तीन बिन्दियाँ / फणीश्वरनाथ रेणु

Gadya Kosh से
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गीताली दास अपने को सुरजीवी कहती है। नाद-सुर-ताल आदि के सहारे ही वह इस मंज़िल तक पहुँच सकी है। सभी कहते हैं, उसकी साधना सफल हुई है।…कितने भोले और बेचारे होते हैं लोग! साधना के सफल-अफसल होने की घोषणा करनेवालों से वह पूछना चाहती है, सफल साधना का कोई सीधा-सा अर्थ। यह ठीक है कि अनेक असांगीतिक वातावरणों को गीताली ने अपने सुनहले सुर और सुगम गीतों से संगीतमय कर दिया है, कि किसी भी संगीत-समारोह या सांस्कृतिक प्रतिष्ठान के संयोजक आज भी गीताली के नाम पर गीत-प्रेमियों को बटोर लेते हैं!…किन्तु, और कितने दिन? ‘मीताली दी’ की सफल साधना का क्या हुआ? गीताली ने अपनी बड़ी दीदी मीताली की गलतियों से लाभ उठाया है।…

विशुद्ध (?) ठुमरी गायिका मीताली की सफल ज़िन्दगी के महज चौबीस महीनों के सामने अपने सुर-जीवन के ‘रोल’ किए हुए—परिपाटी से मुड़े हुए—अंश को खोलती है, धीरे-धीरे! नौ वर्ष? एक सौ आठ महीने कम नहीं!…

गीताली आजकल अक्सर अपने मन में उत्पन्न होनेवाले सहायक नाद का विश्लेषण करती है।…सहायक नाद! जिसको ओवरटोन कहते हैं। नाद कभी अकेला उत्पन्न नहीं होता। उसके साथ-साथ अन्य नादों का भी जन्म होता है। उस स्वर को हम सुन पाएँ अथवा नहीं, मूल नाद से उत्पन्न होनेवाले इन नादों को सहायक नाद कहा जाता है। स्वयं ही जन्म लेने के कारण इन्हें स्वयम्भू स्वर भी कहते हैं। गीताली ने इन्हीं स्वरों की सहायता से सिद्धि और प्रसिद्धि प्राप्त की है; प्रार्थना के सुर में हरदम बजती हुई ज़िन्दगी के सुर-ताल की सीमा से कभी बाहर नहीं गई। सीमा को विस्तृत अवश्य किया उसने।…लेकिन इधर कुछ दिनों से उसको भय होने लगा है। गीत गाते समय, मूर्त होते हुए राग एकाध बार अस्पष्टतर भी हुए हैं।…

…हुँ-ह-हुँ-हूँ-हूँ-हूँ…जीवन हुआ है एक प्रार्थना-गीत की त-र-ह!

इस ज़िन्दगी के कुछ अंश को काट लेती है गीताली, टुकड़े-टुकड़े करती है, मसल डालती है। फिर, चूर्ण-विचूर्ण क्षणों की सुर-कणिकाओं को सहायक नाद की सहायता से परखती है। डॉट-डॉट-डॉट! गीताली इन नन्ही-नन्ही तीन बिन्दियों को, आँखों के सामने शून्य में उभरनेवाली छोटी-छोटी तारिकाओं को, अब अच्छी निगाह से देखती है; पहचानती है इस शुभ चिह्न को!…

गीताली सुरजीवी है, किन्तु साहित्य-जगत की साधना और प्रगति का भी थोड़ा ज्ञान रखती है। उसके जीजाजी (जमाय बाबू!) अपने को अवसर की ताक में बैठा हुआ, किसी भी दिन प्रसिद्ध हो जानेवाला, प्रच्छन्न आलोचक मानते हैं टाइम-बोमा!… टाइम-बोमा ना आलू-बोमा! गरम आलू-चॉप प्लेट में लेकर जीजाजी के कमरे में गई थी वह। सुदर्शना-अदर्शना भी साथ थीं। दुष्टता-भरी हँसी को ज़ब्त करके गम्भीर होने की चेष्टा करती हुई गीताली ने कहा था, ‘‘देखिए जमाय बाबू, यह आलू का बोमा यानी बम है! आलू के भुर्ते के शेल में हरे चने के दाने बन्द हैं।…विशुद्ध घी में मर्जित इन अविस्फोटक बमों के फटने का नहीं, जुड़ाने का अवसर उपस्थित हो रहा है।…अब तक, यह भी आलू के रूप में ताक लगाकर बैठा था।’’

शैतान सुदर्शना मुँह बनाकर बोली थी, ‘‘न-न आलू मत कहो। जमाय बाबू तो अवसर पाते ही टूटनेवाले हिंस्र प्राणी हो सकते हैं। शिकार सामने आया कि…।’’ हो-हो-हो! जमाय बाबू भी हँसे थे। किन्तु दीदी बुरा मान गई थी।…जो भी हो, जमाय बाबू की किताब खरीदने की विचित्र आदत से गीताली और उसकी सखियाँ सुदर्शना-अदर्शना भी खूब लाभान्वित हुई थीं। कथा-साहित्य की अच्छी-बुरी पोथियाँ पढ़ने को मिल जाती थीं।…

आधुनिक कथा-साहित्य में एक वर्ग डॉटवादियों का भी है। डॉट-डॉट-डॉट! अब तक उठा नहीं है, किन्तु प्रश्न किसी भी दिन उठ सकता है कि ऐसी डॉटमयी रचनाओं के रचयिताओं के दिमाग़ में सिर्फ डॉट ही डॉट तो नहीं! दिमाग की जगह, मछली के असंख्य अंडों की थैली तो नहीं?…साधारण पाठक अधिकांश ऐसी बिन्दी-बूटेदार रचनाओं को भली नज़र से नहीं देखते। सारी किताब में, पृष्ठ और पंक्ति में यत्र-तत्र सरसों के दाने की तरह बिखरी हुई बिन्दियों के बाहुल्य से पाठकों की आँखें किरकिराने लगती हैं!…

गीताली इन बिन्दियों को अलख-मुखर-जगत् की खिड़की समझती है, तीन गोल-गोल लाल काँचवाली। अन्दर प्रकाश होता है, अलख-मुखर-जगत् का व्यापार शुरू हुआ।…

