहीं... पर आपको पंक्तियाँ अच्छी लगी... शुक्रिया जनाब। “अरे अरे बस कीजिये मै ज्यादा शराब नहीं पीता ये ‘ओल्ड मोंक’ आप लीजिए मै अपने लिए बीयर मंगाता हूँ... .बेयरा... अच्छा ख़ूबसूरत पंक्तियों की नज़र...?चलिए ठीक है चीयर्स...
हाँ तो मै कहाँ था!... “हाँ याद आया... .|मै यहाँ छुट्टियाँ बिताने आता हूँ ….कम स कम बीस पच्चीस दिन रहते हैं हम यहाँ... . बस मै और मेरी किताबें। लोग कहते हैं कश्मीर में तुम सुरक्षित महसूस करते हो?तुम्हे डर नहीं लगता?”देखिये ज़िंदा हूँ आपके सामने बैठा हूँ... “मै हंसकर कहता हूँ। ये दुनियां की सबसे पुरसुकून और तनहा जगह है, एक ऐसा एकांत जो चुप्पियों की भीड़ से अलग है, ये किसी तपस्वी का एकांत नहीं बल्कि ये एक सर्जक और एक साधक का एकांत है। ज़मीन की गीली धुंध से कुछ ऊपर और आसमान के विराट मौन से पिघलता हुआ... धरती का एक अनजान सा कोना। प्रकृति तमाम कायनात से पीठ करके बैठी हो जैसे सजदे में। ओह, मै तो संज़ीदा हो गया... अब देखिये ना ये खूबसूरती है ही इस क़दर दिलकश कि हर संवेदन शील ह्रदय खुद ब खुद कवि बन जाये।
सच कहूँ बरखुरदार,शहरों से जब बेतरह ऊब होने लगती है, डोमिनोज़,फ़ूड चेन्स, मॉल्स,वस्तुओं के कोलाहल भरे बाज़ार,दुनियांदारी के ऊल ज़लूल मसले, मलाल, आडम्बर, हालातों की नोंच खसोट, जिम्मेदारियां कीचड की तरह देह से आत्मा तक चिपक जाते हैं यूँ समझ लीजिए बस उन्हें ही धोने चला आता हूँ यहाँ। वो देख रहे हैं आप, वो देखिये बादलों के धुंधलके के उस पार हरे भरे कोर्टयार्ड के बीच लकड़ी की कोठरी वही कॉटेज है मेरी... जानबूझकर हर बार यही कॉटेज लेता हूँ मै ताकि खूबसूरती का ये नज़ारा भी दिखता रहे उस बालकनी से गर्मागर्म कहवा पीते हुए और सुबह शाम यहाँ रेस्तरां तक तफरी भी कर ली जाय। अब तो उस सराय के मालिक से अच्छी भली जान पहचान हो गई है| अलस्सुबह मै लकड़ी की उन ऊबड़ खाबड़ सुस्त सी मटमैली सीढ़ियों, सफ़ेद सागौन, बादाम, ओक,देवदार,लीची और शहतूत के बर्फ झाड़ते दरख्तों के जुगनुओं व तितलियों से भरे उस छोटे से जंगल को पार कर टहलता हुआ इस रेस्तरां तक एक कप कोको पीने चला आता हूँ कोई मनपसंद किताब, लिखने को कागज कलम और जेकेट की जेब में सिगरेट का एक पैकेट और लाइटर यानी अपनी पूरी दुनिया समेटकर। नर्म करीने से कटी छंटी मुलायम दूब के बीच उन बादाम के छायादार दरख्तों के झुरमुट के नीचे बैठकर सबसे पहले सिगरेट सुलगा आसपास की ठंडी सर्द सुबह को अपने भीतर रूह से गुज़रता देखता हूँ। नई नवेली वधु सी रोमांच से सिहरती ये सुबहें सबसे ख़ूबसूरत हिस्से रहे हैं मेरी ज़िंदगी के जहाँ मै खुद को खुद से विस्मृत होता हुआ पाता हूँ। सच कहूँ बरखुरदार मुझे नहीं लगता कि प्रकृति के इन दिलकश नजारों के पार भी कोई ख्वाहिश बाकी रह सकती है इंसान के ज़ेहन में।
वो एक खुशनुमा तिलिस्म
जब मै सिगरेट के नरम छल्लों और सिलेटी बादलों की पर्त के मध्य कुछ ‘रहस्यमयी”सा खोजने के शगल में डूबा हुआ होता तब अचानक उसके बीच मुझे कोई ख़ूबसूरत चेहरा नज़र आता गुलाब की कोमल खिली पत्तियों पर तुहिन कणों जैसा निहायत ताजातरीन अदेखा अछूता सौंदर्य। उसके ठीक बाद मै पाता कि वो चेहरा मेरे बिलकुल करीब आ गया है इतना कि उसकी सांसों को मै छू सकता हूँ। वो वही होती हाँ बिलकुल वही सही पहचाना आपने...... ना ना माशूका नहीं पर ये सच है कि जिसे मै खोना नहीं चाहता था पर खो देता था बार बार, जिसे मै बेतरह पाना चाहता था पर वो अपनी गुमशुदगी अपने बगल में दबाए घूमती| मुझे अचानक महसूस होता कि वो ठीक मेरे सामने की कुर्सी पर आकर बैठ गई है। और फिर हम एक दूसरे को किसी घने सायेदार दरख़्त की अनाकृत परछाइयों के नीचे पडी कुर्सियों पर मद्धम गुनगुने उजालों के बीच बैठा हुआ पाते। उसके गुलाबी गालों पर बगलगीर ओक के पत्तेदार साये गिर रहे होते जिनमे उसका चेहरा एक पेंटिंग की तरह लगता। वो हरदम चेहरा उस झरने की ओर करके बैठती जिसकी लयबद्ध धार की मखमली झर झर उसकी आत्मा के अबूझ जंगल में पहाड़ों के बीच से गुजरते चाँद की चांदनी सी फैलती जाती, उसके होठों का मासूम सा कंपन मै अपनी आँखों में महसूस करता .पर उसकी पीठ, उस ढाबे नुमा रेस्तरां की ओर होती जिसके सामने के हिस्से में नुमाइश की तरह लटके उल्टी उधड़ी हुई मुर्गियों बत्तखों के मुर्दा जिस्म होते, जिनके ठीक नीचे लाल लाल दहकते अंगारों को अपने मुंह में भरे मिटटी चूने की दहकती हुई भट्टियां, जिन पर कबाब की सीन्खें और जानवरों की रानें सिंक रही होतीं ‘वाजवान’ और ‘गोश्ताबा’ की गंध फिजाओं में गूंजती गुलाम मोहोम्मद सज़न्वाद के सूफी गीतों या किसी लोक वाध्य के मद्धम बजते संगीत की धुनों में गुंथ गई सी लगती जो अक्सर वहाँ तिरा करती थी।
बरखुरदार आपने कभी ऐसा सरोवर देखा है जिसकी हल्की थरथराहट से कांपती पारदर्शी नीली लहरों से उसकी तलहट आईने की तरह चमकदार और साफ़ दिखाई देती हो एक पंख या कोइ पत्ती भी उसके एकांत में हलचल सी पैदा कर देती हो?नहीं ना?मैंने ये सरोवर उसकी आँखों में देखा है नृत्य करते मोरपंखों की झरझराती तरंग सा रंग|। दरअसल उसकी आँखों का रंग आज तक मै जान ही नहीं पाया। जब भी उसकी निश्छल आईने जैसी आँखों में झांकने की कोशिश की लगा बहुत सारी रंग बिरंगी तितलियाँ उसकी आँखों में सिमटी बैठी थीं छिपी सी अचानक उड़ने लगी जो मुझे घेर लेती और मै फिर अबूझा रह जाता। तितलियों के इस खेल में मै हमेशा पराजित होता रहा।
आपको बता दूँ कि हम अपने शब्द कम जाया करते बनिस्पत संकेतों के। मै सिगरेट का पैकेट और लाइटर रख देता टेबल पर उसके सामने। ... उसे विल्स अच्छी लगती “ये लाईट होती है ज्यादा फेंफडों में भरती नहीं.”..ये बात वो कहती नहीं पर मै समझ जाता। ऐसी तमाम बातें थीं जो हम आपस में कहे बिना ही समझ लेते। वो अपनी गोरी पतली उँगलियों में सिगरेट को फंसाए अपने होठों के बीच दबा लेती... ऐसे में उसकी हल्की नीली चमकीली ऑंखें थोड़ी सिकुड जाती। कहीं शून्य में देखती हुई। मै चुटकी बजाता ...
