तीन कलाकारों की एक भूल / पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'
विवेकपूर से महामायावी महाराज मन्मथदेव के जादू से विवश कुमारी कामलोचना एक बार पुन: कामरूप देश में आई तो, मगर दिल उसका अपने पिता की ओर से उचट-सा गया। इसके पहले वह मन्मथदेव को इतना चाहती थी कि युवती हो जाने पर भी पति पाने की कामना कामलोचना के मन में कभी न हुई। मगर, कबूतर की तरह निरीह और सुंदर तथा कोमल गायक का पिता के कोप-कृपाण से कटकर अपने ही सीने पर गिरना उसे न भूला। किस क्षण में कुमारी ने गायक को देखा! जब से देखा तब से उसकी छवि कुमारी के हृदय में फोटो-सी खिंच गई। उसके मरने पर पहली बार जीवन में कामलोचना की आँखों से करुणा के आँसू झड़े। कठोर जादूगर पिता के साथ जादू के वायुरथ में बैठी कुमारी सारी राह गायक के वियोग में आँसुओं से मुँह धोती आई। बीच में बार-बार महाराज ने मीठी बातों से कुमारी का मन बदलना चाहा, मगर कामलोचना का स्वभाव उन्होंने सर्वथा बदला हुआ पाया। मन्मथदेव के हृदय ने अनुभव किया मानो कामलोचना उससे कोसों दूर चली गई हो। वे मन-ही-मन दहल उठे। उन्हें भय होने लगा कि कहीं कुमारी हाथ से निकल न जाए। कामलोचना ही महाराज मन्मथदेव की सौभाग्य-लक्ष्मी, सिद्धि और शक्ति है।
'कामा!' स्वदेश मे पहुँचने पर लाड़ के नाम से कामलोचना को सम्बोधित किया महाराज ने, 'सारी राह तू गुमसुम आई है। किन चिंता में है तू? क्या उन मूर्ख जादूगरों ने तुझे कोई तकलीफ दी है? हा हा हा हा बदजात! पहुँच गए अपने नरकों में।'
'मैं आप से नराज हूँ।' कुमारी ने सूखे ओठों और भरे गले से कहा।
'क्यों...?'
'मैं उस जवान से खुश हूँ जिसे आपने मेरी... पर कठोरता से मार डाला।'
'वह गया नरक में - अब उसकी चर्चा में माथा मारकर दिमाग खराब न करो बेटी! देखो मेरी ओर! मैं ही हूँ तुम्हारा प्यारा पिता जिसके बगैर तुम्हें एक क्षण भी अच्छा नहीं लगता था। तुम्हें हो क्या गया है?'
'प्रेम, पिताजी! मैं गायक से ब्याह करूँगी।'
'वह गया नरक में, ब्याह के वास्ते तू बनी भी नहीं है। सिद्धों की कन्याएँ सिद्धि मात्र के लिए होती हैं।'
'मैं अब कामरूप देश में नहीं रहना चाहती।'
'तो कहाँ रहेगी?' सक्रोध मन्मथदेव ने पूछा।
कुमारी ने भी सतेज उत्तर दिया - 'विवेकपुर में। उसी बरगद के नीचे जहाँ पर आपने मेरे प्रिय की हत्या तंगदिली से की। आप जानते ही हैं, मैं मामूली लड़की नहीं? देवता भी मुझे मेरी इच्छा के विरुद्ध जाने को विवश नहीं कर सकता।'
'देवता न कर सके, पर एक बार मन्मथदेव कुछ भी कर सकता है। नहीं मानेगी, तो मैं तो तुझे कैदखाने में डालकर अचल बना दूँगा।'
'जबरदस्ती में आप मुझसे जीत न सकेंगे पिताजी! पर मैं आपके पास रहने की नहीं। मैं तो चली...!' कहकर कुमारी कामलोचना अपने प्रचंड पिता के सामने से दूर खिसकी, मगर मन्मथदेव ने झपटकर उसका हाथ पकड़ा और अपनी ओर झटके से खींचा। कुमारी के जूड़े़ से कमल के तीन फूल जमीन पर गिर पड़े - 'छोड़िए! छोड़िए! मेरे फूल वेणी से गिर पड़े। छोड़िए!' झपटकर कुमारी ने फूलों को जमीन से उठाकर उन पर की गर्द साफ की, 'ये फूल मुझे निहायत पसंद है। यह घर मुझे निहायत नापसंद।'
'दंडनायक!' जादूगरों के सम्राट ने गरजकर कहा, 'इस हठी छोकरी को अँधे तहखाने में बंद करो। इस पर सख्त निगरानी रखो। अगर किसी भी तरह कुमारी कैद से बाहर जाएगी तो सारा कामरूप देश तबाह हो जाएगा। तकलीफ कुमारी को न हो कोई। मगर, यह जाने न पाए, चंचला, मायाविनी!'
