तीन लोक से न्यारी / बना रहे बनारस / विश्वनाथ मुखर्जी
बनारस में जो एक बार आया वह यहीं का हो गया। बनारस की मिट्टी में वह तासीर है कि जो यहाँ आकर बसा, वह ‘रामनाम सत्य है’ के ‘मन्त्रोच्चार’ में ही टलने की सोचेगा। यह सिफत यहाँ की आबोहवा में है और मस्ती भरी जिंदगी में है। शायद इसीलिए शेख अली हजीं फरमा गये हैं-
अज बनारस न रवम मअवदे आम अस्तईज।
हर बरहमन पेसरे लछमनो राम अस्तईज॥
परी रूख़ाने बनारस व सद करिश्मो रंग।
पथ परात्तिशे महादेव चूँ कुनन्द आरंग॥
व गंग गुस्ल कुनंद व बसंग या मालंद।
जहे शराफते संग व जहे लताफते गंग॥
अर्थात - 'मैं बनारस से नहीं जाऊँगा, क्योंकि यह सबकी उपासना का स्थान है। यहाँ का प्रत्येक ब्राह्मण राम और लक्ष्मण है। यहाँ परियों जैसी सुन्दरियाँ सैकड़ों हाव-भाव के साथ महादेवजी की पूजा के लिए निकलती हैं। वे गंगा में स्नान करती हैं और पत्थर पर अपने पैर घिसती हैं। क्या ही उस पत्थर की सज्जनता है और क्या ही गंगाजी की पवित्रता।
आज भी किसी बनारसी से आप यह सवाल पूछें कि आखिर बनारस में ऐसी कौन-सी सिफत है जिससे तुम्हें इतनी मुहब्बत है तो वह यही कहेगा कि हिन्दुस्तान में तमाम बातें मिल सकती हैं, पर बनारस जैसी अलमस्ती और बनारसियों जैसा अपनत्व नहीं मिलेगा, फिर ‘बहरी अलंग’ की बहार के लिए तो देवताओं तक की जिह्वा से तरलता छूटती है! जी जनाब, ऐसा है अपना बनारस!
बहरी अलंग क्या है?
बहरी अलंग वह ‘स्वर्ग’ है जहाँ जाने पर वह भावनाएँ उत्पन्न होती हैं जो हिलेरी के मन में एवरेस्ट पर पैर रखते वक्त उत्पन्न हुई थीं। इसका यह अर्थ नहीं कि बनारसी लोग वैराग्य की साधना के लिए वहाँ जाते हैं, नहीं, वे तो पूरी पलटन रेजगारियों (बच्चों) के साथ जीवन का आनन्द लेने के लिए जाते हैं।
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गये, सबके दाता राम॥
इस सिद्धान्त का पालन प्रत्येक बनारसी करता है। भले ही घर में चूहे डंड पेलते हों, पर बहरी अलंग जाने का निश्चय खंडित नहीं हो सकता। हड़ताल हो या मार्शल-लॉ, राजा मरे या रानी, अगर उस दिन किसी कारणवश दफ्तर या दुकान बन्द है तो बैठे-ठाले वह सीधे बहरी अलंग जाने का प्रोग्राम बनाएगा। जिस प्रकार रोजगारियों को सफर करते समय भी घाटा-मुनाफा जोड़ने की झक सवार रहती है, नेताओं को हर बात में राजनीति घुसेड़ने की सनक सवार रहती है, ठीक उसी प्रकार हर खाँटी बनारसी को बहरी अलंग जाने की धुन सवार रहती है। सच पूछिए तो बहरी अलंग न तो कोई तीर्थस्थल है और न म्यूजियम, वहाँ न तो कोई सरकारी अतिथिशाला है और न दर्शनीय स्थल। वह है केवल बनारसियों के मौज-पानी लेने का दिव्य स्थल। यहाँ गुरु लोग जरा स्वच्छन्द होकर विचरण करते हैं।