तीन बिन्दियों के सहारे अप्रासंगिक प्रसंगों और असंलग्न मुहूर्तों को रूपायित करनेवाले, किसी अन्य जगत् की हल्की छवि दिखानेवाले, प्याज़ के छिलके उतारनेवाले, ऐसे किसी शब्द-शिल्पी से कभी भेंट हो तो गीताली कहेगी—‘मानो या न मानो; हैं ये सहायक नाद के चिह्न!’ पूछेगी, ‘‘इस ओवरटोन या सहायक नादों की सृष्टि स्वयं ही नहीं होती क्या! मन की अनगिन खिड़कियों से झाँकनेवाले चेहरे खुद नहीं बोलते क्या?…बात बोलेगी, मैं नहीं। राज खोलेगी बात ही।’’…किसी शिल्पी का जवाब, गीताली के मन-बन में कौन पाखी रट रहा है!…

गीताली को हठात् मिस्त्री हाराधन यन्त्रकार की याद आई। कई मुखड़ों के उभरने और बिलाने के बाद डॉट-डॉट-डॉट! फिर मिस्त्री हाराधन यन्त्रकार का एक तैलचित्र लटक गया उसके मन की दीवार पर।…न जाने यन्त्रकारजी कहाँ हैं! गीताली अपने दोनों हाथों को जोड़कर शून्य में एक नमस्कार करती है।

ज़िन्दगी के इर्द-गिर्द झंकृत होनेवाले सहायक नादों से प्रथम साक्षात् परिचय मिस्त्री हाराधन यन्त्रकार ने ही करवा दिया था। मिस्त्री नहीं, गुरु मानती है हाराधन यन्त्रकार को। यन्त्रकारजी के मन्त्र-बल से ही गीत-पागल हुई। ‘‘…जानती है खुकी, सफल शिकारी होने के लिए आदमी को सभी किस्म के शिकारियों से दीक्षा लेनी होती है; शेर-भालू के शिकारियों से लेकर व्याध-लुब्धक और सँपेरों की भी संगति करनी होती है। यन्त्रकार कहो, मिस्त्री कहो या कारीगर, तुम मेरी नातिन की उम्र की हो। नाना की बात सुनोगी?…यन्त्र के सहारे की सहायक नादों की पाँच हज़ार आन्दोलनयुक्त ध्वनियों की बारीकियों का उपभोग कर सकोगी। सदा ध्वनित होनेवाले जाने-अनजाने सुर में तुम्हारे जीवन का प्रत्येक क्षण मुखरित हो उठेगा।…’’

अलख-मुखर-जगत् में दस वर्ष पूर्व की बातें मुखरित हो रही हैं।…

सुर-मन्दिर के मैनेजर को कटुवचन को बाध्य हो गई थी गीताली ‘‘…शहर की सबसे पुरानी और निर्भर-योग्य बाजे की दुकान की यह हालत! एक ही सप्ताह में तीन बार तानपूरा ठीक करवाकर ले गई, फिर जैसे-का-तैसा! गीत के बीच में ही साथ छोड़ देता है।…रोग क्या है, यह बतानेवाला कोई विशेषज्ञ नहीं आपके पास? तो सुर-मन्दिर कहूँ या असुर-मन्दिर?’’ मैनेजर का मुँह बेजान माइक की तरह गोल खुला रहा। गीताली तानपूरा लेकर सुर-मन्दिर की सीढ़ियों से उतर गई थी, फिर कभी न लौटने की प्रतिज्ञा करती हुई। एक-दो-तीन…!

‘‘ओ दीदी, सुनेन, सुनेन!’’ कुछ दूर चलने के बाद, पीछे से पुकार सुनकर गीताली मुड़ी—एक नाटा-भूटा, गोल-मटोल लड़का लुढ़कता हुआ आ रहा है फुटपाथ पर। कौन है यह, किमाकार छोकरा? लड़के ने निकट आकर नमस्कार किया—‘‘आप गीताली दी हैं? हैं न?…हें-हें, हें-हें, तानपूरा क्या, सुर-मन्दिर में सभी बाजों का गला इसी तरह घोंटा जाता है। जब से मिस्त्री हाराधन यन्त्रकार सुर-मन्दिर को सलाम करके निकल गया है, सभी असुर ही रह गए हैं। आपने ठीक ही कहा है गीताली, दी!…’’

गीताली ने देखा, लड़का अकाल-परिपक्व नहीं, किसी ग्रन्थि-विकार का शिकार है। बौना नहीं, नाटा और बग़ैर मूँछोंवाला घुघलू! उसने अपना नाम बताया—घुघलू।…असम की ओर कहीं जन्म हुआ। मिस्त्री हाराधन यन्त्रकार के साथ गत पन्द्रह-बीस वर्षों से है। कलकत्ते में सात-आठ साल, दो-तीन वर्ष इधर-उधर और यहाँ भी करीब पाँच-सात साल हुए।…

घुघलू ने बताया, ‘‘मिस्त्री हाराधन यन्त्रकार अब किसी की दुकान में काम नहीं करता; अपनी गली से बाहर कहीं आता-जाता नहीं। गली में क्या, अपने कमरे से बाहर निकलने की छुट्टी नहीं।’’ घुघलू ने कई नए-पुराने यन्त्रवादकों के नाम गिनाए—‘‘जिन्हें ज़रूरत होती है, मिस्त्री हाराधन यन्त्रकार को खोजकर पहुँचते हैं, कलकत्ते से, लखनऊ से, काशी से।…’’

गीताली तुरन्त राज़ी हो गई। घुघलू ने रिक्शेवाले को आवाज़ दी—‘‘ए रिक्शावाला, महल्ला, दूधकूप चलेगा?’’