उसी क्षण कामलोचना अँधे कारागार में कैद कर दी गई।
भागता-भागता विवेकपुर का वह विचित्र कलाल सीधे अपनी दुकान पर आया जहाँ अब भी शाम से पीनेवाले सुबूही के इंतजार में डटे बैठे थे।
'क्या हुआ चौधरी!' एक पेया-प्रेमी ने कलाल की घबराहट का कारण दरियाफ्त किया।
'हुआ क्या - बेचारे तीन महान गुणी एक चमड़े की पुतली - औरतों के लिए जान से मार डाले गए।'
इसके बाद जादूगरों के महाराज द्वारा उसकी पुत्री को उड़ा लेने के अपराध में जैसे तीनों कलाकार मारे गए, कलाल ने भय से काँपते-काँपते वह सब सबको सुनाया और ऐसे गुणियों के इस तरह उठ जाने पर अफसोस करने लगा -
'मगर चौधरी!' एक पुराने बूढ़े दाढ़ीदार पियक्कड़ ने बड़ी-बड़ी आँखें सतेज कर कलाल से कहा, 'जादू या प्रेत या साँप के काटे लोग फौरन नहीं मरते। मेरा खयाल है अगर कोई तीनों कलाकारों की लाशों को जतन से रखे और किसी अच्छे मंत्र-शास्त्री से सलाह लेकर उन्हें प्राणित करने की कोशिश करें, तो उन सबके प्राण लौट सकते हैं। फिर, उनकी सिद्ध की हुई चीजें भी वहीं पड़ी होंगी। मुमिकन है उनसे भी कोई सहायता मिल सके।'
'हाँ-हाँ, यक्ष साधक का गोला तो अमूल्य है। तांत्रिक के डंडा और कमंडलु भी देखने में साधारण नहीं मालूम पड़ते। ऐसे ही, गानेवाले कलाकार के सितार का तार-तार-तूँबा, काठ, जवारी सभी अद्भुत कारीगरी से बने हैं। जरूर इन चीजों की मदद से कलाकारों की कुछ सहायता की जा सकेगी। वाह, काका, तुमने लाख टेक की सलाह दी है। चलो भाईयों! हम अपने काँधे पर कलाकारों की लाशों को उठा लावें।'
लेकिन जब सदल बल कलाल वट वृक्ष के नीचे आया तो उसने वहाँ पर एक गोरे, बलिष्ठ और लंबे पुरुष को बिल्लौरी गोलावाले कलाकार के शव के पास बैठा पाया। वह गोले में न जाने क्या बड़े गौर से देख रहा था। कलाल आदि को देख वह पहले तो जरा चमका मगर, तुरंत ही सँभला और परिस्थिति समझकर बोला -
'भले आ गए तुम लोग। इन लाशों को किसी सुरक्षित जगह पर उठा ले चलो। ये तीनों मरे नहीं हैं। इनके प्राण कामरूप देश में सुरक्षित हैं।'
अचंभा से भौंचक कलाल और उसके साथियों ने एक साथ ही तेजस्वी पुरुष से पूछा -
'आपको कैसे मालूम?'
