तीन / शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
अभागी के जीवन-नाटक का अन्तिम अंक समाप्त हो चला है- जिसका विस्तार अधिक नहीं, सामान्य ही है। जान पड़ता है, तीस वर्ष ही अब तक पार हुए होंगे, या न हुए होंगे। अन्त भी हुआ उसी प्रकार सामान्य भाव से। गांव में कविराज नहीं थे, दूसरे गांव में उनका निवास था। कंगाली जाकर रोया-धोया, हाथ-पांव जोड़े, अन्त में लोटा गिरवी रखकर उन्हें एक रुपये की प्रणामी (सलामी) दी। उस सबका कितना आयोजन करना पड़ा-खरल, मधु, अदरक का सत्व, तुलसी के पत्तों का रस। कंगाली की मां ने लड़के से नाराज होकर कहा-
‘क्यों तू मुझे बिना बताये लोटा गिरवी रखने चला गया, बच्चे ?’
हाथ झुकाकर कई गोलियां लेकर, उन्हें माथे से लगाकर फेंकते हुए उसने कहा-
‘अच्छी होऊंगी तो वैसे ही हो जाऊंगी। बाग्दी-दूलों के घर में अभी भी कोई औषधि खाने से नहीं बचता।’
दो-तीन दिन इसी प्रकार बीत गए। पड़ोसी खबर पाकर देखने के लिए आये। वे जो घरेलू नुस्खे जानते थे-हिरन के सींग का घिसा हुआ पानी, गिट्टी-कौड़ी जलाकर शहद में मिलाकर चटा देना इत्यादि-बिना खर्चे की ओषधियों को बता सब अपने काम से चले गए। बालक कंगाली घबड़ा उठा। मां ने उसे गोद में खींचते हुए कहा-
‘कविराज की गोलियों से कुछ नहीं होता बेटे ! और उन लोगों की ओषधियों से क्या काम चलेगा ? मैं ऐसे ही अच्छी हो जाऊंगी।’
कंगाली ने रोते हुए कहा-
‘तुमने गोलियां खाई ही नहीं मां, चूल्हे में फेंक दीं। ऐसे क्या कोई अच्छा होता है ?’
‘मैं ऐसे ही अच्छी हो जाऊंगी ! अच्छा, देख,-तू थोड़ा-सा भात-वात बनाकर खा ले, मैं भी देखूंगी।’
कंगाली पहली बार अनभ्यस्त हाथों से भात रांधने लगा। न तो वह मांड ही निकाल सका, न अच्छी तरह पसा ही सका। चूल्हा उससे जलता नहीं-उसमें पानी गिर पड़ने से धुआं होता है, भात पसाते समय चारों ओर गिर पड़ता है। मां के नेत्र छलछला आए। उसने स्वयं एक बार उठने की चेष्टा की; परन्तु माथा सीधा न कर सकी, खाट पर ही लुढ़क गई। खाना बन जाने पर बालक को पास बुलाकर, किस प्रकार क्या करना होता है, इसका विधिवत् उपदेश करते समय उसका क्षीण कण्ठ अवरुद्ध हो गया, आंखों से जल की अविरल धारा बहने लगी।
गांव का ईश्वर नाई नाड़ी देखना जानता था। दूसरे दिन सबेरे उसने नाड़ी देखकर उसी के सामने मुंह को गम्भीर बना लिया। कंगाली की मां ने इसका अर्थ समझा; परन्तु उसे भय भी नहीं लगा। सब लोगों के चले जाने पर उसने लड़के से कहा-
‘इस बार एक बार उन्हें बुलाकर ला सकता है बेटे ?’
‘किसे मां ?’
‘उन्हीं को रे-उस गांव में जो चले गये है।’
कंगाली ने समझते हुए भी पूछा-‘पिता को !’
अभागी चुप रह गई।
कंगाली बोला-‘वे आएंगे क्या मां ?’
अभागी को स्वयं भी पूरा सन्देह था, तो भी धीरे-धीरे कहा-‘जाकर कहना-मां केवल आपके पांवों की धूलि चाहती है।’
वह उसी समय जाने को तैयार हो गया। तब उसका हाथ पकड़कर वह बोली-‘थोड़ा-सा रोना-धोना बेटे। कहना-मां जा रही है।’
कुछ ठहरकर बोली,
‘लौटते समय नाइन-भाभी से थोड़ा-सा आलता ले आना कंगाली; मेरा नाम लेते ही वह दे देगी-मुझे बहुत प्यार करती है।’
प्यार उसे बहुत-सी करती हैं। ज्वर होने की अवधि से मां के मुख से इन कई वस्तुओं की बातें इतनी बार, इतनी प्रकार से सुनी हैं कि वह वहां से रोता अपनी यात्रा पर चल दिया।