तीज त्योहार और बाजार के बदलते हुए स्वरूप / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
तीज त्योहार और बाजार के बदलते हुए स्वरूप
प्रकाशन तिथि :16 मार्च 2017


एक दौर में फिल्मों में प्राय: होली, दिवाली, ईद इत्यादि त्योहारों से जुड़े दृश्य रखे जाते थे। बाद में आर्थिक विकास और भौगोलिकीकरण के दौर में वेलेन्टाइन डे की तरह नए तीज त्योहार भी जुड़ गए परंतु विगत कुछ वर्षों में पारम्परिक त्योहारों पर अवाम का जोश-खरोश से शामिल होना कम होता जा रहा है। शहर भर में खेली जाने वाली होली मोहल्ले में सीमित होते हुए अब परिवार में सिमट आई है। यह अदृश्य होने के पहले की स्टेज है। होली समाज के प्रेशर कुकर का सेफ्टी वॉल्व है। इस दिन हृदय में उठते ज्वार को अभिव्यक्त कर सकते हैं और प्रच्छन्न सेक्स भी अभिव्यक्ति की पतली-सी गली पाता है। महिलाओं को छूने का बहाना मिल जाता है। हर महिला के पास स्पर्श के उद्‌देश्य का आकलन करने की क्षमता होती है। वे जान लेती हैं कि कौन-सा स्पर्श महज इत्तेफाक है, किस स्पर्श में स्नेह है और कौन-से स्पर्श में बदनीयती है। किसी भी दिशा में चलती हुई स्त्री की पीठ पर कैसी दृष्टि पड़ रही है, ये वे बिना देखे ही जान जाती हैं। उनके पास एहसास का एक अजीबोगरीब एंटीना जन्मना मौजूद है। वे हर पल प्रतिवाद नहीं करती परंतु सबकुछ जानती हैं।

एक बार-बार दोहराया जाने वाला झूठ यह है कि सारे युद्ध ज़र, जमीन और जोरू के लिए होते हैं। सच तो यह है कि जब तर्क को तिलांजलि देकर, जबरन भड़काई भावना से मनुष्य शासित होता है तब युद्ध होते हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के नायक विन्सटन चर्चिल ने भी कहा था कि युद्ध अनावश्यक है और तर्कहीनता की विजय है। वेदव्यास ने अपने ग्रंथ का नाम 'जय विजय' रखा था, बाद में धर्मांधता की शक्तियों ने इसे धर्मयुद्ध कहना प्रारंभ किया, जबकि यह छल से जीता गया है। आज तक किसी शोधकर्ता ने व्यापारियों के उस समूह को नहीं खोजा, जिसने युद्ध की संभावना देखकर शस्त्र निर्माण किए, विदेशों से घोड़ों का आयात किया। ये इतने सयाने लोग थे कि श्रीकृष्ण के शांति प्रयास भी असफल हो गए। अमेरिका का शस्त्रों का व्यापारी समूह अत्यंत शक्तिशाली है। वे अगले आम चुनाव के पहले भारत के हुक्मरान की इच्छा के अनुरूप पड़ोसी मुल्क से छोटा युद्ध खेलेंगे ताकि जिस धर्म के अधिकतम मतदाता हों उनका समूह दल विशेष को ही मत दे। अमेरिका में आर्थिक 'हिटमैन' को प्रशिक्षण दिया जाता है। इसी दल के एक सदस्य ने सेवानिवृत्त होकर किताब लिखी 'द इकोनॉमिक हिट मैन।' इसके सदस्य सभी देशों की राजधानी में मंत्रियों व नेताओं का पूरा ध्यान रखते हैं। बजट में छोटी-सी रियायत करोड़ों का खेल रचती है, अत: उद्योगपति उसके लिए लाखों का खर्च कर सकते हैं। आम आदमी जानता ही नहीं िक वह किन अदृश्य धागों से बंधा कठपुतली की तरह थिरक रहा है। आज हमारी खुशी भी इंजीनियर्ड प्रोडक्ट है। मुस्कान पर पहरा है परंतु यह दौर स्थायी नहीं है। अधिकतम लोगों को अधिकतम समय तक मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। इस मशीन के भीतर ही इसके विनाश का बटन कहीं छिपा है। दो लोग अपना सेल्फी ले सकते हैं परंतु उसी अंदाज में ग्रुप फोटो नहीं खींचा जा सकता। मदमस्त हाथी की सूंड में चींटी घुस जाए तो वह दर्द सह नहीं पाता। चींटी धीरे-धीरे रेंग रही है, कान तक पहुंच ही जाएगी।