'अभी इस बिल्लौरी गोले में मैंने देखा है। कुमारी कामलोचना की वेणी में तीन कमल के फूल हैं जिनमें तीनों कलाकारों के प्राण बंद हैं।'
'लेकिन जादूगरों की बेटी के जूड़े़ से उनका उद्धार कौन करेगा? हम तो वहाँ तक अपने पौरुष से पहुँच भी नहीं सकते।' कलाल ने उस बलिष्ठ पुरुष से लाचारी सुनाई।
'कामरूप देश मैं जाता हूँ। मैं इस बिल्लौरी गोले के मालिक का रखवाला हूँ, मैं यक्ष हूँ कोई भी रूप बदलकर कहीं जा सकता हूँ। तुम इन शवों में ऐसे लेप लगाकर रखो कि से सड़े नहीं। मैं जल्द से जल्द कामरूप देश से इनके प्राणों को मुक्त करा लाता हूँ।'
कलाल को बिल्लौरी गोला सौंपते हुए उस विचित्र पुरुष ने कहा, 'सावधान! अपवित्र अवस्था में इस गोले या कमंडलु, डंडे और सितार को नहीं छूना, नहीं तो लेने के देने पड़ जाएँगे।'
और सबके देखते ही देखते वह दिव्य पुरुष बिना, पंख ही, आकाश की ओर उड़ गया और हवा में गुब्बारे की तरह सनक चला।
'सुना बहुत मगर, असल जादू देखा आज ही!' उस बूढ़े पियक्कड़ ने साश्चर्य कहा।
फिर वे सब सावधानी से तीनों कलाकारों की लाश कलाल के स्थान पर लेकर आए और गोला-कमंडलु वगैरह कलाल खुद ले आया। फौरन शरीर-रक्षक तेल तीनों मुर्दों पर चढ़ाकर सावधानी से, अलग-अलग काठ के बड़े-बड़े बक्सों में उन्हें रखा गया।
कलाल ने जादू की सिद्ध वस्तुओं को एक खास कठोरी में सजा दिया। गोले का चमत्कार देखने के बाद वह जादूगरी का कायल हो गया था। मन-ही-मन कमंडलु, डंडा और सितार के गुणों की परीक्षा के लिए, विवेकपुर का परीक्षक कलाल व्याकुल होने लगा। रोज ही उसका जी कहता कि आज परीक्षा जरूर कर ली जाए, मगर यक्ष की बातों से भय मानकर वह परीक्षा से दूर ही रहता।
आखिर एक दिन कलाल के सब्र की हद हो गई। उसने बड़ी पवित्रता से रात में जादू की चीजों की परीक्षा करने का दृढ़ निश्चय किया। सरेशाम ही से तेज शराबें वह अपने भारी पेट में उड़ेलने लगा। रात बारह बजे के बाद वह पागल भूत की तरह उस कोठरी में आया जिसमें कमंडलु, डंडा, बिल्लौरी गोला और अद्भूत सितार थे। कलाल ने निर्भय रहने के लिए, अधिक से अधिक पी रखी थी। जाते ही तांत्रिक का जड़ाऊ डंडा हाथ में लेकर बड़े ध्यान से देखने लगा। डंडा छोटा, कोई ढाई फुट का होगा, मगर वजन में पाँच सेर से कम नहीं। उसमें जगह-जगह पर इस्पात की मजबूत कीलें और अष्टधातु के तार बँधे थे। चमत्कार कैसे प्रकट होगा यह कलाल समझ न सका। आखिर उसने आवेश से डंडे को हवा में घुमाना शुरू किया। अभी दो बार भी उसने ऐसा नहीं किया होगा कि डंडा उसके हाथ में सट गया और एकाएक गरमी उसमें बढ़ने लगी, यहाँ तक कि कलाल ने चमड़ा जलने का अनुभव किया। मारे व्यथा के वह सारी कोठरी में नाचने लगा। मगर चिल्लाया वह नहीं, बदनामी के डर से। उसी उछलकूद में कमंडलु को कलाल के पैर का धक्का लगा और उसी वक्त भयानक रव-रोर मच गया! भैरव-भीषणाकार, आग-सी आँखें, लपट-सी मूँछ और दाढ़ी, वज्र की तरह तेजस्वी त्रिशूल हाथ में! भैरव मूर्ति के प्रकट होते ही कलाल के हाथ से छूटकर सिद्ध डंडा जमीन पर जा गिरा! भैरवी मूर्ति ऐसी विकराल थी कि डंडे की गर्मी से बच जाने पर भी मारे भय के वह काँपता रहा।
'अरे मूर्ख!' भैरवी ने कहा - 'क्यों बुलाया तूने?'
'यों ही...! धोखे से...! - भूल में!' कलाल भय से घिघियाने लगा - 'माफ करो!'
'अनाधिकारी...! मूढ़!!' कहकर अंतर्धान होने से पूर्व भैरव-स्वरूप ने कलाल को दौड़ा और पकड़कर उसके दोनों कानों को जड़ से उखाड़ डाला। क्रोध से दाँत पीसते, भैरवदेव कलाल की नाक भी दाँत से काटकर चबा गए! बेजान होकर कलाल जमीन पर गिर पड़ा। और होश में आने पर पागल हो गया! उसी पागलपन में उसने सोचा कि तीनों कलाकारों की लाशों को नष्ट कर देना चाहिए। जीते रहेंगे तो ये फिर औरत पर आसक्त होकर, फिर मरेंगे। ऐसे अज्ञानियों को जीवन का दु:ख दिखाया ही क्यों जाए। इनका मरना ही अच्छा।
वह एक तेज और भयानक गँड़ास लेकर तीनों कलाकारों की लाशों पर झपटा!