महल्ला दूधकूप की एक गली में कुछ दूर जाने के बाद घुघलू एक खपरैल के घर के पास रुका। बन्द किवाड़ों के एक छेद में आँख लगाकर अन्दर के वातावरण का अन्दाज़ा लगा लिया। फिर साँकल हिलाने लगा। अन्दर से किसी असन्तुष्टात्मा की खनखनाती हुई आवाज़, बन्द किवाड़ों के छेदों से सुनाई पड़ी। अन्दर के व्यक्ति को बहुत-से प्रश्नों के उत्तर देकर कुछ सन्तुष्ट किया घुघलू ने, तब जाकर दरवाज़ा खुला। लगा, अन्दर के किसी व्यक्ति ने अपने कमरे से ही रस्सी खींचकर चटखनी खोल दी। घुघलू अन्दर गया। एक कर्कश झिड़की सुनाई पड़ी—‘‘फिर किसको जुटा लाए, कहाँ से?…’’

घुघलू की दबी आवाज़ से स्पष्ट था कि वह अनुनय के स्वर में कुछ कह रहा है—‘‘मास्टर, ना, बलबेन ना।…उसके सब किए-किराए पर पानी फिर जाएगा।…’’

बाहर खड़ी गीताली को घुघलू की यह घिघियाहट अच्छी नहीं लगी। लेकिन बेसुरे बाजे को लेकर क्या रियाज़ कर सकेगी! वह चुप रही। एक कुढ़ी आत्मा और विकृत चेहरेवाले अधेड़ ने दरवाज़े से झाँककर पूछा, ‘‘क्या हुआ?…सुर-मन्दिरवालों ने तेरह—ठो बजाय दिया है बाजा का! छोड़ जाओ, तीन दिन बाद आना।…वाह! इसका खोल तो खूब बहारदार है। यन्त्र का यत्न भी लेती है या?’’

गीताली चमत्कृत हुई थी हाराधन यन्त्रकार की बातचीत सुनकर। सधे हुए स्वर मंे बेकार कोई झनक कर्कशता की सृष्टि कर रही है। वह चुप ही रही। यन्त्रकार ने थोड़ी देर तक गीताली की मुद्रा को पढ़ने की चेष्टा की। फिर कहा, ‘‘क्या किन्तु-परन्तु सोच रही है खुकी?’’ यन्त्रकार का सुर कोमल हुआ, ‘‘दस मिनट का काम नहीं, बेेसुरे को सुरवान बनाना।…आओ, अन्दर आओ!…’’

हाराधन के कमरे में प्रवेश करके गीताली प्रसन्न हुई थी। दीवारों पर ग्रामोफोन रेकार्ड कम्पनी द्वारा प्रचारित भारत-प्रसिद्ध कलाविदों की तस्वीरें लटक रही थीं। एकाध प्रशंसा-पत्र अथवा सर्टिफिकेट की तरह की चीज़ें! फर्श पर विभिन्न वाद्य-यन्त्र बिखरे हुए थे।…रेडियो पर वाद्य-संगीत के कार्यक्रम में सरोदवादन हो रहा था।…अकराम! उदीयमान सरोदवादक अकराम, स्वरचित गत ‘अर्चना के बोल’ प्रस्तुत कर रहा था। रह-रहकर सरोद के तारों से शंख और घंटाध्वनि प्रतिध्वनित होती थी। हाराधन यन्त्रकार ने अपने छोटे, पुराने रेडियो-सेट की ओर उँगली दिखाकर कहा, ‘‘सुन रही हो? सात साल हुए अकराम के इस सरोद को। अभी तक जस-का-तस है। यन्त्र का यत्न माने यन्त्र की पूजा!’’

हाराधन ने सितार, सरोद, सुरबहार, दिलरुबा, वीणा आदि के प्रसिद्ध वादकों के नाम लिए। गीताली स्वीकार करती है कि पाँच मिनट के परिचय में यन्त्रकार

की बातों पर विश्वास नहीं जमा सकी थी। यन्त्रकार ने भाँप लिया। अपनी अटैची से कई नई-पुरानी चिट्ठियाँ निकालकर गीताली के सामने रखते हुए बोला, ‘‘पढ़ो तो!…’’

कलकत्ता से भारत-प्रसिद्ध (स्वर्गीय) सितारवादक उस्ताद कादिर हुसेन का आत्मीयता से भरपूर एक खत पाँच साल पहले का : ‘‘भाई हाराधन, तुम तो सचमुच हाराधन हो गए हो हमारे लिए।…मेरे यन्त्र को कुछ हो गया है, फिर जिस-तिस के हाथ में देने का साहस नहीं करता। जानता हूँ, तुम कलकत्ते नहीं आओगे। मैं ही आ रहा हूँ तुम्हारे पास।…’’

रेडियो पर, तब, योगेन्द्र सूरी का वायलिन हेमन्त के राग-विस्तार की तैयारी कर रहा था।…कौन कहता है कि साज़ बेजान होते हैं!

गीताली मुग्ध होती गई। छोटे-बड़े सुरशिल्पियों और उस्तादों के प्यारे-प्यारे पत्रों ने, अकराम के ‘अर्चना के बोल’ ने, योगेन्द्र सूरी की वायलिन ने, घुघलू की गुरुभक्ति ने, सभी ने मिलकर गीताली के सामने मिस्त्री हाराधन यन्त्रकार की आत्मा की सच्ची तसवीर उपस्थित कर दी।…

घुघलू स्टोव जलाकर चाय की तैयारी में व्यस्त था। बीच-बीच में अपने उस्ताद की बातों में टीप के बन्द की तरह अपनी राय टाँक देता—महादेवलालजी तबलिया हारा हैं, आदमी नहीं।…खाँ साहब तो दाता पीर ही थे; पाकेट से मुट्ठी-भर नोट निकालकर ‘परबी’ देते थे।…मुन्नूजी सरंगिया मुझसे बहुत नाराज़ है उस दिन से।…

घुघलू चाय दे गया। चाय की पहली चुस्की लेने के बाद हाराधन यन्त्रकार ने कहा, ‘‘यन्त्रकार कहो या कारीगर। बेसुरा नहीं कह सकता कोई।…यह तो अपने किए का फल भोग रहा हूँ खुकी! बेजान लकड़ी, तार तथा सूखे चमड़े पर सुर चढ़ाकर जीवन बिताने के सिवा और क्या चारा है अब? शापित जीवन बिता रहा हूँ।…तुम मेरी नातिन की उम्र की हो। विश्वास करोगी, मैं भी गाता था।…मेरी आवाज सुनकर हिरणों के झुंड दौड़े आते थे।…’’