बहरी अलंग उन्हीं क्षेत्रों को कहा जाता है जहाँ पक्का तालाब हो और उस तालाब में चौरस पत्थर के घाट हों, जिस पर प्रेम से साफा लगाया जा सके। अगर तालाब नहीं है तो फर्स्ट क्लास का कुआँ हो, आस-पास घने वृक्ष हों। निपटने लायक लम्बा-चौड़ा मैदान हो जो अत्यन्त स्वच्छ हो, वरना भाई लोगों की ठीक वैसी ही मुद्रा हो जाती है जैसी अफीमची की इमली देखकर हो जाती है।
बनारसी निपटने के अत्यन्त प्रेमी होते हैं। भोजन चाहे जैसा मिले, सोने की जगह कंडम हो, पर निपटने का स्थान दिव्य होना चाहिए। साफा लगाने लायक चौरस भूमि चाहिए। अगर उसे इन दोनों स्थानों की कमी अखरी तो वह बराबर असन्तुष्ट रहेगा। भले ही उसे मीलों का चक्कर लगाना पड़े, पर उसे दिव्य स्थान चाहिए। यही वजह है कि बनारसी लोग जब बनारस के बाहर जाते हैं तब निपटने-नहाने के दिव्य स्थान ही तजवीजते हैं।
मुख्य कार्यक्रम
सारनाथ, रामनगर के अलावा और जितने बहरी अलंग के क्षेत्र हैं, वहाँ पलटन लेकर लोग नहीं जाते। वहाँ केवल नेमी लोग जाते हैं। कुछ लोग गहरेबाज पर जाते हैं और कुछ दौड़ लगाकर। जिस प्रकार किसी-किसी संस्था के सदस्य एक खास किस्म की पोशाक पहनते हैं, ठीक उसी प्रकार बहरी अलंग के प्रेमी भी सेनगुप्ता की धोती, गावटी का गमछा, लँगोट या बिश्टी और वृन्दावनी दुपट्टे का प्रयोग करते हैं। धोती-दुपट्टा न रहे तो कोई हर्ज नहीं, पर गमछा और लँगोट का रहना जरूरी है। आवश्यक सामानों में लोटा, बाल्टी, डोरी, लोढ़ा (सिल वहाँ मिल ही जाती है), साबुन की बट्टी, तेल की शीशी और विजया का पैकेट प्रत्येक प्रेमी अपने साथ रखता है।
बहरी अलंग पहुँचते ही लँगोट के अतिरिक्त नंग-धड़ंग होकर पहले भाँग को ख़ूब साफ कर बूटी तैयार कर ली जाती है। बूटी छानने के पश्चात नटई तक (आकंठ) पानी पीकर हँड़िया या बाल्टी लेकर लोग निपटने जाते हैं। उनके निपटने की क्रिया अध्ययन करने योग्य है। घंटा-आधा घंटा निपटना साधारण बात है। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो कई घंटे तक निपटते ही रह जाते हैं।
निपट चुकने के बाद एक-दूसरे की मालिश तब तक करते रहेंगे जब तक बदन का टेम्परेचर सौ डिग्री से ऊपर न पहुँच जाए। इसके बाद स्नान करते हैं और तब हजार-पन्द्रह सौ डंड-बैठक करते हैं। अगर गदा जोड़ी खाली मिली तो उस पर भी रियाज कर लेना अच्छा समझते हैं। अगर ये साधन खाली न मिलें तो तब तक ‘बाँह’ करते रह जाएँगे जब तक वह खाली न हो जाए।
जिस प्रकार हम एक ही प्रकार का भोजन नित्य खाते-खाते ऊब जाते हैं तब एक दिन सरस भोजन खाने की इच्छा होती है, ठीक उसी प्रकार वर्ष में दो बार निश्चित रूप से हर बनारसी अपने परिवार को लेकर सारनाथ और रामनगर अवश्य जाता है। इन दोनों स्थानों के मेले देखने योग्य होते हैं। परिवार के साथ रहने पर भी गुरुओं के कार्यक्रम में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती। उसी तरह से भाँग छानते हैं, साफा लगाते हैं और नहाते-निपटते हैं। यहाँ सब काम से खाली होने पर बाटी, चूरमा, दाल, भात और फर्स्ट क्लास की तरकारी खाते हैं। भोजन का यह मजा दिल्ली के अशोक होटल में और बम्बई के ताजमहल में भी दुर्लभ है।