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यह पहला ही मौका था जब कुमारी कामलोचना ने महाराज मन्मथदेव को इस तरह असंतुष्ट किया और ऐसी सख्त सजा उसे दी गई। अँधेरी तहखाने में उसका दम घुटने लगा।
ऐसा नहीं, कि कुमारी कामलोचना जादूगरी के फन से नावाकिफ थी। वह खुद जादू की पुतली थी। पर महाराज मन्मथदेव उससे कहीं अधिक शक्तिशाली थे। उन पर कामलोचना के जादू असर नहीं डालते थे। इसलिए, चाहकर भी, महाराज के जेलखाने से वह भाग न सकी।
विवशता से व्याकुल हो कामलोचना रो पड़ी। उसी वक्त यक्ष तहखाने में प्रकट हो गया -
'क्या कष्ट है कुमारी को? मैं आपकी क्या सेवा करूँ, आप रोती क्यों हैं?'
'मुझे।' सिसककर सीना थाम कुमारी बोली, 'मुझे प्रेमरोग हो गया है!'
'सिद्ध कुमारियों को रोग नहीं सताते - आप क्या कह रही हैं!' यक्ष ने निवेदन किया।
'मैं विवेकपुर के सुंदर, कमलनयन गायक पर मर रही हूँ...।'
'मगर, अर्सा हुआ वह तो मार डाला गया, महाराज मन्मथदेव के हाथों।'
'मारा गया तो, लेकिन माया से मैंने तीनों कालाकारों के प्राणों को वेणी के सफेद कमलों में बंद कर लिया। देखो! और जल्दी मुझे इस काल-कोठरी से बाहर ले चलो। प्यारे गायक के लिए मेरे प्राण तड़प रहे हैं।'
यक्ष के जबरदस्त जादू से कुमारी कामलोचना कैदखाने के बाहर हो गई। पलक पर गिरने ही में कुमारी कामरूप की सरहद से कोसों दूर थी।
'विवेकपुर आपका जाना व्यर्थ होगा, सिद्ध कुमारियाँ मनुष्यों के लिए नहीं।'
'मैं तो गायक के रूप पर मुग्ध हूँ।'
'रूप बादल के बाग-सा बनते ही बिगड़ जाने वाला क्षणभंगुर? किसके लिए कुमारी व्यग्र हैं? जिन लाशों को मैंने विवेकपुर के बाहर देखा वे तो बदशक्ली का नमूना थीं।'
'मजे में देखा नहीं मेरे गायक को तुमने! वह मादक है, चितचोर!'
'आप भूल में हैं कुमारी, मानव का रूप महज चमड़े की चमक है। चलकर ध्यान से देखिएगा, तो आँखें खुल जाएँगी। लीजिए आ गईं, यही विवेकपुर है न?'
'हाँ, वहीं वह वट का पेड़ है जहाँ मैंने प्यारे गायक के दर्शनों का सौभाग्य पाया था।'
'और वह है कलाल की दुकान। इसी में, इधर से आइए! कलाकारों के शव सुरक्षित हैं। खोलो! अरे कौन भीतर है? खोलो!!'
और ज्यों ही कलाल लाशों को नष्ट करने पर आमादा हुआ त्योंही तो यक्ष की तेज आवाज आई। गँड़ासा उसके हाथ से जमीन पर गिर गया। तुरंत दरवाजा खोल, विकराल रूप से वह यक्ष और कुमारी के सामने भयानक खड़ा हो गया -
'अरे! तुम्हारी नाक किसने काटी है?' यक्ष ने साश्चर्य पूछा!
'पहले गायक को जीवित करो! लो! ये तीनों फूल। इनमें सबसे छोटे फूल में मेरे प्रियतम के प्राण हैं। और मँझले में तुम्हारे भक्त के और सबसे बड़ा फूल तांत्रिक के प्राणों का डब्बा है। मैं खुद अपने जीवन-धन को जीवन दूँगी। कहाँ हैं लाशें?'
'इधर - यहाँ - उफ कैसी भयानक! कुमारी इसी रूप पर आप मरने जा रही हैं?'
'क्या है...?' साश्चर्य जिज्ञासा की नजर कुमारी ने लाशों पर डाली -
'आह!' घबराकर वह गजों पीछे हट गई - 'ये तो प्रेतवत हैं! हैं! क्या इसी देह को उस उजली रात में मैंने देखा था? या यह सब माया है?'