यन्त्रकार ने फिर अपनी अटैची के ढक्कन को उठाया। कुछ ढूँढ़ता हुआ बोला, ‘‘मैं जानता हूँ, तुम विश्वास नहीं कर रही हो। खोलकर कहना होगा।…जीबछपुर स्टेट के राजा जीवत्सनारायण देवज्यू का नाम सुना है? शिकार के अनुभव पर एक मोटी और मशहूर किताब लिख गए हैं अंग्रेजी में। उसमें देखना…पब्लिक लायब्रेरी में है वह किताब…देखना, पृष्ठ बारह, बाईस, चालीस और पचपन में मेरा ज़िक्र है। ग्रुप तसवीर में मुझे देखकर नहीं पहचान सकता कोई अब!…राजा साहब शिकार के अलावा संगीत की भी चर्चा करते थे। उनकी शिकार पार्टी में जेफरी कॅर्डाइन 333-बोर रायफल के साथ सितार की भी आवश्यकता होती। तीन-चार बड़े उस्ताद और दर्जनों शिष्य उनकी ड्योढ़ी में पलते थे। मेरे गुरुजी पंडित शिवबालक झा उसी दरबार के गायक थे।…’’

गीताली ने अपनी घड़ी देखी। घुघलू इस बार एक गिलास में चाय बनाकर ले आया। बोला, ‘‘इस कथा को सुनाते समय मेरे उस्ताद इसपिसल चाय पीते हैं।’’

जेब से एक गन्दा रूमाल निकालकर गिलास में लपेटते हुए यन्त्रकार ने गीताली की ओर देखा—‘‘खुकी, तुमको देर हो जाएगी, फिर किसी दिन सुना दूँगा कि कैसे हिरणों के झुंड दौड़ते आए थे।…’’

गीताली हँसी थी—‘‘आधी कहानी सुनने से आधे सिर में दर्द होता है।’’

‘‘सुनने से या सुनाने से? जो भी हो, मैं निश्चिन्त हूँ। सिर-दर्द से डरें सिरवाले। हम पेटवाले हैं!…’’

गीताली फिर हँसी।…जब-जब गीताली हँसती, यन्त्रकार की दाहिनी कनपटी के पास की चमड़ी नाचने लगती। झुर्रीदार विकृत चेहरे पर एक चमचमाहट छा जाती।

‘‘तो सुनो।…’’

…उस बार गुरु ने कृपा की दृष्टि हाराधन पर भी फेरी। शिकारपार्टी में साथ चलने का आदेश दिया। अब, जंगल में मंगल मनाने की कितनी कहानियाँ सुनाए हाराधन! लिखने से एक मोटी किताब तैयार हो सकती है।…राजा साहब असली शिकारी थे।

…नेपाल की तराई के मधुमारा जंगल में किरात-सरदार ने चीतलों का शिकार करके दिखाया था।…तराई के जंगलों के बीच थोड़ी-सी खुली जगह, जिसको ‘ग्लेड’ कहते हैं अंग्रेजी में! चाँदनी जहाँ लम्बे-लम्बे शाल-वृक्षों की फुनगियों पर टँगती नहीं रहती, श्यामल-मसृण घास पर बिछ जाती है। पास ही बहती हुई पहाड़ी नदी, जो कलकल-कुलकुल नहीं करती। हवा फुसफुसाकर बात करती है।…चाँदनी, चैत की! प्रकाश में एक ठूँठ विस्मित-सा खड़ा है। छाया में कोई इशारे से कुछ कहता है और सारी तराई में, तराई के जंगलों में एक दर्द-भरी पुकार मँडराने लगी।…कामातुरा हिरणी की पुकार! नदी के शीतल जल से प्यास बुझाते हुए चीतलों के मन-प्राण में एक दूसरी प्यास जल उठती है, दपदपाकर। हिरणी रह-रहकर पुकार उठती है।…चाँदनी में नर चीतलों के झुंड दिखाई पड़े।…हर चीतल की देह के चकत्ते स्पष्टतर हो जाते हैं। प्रकाश में खड़ा ठूँठ विस्मय अथवा आवेश से हिलता-डुलता है। छाया में फिर कोई इशारा करता है—सिस्-सिस्!…फिर चाँदनी में तारों की चमक…खच्च-खच्च…!

…इसके बाद, मृत-प्रेमियों की लाशों से अपना-अपना तीर खींचकर किरातों के दल नाचने लगे—हा-हिरा-हा-हिरा-हा-हिर्र-र-र-र–ा-ा!

…एक मादा-चीतल को बचपन से पालकर, नकली पुकार पुकारने की बाज़ाब्ता शिक्षा दी जाती है। उस्ताद हिरणी के गले के नीचे उँगलियों से फुरहरी लगाता रहता है और हिरणी समय-असमय पुकार उठती है।

…इस शिकार को देखने के बाद राजा साहब अस्वस्थ हो गए थे। पता नहीं, उन्होंने इस पद्धति से फिर कभी शिकार किया या नहीं, हाराधन के सिर पर इस शिकार का भूत सवार हो गया था किन्तु कामान्ध चीतलों की चीख, कराह, छटपटाहट और दम तोड़ना देखकर उसके अन्दर का किरात आनन्द से किलकिला उठा था!…संगीत-साधना छोड़कर हाराधन किरात-सरदार के पास भाग गया।

…हर साल चैत की चाँदनी रातों में तीन-चार बार यह शिकार होता है। शिक्षिता-मादा-चीतल के साथ उसके शिक्षक की भी पूजा करते हैं किरातगण। ऐसी हिरणी बहुत कीमती और अलभ्य सम्पत्ति समझी जाती है।…साल-भर तक हिरण

के मांस का सुखौता, आग में भूनकर खाते समय हर किरात ‘हा-हिस’ कहकर

उसको स्मरण करता है।…उस बार तीनों-चारों शिकारों में हाराधन किरातों के

साथ रहा। साल-भर किरातों के साथ रहकर भी वह मादा-चीतल को शिक्षा देने का भेद न सीख सका। एक नम्बर पहाड़ के जितने भी पहाड़ी गाँव थे, उन सभी गाँवों के बीच बस एक ही मादा-चीतल थी और उसका मालिक ही एकमात्र गुणी। मूलधन हिरणी!