दंगल के प्रेमी
बहरी अलंग का ही ऐसा प्रभाव है कि बनारस में आए दिन दंगल की प्रतियोगिता होती है। नागपंचमी का पर्व भारत में चाहे जिस ढंग से मनाया जाता हो, पर यहाँ छोटे गुरु-बड़े गुरु के रूप में पूजा करते हुए सम्पूर्ण बनारस में दंगल प्रतियोगिता की जाती है।
बनारस में आज दंगल की प्रतियोगिता केवल पट्ठों के बीच ही नहीं, जानवरों में भी व्याप्त है। आए दिन सड़कों पर साँड़ गरजते हुए लड़ते हैं। भैंस, मेढ़ा और पक्षियों का अनोखा दंगल प्रत्येक वर्ष जाड़े में अवश्य होता है। बुलबुल, तीतर और बटेर का भी युद्ध होता है। मकर-संक्रान्ति का पर्व पक्षियों के दंगल का खास दिन है। लोग अपने-अपने पक्षियों का दंगल उस दिन अवश्य कराते हैं। यह दंगल केवल दंगल के लिए नहीं, बाजी लगाकर किये जाते हैं। बनारस ही एक ऐसा नगर है जहाँ इस प्रकार का आयोजन होता है। कजली-विरहा और चनाजोर वालों का, शायरी का दंगल गर्मी के मौसम में होता है। फैन्सी ड्रेस का दंगल तो यहाँ प्रत्येक मेले में देखा जा सकता है।
बहरी अलंग का वास्तविक अर्थ विश्वकोश में क्या है, पता नहीं लेकिन बहरी अलंग की मिट्टी में वह बहार है जो बम्बई की चौपाटी में नहीं, धर्मतल्ला की ब्यूटी में नहीं और न कनाट सरकस की नफासत में है! बनारसियों को अपने इस क्षेत्र पर जितना गर्व है, उतना अपने नगर के प्रति नहीं है। बनारस और बनारसियों का असली रूप देखना हो तो बहरी अलंग अवश्य देखिए। बिना बहरी अलंग देखे आप यह कभी नहीं जान पाइएगा कि बनारसियों को अपने बनारस से इतनी मुहब्बत क्यों है। बहरी अलंग केवल दिल बहलाव का क्षेत्र नहीं, बल्कि अध्यात्म और साधना का क्षेत्र भी है।
बनारस के बड़े-बूढ़ों को जब रंग जमाना होता है तब वे बहरी अलंग के कितने प्रेमी थे, इसका उदाहरण पेश करते हुए कहते हैं - 'जेतना इंडिया निपट के फेंक देहले होब, ओतना तोहार बापौ न देखले होइयन।' बहरी अलंग में जब लोग निपटने जाते हैं तब आबदस्त के लिए मिट्टी की हँड़िया में पानी ले जाते हैं।
तीन लोक से न्यारेपन का सर्टिफिकेट दिलाने में, ‘बहरी अलंग’ का महत्त्वपूर्ण योग रहा है। मर्त्यलोक को मारिये गोली, स्वर्ग तक में बनारस के ‘बहरी अलंग’ की मिसाल नहीं। हमारी सरकार, आधुनिकता और प्लानों के जोश में बहुत-से ऐसे स्थानों को ‘भीतरी’ यानी शहरी रंग दे रही है-बनारसियों के समक्ष निस्सन्देह एक कठिन समस्या है यह!
बनारसी के लिए ‘बहरी अलंग’ का सर्वोपरि महत्त्व है।