तीन अभिनय शैलियां और देश की मिट्‌टी / जयप्रकाश चौकसे

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तीन अभिनय शैलियां और देश की मिट्‌टी
प्रकाशन तिथि :22 अप्रैल 2015


न्यूयॉर्क के फिल्म आलोचक ने 'मार्गरिटा विद ए स्ट्रा' देखने के बाद फिल्मकार शोनाली बोस से पूछा कि उन्हें सेरिब्रम पाल्सी की मरीज कहां मिली और उससे इतना विश्वसनीय अभिनय आपने कैसे करा लिया। शोनाली बोस ने उन्हें स्पष्ट किया कि काल्की कोलचीन पूरी तरह स्वस्थ कलाकार हैं और उन्होंने रोग का अभिनय किया है। इस फिल्म के निर्माण के समय जिन दिनों शूटिंग नहीं होती थी, उन दिनों भी काल्की अपने घर में व्हीलचेयर पर अपनी भूमिका के अनुरूप जीती थी। कई बार महीना भर वह अपनी भूमिका की तरह रही और अमेरिका में शूटिंग के समय भी वह अपनी भूमिका से बाहर नहीं आई। इस तरह की साधना उसने की है। गौरतलब यह है कि कभी भूमिका में इस तरह से रमने के बाद फिल्म समाप्त होने पर उस भूमिका से निकलने में भी बहुत मेहनत करना पड़ती है। मार्लिन ब्रेन्डो अपने मनोचिकित्सक के साथ अपने निजी द्वीप पर रहकर भूमिका से बाहर आते थे। दिलीप कुमार को भी लंदन जाकर चिकित्सा कराना पड़ी थी। बेचारी मीना कुमारी और उनकी पार्श्व गायिका गीता दत्त 'साहिब बीवी और गुलाम' की बीवी से कभी मुक्त ही नहीं होने पाई और दोनों शराबनोशी के कारण लिवर सिरोसिस से मृत्यु तक पहुंची, परंतु इस प्रकरण में महज 'बीवी' के पात्र को पूरी तरह जवाबदार नहीं ठहरा सकते। कई और भी कारण थे।

नसीरुद्दीन शाह ने सई परांजपे की 'स्पर्श' के लिए अंधे की भूमिका करने के लिए कड़ा परिश्रम किया। आंख पर पट्‌टी बांधकर अपने घर पर वे कितनी बार कितनी चीजों से टकराये और चोटिल हुए। 'गंगा जमना' के एक दृश्य के लिए कैमरामैन से समय तय करके, दिलीप कुमार स्टूडियो के गिर्द एक घंटा भागते रहे और तय समय पर हांफते हुए सैट पर पहुंचे। तकनीकी चूक के कारण उन्हें यह शॉट पूरी कवायद के साथ तीन बार करना पड़ा। अभिनेता बनने के सपने देखने वालों को निरंतर परिश्रम की बातें नहीं मालूम परंतु यह भी सत्य है कि सभी कलाकार दिलीप या नसीर की तरह नहीं होते।

अभिनय का यह मैथड स्कूल है परंतु अन्य तरीके भी हैं। योग साधना का शिखर यह है कि मनुष्य मन में योग क्रियाएं दोहराता है और उसके शरीर को लाभ मिलता है परंतु इस शिखर तक पहुंचने में एक उम्र लग जाती है। ठीक इसी तरह मोतीलाल और संजीव कुमार भूमिका को मन की मिक्सी में घुमाते थे और बिना शारीरिक कसरत के भी कमाल प्रभाव पैदा करते थे। मेरी लिखी 'कत्ल' में उन्होंने अंधे का अभिनय ऐसे ही किया था। इस स्कूल के पुरोधा मोतीलाल थे। अगर अाप विमल राय की 'देवदास' देखें तो आपको मैथड स्कूल के दिलीप की नाक के नीचे से स्वाभाविक अभिनय के मोतीलाल को दृश्य का श्रेय चुराते देख सकते हैं। 'जागते रहो' में भी मोतीलाल ने कमाल किया है। उनकी एकमात्र निर्देशित 'छोटी छोटी बातें' अद्‌भुत फिल्म थी।

वर्षों पूर्व दिलीप कुमार ने जावेद अख्तर को दिए लंबे साक्षात्कार में बताया था कि वे अपनी आदत के अनुरूप मेहबूब खान की 'अंदाज' में तैयारी में लगे रहते थे और उस दरमियान राजकपूर स्टूडियो में हंसी मजाक और छेड़छाड़ में डूबे रहते थे परंतु फिल्मकार के बुलाते ही भूमिका के अनुरूप कमाल का शॉट देते थे। उन्हें कभी तैयारी की जरूरत ही नहीं थी। जाने वे किस विधा से यह कमाल करते थे। महान लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने शैलेन्द्र से कहा कि यह गोरा चिट्‌टा महानगरीय राजकपूर कैसे 'तीसरी कसम' के ठेठ गांवठी का अभिनय कर पाएगा। शैलेन्द्र ने उन्हें पहले शूटिंग दौर का रश प्रिंट दिखाया तो रेणु ने कहा यही मेरा हीरामन है। राजकपूर को ठेठ भारतीय होना ही उनसे इस तरह का अभिनय कराता था। बेचारे इस दौर के अभिनेता भारत खोजने कहां जाएं?