.”हेलो मोहतरमा जेनी... .कहाँ हैं आप?...वो मेरी ओर देखती उन नज़रों से जैसे कुछ ढूंढ रही हो, जो बस अभी अभी कहीं खो गया हो। .कभी २ एक बिल्ली जैसा डर उसके चेहरे पर कौंध जाता... दूध पीते हुए पकड लिए जाने जैसा खौफ... अकबका जाती वो। बहुत हलके से मुस्कुराती। उसकी घनी काली पलकों की छाया में बादाम सी खबसूरत आँखें यकायक झुक जातीं और उनमे एक अजीब सा निखार और खूबसूरती आ जाती। उस वक़्त मै उससे नज़रें हटा कहीं और देखने लगता ये महसूस करते हुए कि उस पर इस खास वक़्त उमड़ आये प्यार को चूम रहा होऊं।
“अरे मै अकेला पीने बैठ गया... आप लेंगे सिगरेट?... नहीं?ओ के
...हाँ तो हम बात कर रहे थे जेनी की। जेनी उसका असल नाम नहीं मेरा दिया गया नाम था उसने कहा नाम में क्या रखा है?और टाल गई जैसे कई बातें टाल जाती थी... वो कहाँ रहती है क्या करती है सब... | नाम में कुछ रखा नहीं ये तो मैंने होश सँभालते ही जान लिया था पर तमाम असुविधाओं से बचने के लिए नाम होना ज़रूरी था, सो मैंने ही रख दिया उसका नाम अपनी सुविधानुसार। मुझे उसकी शक्ल एक रूसी कॉमिक्स की पात्र से मिलती थी सफ़ेद चम्पई रंग, घुंघराले लंबे बाल हल्की नीली सी बड़ी और ख़ूबसूरत ऑंखें लंबी पतली देह...... .|मै उसे जैनी ही कहूँगा... हलाकि अब जेनी कहूँ या जेनब क्या फर्क पड़ता है? उसने कहा “तुम मुझे अच्छे लगते हो क्यूँ कि तुम में बात करने और ‘सब कुछ’ जान लेने की भूख नहीं खुश्क मैदानी लोगों की तरह। “
कहीं पढ़ा था, कि जब तक आप अपनी आँखों से अपने परिचित को मरता नहीं देख लेते एक हल्की सी गुंजाइश बनी रहती है उसके ज़िंदा होने की दिल के किसी कोने में तो ज़नाब मै इसी गुंजाइश के फेर में चला आता हूँ यहाँ तक हर साल छः महीने में।...... . .
“जाड़ा और रात बढ़ रही है श्रीमान,आपको जाना तो नहीं ना?तो फिर ठीक है... .
हमारी मुलाक़ात -
हमारी मुलाक़ात यहाँ कैसे हुई। इसका भी एक अजीब और दिलचस्प किस्सा है
उस दिन जब बुझते सूरज की लालिमा से जैसे पूरी की पूरी कायनात ही सिंदूरी हो चली थी मै शाम के इस संधिकालीन धुंधलके में अपने कमरे से इस रेस्तरां की ओर चला आ रहा था रोज की तरह मस्त गुनगुनाता हुआ सिगरेट के कश खींचता| साथ -२ चलते परतदार नर्म बादलों से गुफ्तगू करता हुआ, तब इसी रस्ते के बीच थोड़ी दूरी पर एक साये सी आकृति मुझे धुंधली रोशनी से पीठ किये उस घने दरख़्त के नीचे अँधेरे में लुडकती पुलटती सी दिखाई दी। मै थोडा डरा हुआ पर कौतुहलवश उसके निकट गया। वो एक औरत थी और झुककर कुछ ढूंढ रही थी। उसका चेहरा दूसरी ओर था।
’क्या मै आपकी कोई मदद कर सकता हूँ मोहतरमा?मेरी आवाज़ में डर और संकोच की छाया थी।
उसने पलटकर मेरी ओर देखा अपने सिर के दुपट्टे को जो थोड़ा ढलक आया था ठीक किया। वो पच्चीस छब्बीस साल की दुबली पतली बेहद खूबसूरत लड़की थी। मैंने देखा उसके पतले गुलाबी होठों के बीच एक बिना जली सिगरेट दबी हुई थी?मै माज़रा कुछ कुछ समझ गया था।
“लीजिए “मैंने मुस्कुराते हुए अपनी जैकेट की जेब से लाइटर निकाल कर उसकी ओर बढ़ा दिया
“शुक्रिया “उसने ज़ुबान से नहीं आँखों से कहा और नज़रें झुका लीं।
उसकी आँखों में संतृप्ति के भाव थे।
उसने सिगरेट सुलगा ली मुझे देखे बगैर लाइटर वापस दे दिया। सिगरेट होठों में हौले से दबा वो दरख़्त की पास की चट्टान पर बैठ गई और शून्य में अपलक देखती रही|मै रेस्तरां में चला आया और कुर्सी पर बैठ सिगरेट पीने लगा। कुछ देर बाद शायद वो वहाँ से चली गई होगी उन्ही झुरमुटों में खोती हुई। उस वक़्त तक मै सचमुच बिलकुल नहीं जानता था कि वो अनजान लड़की इस छोटी अजीबोगरीब सी मुलाक़ात में अपने साथ मेरी रात मेरी नींद चैन सब कुछ लिए जा रही है मेरे पास एक रहस्यभरी गठरी को छोड़कर। मै परेशान हो गया। रात भर करवटें बदलता रहा उस गठरी को सिरहाने रखे उसकी अमानत की तरह जो वो मेरे पास छोड़ गई थी। रिवाइंड हो होकर वो गिने चुने एक दो वाक्य दुहराते रहे खुद को, एक दूसरे पर गिरते पड़ते से। कुल मिलाकर रात परेशानी भरी बीती। कुछ विचित्र से ख़याल भी आते जाते रहे दिल में हलाकि मै भूत प्रेत में यकीन नहीं करता।