…किन्तु हाराधन ने इस मूलधन को सस्ता कर दिया, अपनी साधना से। मादा-चीतल की क्या आवश्यकता? हाराधन कामातुरा मादा-चीतल की तरह पुकार सकता है।…किरात-सरदार ने परीक्षा के लिए शिकार का आयोजन किया। चैत की चाँदनी ही क्यों, जब चाहो तब शिकार करो। बारहों महीने…।

…चाँदनी रात! रात का अन्तिम पहर…ब्राह्मवेला में हाराधन ने पहली पुकार दी थी—अविकल-नकल!…चतरागद्दी के पास, कोसी के किनारे की सफेद-हरी भूमि पर दर्जनों चीतल दौड़ आए थे।…खच्च-खच्च…!

…हाराधन की पूजा होने लगी, एक नम्बर पहाड़ में। इलाके की सबसे अधिक सुन्दरी उसकी सेवा में तैनात हुई।…किरात-सरदार उसकी जान का दुश्मन

हो गया।… उस बार भीषण भूकम्प हुआ था—1934, जनवरी। भूकम्प के तीसर

दिन सभी किरातों ने स्वीकार कर लिया—यह दैवी कोप हाराधन के कारण ही हुआ है।

…भगवती की कृपा! नारी की कृपा से उसकी जान बची।…मृगचर्म बगल में दबाए गुरु की सेवा में उपस्थित हुआ। गुरु के सामने, राजा साहब के बाग में अपने कंठ की कला प्रस्तुत करके एक नई विपदा की सृष्टि कर दी उसने।…उस बार चीतल का शिकार देखकर राजा साहब किसी मानसिक रोग के शिकार हो गए थे। बहुत दिनों तक इलाज होने के बाद कुछ स्वस्थ हुए ही थे कि हाराधन की पुकार सुनाई पड़ी। राजा साहब फिर अस्वस्थ हो गए।…पुराने शिकारी थे! आवाज़ सुनते ही चीख़ पड़े—वही, वही मादा-चीतल, छलिनी हिरणी, डायन स्पॉटेड डियर, चित्रा…! एक्सप्रेस-500 रायफल हाथ में लेकर शब्द-भेदी निशाना लेकर प़$ायर किया। हाराधन अपनी पुकार के सम पर आ ही रहा था…उसके गुरु पंडित शिवबालक के कलेजे में एक सॉफ्ट नोज़्ड एक्सपैडिंग बुलेट आकर घुस गया। हाराधन के गुरु शिष्य द्वारा समर्पित मृगचर्म पर बैठे थे।…चीतल के चमड़े पर आज भी खून के दाग हैं।…हाराधन भागा। जहाँ जाता, ऐसी ही अघटक घटनाएँ घटने लगीं।

कान पर हाथ रखकर हाराधन ने आँखें मूँद लीं। बोला, ‘‘तब से, तभी से, गले में एक कर्कश धातव खनक पैदा हो गई।…मैंने वाणी को कलंकित जो किया था!…सुर बाँधने का काम करने लगा। लेकिन…लेकिन…!’’

घुघलू एक पुराना मृगचर्म ले आया अन्दर से। यन्त्रकार ने कहा, ‘‘यह उस चंचल युवा नर-चीतल की खाल है जो चार-चार तीर सीने पर खाकर भी मेरे पास पहुँच गया था। मेरे सामने इसने अपनी टाँगें फेंक-फेंककर जान दी थी। गुरुजी इसी पर बैठे थे, क्षण-भर!’’

हाराधन यन्त्रकार ने मृगचर्म को उठाकर श्रद्धापूर्वक सिर छुवाया। फिर गीताली के सामने रखकर बोला, ‘‘उस स्वर्ण-मृग का क्या नाम था, मारीच?…और सीताजी को उस मृगचर्म पर बैठने की वासना या लालसा ही क्यों हुई? रामायण में कहीं है लिखा हुआ कुछ?…कोई साधना करने के लिए ही, सम्भवतः!’’

हाराधन यन्त्रकार ने नेपाल तराई की श्यामल वन्य भूमि, वहाँ की हरी-भरी माया की डोरी से अपनी कथा को बाँधते हुए कहा था, ‘‘खुकी!…नातिन ही कहूँगा अब, नाना मानती हो तो! अच्छा, अच्छा! कल भी आओगी? बहुत अच्छा…’’

दूसरे दिन भी गई, गीताली। यन्त्रकार ने मिलते ही गीताली की हथेली देखने की इच्छा प्रकट की। गीताली ने अपने दोनों हाथों की तलहथी फैला दी। ‘‘…हूँ-ऊँ! तुम्हारी दीदी मीताली जो कुछ नहीं कर सकी, वह तुम्हारे द्वारा सम्भव होगा। निश्चय!’’ गीताली ने देखा, यन्त्रकार उसकी दीदी के संगीत-जीवन की छोटी-बड़ी बातोें के अलावा जीवन की छोटी-बड़ी घटनाओं से भी वाकिफ है। यन्त्रकार ने कहा था, ‘‘नातिन, बुरा मत मानना। तुम्हारी दीदी ने उस टमाटर-जैसे आदमी से ब्याह करके सबकुछ नष्ट कर दिया।…ऐसे खटमल को देखा है जो खून चूसकर लाल-गोल बूँद जैसा हो जाता है? खटमल ही है वह व्यक्ति! तुम्हारी दीदी का सबकुछ चूस लिया।…क्या? साहित्यिक है? वह क्या बला है…?’’

