तीन देवियाँ / शमशाद इलाही अंसारी
वे बहुत थोड़े थे। लेकिन रोमांच, अन्वेषण से भरपूर, लूट की अपरिमित आकांक्षाओं और नये हथियारों से लैस उन लोगों ने एक विशाल भूखण्ड खोज निकाला था जिसके एक भव्य महल में वे मेहमान बन कर घुस गये थे। धीरे-धीरे उन्होंने उस पर कब्ज़ा करना शुरु किया और फ़िर एक दिन उस महल के स्वामी बन गये अर्थात दूसरे लोग उनके दास। इस महल में एक संपूर्ण सभ्यता वास करती थी, जो अपनी ज़रुरत से ज़्यादा पैदा करती थी। सभी सुख थे उस महा-महल में, जिसके एक कमरे में तीन मूर्तियाँ थी, एक का नाम स्वतंत्रता, दूसरी का स्वाभिमान और तीसरी का स्वावलंबन था।
पहले इन तीनों मूर्तिर्यों के आँसू निकले, फ़िर सिसकियाँ सुनी जाने लगी। उसके बाद थोडी़ बहुत चीत्कार और फ़िर ये बढ़ते-बढ़ते एक दिन लोमहर्षक क्रंदन में बदल गई। अब घुसपैठिए इन आवाज़ों को अनसुना न कर सके। उनकी रातों की नींद उड़ चुकी थी। जब वे इसे सहन न कर सके तो एक दिन उन्हें वह महल छोड़ना ही पडा़। लेकिन उससे पहले वे इस महा-महल के विखण्डन और उसकी अपूर्व लूट खसोट की चाल चल चुके थे।
महामहल के दो टुकडे़ कर घुसपैठिए वापस गये तब तीनों देवियाँ शांत हुई। कई दशकों तक वे शांत रही। कुछ समय बाद फ़िर उन्होंने पहले रोना शुरु किया, फ़िर सिसकना, फ़िर चीत्कार और फ़िर कौलाहलपूर्ण कृदन... अब न कोई सुनने वाला है न कोई महल छोड़ने वाला...
रचनाकाल: ०१-१०.२००९