उस बेहद ख़ूबसूरत लड़की और उसकी रहस्यमयी गतिविधियों ने मुझे उससे दुबारा मिलने को आतुर कर दिया। मै उसका पता ठिकाना कुछ नहीं जानता था। फरवरी की उतरती शाम थी वो... दिन की उस आख़िरी रोशनी में कुछ देर मै बेमकसद भटकता रहा। दरख्तों से टपकती झीनी ओस का पारदर्शी पर्दा और नीले पहाड़ों की ऊंघती ढलानों पर लुडकती सान्झीली रोशनी सहित फूल का आख़िरी रस चूसती तितलियों के झुण्ड तक अपने अपने कामों में उसी शाइस्तगी से तल्लीन थे पर मेरे दिल की हलचल से बेखबर। भूख और चाहास दौनों लगने लगी तो चला आया अपने उसी रेस्तरां में। जब मै वहां पहुंचा तो हल्की ठंडक हो गई थी| बादल ज़मीन पर उतर आये थे गोया बेफिक्र दोस्तों के साथ गल बहियाँ डाले ज़मीन पर तफरी करने निकले हों। बादलों का चेहरा सर्द और सांवला था। काले परतदार बादलों ने बारिश का एलान कर दिया था जैसे। रह रह कर बादलों की गडगडाहट भी गूंज रही थी जैसे आसमान पर ढोल नगाड़े लिए बरात निकल रही हो और आतिशबाजी भी की जा रही हो। मैंने शेरा को आवाज़ दी। शेरा जो उस रेस्तरां का मालिक या मेनेजर था और जो अपना भारी बदन लिए ‘“बावर्चीखाने”के बाहर अखरोट की लकड़ी के दीवान पर बैठा शहद भरा हुक्का हमेशा गुडगुडाया करता था। अब तक हम दौनों कुछ कुछ पहचानने लगे थे एक दूसरे को
“जी जनाब... अभी भेजता हूँ लड़के को क्रीम कोफी?उसने मुस्कुराकर पूछा
“हाँ दे दो “मैंने कहा। वो मेरे शौक जानने लगा था।
अरे नजीब...... टेबल फाइव पर एक क्रीम कोफी...... शेरा ने ज़ल्दबाजी में कहा, और काम में मसरूफ हो गया।
जी भाईजान... नजीब दौड गया बावर्ची खाने की तरफ।
जाड़े की ओस भरी फुरफुरी हल्का सा कंपन पैदा करने लगी थी देह में। मैंने अपनी कैप को दुरुस्त किया और कॉलर को गर्दन तक चढ़ा लिया। नीले सफ़ेद रुई के गोलों से उड़ते बादल कुर्सियों खुशबुओं दरख्तों लोगों के बीच बीच से दौड़ते हुए छिया छाई का खेल खेल रहे थे। नमी से लबरेज उन बादलों से कुर्सियां और पेड़ पत्ते सब सीझ गए थे और ताजगी और खुशी से ज्यूँ चमक रहे थे। मैंने क्रीम कॉफी का ऑर्डर केंसिल कर चिकिन सेंडविच और बीयर का ऑर्डर दे दिया और सिगरेट सुलगा ली। मौसम ऐसा हो गया था जैसे किसी मंच पर धुंधली नशीली रोशनी में खुशनुमा सुबह का द्रश्य दिखाया जा रहा हो। ताड़ों के बीच हवा की हलकी सी खुशबूदार गुनगुनाहट भरी थी। अचानक आसमान से उतरी एक परी सी वो मेरे सामने नमूदार थी।
“मै बैठ सकती हूँ यहाँ?”उसने बहुत धीरे से पूछा।
मुझे लगा आसमान से सिर्फ बादल ही नहीं सूरज चाँद तारे सब उतर आये हैं और मेरे आसपास टहलकदमी कर रहे हैं। उसने गुलाबी बुरखा पहन रखा था जिसके किनारों पर बेल बूटे की कढाई थी और जिसमे से सिर्फ उसकी बड़ी ख़ूबसूरत ऑंखें दिख रही थीं। वो एक संगमरमर की मूर्ति सी लग रही थी।
“ज़रूर क्यूँ नहीं?”मैंने मुस्कुराकर कहा।
वो मुस्कुराई
अस्स्लामोअलैकुम... .उसकी खनकदार आवाज़ में उसकी ही तरह की नरमी थी। वो चुपचाप बैठ गई मेरे सामने वाली कुर्सी पर और दरख्तों पर फुदकते शोर करते परिंदों की ओर देखने लगी एकटक। मेरा दिल एक सुपर फास्ट ट्रेन की रफ़्तार से धडक रहा है उस वक़्त ऐसा मुझे महसूस हुआ। एक गैर शादीशुदा और मिजाज़ से फक्कड इंसान के लिए ये लम्हे कितने अजीब होते हैं ये भला मुझसे बेहतर और कौन जान सकता है?कुछ देर हम मौन बैठे रहे जैसे बात करने का कोई सिरा खोज रहे हों और वो कहीं गुम गया हो।... कुछ अजीब थी वो... कुछ नहीं बहुत... .|ये मैंने पहले दिन ही भास् लिया। पहली मुलाकात के सबसे नए हिस्से में उसने कहा -
’माफी चाहते हैं आपसे पर हम जितना अपने बारे में बता दें सब्र करियेगा... आगे पूछने की कोशिश करे बगैर।... .हम आपसे कभी ज़ाती सवाल नहीं करेंगे... .ख़याल रहे कि हम दौनों सिर्फ मुसाफिर हैं मौजूदा वक़्त के| अपने अपने पड़ाव आने पर चले जायेंगे अपने ठिकानों पर... |
मेरे “मंज़ूर”कहे बिना उसने समझ लिया। ना उसने मुझे बताया कि वो कहाँ रहती है क्या करती है नामैंने कुछ कहा अपने बारे में। हलाकि उससे ये अभूतपूर्व और रहस्यमयी मुलाक़ात मेरे भीतर कई तरह के अंदेशे और अटकलें पैदा कर रही थी। मेरा ‘होना’ उसके लिए क्या मायने रखता था ये तो मै नहीं जानता पर मेरे लिए वो अनजान लड़की रहस्य में लिपटा एक सतत इंतज़ार थी ये सच था। वो परी कथाओं की मानिंद पहाडियों के कहीं पीछे से बड़े दरख्तों और उस छोटे जंगल को पार कर वक़्त पर आती करीब करीब मगरिब की नमाज़ के पहले| उस सीझी नम ज़मीन पर मेरे सामने पडी कुर्सी से टिककर खामोश बैठ जाती और बातचीत किये बगैर पहाड़ियों से घिरे उस सामने से झरते झरने में खो जाती। ये रहस्य को और गहराता था हलाकि सुखद था मेरे लिए| उसकी झील सी ऑंखें कुछ पलों के लिए मेरी नज़रों को छू जातीं तो वो सहमकर अपनी लंबी घनी रेशमी पलकों की छाया में उन्हें ढँक लेती और नीचे देखने लगती, उस वक़्त मुझे महसूस होता जैसे कोई हिम खंड टूटकर गिरा हो मेरे मन की उथली सूनी घाटी में और मेरे भीतर बर्फ़ की एक ठंडी नदी पिघलने लगती। हम दौनों इन दस बारह दिनों में उस जगह से इतने जुड गए थे कि रेस्तरां में काम करने वाले और रोजाना आने जाने वाले लोग उसे या तो मेरी बीवी समझते थे या फिर महबूबा, ऐसा मुझे महसूस होता लेकिन मुझे भी उनके इस समझने पर भला क्या एतराज हो सकता था? शेरा भी अब खुद ब खुद दो कॉफी,चाय भिजवा देता यकीनन एक जेनी के लिए।