बातचीत के बीच में कभी-कभी यन्त्रकार ऐसे ही उखड़ी-उखड़ी बातें करने लगते हैं। अपने जमाय बाबू की टमाटर और खटमल से तुलना सुनकर उसे ज़रा भी दुख नहीं हुआ। उसने सहमति में अपनी गरदन हिलाई—‘‘ठीक कहते हैं आप! बला ही है।…दीदी भोग रही हैं। तिल-तिल कर मर रही हैं।…’’

संगीत-जगत् से दिलचस्पी रखनेवाले लोग असमय में विलुप्त हुई मीताली की प्रतिभा के लिए विभिन्न जनों को दोषी मानते हैं। कोई उनके गुरु का दोष बताता है, कोई उनके अकाल-मातृत्व की दुहाई देता है, किन्तु मीताली के पति की ओर कोई उँगली तक नहीं उठाता…जबकि दीदी की जिन्दगी में घुन इसी व्यक्ति ने लगाया।… ‘शुचिबाय’, पवित्रता का वहम!…जमाय बाबू को ‘विशुद्ध’ बोलने का मुद्रादोष है। अशुद्ध? विशुद्ध…संकुचित मुख-मुद्राएँ!…दीदी अब बाथरूम में ही गाती हैं। हाथ की उँगलियों की और तलहथी की चमड़ी हमेशा पानी में रहने के कारण सिकुड़ी रहती है।…दिन-भर कपड़े धोती हैं।…

घुघलू भी पहचानता है मीताली दी को। बात में फोड़न देते हुए बोला, ‘‘जिस आसर (महपि़$ल) में मीताली दी का प्रोग्राम होता था, उसमें एकाध बार लाठी ज़रूर चलती थी। भीड़ पर।…क्या हो गया?…’’

होगा क्या? उनके पतिदेव संगीत सुनकर ही मुग्ध हुए थे। संगीत में भी ठुमरी! मीताली दी की ठुमरी में कुछ ऐसी विशेषताएँ थीं, जिनके कारण, उन दिनों मीताली-ठुमरी नाम की एक नई धारा ही प्रचलित हो गई थी। विवाह के बाद सर्वकला-मर्मज्ञ पतिदेव ने प्यार से समझाया—‘‘मीताली रानी, ठुमरी ही गाती हो तो विशुद्ध ठुमरी गाओ।’’ पतिदेव की इच्छा! फिर क्या, दीदी धीरे-धीरे एक राग-विशेष के आश्रय में रियाज़ करने लगीं।…लखनऊ और बनारस की ठुमरी बिना किसी मिलावट के सुनाने लगीं।…गुरुजी ने विरोध किया था। उन्होंने मीताली दी के पति को समझाने की चेष्टा की थी—‘‘ठुमरी को आंचलिक संगीत के प्रवाह ने ही अब तक पुष्ट किया है। ख़याल की अनुगामिनी मात्र नहीं है। देहाती सुर से समन्वित ठुमरी, उस्ताद बड़े…।’’

‘‘बड़े-बड़े उस्तादों की बड़ी-बड़ी बोलियाँ मत सुनाइए पंडितजी! मैं ठुमरी का इतिहास जानता हूँ।…सवाल है विशुद्धता का!…ठुमरी के नाम पर वर्णसंकर चीज़ें सिखानेवालों को मैं संगीतज्ञ नहीं मानता।…’’

मीताली दी खड़ी गुरु की प़$ज़ीहत देखती रहीं। कुछ बोली नहीं!

अब तक मीताली दी अपनी काप़$ी या खम्माच की ठुमरी में कभी कीर्तन, कभी भठियाली और कभी पूर्वी का स्पर्श लगा देती थीं। उनकी प्रसिद्धि का एकमात्र रहस्य यही था। मूल राग से आँख-मिचौली खेलती हुई छोटी-छोटी आंचलिक रागिनियाँ अजाने ही श्रोताओं को मोह लेतीं।…मीताली दी ने निर्दयतापूर्वक उनका परित्याग किया।…‘‘क्या सुबह-सुबह बाजूबन्द खुलि-खुलि जाय खुलि-खुलि जाय…! मीताली रानी! बन्द करो, भगवान के लिए।’’…ठुमरी बहुरूपी…! जिस बेसेंट-हॉल में उनकी प्रतिभा का उदय हुआ था, उसी मंच पर अस्त भी हुआ। गीताली कैसे भूल सकती है उस रात को। उस दिन गीताली के घर मातम छाया हुआ था। गुरुजी फूट-फूटकर रो रहे थे…शरदोत्सव संगीत-समारोह में मीताली दी अलाप के अंग को पूरा भी नहीं कर पाई थीं कि हॉल में कुत्ते-बिल्ली की बोलियाँ प्रतिध्वनित होने लगीं। तरह-तरह की फब्तियाँ—‘‘मेटेरनिटी सेंटर में भेजो!…कंडेम्ड-माल बंडल!…’’

तीन दिन के भूखे-प्यासे हारे गुरुजी के सामने गीताली ने प्रतिज्ञा की थी। उसी दिन गीत-व्रत लिया था गीताली ने। सरल-सुगम-सहज-संगीत को स्वतन्त्र मर्यादा दिलाएगी!…मीताली दी की परित्यक्ता रागिनियों को उदारतापूर्वक आश्रय दिया उसने।…

रेडियो से समाचार प्रसारित होने लगा तो गीताली को समय का ज्ञान हुआ। वह चुपचाप बैठकर यन्त्रकार को काम करते देख रही थी। यन्त्रकार आँखें मूँदकर बैठ गया।…समाचार सुनते समय वह इसी तरह आसन लगाकर बैठता।…‘‘विशाल विश्व-यन्त्र को स्पर्श करने का सुख अनुभव करता हूँ, समाचार सुनते समय! समझी नातिन!…’’

इसके बाद घुघलू ने रेडियो बन्द कर दिया। गीताली के तानपूरे को गोद में लेकर यन्त्रकार ने कहा, ‘‘देखती है, इसमें सिपऱ्$ चार ही तार हैं। किन्तु इन्हीं चार तारों से सात स्वर उत्पन्न होते हैं।…तुम्हारी दीदी ने सहायक नाद की उपेक्षा की। तुम ऐसा न करना। सौभाग्य से यन्त्र तुम्हारा उत्तम है।…’’

इसके बाद यन्त्रकार गीताली के तानपूरे से उलझ गया। ‘‘…‘प’ स्वर में बँधेहुए तार से ‘ध नि रे’ ही सहायक नाद के रूप में झंकृत होगा। ‘सा रे ग म’ क्यों?…और इसी के साथ तुम अखिल भारतीय सुर-संगम-समारोह में भाग लेने जा रही थीं? राधे-राधे!…