'कुमारी, इन लाशों में आपके प्रियतम की कौन है? पहले उसी रूपवान से मैं आपको 'प्राणेश्वरी' कहलाऊँ।'
'चुप रहो!' सखेद कुमारी बोली, 'इन लाशों में मेरा प्यारा नहीं है। ये तो जली-भुनी बदबूदार- किन्हीं गंदे भिखारियों की लाशें हैं, जलें या गलें, मैं इनमें प्राण नहीं भरूँगी।'
'ऐसा नहीं।' कहकर कुमारी के जुड़े से तीनों कमल बाहर कर यक्ष ने कलाकारों को जीवित कर दिया! फिर भी वे भयानक थे, भूतों की तरह! उनकी जादू से जली देह देखकर रोंगटे खड़े हो जाते। उनके जागते ही कुमारी कलाल की कोठरी से भाग खड़ी हुई।
मगर, तीनों कलाकारों ने कब छोड़ा कामलोचना को। प्राण पाते ही देह की दुर्गति भूल वे कुमारी के पीछे दौड़ पड़े! और जैसे भूत के डर से बालक भागे, वैसे ही इन भयानकों के भय से कुमारी प्राणों पर खेलकर भागी। मगर, बहुत दूर जाने के पहले ही तांत्रिक ने कामलोचना को जा पकड़ा।
'जाती कहाँ हो प्रिये!'
'छोड़ मुझे, असुंदर! राक्षस! मैं तुझे नापसंद करती हूँ।' तमककर कुमारी तांत्रिक की भुजाओं से छूटने के लिए छटपटा उठी। तब तक गोलावाले साधक ने कुमारी को अपनी ओर खींचा।
'दूर हट भयानक!' उसको भी कामलोचना ने तिरस्कार-पुरस्कार दिया।
'कुमारी!' अब गायक ने विनती की - 'आपने मुझे प्रेम का वरदान दिया था भूल गईं!'
'ओ असुंदर प्राणी! मैं तुझे नहीं पहचानती। भाग जा! फौरन! नहीं तो मेरी माया से तुम्हारा मरण निश्चित हो जाएगा।'
'जाने दो साधको!' कुरुप कलाल भी चिल्ला पड़ा, 'औरत से लड़ाई मोल न लो! यह तुम्हें नहीं चाहती तो इसको अपना सौभाग्य समझो और भागो!'
'अबे चुप नकटे!' कहकर तांत्रिक पुन: कामलोचना की तरफ लपका। कुमारी ने तांत्रिक बदमाश की छाती में एक लात हुमक कर लगाई। इससे उत्तेजित हो भयानक तांत्रिक ने कुमारी का कोमल गला अपने चंगुल में कस लिया।
'यह नहीं चाहती तो मरे! मार डालो!!!' कह दूसरे साधक के साथ ही गायक भी शेर की तरह कामलोचना पर झपटा।
'यह लो।' गँड़ासा गायक को कलाल ने जा पकड़ाया - 'इसकी मदद लो औरत को साफ करने में।'
और देखते ही देखते कामरूप देश की कुमारी को तीनों कलाकारों ने टुकड़े-टुकड़े काट डाला।
भयानक शब्द हुआ उसी वक्त और जादूगरों के महाराज मन्मथदेव कलाकारों के सामने गुस्से से काँपते प्रकट हुए।
'भाग्यलक्ष्मी, मेरी सिद्धि का इन बदमाशों ने नाश कर दिया। पकड़ो!' दूर पर मौन खड़े यक्ष को जादूगरों के राजा ने ललकारा।
'मैं नहीं दस्तनदाजी करने का।' यक्ष ने गंभीरता से कहा।
'क्यों?' जादूगरों के सम्राट ने पूछा।
'क्योंकि अब कामरूप देश का पतन जरूरी है।' यह कहकर यक्ष वहाँ से अंतर्धान हो गया।
'जाने दो मूर्ख को।' मन्मथदेव महाराज बोले - 'जादू की रस्सी में बाँध मैं इन बदमाशों को कामरूप देश ले चलूँगा और वहाँ पर नर-बलि देकर नई सिद्धि की साधना में इन्हें खपा दूँगा, क्योंकि इन्हीं की, शैतानी से मेरी पुरानी सिद्धि - कुमारी कामलोचना - नष्ट हुई है। देखता हूँ ये कैसे जादूगर हैं और दंड, कमंडलु, सितार-गोले के साथ तीनों कलाकारों को जादू की रस्सी से बाँधकर महाराज मन्मथदेव कामरूप देश की ओर बिजली की तरह, वायु रथ से झपटे।