उसकी आवाज़ बहुत धीमी पर खनकदार होती, इतनी कि कभी कभी मुझे अपना चेहरा उसके करीब ले जाना पड़ता था सुनने के लिए। इस ख़ूबसूरत रेस्तरां में कहवा या सिगरेट पीते २ वो बात करते हुए अचानक रुक जाती। कभी कभी आधे वाक्य पर ही। यदि आप होते जनाब मेरी जगह तो निश्चित ही उसे कोई सिरफिरा समझते पर ना जाने क्यूँ धीरे धीरे मुझे उसकी इस आदत की आदत होने लगी। कभी कभी मै सोचता ठीक ही तो है, किसी बात को हडबडाकर बोलने से बेहतर है उसे एक बार फिर सोचना... भले ही आधे वाक्य के बाद ही। क्यूँ ज़रूरी है कि किसी वाक्य को पूरा किया ही जाए ये जानते हुए भी कि इसकी शुरुआत गलत हो चुकी है?कभी कभी उसकी बातें मुझे किसी “निहलिस्ट”सी लगतीं, क्यूँ कि ना तो वो किसी परम्परा के सामने झुकना चाहती थी ना किसी मर्यादा को रिलीजन से जोड़ने की कट्टरता थी उसमे। इसकी एक वजह शायद उसके माता पिता का दो अलग अलग कौम का होना भी हो सकती है
यकीं एक बर्फ की तरह होता है जिसे पानी से बर्फ में तब्दील होने के लिए कुछ वक़्त की दरकार होती है। उसने बर्फ के इन्हीं छोटे छोटे टुकड़ों को अपनी सीली हथेली पर रख मुझ पर अपने यकीं को पिघला लिया था शायद और तब उसने बताया कि वो मूलतः एक कश्मीरी लड़की है। उसके पिता मुस्लिम थे और माँ हिन्दू कश्मीरी पंडित। ये बात हम समझते थे कि कोई नहीं जानता उसने कहा... पर...|”वो चुप हो गई
उसने फिर बताना शुरू किया -
“हम दो भाई एक बहन हैं। एक बहन यानी वो खुद। दो भाई... एक बड़ा एक छोटा। हमारा छोटा और ज़हीन परिवार बेहद सुकून से रहता था कश्मीर के झेलम के किनारे बसे गाँव उड़ी में यहाँ हमारा पुश्तैनी मकान भी था। अब्बू पाँचों वक़्त की नमाज़ के पाबंद थे। हर बकरीद पर ईदगाह जाते। बुजुर्गाना हैसियत थी उनकी। अम्मी कश्मीरी पंडित यानी हिंदू थीं, हलाकि पढ़ी लिखी ज्यादा नहीं थीं बावजूद इसके वो एक तरक्की पसंद खानदान से थीं। दरअसल हम आज़िज़ आ चुके थे इस माहौल से इस दरंदिगी से। ना जाने कितनी औरतों की देह चीथड़े की गई कितने हरे भरे परिवारों को उजाडा गया हालात बेहद खराब थे| “
कुछ पल मौन रहने के बाद उसने कहा “आप बाकी महफूज़ इलाकों में रहने वाले बाशिंदे क्या जानें कि हम मुजाहिरों की तबाही के नज़ारे और तकलीफ क्या होती है?हजारों मील दूर बैठे अख़बारों या टी वी में आधी अधूरी ख़बरों को देख अंदाज़े लगा लेना और उन घटनाओं के रूबरू होना बल्कि उनके भुक्तभोगी होना इन दौनों में ज़मीन आसमान का फर्क होता है “उसकी आँखों में एक नफरत और भय के मिले जुले भाव थे। वो बात करते करते जैसे अतीत में खो जाती... .”कैच एंड किल “पॉलिसी ने ना जाने कितने परिवारों का घर तबाह किया कितने अपना दिमागी संतुलन खो चुके। करीब एक लाख कश्मीरी पंडित अपने घरबार छोड़कर चले गए पर अम्मी अब्बू ने वहां से जाना क़ुबूल नहीं किया। हम जैसे कुछ और भी परिवार थे। अम्मी तरक्कीपसंद औरतों की एक ज़मात के साथ जुडी हुई थीं। वैसे हमारा परिवार दहशतगर्ज़ लोगों से अलग था हम उन लोगों में से थे जिनकी उम्मीदों ने हालातों के सामने घुटने टेकना नामंजूर कर दिया था। लेकिन ये भी सच है कि एक खौफ और फ़िक्र मुस्तकिल तौर पर हमारे दिलों में उखड़े हुए फर्श के बीच बीच घांस की तरह उग आई थी।
हमारा फलों का कारोबार था। एक छोटा सा घर कश्मीर में डलगेट रोड पर और कुछ सेब अखरोट के बगीचे। वो चुप हो गई उसकी आँखों में उदासी के सफ़ेद कबूतर फिर बैठ गए थे।
“फिर?”मैंने पूछा
वो दुमंजिला पुश्तैनी घर बाद में “उन” लोगों ने छीन लिया फिर हमने वहीं गुलमर्ग में एक रिश्तेदार के यहाँ पनाह ली क्यूँ कि यहाँ हमारा पुश्तैनी कारोबार भी था... . कहाँ जाते?जेनी की आँखों में तिरस्कार के भाव थे। ’यहाँ के हालात देखकर अब्बू ने मुझे मेरी बुआ के पास जम्मू भेज दिया था। भाईजान अम्मी, अब्बू और छोटा भाई रहते थे यहाँ। भाईजान हाइड्रोइलेक्ट्रिक पॉवर स्टेशन में एक फोरमेन की नौकरी करते थे लेकिन बाद में उन्हें वो भी छोड़ देनी पडी अम्मी अब्बू को वो नौकरी महफूज़ नहीं लगी अब भाईजान ही तो उनका सहारा रह गए थे। जवान बेटा ऐसे हालातों में एक बड़ा सहारा होता है लिहाज़ा अब्बू के साथ ज़ल्दी ही उनका कारोबार संभालने लगे थे।
“तुम ज़म्मू में पढ़ती थीं, मैंने पूछा
“जी हाँ और नाटक भी खेलती थी। जोहरा सहगल का नाम सुना है आपने?
हाँ हाँ काफी मशहूर हैं वो तो!
जी उन्हीं के ग्रुप में थी... हलाकि बाजी, हम उन्हें बाजी ही कहते थे, वो तो बाहर ही रहती थीं कभी कभार ही आती थीं यहाँ पर सईदा आपा उनकी गैरहाजिरी में पूरा काम संभालती थीं। हम लोगों ने कुछ नुक्कड़ नाटक भी खेले यहाँ के हालातों के खिलाफ, जिससे हमें वॉर्निंग भी दी गई थी... .