गीताली को राधेश्याम की याद आई, राधे गिटारिस्ट! जो प्रतिभा विकसित होने के पहले ही शेष हो जाए, उसके लिए किसको दुख नहीं होगा…पँचरंगा जैकेट और तलवारकट मूँछें! उन दिनों गीताली के घर बहुत आता-जाता था। गीताली के कई गीतों के साथ उसने संगत भी की थी।…उस दिन यन्त्रकार के यहाँ से लौटी तो राधेश्याम प्रतीक्षा में बैठा हुआ था, जाने कब से। माँ रामकृष्ण आश्रम में कीर्तन सुनने गई थी।…राधेश्याम! राधेश्याम के चेहरे को उसने गौर से देखा था। यन्त्रकार के कथनानुसार हर कलाकार के मुख-मंडल के इर्द-गिर्द सुरलहरी काँपती रहती है। सिम्प़$नी कन्सर्ट के कंडक्टर मिस्टर रैंकिन को पहली बार देखते ही हाराधन यन्त्रकार ने उसके चेहरे के आसपास लहराती हुई सुर-लहरी को देखा था। ‘सी’ माइनर से ‘ई’ फ्लैट…पियानो, हॅर्न, ओबो…क्लारिनेट…।

राधेश्याम के मुख-मंडल के पास सुर-लहरियाँ लहरा रही थीं। वह पीकर धुत्त था। गीताली की चुप्पी का ग़लत अर्थ लगाकर उसने लड़खड़ाती हुई आवाज़ में कहा था—‘‘डा-र्लि…! डि-ड्-डि-डि-डि-डा-डि-डा-डि-डा-आ-आ!…गी-टा ली, माई गिटा-आ!’’…अकराम के ‘अर्चना के बोल’, शंख-घंटाध्वनि, धूप-गन्ध…राधेश्याम की गिटपिटाई बोली और शराब की गन्ध!…गीताली के सबसे छोटे भाई की उम्र का यह राधेश्याम!

इतनी हिम्मत इसकी। गीताली चुपचाप अन्दर चली गई थी।…

राधेश्याम से पीछा छुड़ाया, तो जमाय बाबू के एक मित्र का आविर्भाव हुआ। गीतकार थे। जीजाजी के शिष्य थे।…उन्होंने गीताली की ज़िन्दगी के सभी गीतों का ठेका लेने की बात चलाई।…‘‘कहो तो दिन में पाँच मधुर गीतों की रचना करके दिखा दूँ। तुम गीत-गीत की पंक्ति-पंक्ति में तीन बिन्दियों-सी बिखरी हो, सजनी-ई-सजनी-ई, तुम…!’’

राधेश्याम एकाध पि़$ल्मी धुन को लेकर जी रहा था। जमाय बाबू के गीतकार शिष्य को कोई सजनी मिल गई होगी!…

अकेली गीताली! गीत गूँथती, सुर देती, गाती।…दस वर्ष से गा रही है। यन्त्रकार ने एक और बात बताई थी—‘‘गन्ध! गीतों से गन्ध का परिवेशन कर सको, ऐसी साधना करो!…’’

तीसरे दिन यन्त्रकार का मूड बदला हुआ था। घुघलू बाहर था। गीताली चुपचाप कमरे के कोने में बैठ गई। अखिल-भारतीय-सुर-संगम-समारोह की अन्तिम तिथियों की घोषणा हो चुकी थी। गीताली ने यन्त्रकार से कहा, ‘‘नाना, आशीर्वाद दीजिए! निमन्त्रण मिला है।’’

घुघलू एक दोने में घुघनी और कचरी ले आया। देखते ही यन्त्रकार का मूड सुधर गया। अन्दर से गीताली का तानपूरा ले आया घुघलू। बहारदार खोल से निकालकर गीताली की ओर बढ़ा दिया यन्त्रकार ने—‘‘लो! सुधर गया है। सबको सुधार देगा! इसकी पूजा नहीं, तो इज़्ज़त ज़रूर करना!’’

गीताली ने उँगलियों से तारों का स्पर्श किया। हाराधन यन्त्रकार ने इधर-उधर देखकर कहा, ‘‘मेरी एक बात मानोगी? अपनी उँगलियाँ छूने दोगी?…हाँ-हाँ…नातिन को अचरज हो रहा है कि बूढ़े की यह क्या आदत, कभी तलहथी देखना चाहता है, कभी उँगलियाँ छूना चाहता है। हो-हो?…’’ गीताली की उँगलियों को उसने अपने सिर से छुलाते हुए कहा, ‘‘मुझे भय था, तुम्हारे नाखून काटने का ढंग गलत तो नहीं!’’…उँगलियाँ पकड़े ही हँसकर पूछा था, ‘‘की नातनी? मने की बाजछे? क्यों? क्या बज रहा है मन में? क्या कहता है मन? किस सुर में…’’

उस दिन गीताली ने हँसकर जवाब दिया था—‘‘कहो, कोई अजानी रागिनी तो नहीं बजती!’’…किन्तु आज?…आज वह सुनती है स्पष्ट—ऐसी रागिनी, जिसको वह बाँध नहीं पाती।…उसका यन्त्र नहीं हारता, वह हारने लगती है।…कहाँ है यन्त्रकार? है या…?

उस बार अखिल भारतीय-सुर-संगम-समारोह में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने के बाद ही नाना हाराधन यन्त्रकार को प्रणाम करने गई थी!…सुनकर अवाक् हो गई, घुघलू-सहित हाराधन यन्त्रकार फरार है। सुर-मन्दिरवालों ने औज़ार-पाती तथा बहुत-सी चीज़ों की चोरी का इल्ज़ाम लगाकर रपट की है।…इसके बाद, दस वर्ष हो रहे हैं।…‘नाना, मैं तुमको नानाधन कहूँगी। नानाधन! तुम अपना मृगचर्म मुझे दो। मैं इस पर बैठकर साधना करूँगी।’…‘करोगी?…करोगी? डरती नहीं? इस अशुभ मृगचर्म से तुम्हारा कोई अशुभ न हो जाए!’…मृगचर्म को सिर से छुवाकर, गीताली ने एक ओर रख दिया।…खून के धब्बे…डॉट-डॉट-डॉट!…

दस वर्ष बाद, आज नाना हाराधन यन्त्रकार को स्मरण करते समय मन इमन के पद-विन्यासों का व्यवहार कर रहा है।…गीताली अब स्वयं को एक यन्त्र समझती है। किसी अनचीन्हे की उँगलियाँ उसे छेड़ जाती हैं बार-बार!…अलख-मुखर-जगत् के व्यापार में बाधा पड़ी। तीनों जलती हुई बिन्दियाँ बुझ गईं। दरवाज़े पर डाकिया पुकारकर चिट्ठियाँ दे गया।…कुमारी गीताली दास…‘गीत महल’…!

