तीज-त्योहार का बॉक्स ऑफिस महत्व / जयप्रकाश चौकसे

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तीज-त्योहार का बॉक्स ऑफिस महत्व
प्रकाशन तिथि :30 मई 2017


रमजान के महीने में सितारा सज्जित भव्य बजट की फिल्मों का प्रदर्शन नहीं किया जाता, क्योंकि इस्लाम को मानने वाले इस महीने फिल्में नहीं देखते। भव्य फिल्मों का प्रदर्शन ईद, दिवाली और क्रिसमस पर किया जाता है। क्या इसका यह अर्थ है कि हमारी फिल्में अब 'बारहमासी' नहीं रहीं? सारा व्यवसाय छुट्‌टी केंद्रित हो गया है। सप्ताहांत की आय अन्य दिनों के जमा जोड़ से अधिक होती है। हमारा सामाजिक अाचार-व्यवहार भी सप्ताहांत से शासित है। विदेश में मृत्यु होने पर वे सप्ताहांत में ही अंतिम क्रिया भी करते हैं। धीरे-धीरे यमराज को भी यह बात समझ में आ जाएगी और वे भी अपनी छुट्‌टियों को ठीक से आयोजित कर सकेंगे। देव आनंद में अपनी उम्र और गिरती हुई सेहत को देखकर लंदन जाने का निर्णय लिया। वे विदेश में ही अंतिम सांस लेना चाहते थे और वहां अग्नि संस्कार भी चाहते थे। वे मृत्यु के बाद भारतीय हंगामे से स्वयं को बचाना चाहते थे। दरअसल, अपने सोच-विचार में देव आनंद हमेशा से अति आधुनिक व्यक्ति थे। उनके पिता बैरिस्टर थे परंतु उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र चेतन आनंद को शिक्षा के लिए गुरुकुल कांगड़ी भेजा। चेतन आनंद कुछ समय गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के शांति निकेतन में भी रहे। देव आनंद ने गुरुकुल कांगड़ी जाने से साफ इनकार कर दिया। देव आनंद अपनी इस सोच पर हमेशा कायम रहे। पंजाबी होते हुए भी देव आनंद ने कभी उस शैली में पका भोजन नहीं ग्रहण किया। अनेक वर्षों तक वे सन एंड सैंड होटल में आरक्षित अपने सुइट में रहे और उसे दफ्तर की तरह भी इस्तेमाल किया।

अपनी एक फिल्म की शूटिंग के समय उन्हें नायिका कल्पना कार्तिक से प्रेम हो गया और उसकी रजामंदी लेकर उन्होंने सेट पर ही शादी भी कर ली। यह बताना कठिन है कि वह पंडित असली था या फिल्म में पंडित की भूमिका करने वाला कोई कलाकार। यह गौरतलब है कि देव आनंद की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी कल्पना कार्तिक सुबह से शाम तक बांद्रा स्थित एक चर्च में समय गुजार देती थीं। एक नैवी अफसर के परिवार में जन्मी कल्पना कार्तिक एक सुपर सितारे की ब्याहता थीं और कुछ फिल्मों में नायिका भी रही परंतु उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन की कोई बात कभी सार्वजनिक नहीं की। वे अपनी फिल्म 'हाउस नंबर 44' और 'नौ दो ग्यारह' में खूब सराही गईं। अपने देवर विजय आनंद को वे खूब पसंद करती थीं।

जुहू समुद्र तट क्षेत्र में बने 'आइरिश पार्क' नामक बंगले की तल मंजिल पर देव आनंद का निवास था तो ऊपरी माले पर कल्पना कार्तिक रहती थीं। देव आनंद अपने नौकरों के सामने भी कभी स्वाभाविक रूप में नहीं आए। उनके शयन कक्ष के साथ बड़ा बाथरुम और उनका वार्डरोब भी था। वे हमेशा पूरी तरह तैयार होकर ही सामने आते थे। वे पूरी तरह पश्चिमी जीवन शैली के हामी थे और किसी तरह की मिलावट उन्होंने कभी नहीं की। दूसरी ओर शशि कपूर की पत्नी जेनिफर केंडल लंदन में एक नाट्यधर्मी परिवार में जन्मी और केंडल परिवार ने शेक्सपीयर के लिखे नाटकों को हमेशा छात्रों के सामने प्रस्तुत किया। जेनिफर केंडल कपूर की मृत्यु लंदन में हुई परंतु उनकी इच्छानुरूप उनका दाह-संस्कार वैदिक ढंग से किया गया। जीने का ढंग और मरने का सलीका हर व्यक्ति अपनी विचार शैली के अनुरूप करता है। आजकल इस शैली में भी प्रचार-तंत्र के द्वारा दखलंदाजी की जा रही है। एक नया निज़ाम रचा जा रहा है। इसकी बुनावट बड़ी बारीक है और कबीर की चदरिया की यह धज्जियां उड़ा रही है। असहिष्णुता का यह हाल है कि गाय के पीछे चलने वाले व्यक्ति का कत्ल कर दिया जाता है- इस भ्रम में कि वह गोमांस का व्यापारी है।

सिने उद्योग हमेशा धर्मनिरपेक्ष रहा है परंतु अब छुट्‌टी आधारित व्यवसाय के कारण ईद, दिवाली और क्रिसमस पर प्रदर्शन आवश्यक हो गया है। दरअसल, फिल्मकार अपना आत्मविश्वास खो चुके हैं। उन्हें यकीन ही नहीं है कि उनकी फिल्म अपने मनोरंजन मूल्य आधार पर कभी भी सफल हो सकती है। मेहबूब खान, शांताराम, राज कपूर, गुरुदत्त और बिमल राय ने कभी छुटि्टयों की परवाह नहीं की और जब भी वे अपने काम से संतुष्ट हुए, उन्होंने अपनी फिल्मों का प्रदर्शन कर दिया। आज फिल्मकार ही क्या अवाम भी अपना आत्मविश्वास खो चुका है। व्यवस्था भी यही चाहती है कि लोग ऐसे ही रहें, क्योंकि इसी में उनका लंबे समय तक टिके रहना संभव है। इसी के साथ बाजार ने नए तीज-त्योहार भी रचदिए हैं जैसे वैलेंटाइन डे और 31 दिसंबर की रात। अगर आप गहराई से बचें तो वर्तमान समय में डूबकर सानंद रह सकते हैं। खुशियों के खोखलेपन को नज़रअंदाज कर दें तो सब कुछ ठीक-ठाक है।