फिर?...मैंने पूछा
हमारा ड्रामा ग्रुप उन लोगों की हिट लिस्ट में था ये जानते थे हम। कईयों बार हमें इन”हरकतों” के लिए खबरदार भी किया गया था लेकिन हम उनकी वोर्निग की परवाह किये बगैर, उनकी खिलाफत के बावजूद नाटक खेलते रहे। बाज़ मर्तबा तो अरेस्ट होने की भी नौबत आ गई।
वो एक रौ में बही जा रही थी...
“उस दिन जैसे ही हम लोग एक नाटक की रिहर्सल से निकले, एक शख्श ने एक खत दिया। अम्मी ने किसी के हाथ खबर भेजी थी... उर्दू में लिखा था...
“हमारा इलाका करीब करीब ख़ाली हो चुका है। ना जाने कैसे इन लोगों को खबर हो गई है कि मै कश्मीरी पंडित हूँ और मैंने अपना मज़हब नहीं बदला है। उन लोगों ने हमें परेशान करना शुरू कर दिया है। तीन रोज़ पहले दरवाज़े पर एक पुर्जा चिपका गए हैं वो लोग लिखा है “सात दिनों में जगह खाली करके चले जाओ वरना अंजाम बुरा होगा|अब तो उन्होंने हमारे बागों और दुकान पर कब्ज़ा कर अपने आदमी बिठा दिए हैं अब्बू कहते हैं कि डरकर भागेंगे नहीं कभी ना कभी अपना हक लेकर ही रहेंगे... पर माहौल बेहद खराब होता जा रहा है,तुम अपना ख़याल रखना । “
मैंने अम्मी के पास उसी शख्श के हाथ खत का ज़वाब लिख भेजा-
“अम्मी हम बखैरियत हैं, अब्बू सही फरमाते हैं आखिर कब तक यूँ ही खौफ खाते रहेंगे हम?किसी ना किसी को तो उन वहशी दरिंदों के खिलाफ पहल करनी ही पड़ेगी। कोई परवाह मत करो दो बेटे हैं आपके| अब्बू भी माशाल्लाह हट्टे कट्टे हैं घर में दो पिस्तौलें भी हैं। बस थोड़ा एहतियात से रहिये। आखिर कब तक चलेंगी उन लोगों की ये खौफनाक हरकतें... कभी तो कोई हल निकालना होगा। भाईजान भी तो हैं आपके साथ क्यूँ डरती हो?हम डरते रहे हैं इसीलिए तो ये हालात पैदा हो गए हैं?आप तो माशाअल्लाह एक ज़हीन और हिम्मती औरत हैं। उन तमाम औरतों से जुदा जो अपने औरत होने से ही खौफज़दा रहती है वो नहीं जानतीं कि औरत होना कमजोरी नहीं एक ताकत है। वो दरिंदे भी तो किसी औरत के पेट से ही ज़न्मे होंगे? आप हिम्मत से रहिये मजबूती से हालातों का सामना कीजिये इंशा अल्लाह फ़तह हमारी ही होगी हम अपने घरों में वापस ज़रूर जायेंगे। “ मैंने उनकी हौसला अफजाई की और वो शख्श खत लेकर चला गया था। जेनी को उदास और मौन देख उसका दोस्त साहिल जो इसी ड्रामा ग्रुप का एक मेंबर था और उस वक़्त उसके पास ही बैठा था उसने माजरा पूछा तो वो जैसे भरी ही बैठी थी... बिफर गई “क्या समझते हैं ये लोग?कैसे खारिज कर सकते हैं उन लोगों के ज़ज्बात,कैसे निकाल सकते हैं उनके बुजुर्गों के पुश्तैनी घर से सबको?कितनी पुश्तें और खौफज़दा गुजरेंगी और कब तक?दरिंदगी की हद है... शिराओं में उबल रही नफरत यकायक भडक उठी।
“ऐसा नहीं है...”,साहिल जो समझदार और शांतप्रिय लड़का था ने जैनी को समझाने की कोशिश की थी। “वक़्त हर चीज़ के मायने बदल देता है अच्छे वक़्त का इंतज़ार करों और उस पर भरोसा करो.”
“तुम दीवाने हो बिलकुल|”जेनी और रोष में आ गई। ‘“वक़्त क्या खुद ब खुद बदल जाएगा? तुम्हे वाकई ऐसा लगता है?... अच्छा एक बात पूछते हैं तुमसे... बताओ तो, हम मुज़ाहिर किस मुल्क के बाशिंदे हैं?कौनसा मुल्क हमारे हिफाज़त की गारंटी लेता है?बोलो?सच तो ये है कि हम लोग ना इधर के हैं ना उधर के... .हम सिर्फ एक खानाबदोश कौम हैं। जब जिसका दिल होता है हमारा इस्तेमाल करता है और जब चाहा बन्दूक उठाई और शूट कर दिया... जानवरों से भी बदतर... .|जेनी की आँखों में चिनगारिया थी
किसकी हाज़त रवा करे कोई... .!