हे देव!…हे देवी…यह क्या? यह सपना तो नहीं?…क्या यह सच है? भारत-प्रसिद्ध सितारवादक अकराम का प्रणय-निवेदन-भरा पत्र है यह तो!…शंख-घंटा-ध्वनि…धूप-गन्ध! अर्चना के बोल!…विलम्बितद्रुत!…यह कैसे सम्भव हुआ? दस वर्ष से छिपी हुई बात फैल गई!…माँ!…

अकराम के खत में स्वर है! इसकी पंक्तियाँ झनक रही हैं।…शंख और घंटाध्वनि के बीच अकराम का कंठ-स्वर सुनती है गीताली! चिरसंगी तानपूरे का सहारा लेती है वह। दोनों हाथों से जकड़कर पकड़ती है।…चारों तारों से अकराम का कंठ-स्वर प्रसारित होता है!…‘गीताली! गीताली…मैं हूँ अकराम। पिछले आठ साल से सुन रहा हूँ, सुन रहा हूँ क्यों, उपभोग कर रहा हूँ तुम्हारे गीतों की गन्ध।…धान कूटती हुई, चक्की चलाती हुई, ढोर चराती हुई, सुन्दरियों की देह की नमकीन गन्ध, धान के खेतों की, पोखर और घाट पर पानी भरती हुई सुन्दरियों के आँचल की…गन्ध…सुगन्ध…किसी वनफूल की…सुरभिमय गीतों की गायिका ने मेरी घ्राण-शक्ति तेज़ कर दी है।…मैंने गीत-गन्धा और गीताली-गंगा नामक दो गतों की रचना की है।…उस दिन, किन्तु तुमने कंजूसी की है, या…? ऐसा न करो। मैं तुम्हारे कंठ से अभी तक अनगाए गीतों का अवतरण कराऊँगा। गीत-गन्धा! मैं अपना सौभाग्य समझूँगा तुम्हारा साथ…’

और यह दूसरी चिट्ठी भी बोलती है खनकवाली आवाज़!…खोए नानाधन-हाराधन… ‘ओ-गो नातिन! शिव प्रसन्न हुए हैं। आँखें खोलो।…पिछले सप्ताह, तुमको सुनने के बाद ही मेरे घर दौड़ा आया मास्टर! तुम्हारी नातिन का दिल छोटा हो रहा है या दिल चुरा रही है? लेकिन तुम्हारी चीज़ की गरमी उसकी रगों में उतरी हुई थी। बड़बड़ाने लगा मास्टर। आज तुम्हारी नातिन कचनार के पेड़ के नीचे घड़ा-भर मधु लेकर बैठी थी, गीत की किताब भी थी…किन्तु…अनेक किन्तु बोल गया…कृन्तण…यह छटपटा रहा है नातिन!…क्यों, मन में क्या बज रहा है…बाहर वसन्त? स्वयम्भू नाद की कृपा है सब! जाति-विचार? शिल्पी की जाति?…ग्राम-जाति-वादी-संवादी आदि राग को परखने के समय!…’

तीसरा ख़त गूँगा है!…पिछले तीन साल के शुभ अवसरों पर कलापूर्ण कार्ड आँककर भेज रहा है…कलाकार। रामकृष्ण आश्रम के वार्षिकोत्सव में मंडप और वेदी आदि की रचना करके मनहर राय ने सभी का मन मोह लिया था।…गीताली वेदी के पास घंटों चुपचाप खड़ी रह गई थी…क्षमा करना मनहर, गीताली चिर-ऋणी रहेगी तुम्हारी।…तुम चाहते तो गीताली अपना सारा रंग लुटा सकती थी।…तुमने उन क्षणों का दुरुपयोग नहीं किया।…तीन वर्ष! तीन शून्य…गुमसुम रहे तुम, सब दिन। कलाकार!…गीताली सुरजीवी है। दस वर्ष पूर्व ही वह किसी के सुर में बँध चुकी थी।…फिर भी, तुम कुछ बोलते…। आज भी तुम्हारा खत कुछ नहीं बोलता।…अकराम शंख-ध्वनि कर रहा है…प्यारे मनहर!…अकराम! प्यारे अकराम! तुम कितने बड़े गुणी हो! तुमने कैसे जान लिया सबकुछ!…गन्ध? महाराज, ये तुम्हारी ही कृपा के फल हैं। ‘अर्चना के बोल’ सुनते समय मुझे जो धूप की गन्ध लगी थी! तुम्हीं ने यह गन्ध-परिवेशन किया है प्रथम बार! तुम्हारी ही चीज़, तुम्हीं को…! लो, मैं यन्त्र हूँ! तुम्हारी हूँ! मुझे बजाओ, धन्य करो!…

गीताली ने पास पड़े तानपूरे के तारों को छूकर झंकृत कर दिया। मूल नाद से नौगुन ऊँचाई पर सहायक नाद उत्पन्न हुए।

…तुमने सुना होगा अकराम…नानाधन…घुघलू बैंड पार्टी में हॉर्न बजाता है…तुम सभी ने सुना…! गीताली अकराम के गले में गीतमाला डाल चुकी!…‘ए’ माइनर का तीव्र सुर…‘एफ’ मेजर का आनन्दोल्लास!…

गीताली ने परमहंस देव को नमस्कार किया। परमहंस देव के कथामृत से ध्वनि निकली—‘मानुषेर मन जेन सरषेर पुटली।’…आदमी का मन मानो सरसों की पोटली!

गीताली की आँखों से आँसू झर पड़े। कंठ से एक अजानी रागिनी फूटकर निकल पड़ी।…

अलख-मुखर-जगत् में अकराम की पगध्वनि सुन रही है गीताली!…

(1957)