बहरहाल, विशेषज्ञों की राय है कि अगला विश्वयुद्ध पीने के पानी के लिए लड़ा जाएगा। होली के पारम्परिक स्वरूप में पानी का अपव्यय होता है, अत: गुलाल से खेलने के लिए संदेश दिए गए। कुछ समृद्ध लोग गुलाब की पंखुड़ियां एक-दूसरे पर बरसाते हैं। हर त्योहार में समाज का श्रेणीभेद घुस आता है। गरीब कहां से गुलाब की पंखुड़ियां लाए। उत्सव मनाने में भी अभिजात्य वर्ग के अपने नखरे हैं। अब तो गरीब के पास सिर्फ 'मुन्नाभाई' वाली प्यार की झप्पी ही बची रहती है। कॉलर बोन चुभती है, पसली की हड्‌डियां भी टकराती हैं, मीठा-मीठा दर्द होता है, मौसम भी सर्द होता है। पानी की बचत का संदेश सिर्फ गरीब व्यक्ति के लिए है, क्योंकि श्रेष्ठि वर्ग के प्रिय खेल गोल्फ के लिए कई एकड़ जमीन को हर-भरा बनाए रखने में सबसे अधिक पानी खर्च होता है और इस खेल को न्यूनतम लोग ही खेल पाते हैं। इसे रोका नहीं जा सकता।

स्वतंत्रता के पहले 1946 में चेतन आनंद की 'नीचा नगर' ने अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में पुरस्कार जीता था। इसमेंपानी की टंकी पहाड़ी पर है, जो श्रेष्ठि वर्ग के कब्जे में हैं। निचली सतह पर साधनहीन लोग एक-एक बूंद पानी के लिए तरस रहे हैं। पानी पर पूंजीवादी का कब्जा है। इस फिल्म का प्रदर्शन नहीं हो पा रहा था, क्योंकि यह यथार्थवादी फिल्म थी और इसमें पारम्परिक मसाला नाच-गाना नहीं था। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसका एक शो राष्ट्रपति भवन में आयोजित किया और एलेक्जेंडर कोरबा को सिफारिश की गई। नेहरू की पहल के कारण भारत की पहली अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली फिल्म को प्रदर्शित किया जा सका। इस घटना का संपूर्ण विवरण उमा आनंद की किताब 'चेतन आनंद : द पोएटिक्स ऑफ फिल्म' नामक पुस्तक में लिखा है। तीज त्योहार पर पहले-सा उत्साह व जोश नहीं दिखाया जाता, क्योंकि हमारी हंसने और रोने दोनों की क्षमताओं में कमी आ गई है। कोई बात तो है, जिसने इस धारा को कमजोर बना दिया है। धीरे-धीरे हम मशीनवत होते जा रहे हैं। स्टीवन स्पिलबर्ग की एक फिल्म में अकेली रहने वाली महिला ने विशेष ऑर्डर देकर बच्चे की तरह दिखने वाला रोबो बनवाया था घर के कामकाज के लिए। जब उस महिला को कैंसर होता है और मौत दरवाजे पर दस्तक दे रही होती है तब उस मशीन रोबो की आंख से आंसू गिरने लगते हैं। इस तरह मशीन के मानवीकरण का संकेत उस विज्ञान फंतासी में मिलता है। इस तरह की फिल्म है 'बायसेंटीनियल मैन' इनमें एक महिला एक रोबो से विवाह की इजाजत व्यवस्था से मांगती है और इजाजत उस समय आती है, जब रोबो की एक्सपायरी डेट आ चुकी होती है, जिसका अर्थ है कि अब वह काम नहीं करेगा। कुछ विरले मनुष्य उन दवाओं की तरह है, जो एक्सपायरी डेट के बाद भी बाजार में बिकते हैं। यह संभव है कि बाजार का भी दिल है, जिसकी धड़कन शेयर बाजार में सुनी जाती हो।