जेनी ने बताया –”दूसरे दिन हमारा नाटक था शेक्सपियर का ओथेलो।... .बहुत बड़ा नाटक था वो... इन फेक्ट हम सब के लिए एक चुनौती... दिलों जान से जुटे हुए थे हम उसकी तैयारी में “फिर शून्य में देखते हुए जैसे कहीं खो गई हो बोली”जानते हो उन दो महीने की रिहर्सल में ओथेलो की डेस्दीमोना के किरदार ने मुझे बेतरह परेशान किये रखा जो मैं खुद निबाह रही थी... सच बताऊं मैं डेस्दीमोना नहीं बल्कि इमीलिया होना चाहती हूँ... ओथेलो की इमीलिया “
तुम कुछ बता रही थीं खबर के बारे में... मैंने उसे याद दिलाया
हाँ हाँ... बीच नाटक में मुझे खबर मिली कि तुम्हारे घर में कोई हादसा हो गया है।
हमने नाटक पूरा खेला उसके बाद पूछताछ की पर कुछ खास पता नहीं चला
“फोन नहीं किया?मैंने पूछा
अरे यहाँ फोन करने की इजाज़त नहीं थी।
हुआ क्या था?मैंने बेसब्री से कहा
“जिन रिश्तेदारों के यहाँ अब्बू ने मय परिवार पनाह ली थी वो भाग चुके थे बस हमारा परिवार वहां था। रात में “उन” लोगों ने घर पर हमला कर दिया। भाईजान तब तक घर लौटे नहीं थे। अब्बू के मुह में कपडा ठूंस उनके दौनों हाथ बाँध अम्मी के साथ उन्हीं के सामने... . .|अम्मी लहू लुहान बेतरह चीखती चिल्लाती रहीं... पर पड़ोसियों ने भी जैसे साँसें रोक ली थीं अपनी...जेनी ने निगाहें नीची कर लीं। “वो तीन लोग थे। छोटे भाई के चिल्लाने पर उन्होंने उसे भी मुहं में कपड़ा ठूंस बाहर बरामदे में बंद कर दिया था। “
ओह... .मेरे मुहं से निकला आगे पूछने की हिम्मत नहीं हुई। मेरे शब्द मानों ज़ुबान पर बर्फ़ की तरह जम गए थे। मै जड़ हो गया था।
आगे फिर बोलना शुरू किया उसने -
अम्मी बेहोश हो गई थीं। अब्बू ने रस्सियाँ तोड़ने की कोशिश की तो एक ज़ालिम ने उन पर फायर कर दिया। बीच में भाईजान आये थे उन्होंने ये मंज़र देखा था अपनी आँखों से। अम्मी का निर्वस्त्र शरीर और अब्बू उस वक़्त खून में लथपथ तडप रहे थे। अम्मी और छोटे भाई ज़ाकिर को लगा कि भाईजान उन्हें छुडाएंगे, वो दोनो ज़ोर ज़ोर से चीखने लगे गुहार करने लगे मदद के लिए पर भाई जान डर कर भाग गए। जिनके भरोसे थे वही...... |
... बस हमारा घर टूट चुका है बर्बाद हो चुके हैं... .इतना जान लीजिए। अम्मी अपने होशोहवास खो चुकी है|अब हमारा कोई खैरख्वाह नहीं। अब्बू का इंतकाल हो चुका है|
“अब कहाँ हैं वो लोग?मैंने पूछा
केम्प में... .| अम्मी और मुझसे छोटा भाई केम्प में है और बड़े भाईजान..गुमशुदा उनका कोई अता पता नहीं। और अम्मी... होशमंदों की दुनिया ने उन्हें पागल करार कर दिया है अम्मी का दिमाग फिर गया है, उल जुलूल बोलती रहती हैं। “बुलाओ उस बदजात को दूध ना बख्शुन्गी “वो भाईजान के लिए कहती हैं।... .कभी कहती हैं मुझे दरगाह ले चलो, अल्लाह... .मै सौ रकात नफिल तेरी दरगाह में पढूंगी। “ अब भी वो खुद को ही गुनाहगार मानती हैं। उनकी आँखों के सामने से वो वाकये गुज़रते ही नहीं हैं कि जिस बदन को ज़िंदगी भर ढंके रखा सिर्फ शौहर की अमानत जान उस इज्ज़त के ना सिर्फ शौहर बल्कि नाबालिग बच्चे के सामने चीथड़े कर दिए गए।
कोई नहीं जान सकता कि फसादों के चश्मदीद गवाह बच्चे किन किन मानसिक संतापों से होकर गुजरते हैं सब कुछ छुडा लिया उन जालिमों ने हमसे हमारा... हमारे घर से लेकर इज्ज़त तक। जेनी खुद से बुदबुदा रही थी।
सेंडविच, कॉफी आ गई थी। हम दौनों चुपचाप कॉफी पीने लगे।
“तुम्हे डर नहीं लगता जेनी?मैंने कहा
किस बात का? तुम्हे डर नहीं लगता?”उसने मुझ से ही प्रश्न पूछ लिया
कैसा डर?
“कि इतनी खतरनाक दुनिया में जहाँ इंसान की जान की कीमत जानवरों से भी गयी गुजरी हो गई है, ऑफिस से सही सलामत वापस घर पहुँच पाओगे या नहीं?...कि तुम्हे कोई सिरफिरा नशे की हालत में गाड़ी से कुचल तो नहीं देगा?कि सड़क पर किसी दंगा फसाद की चपेट में तो नहीं आ जाओगे?कि स्कूल कॉलेज गई तुम्हारी बेटियों और तुम्हारे घर में तुम्हारा इंतज़ार करती बीवी किसी हादसे का शिकार नहीं हो जायेंगे?बोलो... है भरोसा तुम्हे? नहीं लगता तुम्हे डर?
“एक बात बताओ..”अब उसके चेहरे पर हताशा के भाव थे बोली - “तुम दो कश्तियों में सवार एक मुसाफिर हो,हर कोई तुम्हे बेक़सूर होने के बावजूद कुसूरवार ठहरा रहा हो, सारी की सारी व्यवस्था उसकी तरफ हो जाये तुम्हे सज़ा मुक़र्रर कर दी जाये उस गुनाह की जो तुमने किया ही नहीं और असल गुनाहगार छुट्टे घूम रहे हों तो?तो क्या करोगे तुम... आखिर में... .आखिर में .क्या करोगे . उसने दोहराया
“विरोध”मैंने कहा
और नहीं कर पाए तो
“विद्रोह” मैंने कहा
उसके रोष भरे चेहरे पर एक फीकी सी मुस्कुराहट कौंध गई एक संतृप्त और यकीं से भरी मुस्कराहट जैसे उसने मुझ पर भरोसा कर वाकई कोई गलती ना की हो गोया एक अविश्वसनीय कौम पर यकायक उसका यकीं बढ़ा हो। उसके बाद उसने बहुत संजीदगी से कहा “आगे से हम इस मसले पर कभी बात नहीं करेंगे। “
हरेक शाम की तस्वीर में अलग रंग हैं, हरेक पहले से ज्यादा उदास लगती है...... .
जेनी एक आदत बन गई थी बल्कि जिन्दगी का एक मकसद... मै चौबीस घंटे उसके ख्यालों की गिरफ्त में रहता। कुछ कह नहीं सकता ठीक ठीक कि वो मुहब्बत थी या एक बेख़ौफ़ अकेली और मजबूर लडकी के प्रति सहानुभूति !”तुम्हारी आँखों का रंग देखना चाहता हूँ बहुत करीब से “एक दिन जब वो उदास थी उसका मुरझाया हुआ चेहरा कुछ पीला और मासूम सा लग रहा था तब मैंने कहा। मुझे उस पर बेहद प्यार आ रहा था, दरअसल मैं उसे खुश देखना चाहता था। वो मेरी ओर ऐसे देखने लगी जैसे वो मुझे जानती ही नहीं। एक बार उसके होठों पर मुस्कान की छोटी सी लकीर उगी। उसने मुझसे नज़रें हटा लीं और एक नाज़ुक दरख़्त की तरफ देखने लगी
“आप ऊब तो नहीं रहे श्रीमान?... चलिए अब कुछ खा लिया जाए... .वेटर दो प्लेट कोरमा और कश्मीरी दमपुख्त लज़ीज़ मक्खनी नान के साथ लेकर तो आओ और उसके पहले “दो ब्लेक होर्स बीयर “
जी ज़नाब...... .शेरा की आवाज़ पीठ के पीछे से सुनाई दी।
“नहीं नहीं उम्र का तकाजा नहीं है ये... इतना तो तय है जनाब... अभी इतना बूढा भी नहीं हुआ हूँ हा हा हा
हाँ हाँ सब्र रखिये बरखुरदार, आगे का किस्सा सुनाता हूँ...... .बस एक सिगरेट सुलगा लूँ... |
हाँ तो सुनिए... .”शुरू में वो मुझे बिलकुल बच्ची लगी थी। कभी कभी छोटी सी बात पर इतना हँसती वो... इतना कि मुझे खुद पर ही शक सा होने लगता कि मुझे हंसी ना आना मेरे मस्तिष्क की शिथिलता तो नहीं?.कभी कोई बच्चों जैसा प्रश्न पूछ बैठती। उसकी कल्पना मुझ पर हावी रहती थी दिन रात, जैसा वो चाहती मै करता ये समझ लीजिए कि मै पूरी तरह उसकी दोस्ती की गिरफ्त में था जैसे आदमी अपनी आदतों की गिरफ्त में होता है।
एक दिन सामने के पेड़ पर गिलहरी को चढ़ते देख बोली “आप तो बड़े शहरों में रहते हैं ना मुझसे बड़े भी हैं !एक बात तो बताइए भला ! गिलहरियाँ कभी बुज़ुर्ग नहीं होती क्या?”
