तीन जुनून और दो हादसे / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 20 फरवरी 2013
यू टीवी और अभिषेक कपूर बधाई के पात्र हैं, उन्होंने चेतन भगत के उपन्यास 'थ्री मिस्टेक्स ऑफ माय लाइफ' से प्रेरित 'काई पो चे' नामक अत्यंत सघन भावना प्रधान फिल्म बनाई है। इस कहानी पर फिल्म बनाना आज के असहिष्णुता के दौर में अत्यंत साहस का काम है। अभिषेक कपूर ने इतनी चुस्त-दुरुस्त फिल्म रची है कि इसका एक भी दृश्य अनावश्यक नहीं है। फिल्म के आखिरी हिस्से में सारी घटनाएं एक-दूसरे से इतनी खूबी से जुड़ी हैं कि वे एक शृंखला नहीं वरन एक मुकम्मल विचार और भावना का विस्फोट लगती है। भारत के आम लोगों के तीन शगल हैं - राजनीति, क्रिकेट और सिनेमा तथा इन तीनों जुनूनों का अभिषेक कपूर और चेतन भगत ने बखूबी दोहन किया है। लोकप्रियता की यह कॉकटेल सीधे दर्शक को पागल बना सकती है, परंतु निर्देशक का संतुलन और संयम कुछ इस तरह है कि फिल्म पगला देने वाले नशे में नहीं बदलते हुए विचारोत्तेजक हो जाती है। राजनीति, क्रिकेट और सिनेमा के मिश्रण से एक ठहाके लगाने वाली, ताली पड़वाने वाली फिल्म आसानी से रची जा सकती है, परंतु उसमें मानवीय करुणा और दोस्ती के उतार-चढ़ाव को एक कुशल बुनकर या जुलाहे की तरह धागा दर धागा कपड़े की तरह बुनना आसान काम नहीं होता और निर्माता के विश्वास से ही निर्देशक यह संभव कर सकता है।
आज बाजार की ताकत ने यह स्थापित कर दिया है कि युवा संख्या और ऊर्जा निर्णायक है। इस फिल्म के तीनों नायक युवा हैं और युवा को समझने का जो फॉर्मूला आज प्रचलित है, उसी ढांचे से उन्हें बनाया गया है, वे महत्वाकांक्षी हैं, आक्रोश से भरे हैं। यह फिल्म युवा मन की इस परिभाषा की कसौटी है कि क्या उनमें सामाजिक सोद्देश्यता भी है? फिल्म का बॉक्स ऑफिस परिणाम निश्चित करेगा कि क्या उनके आक्रोश का उद्देश्य समाज में समानता, स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षता को मजबूत करना है या कि यह आक्रोश महज निमंत्रण है अराजकता के लिए। इस फिल्म का सारा ताना-बाना दो दुर्घटनाओं के गिर्द रचा गया है - एक प्राकृतिक आपदा है, जिसमें भूकंप युवा सपनों की प्रतीक इमारत को मलबे में बदल देता है और गीतकार स्वानंद किरकिरे अपने सार्थक गीत में मलबे को महल में बदलने की आशा जगाते हैं। यह भूकंप अगर प्रकृति का आक्रोश है, तो फिल्म का क्लाइमैक्स धर्मांध ताकतों द्वारा कहर ढाने की दुर्घटना है। भूकंप से अधिक विध्वंसक मानव द्वारा रचित दंगा है। एक में तो घर-बार ही गिरे, दूसरे ने 'जला दी तन्हाइयां' और प्रयास था जलाने का 'परछाइयां' भी। इस दूसरे मनुष्य प्रायोजित कहर में एक तरफ अंधी नफरत और हिंसा है, तो दूसरी तरफ इसका प्रतिकार करती मानवीय करुणा है कि एक प्रतिभाशाली बच्चे को बचाने के लिए उसका गाइड, गुरु और फिलॉसफर दोस्त अपने प्राण गंवा देता है। नंदिता दास की 'फिराक', जिसका अर्थ अलगाव एवं रिश्ते में दीवार होता है, भी हैवानियत के तांडव के बीच इंसानी मोहब्बत को रेखांकित करती है और अभिषेक कपूर की फिल्म भी यही काम करती है।
दरअसल, कौमी दंगों की हानि को उसमें मारे गए लोगों की संख्या या जले हुए भवनों की संख्या से नहीं आंका जा सकता, वरन इन हादसों के बाद मनुष्य का मनुष्य के प्रति अविश्वास का पैदा होना ही इसकी असल हानि है। कोई गणित इस हानि का आकलन नहीं कर सकता, जैसा कि फिल्म की एक नायिका कहती भी है कि उसे अंकों के खेल में नहीं, मनुष्य में रुचि है, उसके स्पर्श में रुचि है। फिल्म में प्रेम-कथा का महीन धागा राजनीति के नायलॉन, क्रिकेट के लिए पागलपन और धर्मांध हैवानियत के साथ अत्यंत चतुराई से शामिल किया गया है और नायिका के हाव-भाव की सेन्सुअसनेस प्रेम-कथा को कशिश देती है। इस फिल्म के बहाने इस खोजबीन का प्रयास किया जाना चाहिए कि भारत में क्रिकेट, सिनेमा और राजनीति के लिए इतना जुनून क्यों है और इसके दुष्प्रभाव क्या हैं। भारत कथावाचकों और श्रोताओं का अनंत देश है। हम पैदाइशी किस्सागो भी हैं और ऊंघते हुए भी कथावाचक का हौसला बढ़ाने के लिए हुंकारे भरते हैं। जैसे बच्चों को लोरी गाकर या कथा सुनाकर सुलाया जाता है, वैसे ही हमें भी कथा, किंवदंतियों और झूठे इतिहास ने सदैव ऊंघते ही रखा है। जागते ही हम कथा का हिस्सा हो जाते हैं।
राजनीति के प्रति हमारे रुझान की जड़ भी सामंतवाद तक जाती है। चक्रवर्ती राजाओं के किस्से हैं, अश्वमेध है और राजा में हम ईश्वर का अंश देखने के अभ्यस्त हैं। सामंतवाद या साम्राज्यवाद के दौर में राजा रहस्यमय आवरणों में लिपटा हुआ था और गणतंत्र में उसे आवरणरहित देखना चाहते हैं। सदियों की दमित इच्छाएं इसी तरह की प्रेरणा देती हैं। आधुनिक राजनीति में भी किस्सागोई ज्याद है। क्रिकेट के प्रति हमारा रुझान खेल की खूबियों से ज्यादा 'क्रिकेट बायचांस' में होता है, क्योंकि भाग्य अवधारणा में हमारा विश्वास गहरा है। हमारा जुनून इन तीनों को मजबूत बनाता है, परंतु जीवन सतत प्रवाहित जुनून नहीं होता, उसमें ठहराव व संतुलन होता है। विवेक और तर्क होता है। फिल्म में भी दो दोस्त हैं, जिनके बीच अभी दुश्मनी है। ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ क्रिकेट की विजय का जश्न उन्हें दोबारा मित्र बना देता है, परंतु धर्मांधता उन्हें फिर शत्रु बना देती है और पश्चाताप जाने वाले को वापस नहीं लाता। बहरहाल, फिल्म में है दम, वंदेमातरम।