अरे बुढ़ापा तो सबका आता है...जीव है जो बुढ़ापा आएगा ही उसका... मैंने कहा।
तो फिर ये हमेशा उछलती कूदती और खुश ही क्यूँ दिखती है आदमियों की तरह बुढ़ापे में निढाल क्यूँ नहीं हो जाती?
सच कहता हूँ उस की वो पहली और आख़िरी बिंदास झरने सी हंसी आज भी मेरी आँखों में बसी हुई है...... मै निरुत्तर... |और कभी इतनी बड़ी बात को इतना हलके से लेती कि मुझे हैरानी होती... .मन ही मन सोचता “किस मिट्टी की बनी हो जेनी तुम?”
नाजायज़ रोशनी -
उस दिन जब हम लोग यहीं रेस्तरां में बैठकर चाय पी रहे थे हल्की फुल्की बातें करते हुए तभी एक तीस बत्तीस साल का लड़का जो उस रेस्तरां के मालिक शेरा के बगल में अक्सर बैठा दिखाई देता था टी वी देखता हंसी मजाक या बातें करता हुआ शायद उसका मित्र होगा। वो एक बारह तेरह वर्ष के बच्चे को रेस्तरां के भीतर से बुरी तरह मारता हुआ लाया और बाहर घसीटने लगा। इस वक़्त मै और जेनी रोज की तरह उसी घने दरख़्त के नीचे उस अँधेरे हिस्से में बैठे थे जहाँ तक शायद ही किसी की नज़र पहुँचती हो। जिस अपराध पर लड़का पिट रहा था उसे वो रोते रोते नकार रहा था... पर आदमी एक जल्लाद की तरह जुनून में पीटे जा रहा था उसे। शेरा, उस होटल का मालिक उसे मारने को उकसा रहा था। बच्चे के मुहं से खून बह रहा था। गिने चुने ग्राहक तमाशबीन की तरह देख रहे थे ये नज़ारा। मुझे हैरानी हुई मै दौडकर बचाने जाने लगा तो जेनी ने मेरा हाथ पकड लिया। ’
’अरे बेतरह पीट रहा है जाने दो बचाने?मैंने कहा
“नहीं मत जाओ...... बैठो यहाँ “वो उतनी ही शांति और सहजता से बोली
पर क्यूँ मैने कुछ नाराज़ होकर कहा
पहले बैठो... उसके स्वर में बडप्पन और अधिकार था। मै यंत्रवत बैठ गया।
ये वक़्त मुफीद नहीं... .कहकर वो फिर रोते हुए बच्चे की तरफ निर्विकार सी देखने लगी
देखो इतना सख्त दिल होना ठीक नहीं... मुझे उस बच्चे पर रहम आ रहा था
“जो अपनी हिफाज़त खुद नहीं कर सकते बल्कि करना नहीं चाहते उन्हें माफ नहीं करना चाहिए... .तुम देख रहे हो?जैनी ने मुझसे कहा, जो मार रहा है पिटने वाले से उम्र में दुगुना बड़ा और भारी बदन है। वो बच्चा एक हाथ मारेगा तो दूर जाकर गिरेगा शैतान... पर हिम्मत ही नहीं ना !इन लोगों ने तो मान ही लिया है कि ये इस संसार में सिर्फ पिटने और ज़ुल्म सहने ही आये हैं। लेकिन यदि तुम अभी इस जुल्मी का हाथ रोक दोगे तो इस बेक़सूर निरीह कौम को दो पीढ़ी और भुगतने की गर्त में डालोगे। सब्र करने और खून के घूंट पीने की एक हद्द होती है...बस उसके पार हो जाने का इंतज़ार करो, सब समझ जाओगे।
पर वो बच्चा,लहू लुहान हो गया है वो देखो तो... .कुछ तो रहम खाओ जेनी...... . कम स कम उस बच्चे पर, मै द्रवित हो गया।
“वो मेरा छोटा भाई है”उसने बहुत धीरे से कहा। “
“अरे... .आश्चर्य से मेरा मुहं खुला का खुला रह गया। तब तो... मै फिर उसे बचाने को उठा। “
“कहा ना मैंने जाने दो!” उसने निर्भाव कहा। “वो नहीं जानता, इस वक़्त मेरा यहाँ होना थोड़ा सब्र से काम लो। “जैनी ने मेरा हाथ पकडकर मुझे बिठा लिया। लड़के के मुहं से खून बह रहा था और कमीज़ चीथड़े कर दी गई थी जो देह पर किसी पक्षी के नुचे हुए पंख सी झूल रही थी। वो देखने लगी धूल में घुटनों के बीच में मुहं छिपाए बैठे उस सुबकते हुए लड़के की ओर उदास और तटस्थ नज़रों से,जिसमे दूर कहीं शोले भी भडक रहे थे।
मै एक बार फिर निरुत्तर... |
तुम यहाँ बहुत दहशत भरे माहौल में रह रही हो। मेरे साथ चलोगी?मैंने जैनी से कहा
उसने मुझे बहुत खाली और उदास नजरों से देखा। कई भाव एकसाथ आये गए उसके चेहरे पर और फिर स्थिर हो गए एक फीकी सी मुस्कुराहट में। उसने कहा-
“तुम एक अजनबी हो फिर भी क्या तुम हमारी दोस्ती की वजह जानते हो,जबकि मै इस वक़्त तक तुम्हारा नाम तक नहीं जानती?...फिर वो थोडा हँसते हुए बोली... “अल्लाताला ने हम औरतों को भले ही मर्दों से कमज़ोर बनाया है पर चंद रस्मोरिवाज़ ऐसे बना दीये हैं जो हमारी ढाल बन जाते हैं कभी २ हमें हौसला देते हैं महफूज़ रखते हैं। “खैर तुम नहीं समझोगे... शायद वक़्त आने पर सब समझ जाओ।
मै देखता रहा उसकी तरफ बगैर इस बात का मतलब समझे। कभी कभी उसकी पहेली सी बातें मुझे उसकी उम्र से ज्यादा उमरदार लगतीं।
श्रीमान आप ऊब तो नहीं रहे?.लीजिए अब एक सिगरेट और पी ली जाय...... .अरे वाह रोचक लग रही है कहानी... आगे सुनेंगे?तो सुनिए
उस दिन......
इंतज़ार का समय पीछे छूट रहा था और मेरी नज़र पेड़ों के उस अँधेरे से झुरमुट में बिंधी थी जहाँ से वो रोज रोशनी की मानिंद नमूदार होती थी। वेटर एक खाली सफ़ेद रंग की चीनी मिट्टी की प्लेट रख गया था और मैंने उसमे एक सिगरेट और लाइटर रख दिया था रोज की तरह जेनी के लिए| वो आते ही मुस्कुराती हुई बहुत धीरे से शुक्रिया कहती और सिगरेट सुलगा लेती थी। आज उसकी कुर्सी खाली और उदास बैठी थी। मौसम लुभावना था पर मेरी आँखों में पतझर था। एश ट्रे सिगरेट के बुझे ठूंठों से भर गई थी। धूप सरककर रेंगती हुई पैरों तक आ चुकी थी मानों उसने मेरे पैरों को कस कर जकड लिया था। मैंने महसूस किया कि आज मेरी आँखों को दरख्तों के उस झुरमुट के सिवाय कुछ दिख ही नहीं रहा है जिनके बीच से वो रोजाना आती दिखाई देती थी गोया वहीं नज़रें किसी शाख पर टंग गई हों। वो अनजान सी लड़की किस क़दर मेरी धडकनों का एक हिस्सा बन चुकी है मुझे अब अहसास हो रहा था। मैंने घड़ी देखी सुबह के नौ बज चुके थे। दिमाग में एक अजीब सी बोझिलता और शून्यता सी भर गई। मै वापस बुझे मन से कमरे में लौट आया। उस दोपहर मै अपने कमरे के सामने की लकड़ी की बालकनी पर खड़ा सिगरेट पीता रहा। शाम घिरने लगी। बादल हुजूम की शक्ल में फिर ज़मीन पर तफरी करने उतर रहे थे। मन तो ज़रा भी नहीं था फिर भी मैंने जैकेट पहनी कैप लगाई और उतरने लगा सीढियां। आज क़दमों में वो खुशी नहीं थी जो हिलोर रोज होती थी।
आसपास की हवा सहमी और खामोश थी। यानी वो शाम को भी नहीं आयी मै सोचता चला आ रहा था जैसे जैसे मै रेस्तरां के निकट पहुँच रहा था एक शोर सा सुनाई दे रहा था जो क्रमशः गाढा हो रहा था मै तेज कदमों से रेस्तरां की तरफ बढ़ा। वहां लोग गुच्छों की शक्ल में घबराए हुए से खड़े थे अफरा तफरी मची हुई थी कुछ एक घटना को अंजाम देते हुए और बाकी तमाशबीन बने देखते। लोगों का एक समूह किसी को बेतरह पीट रहा था। जिसमे कोइ आवाज़ जानी पहचानी सी लग रही थी। पास जाकर देखा तो ये रेस्तरां के मालिक शेरा की आवाज़ थी। उसका लम्ब तडंग शरीर पठानी सूट पहने उसकी ऑंखें गुस्से और जुनून में लपटें उगल रही थीं। मैंने एक व्यक्ति जो दूर से डरा डरा देख रहा था माजरा पूछना चाहा पर वो वहां से चला गया।
अचानक शेरा किसी के बाल पकडकर घसीटता हुआ ले जा रहा था। बाल लंबे थे और लड़की ने काला बुरका पहना हुआ था जो तार तार हो चुका था। उसके नंगे पैरों की पतली पिंडलियों पर खून की दरारें छलछला आई थीं। रेस्तरां में बजने वाले संगीत की कोई जिप्सी धुन अब भी हौले हौले गूंज रही थी। अंधेरों के बीच बीच में रोशनी के कुछ टुकड़े बिखरे पड़े थे। उन्हीं टुकड़ों के एक हिस्से में जब मुझे उस ज़मीन पर घिसटती हुई लड़की का चेहरा दिखा मै मानों अचेत सा हो गया। वो जेनी थी। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि इतने लोगों के बीच मै क्या कर सकता हूँ कैसे रोक सकता हूँ?और किया क्या है इसने। मेरा दिमाग सुन्न हो चुका था।
आवाजें एक के ऊपर एक गिर रही थीं। कोई कह रहा था “इसे नंगा करके पीटो”कोई कह रहा था इसे इसकी माँ जैसा कर दो... .अरे इसे भी इसके बाप के पास पहुंचा दो... .| लोग उसकी देह के साथ छीना झपटी सी कर रहे थे। मेरी आँखों के सामने सहसा रेस्तरां के सामने लटके मुर्गियों बत्तखों के नर्म गोश्त की तस्वीरें उभरने लगीं। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि जेनी के चेहरे पर कोई घबराहट या खौफ नहीं था,वो निर्भाव और शांत थी। उसकी गुलाबी देह के खुले अंगों पर खून के रेशे उभर आये थे। वो जानवरों की तरह घसीटी जा रही थी ज़मीन पर बेरहमी से, बाकी लोग तमाशबीन बने नजारा देख रहे थे,इतनी सहजता से जैसे रोज की बात हो। मुझे लग रहा था मै अंधा बहरा हो चूका हूँ| घसिटते हुए उसकी निगाह मुझसे टकराई...मै और भी बैचेन हो गया... गहरी उदासी और निरीहता उसकी आँखों में थीं जाती हरियाली और आते पतझड़ की आमद के बीच की खामोश बैचेनी... .
अचानक जो देखा मै हतप्रभ रह गया।, वही लड़का जो उस दिन जेनी के छोटे भाई को बुरी तरह पीट रहा था और जो शेरा के पास अक्सर बैठा दिखाई देता था, उसकी लाश खून में लथपथ पडी थी ज़मीन पर, उस सायेदार दरख्त के करीब जिसकी परछाईं मृतक के चेहरे पर पड़ रही थी।
जेनी ने उस लड़के को गोली मार दी थी। कुछ लोग लाश को घसीटते हुए किनारे ले जा रहे थे... तभी जेनी ज़ोर ज़ोर से चीखने मचलने लगी।
“उसे घसीटों मत मरदूदों... . चाहे मेरा कोई हश्र कर दो... उसे इंसानों की तरह ले जाओ... आखिर वो तुम्हारा दोस्त था... .”वो चीख चीख कर यही दोहरा रही थी वो अर्धमूर्छित थी।
तभी एक बुज़ुर्ग सा आदमी बोला “तूने तो उस लड़के को मार ही दिया है ना... .... अब क्यूँ तडप रही है इतना?
“वो लड़का नहीं मेरा सगा भाई था... भाईजाSSSSSSन...... “आख़िरी लफ्ज़ की चीख दर्द और बेहोशी में गुम सी हो गई थी... .उसकी देह के साथ... |पौष माह की इस झरती हुई सर्द धुंधली शाम में तेज़ी से दूर जाती वो चीख मुझे दुनिया छोड़कर जाती हुई आत्मा की कराह जैसी लगी।
प्रार्थना किसी अंत के बाद का पहला और शायद इकलौता पड़ाव होता है
शुक्रिया ज़नाब...तीस साल गुजर गए... पर... .|अब सुकून से जाउंगा अपने शहर कभी वापस ना आने के लिए। चाहता था किसी को पूरी कहानी सुनाना .ताकि एक आखिरी बार उसे फिर से पूरा का पूरा याद कर सकूँ...... ताकि उसकी यादों की कब्र पर एक आख़िरी फूल रख इस जगह से हमेशा के लिए विदा ले सकूँ